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में स्थापित है तीनों जगह मैंने पत्र लिखे, परन्तु लगातार इस नाम के ग्रन्थ के उपलब्ध न होने की सूचना मिली। जुलाई १९७८ में मैं पुनः स्थानान्तर की चपेट में आ गया। १६७८ की दशहरा दीपावली के अवकाश में मैंने स्वयं ब्यावर जाने का कार्यक्रम बनाया और इसकी सूचना वहाँ के व्यवस्थापक श्री अरुणकुमार शास्त्री का दी। उन्होंने अपने विस्तृत पत्र मे दोनों पाण्डुलिपियों के विद्यमान होने की सुचना देते हुए लिखा- "हमारे संदर्भ - विवरणों में उक्त ग्रन्थ का नाम रिमिचरिउ' न होकर 'हरिवंशपुराण' अंकित है। विवरण पंजिका की इस अपूर्णता के कारण आपको हर बार ग्रन्थ की अनुपलब्धि की सूचना देता रहा। ग्रन्थ के प्रारम्भ में भी अब हरिवंश पुराण लिख्यते' लिखा है और प्रन्ध प्राकृत भाषा में बतलाया गया है।'
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आवश्यक प्रक्रिया पूरी कर श्री अरुणकुमार शास्त्री ने नवम्बर ७८ में दोनों पाण्डुलिपियों का आधा-आधा भाग भेज दिया। मैं अनुगृहीत हैं- श्री पन्नालाल दिग० जैन सरस्वती भवन की तीनों शाखाओं से सम्बद्ध विद्वानों (सर्वश्री पं० दयाचन्द शास्त्री उज्जैन, श्री श्रीनिवास शास्त्री झालरापाटन श्री अरुणकुमार शास्त्री) का उनके सौजन्यपूर्ण सहयोग के लिए।
तीनों पाण्डुलिपियों में जयपुर वाली प्रति ( ज ) अत्यन्त जीणें है । यदि सरस्वती भवन से उक्त दो पाण्डुलिपि न मिलतीं, तो प्रस्तुत संस्करण के सम्पादन में संदेह बना रहता । यह भी संयोग की बात है कि जब मैं पुष्पदन्त के 'महापुराण' का अनुवाद कर रहा था, तब मेरा स्थानान्तर, इन्दौर से खंडवा हुआ था और अब जब मैंने 'रिट्टणेमिचरित' के सम्पादन में हाथ लगाया तब पुनः स्थानान्तरित होकर खंडदा आया । अन्तर इतना ही है कि पहले इन्दौर से खंडवा सीधे आया था और अब भोपाल होकर आया । सत्ता की राजनीति में स्थानान्तरों की भूमिका नया मोड़ ले चुकी है। खंडवा के इस दूसरे प्रवास (सितम्बर १६७८ से अगस्त १९८ तक ) में मैंने महावीर ट्रेडिंग कम्पनी, पंधाना रोड में रहकर यह खण्ड तैयार किया, इसके लिए मैं हमड़ बन्धुओं का हृदय से आभारी हूँ ।
मैं भारतीय ज्ञानपीठ के अध्यक्ष समादरणीय साहू यांम प्रसादजी का एवं मैनेजिंग ट्रस्टी श्री अशोक कुमार जैन का भी अत्यन्त अनुगृहीत हूँ कि उन्होंने भारतीय ज्ञानपीठ से इसे प्रकाशित करने की स्वीकृति दी। साथ ही, में भाई लक्ष्मीचन्द्रजी का भी अनुगृहीत हूँ, उनकी इस उदारता के लिए। अपभ्रंश साहित्य के प्रकाशन में भारतीय ज्ञानपीठ के माध्यम से साहू परिवार ने जो प्रयत्न किया है वह चिरस्मरणीय और स्तुत्य है। प्राच्य विद्या के शोध अनुसंधान से सम्बन्ध रखनेवाले लोग इसके लिए उनके कृतज्ञ हैं ।
इस अवसर पर मैं जैन तत्त्वज्ञान के ममेश श्रद्धेय पण्डित फूलचन्द्रजी सिद्धान्तशास्त्री और सिद्धान्ताचार्य पं कैलाशचन्द्रजी शास्त्री तथा इतिहासमनीषी डॉ० ज्योतिप्रसाद जैन, लखनऊ के प्रति अपनी कृतज्ञता प्रकट करता हूँ ।
१५-८-१६८० (स्वतन्त्रता दिवस)
--- देवेन्द्र कुमार जैन