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________________ १०० ] धत्तानं णारिश्यणु वष्णुज्जल रूषोहामिय पपसह । प्रणयति ॥ १ ॥ घसा - धवल [सर्यमू एवकए रिट्ठभिचरिए नवजीवन-सोहग्ण-मयंधए । दप्पणवित्तिबंध-विए । घरि पदसंतु ण जोहर व प्रतिपत्ति पाई इसान 12 मण हे भगडकर । ताव ण करमि किपि कम्मतय ॥ एम भणेवि सरोसुगड तेल । fe अत्थाणे अणु जेतहे ॥ भरमा कवि अवग उच्चारणे व सारिउ सम्बेहिं ॥ बल - नारायणेहिं पुणु पुच्छिउ । गुरु एत्तर कालु कहि अछि । क महारिति हरिसुबहंत । आज कुंडल-जयरहो होंत ॥ जं महिमंडले सयले पसिद्ध । ay-ung-gam-afte? || तेत्यु भिष्फु पामेण पहाणउ । परवरिन अमरिंद समाणउ ॥ लछि सो गेहिणि पुसु रुप्पि रुपिणी सणया । गिहि वलड लायष्णहं गुणसोहमहं पारंगया ॥ २ ॥ घसा- वह मानो रंग से उज्ज्वल नागरत्न थी, जिसने रूप से प्रभा के प्रसार को पराजित कर दिया था। नारायण ( श्रीकृष्ण ) रूपी स्वर्ण से विजति वह अवश्य ही अत्यन्त मूल्यवान् ( शोभा युक्त) होगी ॥१॥ नवयौवन और सौभाग्य से मदान्ध तथा दर्पण की चमक में अपने ध्यान को लगानेवाली इस (सत्यभामा) ने वर में प्रवेश करते हुए मुनिवर को नहीं देखा - [ यह सोचकर ) नारद आग की तरह भभक उठे - "जबतक मैं इस दुष्ट के घमण्ड को चूर-चूर नहीं कर दूंगा तबतक कोई दूसरा काम नहीं करूंगा।" यह विचार कर वह वहाँ गये जहाँ जनार्दन दरबार में थे । शरीर प्रमाण दूरी से वे उठ खड़े हुए। सबने उन्हें ऊंचे आसन पर बैठाया। फिर बलभ और नारायण ने पूछा - "हे गुरु, आप इतने समय तक कहां थे?" महर्षि नारद ने हर्ष प्रकट करते हुए कहा. उस कुण्डलपुर नगर से भाया हूं जो समस्त महीमण्डल में प्रसिद्ध है । प्रचुर धम-धान्य और स्वर्ण से समृद्ध है । उसमें भीष्म नाम का प्रमुख राजा है । वह नरेश देवेन्द्र के समान है । पता -- बबल आँखोंवाली उसकी लक्ष्मी नाम की गृहिणी है। उससे रुक्मि पुत्र और रुक्मिणी पुत्री है। वह रूप लावण्य और सौन्दर्य की निधि है तथा गुणों और सौभाग्य के पार पहुँच चुकी है ||२|| १. ज. ब. डुकहो |
SR No.090401
Book TitleRitthnemichariu
Original Sutra AuthorSayambhu
AuthorDevendra Kumar Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1985
Total Pages204
LanguageHindi, Apbhramsa
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size4 MB
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