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________________ १४६] [सयंभूवएरिचिरिए धामणणयगाणंजर ॥ माया- मक्कण बिसि । मर-फुल्लफलपतु विणा सिउ ॥ कोह व अगंगु होषि पुरु मोहा । पायरियायण मणु संखोह ॥ कवि विज्जु कहि मि मित्तउ । safar भूमिवेज अतिउ ।। ताभण सई जिर्णवि उवह गंपि अगास । सच्च अंधरे रख तं चिप्पड़ पाई हुवासने ॥१॥ भोयणु भुजेवि पाणिउं सोसि वि. सहि अतु मंतु अधोसेवि ॥ बुद्धासें इस तह । पण भणु मणोहरु जेतहि ॥ ताम ताए सुनिमिस दिषं । मितियहं जाई उच ॥ कोइल - महर - मनोहर जंपत्र 1 अंबर मरि-फल्लिउ-पक्कड 11 सुक्कवायि असभरिय खतरि । पत्तागम् विठु सिविणंतरि || जाय बुज्ज- पंतु बहिरंघई । रूगमण-सबणच्छि समिद्ध ।। ताम पराउ गयणाणंदणु । खुहावेसे केसव-व || उपवन को माया मर्कट (बन्दर) ने विध्वस्त कर दिया। उसके मौर, फूल, फल तथा प नष्ट कर दिये। कहीं पर वह कामदेव बनकर नगर को मोहित करता है, तथा नगर स्त्रियों के मनों को क्षुब्ध करता है। कहीं पर भवनवासी देव, कहीं पर नैमित्तक और कहीं पर जनेऊ पहने हुए बहुत से ब्राह्मण । चला -- संकड़ों ब्राह्मणों को जीतने के लिए वह अय-आसन पर जाकर बैठ जाता है और सत्यभामा के घर में जो भोजन बनाया गया था उसे जैसे आग में डालने लगता है ॥ १० ॥ भोजन कर और पानी सोखकर तथा वहाँ अनन्त मन्त्र की घोषणा कर क्षुल्लक के देश में उस स्थान पर प्रवेश करता है जहाँ रुक्मिणी का सुन्दर भवन है। उस अवसर पर उसके द्वारा (मणी के द्वारा) अच्छे निपित्त देखे गये, कि जिनका पूर्वकथम ज्योतिषियों ने किया था। कोयल और भी सुन्दर बोली, आम में बौर आ गये, वह फल गया और पक गया । सूखी बावड़ी एक क्षण के भीतर भर गयी। सपने में उसने पुत्र के आगमन को देखा। बौने, लंगड़े, बहरे और अन्धे रूप, गमन, श्रवण और आँखों से समृद्ध हो गये। इतने में नेत्रों को आनन्द देनेवाला केशवपुत्र ( प्रद्युम्न) भूल्लक के रूप में वहाँ पहुँचा और तुरन्त कृष्ण के आसन पर T ·
SR No.090401
Book TitleRitthnemichariu
Original Sutra AuthorSayambhu
AuthorDevendra Kumar Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1985
Total Pages204
LanguageHindi, Apbhramsa
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size4 MB
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