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________________ १२२] [सयंभूएवकए रिटमिपरिए गफमारोवरि मिशण घलह। जस्वयः इव पार-वार सलाह। जागहो ओपरिज कियहो। मुत्ताहल-मालालकियहो।। बीसइ ससंत सिल तामहि । मयरड्य चरमसरोरु जहि ।। सो उवलु छित्तु में चप्पिया। सिस्कंधणमालहे अप्पियउ ।। ण समिच्छिउ साएँ वियस्खण्णऐं। गव-कोमल-कमल-बलखण्णएँ । अहिवायई णयमाणवणहं। जहि पंचसय वरणंदणहं॥ सहि मायहे कवण पतप । सेगमड वेयारमि अप्पणउ ॥ पता-तो कवि कष्णहो कणयबसु सिरिजवरायपट्ट पविउ । इह सामिडं पयहो महारहहो एण पियहे मणु संपविउ ॥६॥ तोमणे परितुट पहिवाई। विष्णिवि णियणयर पट्टाई॥ किर गूडगम्भु अप्पा सुउ। परे मेहकरे याकुहु ॥ परजाणकुमार णाम किया। रुपिणिहरे गं मसाणु णिय' || सा जाम दिउज्मह ताम वि। कपर नहीं चलता. मूर्ख के शब्दों की तरह बार-बार स्खलित होता है। जब यह अपने टेढ़े, मुक्तामालाओं से अलंकृत विमान से उतरा तो उसे वही शिला हिलती (साँस लेने से) हुई दिखायी दी कि जहाँ परमम्नरीरी कामदेव (प्रद्युम्न) था। जिस पत्थर ने उसे पाप रखा था, वह फेंक दिया गया. और शिक्षकंचनमाला को दे दिया। नव कमलदल के समान आँखोंवाली विलक्षण उसने उसे नहीं चाहा । (वह बोली)--जहाँ नेत्रों को आनन्द देनेवाले पाँप सौ श्रेष्ठ पुत्र हों वहाँ इसकी क्या प्रभसत्ता होगी इसलिए मैं इसे अपना नहीं समझती। पत्ता-तब कर्ण कनकदल कर विद्याधर ने बालक को श्री युवराज-पट्ट बाँध दिया, यह प्रजा का और मेरा स्वामी है-इस प्रकार प्रिया के मन को ढांढस बंधाया || मन-ही-मन सन्तुष्ट और प्रसन्न होकर वे दोनों अपने नगर में प्रविष्ट हुए। प्रमछन्न गर्भवाला बालक उत्पन्न हुआ, इससे मेघकट नगर में आनन्द छा गया। बालक का नाम प्रथम्नकुमार रखा गया । रुक्मिणी के घर जैसे मरघट आ गया । वह (रुक्मिणी जयं जागी तो उसने पुत्र नहीं देखा । वह जोर से चीखी---'धनुष और हल करकमल में धारण करने वाले हरि - .. । १. थिय
SR No.090401
Book TitleRitthnemichariu
Original Sutra AuthorSayambhu
AuthorDevendra Kumar Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1985
Total Pages204
LanguageHindi, Apbhramsa
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size4 MB
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