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दिईयोस ]
चाहउ मतमहागबु । कम्पनिलखालि -महि ॥ चलणचारि-चूरिय-भुवंगु । कर बुक्कर - परिषि-पयंगु ॥ मयजल परिमल-मिलियालिषि ।
तोसारिय सुरंग ॥ यिकाय - कंति कसणी - कथासु । मयसलिल- सित्त गत्तावकासु ॥ उम्मूलिय- सिणि- मुणाल सं । -बुर- गिल्लगंडु |
एव वहिरिय-सयल दियंतरालु । सिर- सुपाडिय - गिरि लयालु' ॥ मुह मारय-वस-सोशिय समुदु । गणु वशम् हणणे रउषुषु ॥ उद्धरिलम - भीसण रूवधारि । कलिकाल - कांत-खमाणुकारि ॥
घत्ता---लाहारण इंदु हेलए जि कुमारें परिज किह । धाराहरु रितु खीलेपणु सुबकें मेह जिह ॥ ३॥
तह कासि पाइय विणि जोह । णं संव-दिवायर दिषणसोह ॥ तह एक्कु णवेष्पिणु चव एव [म] ।
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वह मतवाला महागज दौड़ा, जिसने अपने कानों की हवा से श्रेष्ठ पहाड़ों को चलायमान कर दिया है, जिसने चंचल पेरों की चाल से शेषनाग को चूर-चूर कर दिया है; जिसने हाथ के समान सूंड से सूर्य को चूम लिया है। जिसके मदजल के सौरभ से अमर मिले हुए हैं। जिसने अपने मजबूत दाँतों से ऐरावत को खदेड़ दिया है, जिसने अपने शरीर की कान्ति से दिशाओं को काला बना दिया है, जिसने मदजल से शरीर के भाग को सिंचित किया है, जिसने कर्मियों के मृणाल -दण्डों के समूह को उखाड़ दिया है, जो दर्पं से उद्धत और दुर्धर आर्द्र
वाला है, जिसने अपनी गर्जना से समस्त दिगंतराल को बधिर बना दिया है, जिसने सिर की मार से पहाड़ों के बांसों के झुरमुटों को उखाड़ दिया है, जिसने मुख के पवन से समुद्र को सोख लिया है, जो युद्ध में शत्रुगज का निवारण करने वाला भयंकर महागज है, ऐसे भीषण रूप धारण करने वाले कलिकाल कृतांत यम का अनुकरण करने वाले
बला - उस महागज को कुमार वसुदेव ने खेल-खेल में इस प्रकार पकड़ लिया, जैसे बरसते हुए धारावर मेघ को शुक्र ने कीलित करके पकड़ लिया हो ||३||
उस अवसर पर दो योद्धा आये, मानो शोभा देने वाले चन्द्र और सूर्य हों। वहाँ एक ने
१.
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- सिरि बेच्नुपाडिय भीसणस्वचारि । २. अ— सो आरणु गइंदु अर्थात् यह आरण
( आरण्यक ) ।