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[सयंभूएवकए रिटुणेमिरिए
सयंवरिय-लच्छिय। 'जल-चल-णह-सह-संछिय ।। समुरिय पाहहं। छिथिय दूरि भण्णायं ॥ कात्तरिय वेहयं । जगिय-पाण-संवेहयं ॥ धरापरियछत्तयं । लुय धपावलोछत्तयं ॥ गया महोमुह गया। पहरसंगया णिगाया ॥ महारुहिर-रंगिया। पर तुरंगमा रंगिया ।। 'कयाधि रह रहा बहु मणोरहा पो रहा ।। हरिप्पमह विषया।
जउ-णराहिया विद्धृपा ।। घत्ता-रिजुषम्मलग्गगुण कतिया' मोक्षहसावसाण पसरा । असलभियदेह-पयन्तयो तसि व कण्हहो लाग सरा ॥१४॥
हि अवसरे सारंग वि हत्थे । बुद्दम-दाणव-वसण-समस्यें। मुक्कु विभाहिव-सूयकते। सरवर-णियह अणंत अणंते ।। पच्छन्न जवि उपज अण्णे हि।
को गुणवंतु ण लग्गइ कहिं ॥ और सरोवरों से शोभित है, जिसमें स्वामियों का उद्धार किया गया है। जिसमें कवच दर फेक दिया गया है, देह कड़कड़ करके टूट गयी है, जिसमें प्राणों का संदेह हो गया है, जिसमें छत्र धरती पर रख दिए गये हैं, छत्र और ध्वजावलियो काट दी गयी हैं, गज अधोमुख होकर चले गये हैं, प्रहारों से संगत होकर चले गए हैं, महा रक्त से जो रंग गया है, जिसमें शत्रु के घोड़े रंग गये हैं। कभी रथ दूर थे, मनोरथ बहूत थे परंतु रथ नहीं थे; हरिप्रमुख योद्धा जिस में करित हो उठे, जिसमें यादव राजा उखड़ गये।
पत्ता-जो ऋजुधर्म (सीधे धनुष) लगी हुई डोर से खींचे गये थे, मोक्ष (छुटकारा) रूपी फल के अवसान का प्रसार करनेवाले थे ऐसे तीर प्राण रहित देह के प्रयत्न में तपस्वी की तरह कृष्ण को लगे॥१४॥
उस अवसर पर जिसके हाथ में धनुष है, जो दुर्दम दानवों का दलन करने में समर्थ हैं, जो विदर्मराज की पुत्री के कान्त हैं ऐसे अनन्त (श्रीकृष्ण) ने अनन्त तीर समूह छोड़ा। दूसरों के द्वारा
तीर यद्यपि पीछे स्थापित किए जाते हैं, परन्तु कौन गुणवान् कानों से नहीं लगता ? यद्यपि १. अ--जलयलं सरू लच्छिय । २. अ-कियावि एह । ३. प्र-कच्छिया ।
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