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________________ पड़ी होनी सम्भव है। प्राचीन हिन्दी और कन्नड़ में रचित ग्रन्थ भी अनेक हैं। अत: प्रस्तुत ग्रन्थ (हरिवंशपुराण) के सम्पादक ने अपनी प्रस्तावना के पृष्ठ दो पर, प्रस्तुत रचना के अतिरिक्त एक संस्कृत और एक अपभ्रंश रचनामात्र का जो उल्लेख किया है उससे इस विषय पर जैन साहित्य-रचना के सम्बन्ध में भ्रम नहीं होना चाहिए।" उक्त विद्वानों ने 1962 में जैन पुराण-साहित्य के सम्पादन, प्रकाशन और तुलनात्मक अध्ययन की जो आवश्यकता प्रतिपादित की थी, उसमें अभी तक विशेष प्रगति परिलक्षित नहीं हुई है । कोई भी पुराण साहित्य हो वह भारतीय जीवन और संस्कृति का सन्दर्भ ग्रन्थ है, क्योंकि उसमें समा जीवन का प्रतिदिन अंकित होता है, पुरानता के बावजूद उसमें समकालीनता का बोध होता है । यह सच है कि सारा पुराणसाहित्य मौलिक, प्रामाणिक और जीवनबोध से भरपूर नहीं है, फिर भी ऐतिहासिक स्रोत का पता लगाने के लिए चुनी हुई पुराण-कृतियों का, सघन वस्तुनिष्ठ विश्लेषण के साथ, सम्पादन-प्रकाशन पहली और महत्त्वपूर्ण आवश्यकता है। संस्कृत, प्राकृत अथवा अपभ्रंश किसी सम्प्रदाय या प्रदेश की भाषाएं न होकर, एक ही राष्ट्रीय अभिध्यक्ति की माध्यम रही हैं। उन भाषाओं में लिखित पुराण साहित्य का जितना सांस्कृतिक और ऐतिहासिक महत्त्व है, उससे कहीं अधिक उसका भाषिक महत्व है और जब तक हरिवंश पुराण' से सम्बन्धित प्राचीन स्रोतों और साहित्य की प्रतिनिधि रचनाओं का ऐतिहासिक अनुक्रम में अध्ययन नहीं होता. तब तक तथ्य सम्बन्धी मतभेदों का वस्तुनिष्ठ विश्लेषण सम्भव नहीं है । हमके लिए जरूरी है कि आचार्य जिनसेन और गुणभद्र, और स्वयंभू के पूर्ववर्ती हरिवंश साहित्य की खोजकर उसे प्रकाश में लाया जाए। उक्त सामग्री के अभाव में यह कहमा कठिन है कि जिनसेन के हरिवंदापुराण का प्रभाव 'रिट्ठणेमिचरिउ' पर कितना है, या है हो नहीं; या 'रिट्ठणेमिचरिउ' की कथावस्तु, रचना-प्रेरणा और संदर्भ का उपजीव्य क्या है। रिठणेमिवरित : यादवकाण्ड परिदुमिचरिध' (अरिष्टनेमिचरित) का दूसरा नाम 'हरिवंशपुराण' है। अरिष्टनेमि जनों के बाईसवें तीर्थकर है. उनका सम्बन्ध हरिवंस से है। जन्म से लेकर मोक्ष-प्राप्ति तक उनके जीवन की प्रमुख घटनाओं और कार्यों की सही जानकारी के लिए हरिवंश की उत्पत्ति, उसकी प्रमुख शाखाओं और पात्रों के प्रमुख जीवन-कायों का उल्लेख जरूरी है। यही कारण है कि ' रिणेमि चरिउ' का प्रारम्भ यादरकाण्ड से होता है, जिसको संक्षिप्त कथा इस प्रकार है परम्परागत मंगलाचरण, आस्मविनय और हरिवंश के महत्त्व का कथन कर चुकने के बाद, कवि सबके आशीर्वाद से कथा प्रारम्भ करता है । मगधराज श्रेणिक अन्तिम तीर्थंकर महाबीर स्वामी से पूछता है, जिनमत में हरिवंश किस प्रकार है ? दूसरों के मस में यह कथा उल्टी है ।" राजा श्रेणिक के मन में भ्रान्ति है जिसे वह दूर करना चाहता है । ऐतिहासिक दृष्टि से देखा जाए तो हमारे पास यह जानने का कोई प्रमाण नहीं है कि वस्तुत: भगवान महावीर के समय जैन मत और दूसरे मत में हरिवंश की कथा का स्वरूप क्या था । राजा श्रेणिक दूसरे मत की जिस हरिवंश-कया की आलोचना करता है वह वस्तुत: व्यास द्वारा रचित 'महाभारत' की कथा है जो भगवान महावीर के समय लोगों को ज्ञात थी या नहीं यह कहना कठिन है
SR No.090401
Book TitleRitthnemichariu
Original Sutra AuthorSayambhu
AuthorDevendra Kumar Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1985
Total Pages204
LanguageHindi, Apbhramsa
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size4 MB
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