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चउत्यो सम्गो]
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हिय-इञ्छित एम रम्जु करइ ।
पिय पुरु-उवयात ण घोसरइ ।। जसा-कुनमा मामी शाषितमी वेलाय रागण परिगणेवि। विनइ वसुएषहो जिणपयसेवहो कसे गुरुदक्षिण भणेवि ॥५॥
ताहि तेहाकाले तिण्णाणधरु । विणि पारिय-वम्मह-सर पप्तम ।। अबरामर-पुरवर-पदरिसि । अतिमुत्तउ पामें देवरिसि॥ रयणायरगुरुनाभीरिमए। गिदाणघराघर-धोरिमए ।। तव तेएं तवज तावतवणु। णियमूलगुणालंकरियतण ॥ परमागम-विडिए संचरह। महराइरि चरियएं पदसरइ ।। आणंदवाथु'-रममाणियउ। जीवंजस देव-राणियर ।। 'णियणाण-धिणासिय-भषणिसिहे । पाहु रंभवि वाव महरिसिहे ॥ ता तेण वि मगे प्रारुट्ठएण।
बोलिज्जा कंसहो जेट्टएण॥ धत्ता–जीवंजस ण बच्चहि काहं पणचहि, जहि संभव तहि भग्गहि सरण।
____ मग्गहा हिवसहं पुरसरहंसह, प्रायहो पासिउ धू मरण ॥६॥ यह जानता है। अपनी रक्षा करता है और अपने कुमारों का पालन करता है। इस प्रकार मनपाहा राज्य करता है और अपने गुरु के उपकार को नहीं भूलता ।
पत्ता-कुरुवंश में उत्पन्न देवकी, अपनी बहिन के समान समझकर, कंस के द्वारा गुरुदक्षिणा के रूप में जिन चरणों के सेवक वसुदेव को दे दी जाती है ।।५।।
उस अवसर पर जो तीन शान के श्रारी हैं, जिन्होंने कामदेव के तीरों के प्रसार को रोक दिया है, जो अजर-अमर-पुरवर के पथ के प्रदर्शक हैं, ऐसे अतिमुक्तक नाम के देवर्षि समुद्र की गंभीरता और हिमालय को गुरुता, और तप के तेज से सूर्य के ताप को संतप्त कर देनेवाले हैं, जिनका शरीर अपने मूलगुणों से असंकृत है, जो परमागम की दृष्टि से चलते हैं, वह मधुरा नगरी में चर्या के लिए प्रवेश करते हैं। जिन्होंने अपने ज्ञान से संसाररूपी रात्रि का अन्त कर दिया है। ऐसे उन महर्षि को जीवंजसा देवकी के रमण किए गये वस्त्र को रास्ता रोककर दिखाती है । तब इससे कल होकर कंस के बड़े भाई उन मुनि ने कहा
घत्ता---जीवंजसे ! अब तुम नहीं बच सकती, क्यों नाच रही हो ? जहाँ संभव हो वहाँ शरण मांग लो। मगधराज वंश और नगरवररूपी सरोबर के हंस (जरासंध) की मौत इसके (वस्त्र के) हाथ में है ॥६॥ १.म-आणंदबद्ध । २. ज—णियणाम-विणासिय। ३. अ-ति । ४. अ-हिमच तहि ।