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[सयंभूएवकए रिट्टणेमिचरिए त णिसुगंधि भणु समापडिय। णं मरबह पाजासणि पडिय ।। गय पियवा उम्मण दुम्मणिय । गग्गर-सर-मलिय-लोपणिय ॥
कमलिणि हिमपवणेण हइय । यणप्फ वणम मध्य' । तो कसे अमरिसकुखएण। सोहेप व आमिसलुखएण॥ कालेण व कोवाउपणएण। विसहरे परर-विस विण्णएण । जलणेश व जाला-भीसणेण । मेहेण व पतरिय-णीसगेण ॥ 'बक्केण ध मीण-कषण-गएण । पुच्छिय पउमावह-अंगएण ।। परमेसरि दुम्मण काई तुहूं।
विदाणउ दोखइ जेण मुहूं ।। घत्ता-कहिं कहि सोमणि कवणु णियंवणि खेउ जेण उप्पायउ। सो समि-अवलोहट काले धोइज कहिं मरजाइ अघाइट ॥७॥
कालिविसेण अरसंषसुय । पभणा सुसियाणण सुदिपभुय ॥ भो अज्नु गाह फिउ सोहलउ । तो मह उप्पाइन कलमलउ ॥ णं मत्थाइ मलण जलंतु पित।
अइमृत्तएन पाएस किउ ।। __ यह सुनकर जीवंजसा का मन उदास हो गया, मानो सिर पर गाज गिरी हो । उस्कंठित और उदास होकर, वह अपने घर गयी । गद्गद स्वर और बन्द आँखों वाली वह ऐसी लगती जैसे हिमपवन से आहत कमलिनी हो, मानो वनसिंह के द्वारा कुचली गई बनस्पति हो । आमिषलोभी सिंह की तरह, क्रोध से आपूर्ण काल की तरह, प्रचुरविष से निर्मित विषधर की तरह, नव ज्वालाओं से भयंकर आग की तरह, प्रसरित स्वरवाले मेघ की तरह, मीन और शनिराशि में गए हए मंगल की तरह, अमर्ष से भरा हुआ कंस पूछता है--- "हे परमेश्वरी तुम दुःखी क्यों हो, कि जिससे तुम्हारा मुख उदासीन दिखाई देता है!
घसा-हे सीमतनी, बताओ बताओ वह कौन है जिसने तुम्हें खेद पहुंचाया है, पानि के द्वारा दष्ट और काल के द्वारा प्रेरित वह मुझसे आहत हुए विना कहाँ जाएगा?" ___ जिसका मुख सूख गया है और जिसकी भुजाएँ ढीली पड़ गई हैं, ऐशी कालिदीसेना की पुत्री जीवंजसा कहती है- - "हे स्वामी ! आज मैंने अपहास किया था, उससे मुझे व्याकुलता हो गई है, जैसे मेरे मस्तिष्क में आग जल रही हो । अतिमुक्तक ने आदेश दिया है कि १. अ—ण वणवा बणमइ वणमध्य । २. अ---सक्केण ।