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________________ ११६] [सयंभूएवकए रिट्ठणेमिचरिए घसा-साछायई अंगई रुपिणिहे सच्चहे जायई सामलई । णिपंचारियहि को पावद गवि रिसि-अवमाणकम्मझो हलई ॥१॥ तो वासुएव-बलएवं जहि । परिवारज णार आउ तहि ॥ हरि अच्छइ एम कण्णरयणु । वारविक-सपिणह-वयणु ॥ वेगवाहो वाहिण-सेठियह। विजाहरपुर-परिवेठियहे॥ जंधुउरगाहहो जबबहो। पिय जंबुसेण गामेग तहो॥ सुय गंधुमालि सय अंबई। कल-कोइल-कठि-मरालगड ! तो कण्हें दूउ विसज्जियउ। भायर तिपरयण-विवस्जिमा । गियमणे चिताब महमहण । किण्ण किया फाणपाणिग्गहा ।। उपवास हरिवलएव थिय । घरमताराहणं तुरिउ किय॥ पत्ता तो अखिलवेवें तुहिएण विष्णउ महयलगामिणिच । सोराउह-सारंगाउहं-हरियाहिणि-खाग-बाहिगिउ ॥२॥ से गड-महाय-तालय। वेगाहो दाहिणसे हि गय ।। पत्ता-कक्मिणी के अंग सुन्दर कांतिबाले हो गए और सत्यभामा के अंग काले पड़ गए। मुनि के अपमान के कर्म का फल, अपने चरित (आचरण) से कौन नहीं पाता ॥१॥ तब जहा वासुदेव और बलदेव थे, नारद फिर वहाँ आपे और बोले- "हे कृष्ण ! एक विशाल मुख-कमलवाला सुन्दर कन्यारत्न है। विद्याधरों के नगरों से घिरे हुए विजया पर्वत की दक्षिण श्रेणी में अम्बुपुर नगर के स्वामी जम्छु की जम्बुसेना नाम की पत्नी है। उसका पुत्र जम्बुमाली और पुत्री जम्बुवती है जो कोयल के समान स्वरवाली और हंस के समान गतिवाली है । तब श्रीकृष्ण ने अपना दूत भेजा, जो स्त्रीरूपी रत्न के बिना आ गया । मघसूदन अपने मन में सोचते है कि उसने कन्यारत्न का पाणिग्रहण क्यों नहीं किया ? श्रीकृष्ण और बलराम धोनों उपवास करने के लिए बैठ गये और उन्होंने तुरन्त श्रेष्ठमन्त्र (णमोकार मन्त्र) का आराधन किया। घसा-तम यक्षदेव ने सन्तुष्ट होकर आकाशतलगामिनी, सिंहबाहिमी और सङ्गवाहिनी विद्याएँ श्रीकृष्ण और बलराम को प्रदान की।।२।। धे गरुड़ध्वज फोर सासध्वजयाले (श्रीकृष्ण-बलराम) विजया पर्वत की दक्षिण श्रेणी में १.4-सुंदारविंद सुन्दर-बयणु।
SR No.090401
Book TitleRitthnemichariu
Original Sutra AuthorSayambhu
AuthorDevendra Kumar Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1985
Total Pages204
LanguageHindi, Apbhramsa
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size4 MB
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