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________________ [१३५ एयरहमी सग्गो] बावरमि जेण अरिएण सहूं। पश्चुत्तर दिण्या कबहु करिवि। विश्माहरणाह विज त्रिवि !! गिय मंड तेण तुह गंदणेण। आसंकिउ गरवइणियमणेग ॥ पुषणक्खए पुण्ण-विधज्जियउ। विजउ कि ण होलि सहेजियउ॥ घत्ता --- अहवार रपे णिव संताहो फेसरिहो कवण सहिजउ । छुनु धीरत्तणु सुपुरुसहो भुयदंड नि होति सहिज्जर ॥१२॥ विजाहरणाहु एम भषेवि । पिय-जीउ तिणयसमाण गणेवि !! अबसंसु सेण्णु सण्णहाय गउ । जहि दुम्मह चम्म लबजउ । ते भिडिय परोप्पच दुश्विसह । गं गयणहो णिवडिय कूरगह् ।। णं उद्धसुंध सुरमत्त गया। पं हरि दशिय-मरणभया॥ णं सलील-पगजिमय पलययण । जं फणिमणि विफारिय-फारफण ॥ पहरंति अणेयहि आउहहि । पिसुहिं व परविंधण भुहि ॥ विहि एक्क वि जिज्जइ जिणइधि । अम धणय पुरंदर सोम रवि ॥ वोल्लंति परोप्पर गयणे थिय । - - .. . --------- .-....-- -. -.- - - के साथ लड़ सकूँ।" उसने कपटकर उत्तर दिया, "हे विद्याधर स्वामी, तुम्हारे उस पुत्र ने विद्या बलपूर्वक छीनकर ले ली है।" राजा अपने मन में आशंकित हो उठा कि पुण्य का क्षय होने पर मैं पुण्यविहीन हूँ। बिद्याएं भी तब सहायक नहीं होती। असा अथवा मन में निवास करने वाले सिंह का कौन सहायक होता है ? धीरज और भुजदण्ड ही सत्पुरुष के सहायक होते हैं ।।१२।। विद्याधर-स्वामी यह कहकर, अपना जीवन तिनके के बराबर समझकर, समूची सेना तैयार कर यहाँ गया जहाँ विजय प्राप्त करनेवाला कामदेव था । असह्य वे दोनों आपस में लड़ने लगे। मानो आकाश से दो क्रूर ग्रह गिरे हों, मानो देवों के सूह उठाए हुए मसवाले हाथी हों, जिन्होंने मृत्युभय दूर से छोड़ दिया है ऐसे सिंह हों, मानो लीलापूर्वक गरजते हुए प्रनयमेव हों, मानो अपने विस्तृत फन फैलाए हए फणमणि हों । वे, दुष्ट की तरह जिनके मुख दूसरों को काटनेवाले हैं, अनेक हथियारों से प्रहार करते हैं। दोनों में से, न तो एक जीता जाता है, और न जीतता है। यम, धनद, देवेन्द्र, सोम और रवि आकाश पर स्थित होफर कहते हैं, "पुत्र और
SR No.090401
Book TitleRitthnemichariu
Original Sutra AuthorSayambhu
AuthorDevendra Kumar Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1985
Total Pages204
LanguageHindi, Apbhramsa
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size4 MB
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