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________________ मिलतीं, तो पायद रिट्ठणेमिपरिउ' का सम्पादन, प्रकाशन संभव ही नहीं होता। दोनों पाण्डुलिपियाँ किन्हीं दो प्राचीन पाण्डुलिपियों की प्रतिलिपियां हैं जो बहुत अधिक प्राचीन नहीं हैं । लगता है सरस्वती-भवन के व्यवस्थापकों को अपने मंडार में 'हिणेमिचरित' जैसे महाकाव्य का अभाव खटका होगा और उन्होंने किाहीं प्राचीन पाण्डुलिपियों के आधार पर उक्त प्रतिया तयार करायी होंगी । दोनों प्रतियों के प्रारम्भिक मिलान से यह स्पष्ट हो जाता है, फि ये दोनों भिन्न-भिन्न पाण्डुलिपियों से प्रतिलिगि की गई हैं। लिपिकार भी अलग-अलग हैं। दोनों अपभ्रंशभाषा की रचना प्रक्रिया से अपरिचित हैं । अतः प्रतिलेखन में अशुद्धियां और भूलें होना स्वाभाविक है। परन्तु इससे एक लाभ यह हुआ वि. कम-से-कम पाठ-संशोधन और मूलपाठ की प्रामाणिकता की जांच करने में पर्याप्त सहायता मिली । प्रस्तुत यादवकाण्ड का सम्पादन करते समय मुझे दृढ़ विश्वास हो गया है कि व्यावर वाली दोनों प्रतियों में 'अ' प्रति का आधार 'ज' प्रति है। अभी तक मुझे तीनों स्थानों से सम्पूर्ण ग्रन्थ का आधा भाग ही सम्पादन के लिए मिला है । सम्पादन कर इमे लोटाने के बाद दूसरा आधा भाग मिलेगा, ऐसा वचन दिया गया । अतः में यह कहने की स्थिति में नहीं हूँ कि न्यावर की प्रति का आधार 'ज' प्रति ही है। परन्तु यह निश्चित है कि बह जिस भी प्रति के आधार पर संयार की गई हो, 'ज' प्रति के अधिक निकट है । पाठकों को यह तथ्य पटान्तरों के मिलान से स्वत: स्पष्ट हो जाएगा जहाँ तक 'ब' प्रति के आधार का सम्बन्ध है, वह निश्चित रूप से 'ज' प्रति से भिन्न है । इस प्रकार, मुख्यत: सीन पाण्डुलिपियों के स्थान पर दो ही पाण्डुलिपियां माननी पाहिए। ऐसा है भी। परन्तु कभी-कभी ब्यावर की 'अ' प्रति के कुछ पाठ, वर्तनी आदि बातें 'ज' प्रति से भिन्न हैं और व्यायर की 'ब' प्रति से मिलती हैं। अतः सम्पादन में उसके महत्व को भी कम नहीं किया जा सकता, खासकर अपना जैसी लचीली झापा में लिखित रचना के सम्पादन में । ___महाकवि स्वयंभू के इस बृहद् ग्रन्थ 'रिट्ठणेमिचरिउ' में ११२ सर्ग हैं। इसमें तीन काण्ड है-यादव, कुरु और युद्ध । पादरकाण्ड में १३, कुरु में १६ और युद्ध में ६० सर्ग है। सर्ग की यह गणना युद्धकाण्ड के अन्त में अंकित है। यह भी बताया गया है कि प्रत्येक काण्ड कब लिखा गया और उसकी रचना में कितना समय लगा। प्रस्तुत पुस्तक मात्र 'यादवकाण्ड' से सम्बन्धित है (शेष दोनों खण्ड अगले भागों में क्रमशः प्रकाशित होंगे)। यादव-काण्ड इस रचना का सबसे पहला और छोटा है। आलोच्य संस्करण 'ज' प्रति को आधार मानकर चला है, क्योंकि वह अपेक्षाकृत प्राचीन है, वह पहले प्राप्त हुई है, तथा दूसरी (ग्यावर) प्रति भी उससे मिलती-जुलती है । 'ज' प्रति के पाठों को जहाँ काथ्य संदर्भ और व्याकरण की दृष्टि से उपयुक्त नहीं समझा गया, वहीं दूसरी प्रलियों के पाठों को मूल में रखते हुए, अन्य प्रतियों के पाठ नीचे फुटनोट में दे दिये गये हैं सया प्रतियों का उल्लेख भी कर दिया गया है। पाण्डुलिपियों के विषय में निम्नलिखित संकेतों का उपयोग किया गया है 'ज'-अयपुर प्रति। –ब्यावर की प्रसि (जो जयपुर की प्रति से मिलती है।) 'छ'---प्रति (जिसबा आधार 'ज' प्रति से भिन्न कोई अन्य प्रति है)। इसमें सन्देह नहीं है कि मालोच्य साहित्य का विपुल भण्डार है । है पर एक ऐसे अल्पसंख्यक समाज के संरक्षण में जो मुख्यतः व्यवसाय से सम्बद्ध रहा है । फिर भी
SR No.090401
Book TitleRitthnemichariu
Original Sutra AuthorSayambhu
AuthorDevendra Kumar Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1985
Total Pages204
LanguageHindi, Apbhramsa
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size4 MB
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