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उसने तीर्थंकरों की वाणी को (चाहे यह किसी भी भाषा में हो) आध्यात्मिक मूल्यों की अमूल्य धरोहर के रूप में सुरक्षित रखना अपना पवित्र कर्त्तव्य समझा। संयोग से उनके पास ऐसे विद्वान् नहीं थे जो बृहत्तर भारतीय भाषा और साहित्य के संदर्भ में उसका वस्तुनिष्ठ अध्ययन करते और बताते कि आलोच्य भाषा और साहित्य केवल साम्प्रदायिक साहित्य नहीं है, बल्कि देश की मुख्यधारा से जड़ा हुआ साहित्य है। वह एक ऐसी भाषा में है जहाँ आर्यभाषा एक से अनेक बनने की प्रसववेदना से व्याकुल हो उठी थी, राजनैतिक सत्ता के बिखराव और भौगोलिक इकों के ध्रुवीकरण के कारण जनमानस और जनव्यवहार में अनेक भाषाएं कल रही थीं। इस प्रक्रिया के नमूने इस भाषा में सुरक्षित हैं। वैसे भाषा-परिवर्तन के बीज उसकी उत्पादन प्रक्रिया में हो रहते हैं, तभी भाष्यकार पंतजलि ने कहा था "एकैकस्य शब्दस्य बहवोऽ पणा" (एक-एक शब्द के बहुत से अपभ्रंश होते हैं) । परिवर्तन की यह प्रवृत्ति आलोच्यकाल में भी सक्रिय थी। इतना ही नहीं, भाष्यकार के समय जो परिवर्तन एक शब्द को अनेक शब्दों में काल रहा था, आगे चलकर उसने एक से अनेक भाषाओं को मूर्त रूप दे दिया । भाषा सम्बन्धी परिवर्तन की इस प्रक्रिया के नमूने दिस पापा में सुरक्षित है वह है जिन्होंने सुरक्षित रखा, ये है जैन कवि वे कोई भी जैन हों, दिगम्बर या श्वेताम्बर अथवा उत्तर भारतीय या दक्षिण भारतीय, उन्होंने जहाँ स्थानीय बोलियों के साहित्य को सुरक्षित रखा, वहीं दूसरी ओर मुख्यधारा की भाषा के साहित्य को भी अंगीकार कर विपुल साहित्य रचा। यह सत्य है कि नदी से नदी नहीं निकलती पर नहर तो निकाली जा सकती है। लेकिन आर्यभाषा एक ऐसी नदी है जिससे कई नदियाँ निकलीं और वह उन्हें प्राण ही नहीं देती, आकार भी देती है। इस देश में ऐसे भी लोग रहे हैं जो भाषारूपी मुख्य नदी के साथ उसकी धाराओं के साहित्य को भी बिना किसी लौकिक स्वार्थ के सुरक्षित रखते रहे हैं। ऐसे लोगों में जैन भी हैं। जैन एक सम्प्रदाय है । सम्प्रदाय का मूल अर्थ है, जो सम्यक् प्रकार ( भली भाँति ) प्रदान करे। किसी आध्यात्मिक सद्-विचार की व्यवहार की दृष्टि से युक्तियुक्त बनाकर आचरण में ढालकर संगठित होनेवाला मानव समाज सम्प्रदाय कहलाता है । मनुष्य सामूहिक प्राणी है, इसलिए उसमें समूह होंगे ही। अपनी स्थिति, सामाजिक रीति नीति और धार्मिक मान्यताओं के अनुसार समूह बनाने और तोड़ने की स्वतन्त्रता उसे है । बनाने और मिटाने की यह प्रक्रिया सहज है, और इसी में से व्यापक या बृहतर संस्कृति का विकास होता है। अतः सम्प्रदाय में रहना बुरा नहीं है, साम्प्रदायिक होना बुरा है। इससे सिद्ध है कि अपभ्रंश जनों की ही भाषा नहीं थी । यह कहना भी गलत है कि संस्कृत ब्राह्मणों को ही भाषा थी या पालि बौद्धों की प्राकृत भी किसी एक सम्प्रदाय की भाषा नहीं थी । भाषाएं सम्प्रदायों की नहीं, जनता को होती है आरम्भ में ब्राह्मण ब्रह्मविद्या के अगुआ थे । वे विचारों की स्थिरता के साथ, भाषा की स्थिरता के पक्ष में थे। लेकिन विचार भी आगे बढ़ना है और उसे अभिव्यक्ति देनेवाली भाषा भी आगे बढ़ती है। उसके आधार पर मुख्यधारा से जुड़े रहकर नये समूह बनते हैं, साहित्य बनता है, उसे सुरक्षित रखने की व्यवस्था की जाती है, जो एक दूसरे को प्रभावित करते हैं। यह श्रेय जैन समाज को है। उसने संस्कृत के साथ प्राकृत, अपभ्रंश और परवर्ती प्रान्तीय भाषाओं के सृजन को न केवल प्रेरणा देकर महत्त्व प्रदान किया, प्रत्युत उसे सुरक्षित भी रखा ।
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बृहत्तर भारतीय संस्कृति और उसके गतिशील मूल्यों का समग्रतर अध्ययन उक्त तीनों भाषाओं के साहित्य के अध्ययन के बिना संभव नहीं है। यदि नवीं और बसवी सदी में स्वयंभू