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________________ प्राक्कथन ' रिणेमिचरित' (अरिष्टनेमिचरित) महाकवि स्वयंभू का दूसरा अपभ्रंश काव्यग्रन्थ है। संस्कृत में इसका नाम 'हरिवंशपुराण' है । इसका मूल और मुख्य कथानक महाभारत के कथानक के समानान्तर है जिसमें घटनाओं, पात्रों, चरित्रों और प्रसंगों में उल्लेखनीय साम्यवैषम्य है। कवि के पहले मान्य-ग्रन्ग मरित' (पल्पनपिन के सम्पादन का श्रेय डॉ. एच. सी. भायाणी को है । १९५४ में मैंने उसका हिन्दी अनुवाद किया था, जो कई उलझनों को पारकर, भारतीय ज्ञानपीठ द्वारा पाँच खण्डों में प्रकाशित हुआ है। 'पउमचरिर' की तरह 'रिद्रणेमि चरिउ' स्वयंभू की महत्त्वपूर्ण कृति तो है ही, साथ ही वह भारतीय कृष्ण-काव्यधारा की भी महत्त्वपूर्ण कायरमना है.--ऐसी रचना जो कृष्ण काव्यपरम्परा के ऐतिहासिक और बैज्ञानिक अध्ययन के लिए अनिवार्य है। पता नहीं, अभी तक किसी ने इतने महत्त्वपूर्ण काव्य-ग्रन्थ के सम्पादन-प्रकाशन की दिशा में पहल क्यों नहीं की। अवश्य हो, जर्मन विद्वान् डॉ. लुडविग आल्लडोर्फ ने पुष्पदन्त के महापुराण के अन्तर्गत उत्सरपुराण के एक खण्ड का (जो १ से श्वी संधि तक है और जिसमें बाईसवें तीर्थंकर नेमिनाय की सीर्थकर-प्रकृति के बन्ध से लेकर उनके निर्वाणगमन तक का चरिरा आता है, उसमें कृष्ण का चरित भी है) सम्पादन किया जो जर्मनी में ही प्रकाशित हुआ। लेकिन 'महापुराण' स्वयंभू के बाद की रचना है और उसके रचयिता अपभ्रंश के महाकवि पुष्पदन्त हैं। उसकी तुलना में रिट्ठमिचरित' में कथा का विस्तार है। फिर भी, इसका अभी तक प्रकाशन संभव नहीं हो सका। ___रिठणेमिचरित' का प्रस्तुत संस्करण उपसम्म तीन प्रतियों के आधार पर तैयार किया गया है। इसमें पहली प्रति जयपुर से डॉ० कस्तूरचन्द कासलीवाल के सौजन्य से प्राप्त हुई। यह प्रति शेष दो प्रतियों की तुलना में प्राचीन और कलात्मक है। शास्त्राकार पन्नों में लिखित है । अक्षर मोटे हैं और प्रत्येक पृष्ठ के बीचों-बीच कुछ स्थान खाली छोड़ा गया है। इसमें कल ५०८ पन्ने है यानी १०१६ पृष्ठ । पुरानी होने से पन्ने जीर्ण-शीर्ण हैं । कहीं-कहीं पक्तियों की पंक्तियाँ कट गयी हैं, बीच में नाक्य या शब्द गायब हैं। उनमें पूर्वापर सम्बन्ध बैठाना बहुत कठिन काम है । सुविधा के लिए इस प्रति को हम 'जमपुर' से प्राप्त होने के कारण 'ज' प्रति कहेंगे। _शेष दोनों पाण्डुलिपियाँ स्व० ऐलक पन्नालाल सरस्वती भण्डार की क्यावर शाखा से उपलब्ध हुई । 'जयपुर' प्रति की तरह इन प्रतियों को उपलब्धि की कहानी मनोरंजक और समयसाध्य सिद्ध हुई जिसका परिचय यहाँ देना संभव नहीं है। बहरहाल यही बताना पर्याप्त है कि इन पाण्डुलिपियों के कारण आलोच्य ग्रन्थ के सम्पादन को वैज्ञानिक, प्रामाणिक और अधिक-से-अधिक शुद्ध बनाना सम्भव हो सका । सच तो यह है कि यदि ये पाण्डुलिपियों नहीं
SR No.090401
Book TitleRitthnemichariu
Original Sutra AuthorSayambhu
AuthorDevendra Kumar Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1985
Total Pages204
LanguageHindi, Apbhramsa
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size4 MB
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