________________
एक साहसिक (डाक थे। उनके लिए नर-हत्या करने में संकोच करने का प्रश्न ही नहीं था । अपने जीवन में भोगे गए सत्य (करता) से वह जितने परिचित थे, उतना परिचित उनसे दूसरा कोन हो सकता है ? उस मृगयाजीवी ग्रुग में क्रौंचवध जैमी घटना सामान्य घटना थी । उसे देखकर विचलित होने का प्रश्न ही नहीं उठता। मेरे विचार में आदि कवि साक्षर ही नहीं, शिक्षित भी रहे होंगे। यह कहना भी बहुत कठिन है कि वे सचमुच डाक थे या उनके दस्युजीवन और कविजीवन के बीच कितना अन्तराल था। जो भी हो, परन्तु इतना तो सच है कि आदिकवि को काव्य-सृजन की मूल प्रेरणा झाँचवष के दर्शन से उस समय मिली होगी जब मादा काँच की काम-मोहित अतृप्त पीड़ा को अनुभूति उन्हें हुई होगी। अनुभूति होने को' अनुक्रिया है । "भव' 'भूति' 'भूत' आवि शब्द 'मू' धातु से बने शब्द हैं जिनका अर्थ है घटित होना । दृश्य जगत् में किसी होने (घटित होने) की प्रतीति जब मन को होती है तो वह अनुभूति का रूप ले लेती है। अनुभूति के लिए भाषा भी चाहिए, क्योंकि अनुभूति मन की क्रिया है जो भाषा के बिना संभव नहीं है । कवि कल्पना के द्वारा जब अनुभूत सत्य की पुनर्रचना करता है और उसे अभिव्यक्ति देता है, तो यह कविता का रूप ले लेता है । आदिकवि की अनुभूति पुनर्रचित स्थिति में कौंच के यथार्थ तक सीमित नहीं रहती, अपितु देश कालव्यापी यथार्थों से जुड़ जाती है । भोगा हुआ सत्य, चाहे अपना हो या दूसरे का दृष्ट, कल्पना में पुनर्रचित होकर सबका सत्य बन जाता है । निषाद सामान्य स्थिति में नर-मादा में से किसी एक को मारता तो शायद उतनी बुरी बात नहीं थी, (हालांकि मारना बरी बात तो है ही) परम्सु रराने नर-मादा में से एक को उस समय मारा जब दे काममोहित थे। प्राणी मात्र की इच्छाओं के मूल में काम है। कामतृप्ति का सुख सर्वोत्तम इसलिए माना गया है कि उसका सम्बन्ध प्रजनन से है । सक्रिय काम-वेदना की अतृप्ति में मावा छटपटा रही है और आहत नर-पक्षी खून से लथपथ मृत पड़ा है। इस प्रकार निषाद की क्रूरता सृष्टि के भावी विकास के लिए विराम-चिल्ल बन जाती है। और यही आदिकवि अपनी अनुभूति की पुनर्रचना में दूसरी अनुभूतियों से जुड़ते हैं। उनके प्रातिभज्ञान में निषाद रावण बनकर उभरता है, मादा सीता का रूप ग्रहण करती है। रावण सीता का अपहरण उस समय करता है जब यह राम के प्रति समग्रभाव से समर्पित थी। रावण का अहं एक व्यवस्था को ही नहीं तोड़ रहा था, अपितु एक बसी हुई गृहस्थी को भी उजाड़ रहा था। राम मर्यादित कामवाली सस्कृति के पुरस्कर्ता थे, रावण अमर्यादित काम-संस्कृति का प्रतीक था । जब आदिकषि ने कोचवध देखा, तब उनके समकालीन यथार्थ में शीता-अपहरण की घटना घट चुकी थी। उसको कसक उनके मन में थी। क्रौंचवध के दृश्य ने दो अनुभूतियों को जोड़ दिया। मादा क्रौंच का शोक कवि का बोझ बन गया जो सीता की वेदना से जुड़कर मानवीकरण में परिवर्तित हो गया, फिर वह एक छन्द के बजाय समूचे महाकाव्य में ढल गया ! कुछ लोग यविता के अन्त होने के काल्पनिक संकट से खिन्न और भयभीत हैं। उन्हें लगता है कि समाज को कविता की भाषा की जरूरत है । पर प्रश्न है कि जब कविता नहीं जन्मो भी और भाषा बनने में थी, तब किसने उसे जन्म दिया था। आज भी क्रूरताएं हैं । सभ्यता के विकास के साथ उनका रूप बदला है, उनकी मूल प्रवृत्तियाँ नहीं। एक स्थापित समाज-व्यवस्था में जैसे-जैसे क्रूरताएं मंडराने लगती हैं, उसकी प्रतिक्रिया एक ओर समाज-स्तर पर होती है तो दूसरी ओर भावना के स्तर पर । कषिता का जन्म महीं होता है। उसमें या तो प्रतीक बदलते हैं या प्रतीकों के अर्थ ।