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पूर्वबंर के कारण सुदर्शन नामक यक्ष मुनि पर उपसर्ग करता है। उपद्रव शान्त होने पर मुनि धर्मोदेश देते हैं। उनसे अपने पूर्व एव सुनकर अंधकवृष्णि और नरपतिवृष्णि जिनदीक्षा ग्रहण कर लेते हैं। समुद्रविजय शरिर की बागडोर संभाल लेते हैं और उग्रसेन मथुरा की। अंधकवृष्णि के सबसे छोटे पुत्र वसुदेव के सौन्दर्य की नगर की स्त्रियों पर व्यापक प्रतिक्रिया होती है। नागरिकों की विपत पर जानकी ने घर में ही खेलने के लिए कहते हैं। वसुदेव भाई की बात मान लेते हैं। लेकिन उबटन ले जाती हुई घाय से सही बात जानकर वह अपने एक अनुचर के साथ घोड़े पर बैठकर चुपचाप घर से निकल जाते हैं । यहाँ से वसुदेव की रोमांचक और साहसी यात्राएँ शुरू होती हैं। मरघट में पहुँचकर वह सहचर को दूर खड़ा करते हैं तथा सारे आभूषण चिंता में डालकर घोड़े की पीठ पर पत्र बाँधकर चले जाते हैं। सहचर घर जाकर इसकी सूचना देता है। घर के लोग आकर पत्र और गहनों को देखकर निश्चय कर लेते हैं कि सचमुच वसुदेव की मृत्यु हो गयी । नेक लीलाओं और यात्राओं में सफलता सने के बाद, जिस समय वसुदेव अरिष्टनगर में रोहिणी के स्वयंवर में भाग लेते हैं, उस समय उसके साथ कई सुन्दर युवतियाँ थीं और वह सात सौ नाल पूरे कर चुका था। रोहिणी पटह-वादक के रूप में उपस्थित वसुदेव के गले में वरमाला डाल देती है ? यह देखकर कुलीनता का दावा करनेवाला सामन्तवर्ग भड़क उठता है। समुद्रविजय और वसुदेव की नाटकीय ढंग से भेंट होती है। इस प्रसंग भिड़ंत होती है । अन्त में वसुदेव का रोहिणी से विवाह हो जाता है ।
घमासान लड़ाई के बाद, में उसकी जरासंघ से भी
वसुदेव शौर्यपुर में धूमधाम से प्रवेश करते हैं। कालान्तर में रोहिणी से बलराम का जन्म होता है । वसुदेव धनुर्वेद विद्या के आचार्य भी हैं। कंस उनकी शिष्यता ग्रहण करता है । गुरु-शिष्य में खूब पटती है। इस बीच मगधनरेश जरासंघ घोषणा करता है कि जो सिंहरथ को बाँधकर लाएगा, उसे मनचाहा राज्य और कन्या दी जाएगी। गुरु-शिष्य जाकर सिंहरथ को बंधकर ले आते हैं । सुदेव जरासंध से कहते हैं कि कंस ने सिंहरथ को पकड़ा है अतः कन्या उसे दी जाए। यह विश्वास हो जाने पर कि कंस कुलीन है, जरासंध उसे अपनी कन्या जीवंजसा के साथ मथुरा देश दे देता है। मथुरा का राज्य मिलते ही कंस अपने माता-पिता उग्रसेन और पद्मावती को बन्दी बना लेता है । पश्चात् वह शौर्मपुर से गुरु वसुदेव को बुलाकर अपनी चचेरी बहन देवकी का विवाह उनसे कर देता है। वे दोनों मथुरा में ही रहने लगते हैं।
एक दिन जीवजसा देवकी का रमण वस्त्र मुनि यतिमुक्तक को दिखाती है। मुनि कुपित होकर कहते हैं- तुम्हारे पिता (भगधराज ) की मृत्यु इसके पास है। जीवंजसा डर जाती है । वह सारा वृतान्त अपने पति कंस को सुनाती है । वह वसुदेव से यह प्रतिज्ञा करा लेता है कि 'देवकी के गर्भ से जो भी पुत्र होगा, उसे मैं चट्टान पर पछाड़ेगा ।' उन्हें 'ह' कहने के सिवाय दूसरा कोई चारा नहीं रहता । जैन मुनि अतिमुक्त वसुदेव-दम्पती को अश्वस्त करते हैं कि उनके पहले छह पुत्र चरमदारीरी हैं, उनका पालन अन्यत्र होगा। सात पुत्र नारायण के हाथों दोनों (कंस और जरासंघ ) की मृत्यु होगी । दोनों निश्चिन्त हो जाते हैं। वसुदेव-दम्पती के एक-एक कर छह पुत्र उत्पन्न होते हैं, जिन्हें कंस के हवाले कर दिया जाता है। ये नैगमदेव के द्वारा बचा लिये जाते हैं ।
अनन्तर देवकी की यशोदा से भेंट होती है। दोनों गर्भवती हैं। यशोदा प्रस्ताव करती है कि वह देवकी के बच्चे का पालन करेगी और उसके बच्चे का देवकी । देवकी इसे स्वीकार