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________________ Sankat ...... . .. [सयंभूएवकए रिटुमिचरिए घता—मेरु-मस्थए उविउ भतारउ पिंड तमतिमिरणियारउ । खोरसमुह होइ पिसाइउ गं अहिसेयपडायज लाइज ॥८॥ अकालिए महाभार पडिसई तिहुयण-भवणतूर ॥ वुमदुम-धुर्मति कुहिषमालु। घुमघुमघुमंत मुक्तालु॥ शिनिकरति सिरि-जिणाज। सिमि-सिमि-सिमंत-मल्लरि-णिणाउ | सलसलसलंत-कंसालजुयलु । गुंगुंजमाणु गुजंतु मुहलु ।। कणकणकर्णत-कणकणइकोस् । समडम-उमराज मरुवणि-णियोस । बों-वों-वो-दोंत मद-पावतु। श्रां-त्रां-परिछित्त-क्क-सद्द ।। रंटत-दिषलु इंडत-डुक्कु भभंत-भंभु दांत-वृक्कु॥ अबराह मि ह्याई विचिताई। हिसेयकाले वाइत्ताई॥ धत्ता-कोडाकोडि तूररव-भरियड जद तिवायवलएण ण धरियछ। तो सहसुद्धमाए सम्बोयरु तिहुमण जंतु आसि सयसक्कर ।।६।। पत्ता–तमतिमिर का निवारण करनेवाले तेज शरीरवाले आदरणीय जिनदेव को सुमेह पर्वत के मस्तिष्क पर स्थापित कर दिया गया । वे ऐसे लक्षित हुए मानो झीर समुद्र की भांति अभिषेक की पताका या ध्वजा हो ।१८।। अभिषेक प्रारम्भ होने का नगाड़ा बजा दिया गया। उसकी प्रतिध्वनि से त्रिभुवन गंज उठा। दुंदुभि का शब्द दुम-दुम करता है, सिक्करी बार का निनाद किं-मि करता है, मल्लरि शम्द से सिमि-सिमि ध्वनित होता है, दोनों कंसाल सल-सल करते हैं, शंख मूं-गू करता हुआ गूंजता है, कोश कण-कण करता हुआ कणणाता है, मरुवणि का घोष उम-छम करता है । मयंग दो-दो-दोस शाब्द करता है । हुइक्क का शब्द वां-त्रां के रूप में परिलक्षित है। तबला ट-टं करता है और डुक्क रडत करता है । भेरी भमंत करता है, नगाड़ा ढं-हं शब्द करता है । और भी दूसरे वाय अभिषेक के समय बजाए गये । ____घता--करोड़ों तूर्यों के शब्द से भरा हुआ, जिसके भीतर सबकुछ है ऐसा त्रिभुवन यदि त्रिवातबलय के द्वारा धारण नहीं किया जाता, तो शंख की ऊँची आवाज के द्वारा सो टुकड़ों में होकर रहता ॥६॥ 1. झिझि करति सिकरि-णिणाउ।' यह पंक्ति 'अ' प्रति में नहीं है।
SR No.090401
Book TitleRitthnemichariu
Original Sutra AuthorSayambhu
AuthorDevendra Kumar Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1985
Total Pages204
LanguageHindi, Apbhramsa
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size4 MB
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