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________________ [६५. अटुमो सम्गो] अहिसेय-कलस हरिसियमहि । उच्चाइय बससहसहि जणेहि ॥ सश्व-सिहि-वयवस-णिसियहि । परुणाणिल वसुबह गीसरेहि ॥ परणिचंद-णामक्रिएहि । मणिकंशल-मालकिएहि ॥ अवरोहि मि अवर महाविसाल। अट्ठजोषणमंतराल । जोयणेश्केक पमाणगीवक । संचारिम खोरमहोबहीव ॥ अट्टोत्तरकलस-सहास एवं । उच्चाएपिण्हवण करत देव । ससिकोटि-समप्पह-खीरधार। आमेल्लिय सम्वेहि एकवार ॥ गिरिमेसिहर रेल्लंतु षाड्न : संचारिम सायरवेलणाद ।। पत्ता--पहाई णा व्हावेइ पुरंदरु, उहि अणिद्वउ बियडर मंदछ। सुरवण-खोच वहंतु प थक्कड़, तहि अहिसेउ को बणिविसका ॥१०॥ अहिसिंचिउ एम तिलोयणाह। सक्कंदणु होएप्पिणु सहसबाहु संतेउरु सामरु सट्टहासु। उखेल्लाह अग्गव जिणवरास॥ गच्चंतहो गयणालि विहाइ । हर्षित मनवाले दस हजार देवों, इन्द्र, अग्नि, अम, निशाचर, वरुण, पवन, कुबेर, नरेश, घरणेन्द्र और चन्द्र के नाम से अंकित मणिकुंडलों और मुकुटों से अलकृप्त दूसरे देवों ने अभिषेक के कालवा उठा लिये। दूसरे बड़े बड़े देव जो आठ-आय योजन के अंतराल से स्थित हैं, एक-एक योजन प्रमाण ग्रीवावाले हैं, क्षीर समुद्र से लाये गये (संचारित) एक हजार आठ कलश उठाकर अभिषेक करते हैं। सबके द्वारा करोड़ चन्द्रमाओं के समान प्रभावाली जल की धार एक साथ छोटी गयी, जो सुमेरु. पर्वत के शिनरों को सराबोर करती हुई ऐसी प्रवाहित हो रही थी जैसे समुद्र का संचरणशील ज्वार हो। घत्ता.... प्रभु का अभिषेक होता है। इन्द्र अभिषेक करता है। समुद्र निःसीम है, पर्वत विशाल है । जहाँ देवसमूह जल प्रवाहित करते हुए नहीं थकता, वहां अभिषेक का वर्णन कौन कर सकता है॥१०॥ इस प्रकार त्रिलोकस्वामी (नेमिनाथ) का अभिषेक किया गया। हजार हाथोंवाला होकर इन्द्र अन्तःपुर के देवों और अट्टाहास के साथ जिनवर के आगे उछलने लगता है। नृत्य करते हुए उसकी नेत्रावली ऐसी शोभित होती है जैसे अपना के लिए नीलकमलों की माला रच दी
SR No.090401
Book TitleRitthnemichariu
Original Sutra AuthorSayambhu
AuthorDevendra Kumar Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1985
Total Pages204
LanguageHindi, Apbhramsa
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size4 MB
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