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[सयंमूएवकए रिटुणेमिपरिए
रइयच्चण-कुधलयमाल पाइ॥ पच्चंतहो णहमणि विस्फुरति। पज्जालिय गाई पईव-पति ।। णच्चंतए सरहसें अमरराएं। णिव तारायण भूमिभाएं ।।
आसोविस-विसहर-विस मुर्यति । पक्चुहिम महोवहि जए ण मंति ॥ टलटल बलइ महिणिरबसेस । फुट्टति पति गिरिपएस ।। कड-कड वि कातिणं मेभागु ।
टलटखिउ वि असेस सगु॥ पत्ता--एम चिवधि नगद मिहे, युइ आइत्त अगसयसामिहें। जिणवर-णिश्यम-गुण तुम्हारा, को समकई परिगणिवि भडारा ॥११॥
गुण गणे विग सक्कमि मंदबुद्धि । जइ बोस्लामि सो णवि सद्दधुद्धि ॥ जह 'उबम देमि तो जगि मिणस्यि । तिहअणहो ण तसइ भवधि। अलिए पह गवि 'तुसंति आय। संतेहि गुणेहिं विण युद्धता ॥ ॥ विसेसणु जेण विसेस फोह। असरिस-उवहिप कम्य होई ॥
तइलोयपियामह मारिहि । गयी हो । नत्य करते हुए इन्द्र के नसमणि इस प्रकार चमकते हैं जैसे दीपों की पंक्ति जगमगा रही हो। देवराज के हर्षपूर्वक नृत्य करने पर ताराओं का समूह भूभाग पर गिर पड़ता है, आशीविष विषधर विष छोड़ देते हैं, समुद्र क्षुब्ध हो उठता है और विश्व में नहीं समाता। टलमल करती हुई समूची धरती झुक जाती है । गिरि-प्रदेश गिरकर टूट जाते हैं, भम्न सुमेरु मानो कड़कड़ा रहा हो । समूचा स्वर्ग भी (उस समय) पलायमान हो उठता।
पत्ता-तीनों लोकों के स्वामी नेमिनाथ के आगे इस प्रकार नस्य करके इन्द्र ने स्तुति प्रारम्भ की-“हे आदरणीय जिनवर ! तुम्हारे अद्वितीय गुणों की गणना कौन कर सकता है।
में मंदबुद्धि आपके गुणों की गणना नहीं कर सकता। यदि बोलता हूं तो शब्दशुद्धि नहीं है। मदि मैं उपमा देता हूँ तो जग में ऐसी उपमा नहीं है । संसार का नाश करनेवाले संसार से सन्तुष्ट नहीं होते और जब स्वामी झूठ से प्रसन्न नहीं होते, तब विद्यमान गुणों के द्वारा भी स्तुति सम्भव नहीं है। ऐसा विशेषण भी नहीं है जिससे विशेष को बताया जा सके। असमान उपमाओं से काव्य की रचना नहीं होती। हे त्रिलोक पितामह ऋषि ! हम जैसे चिल्लानेवाले १. ब-उउम । २. म--णि । ३. अ---रुसहि । ४. अ-रूसति । ५. अ-साय ।