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धता - एक
सयल ससायद पिहिवि "भमंते । रिससयहो मई बिट्टू जियंतें ॥ हिउ कुबुधु जं रिवु खमिज्जहि । जं किय अविणय तं सज्जहि ॥ जाम णराहिउ जोयइ अक्खरु । ताम कुमार-सहोय र भयर ॥ बल्लइ महियलि ससरु सरासणु । गं कलत्तु ओसारिय-पेसणु ॥ पत्तु व आमेल्लिय संवषु । जायव-जगमण गयणानंदणु ॥
हाइ
कंचोवाम खलंसु पथाइ ॥ रोहिणीणा व गियर डिबि । जसगुणविणार्या अप्पर मंडिवि ॥ महिपति सिरु लायंतु पक्क देवेह कुसुमबासु पक्क
[ सयंसू एक रिमचरिए
मिलिय सहोयर जयसिरि-गोयर पुष्णोपच बहि । विष्णु सणेहालिगणु गाहालिंगण विहिमि सयं भुवडहि ॥ १५ ॥
इय रिट्टनेमिचरिए धवलयासिय सयंभूव कए रोहिणि संयंवरो णाम तइओ सग्गो ||३||
मैंने जो आपकी
समुद्रसहित पृथ्वी का परिभ्रमण करते हुए और जीवित रहते हुए, सैकड़ों वर्षों में मैंने तुम्हें देखा है। आपका जो हृदय क्रुद्ध हुआ है, है राजन् ! उसे क्षमा कर दें। अविनय की है उस पर आप ध्यान न दें। जब राजा अक्षर देखता है, तब तक कुमार और सगा भाई धरती पर तीर सहित अपना धनुष डाल देता है, मानो आज्ञा का उल्लंघन करने बाली खोटी स्त्री हो । खोटे पुत्र की तरह, उसने रथ छोड़ दिया। तब यादव लोगों के मन और नेत्रों को आनन्द देने वाले राजा हर्ष से फूले नहीं समाए अपनी करधनी खिसकाते हुए वे दौड़े। रोहिणी के स्वामी ( वसुदेव) भी अपना रथ छोड़कर यश, गुणों और विनय से अपने को आभूषित कर धरती पर माथा टेकते हुए पहुँचे । देवों ने पुष्पों की वर्षा की।
घसा – दोनों भाई एक-दूसरे से मिले। बड़े पुण्यों के उपाय से उन्होंने अपने भुजदण्डों से प्रगाढ़ और स्नेहमय आलिंगन किया || १५ ||
इस प्रकार धवलइया के आश्रित स्वयंभू कवि द्वारा कृत अरिष्टनेमिचरित में रोहिणी स्वयंवर नाम का तीसरा सर्ग समाप्त हुआ || ३ ||
— भवतें । २. प्रछत्ति । ३. श्र
- आसरियऐसणु ।