SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 44
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ कहराज-सयंभूएष-किउ रिट्ठणेमिचरिउ पढमो सग्गो सिरिपरमागमगातु सयलकला-कोमलदसु । करहु विहसणु कण्णे जायबरुव-कम्पप्पलु' ॥ पणमामि मितियारहो। हरिबल-कुल-णयल-ससहरहो।। तइलोय-समिछ-संछिय-उरहो। परिपालिय-प्रजरामरपुरहो । कल्लाण-णाण-गुण-रोहणहो। पंचिदियगाम-गिरोहणहो।। भामंडलमंजिय-अवयवहो। परिपक्क-मोक्सहल-पाययहीं॥ तहलोपकसिहर-सिहासणहो । णिणिव मचामर-वासनहो॥ जसु तण तित्ये उप्पण्णाहा । जिह छणचंदुग्गमें विमलपहा ।। श्री परमागम जिसका नाल है, जो समस्त कलाओं रूपी कोमल दलोंबाला है, ऐसे यादवों और कौरवों के काव्यरूपी कमल को कान का आभूषण बनाओ। मैं नेमि तीर्थकर को प्रणाम करता हूँ जो नारायण और बलभद्र के कुलरूपी आकाशतल के चन्द्र हैं, जिनका वक्षस्थल घिलोक की लक्ष्मी से शोभित है, जिन्होंने अजरामापुर (मोक्षपुर) का परिपालन किया है, जो कल्याणों, ज्ञानी और गुणस्थानों में आरोहण करनेवाले हैं, जिन्होंने पांच इन्द्रियों के समूह का निरोध किया है, जिनके शरीर के अंग भामंडल से मंरित हैं, जो ऐसे वृक्ष हैं जिनका मोक्ष रूपी फल पक चुका है, जिनके चामर और छत्र अनुपम हैं, जिनके तीर्थ में उत्पन्न हुई आभा ऐसी प्रतीत होती है जैसे पूर्णिमा के चन्द्रमा के उदित होने पर स्वच्छ प्रभा हो। १. अ-कुडुप्पलु 1 प्र-कुहुप्पलु । व-कुहुप्पलु । वस्तुतः कव्वुप्पलु पाठ उचित है, ५०० में पाठ है-'सयंभूकम्वुप्पस जयज' अर्थात् स्वयंभू के काव्यरूपी कमल की जय हो। २. न मोहफलपायवहो।
SR No.090401
Book TitleRitthnemichariu
Original Sutra AuthorSayambhu
AuthorDevendra Kumar Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1985
Total Pages204
LanguageHindi, Apbhramsa
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size4 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy