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________________ २ । [ सयंभूएषकए रिटुणेमिचरिए धत्ता-सास्य-सुक्ख-णिहाण अमरभाव-उपायणु । कण्णंगलिहिं पिएह जिणवर-वयण-रसायण ॥१॥ चिसषद सर्यभु काई करमि। हरियस-मारण्या केम लरभि ।। गुरुवयण-तरंज लय भावि। जम्महो वि मोहउ कोधि गति :, णउ पायउ बाहरि कल। एक्कु वि ण गंथु परिमोक्कल ॥ तहि अवसरि सरत धोरवइ । करि कम्य विण्ण माई बिमलमा इदेण समप्पियउ वाधरण। रसु भरहेण वास बित्थरणु ॥ पिंगलेण छंद-पय-परथारु । संभहें दक्षिणिहिं अलंकार । बाणेण समप्पियत घणघण। तं अक्खरवंबर प्रापणउ ॥ सिरिहरिसे गियउ णिउत्तणउ। अवरेहि मि कहिं कइत्तपत्र ।। छड्डणि-दुबई-धुवइहि अडिय। घउमहेण समप्पिय पद्धडिय ॥ जणणयणाणंद जरिए । प्रास्पेसिए सव्वहुं फेरिए॥ पारंभिय पुणु हरिवंसकह । ससमय-परसमय-विचार-सह ।। यसा--जो शाश्वत सुख का निधान है तथा अमरभाव को उत्पन्न करनेवाला है; जिनवर के ऐसे वचन रूपी रसायन (अमृत) का कानों की अंजलि से पान करो॥१॥ कवि स्वयंभू विचार करता है कि क्या को? हरिवंशरूपी महासमुद्र को किस प्रकार पार कसे? मैंने गुरुवचन रूपी नाव प्राप्त नहीं की और न जन्म से किसी कवि के काव्य को देखा । मैंने बहत्तर कलाओं को नहीं जाना। एक भी ग्रन्थ को खोलकर नहीं देखा। उस अवसर पर सरस्वती धीरज थाती है--'तुम काव्य की रचना करो। मैंने तुम्हें विमल मति (प्रतिमा) दी। तब इन्द्र ने व्याकरण दिया, भरत ने रस और व्यास ने विस्तार करना दिया। पिंगलाचार्य ने छंद और पदों का प्रस्तार दिया, भानह और दंडी ने अलंकार-शास्त्र दिया, नाण ने वह अपना सघन अक्षराडंबर दिया। श्रीहर्ष ने अपना निपुणत्व दिया । दूसरे कवियों ने अपना कवित्व दिया। छड्डणी, दुवई ओर ध्रुविकाओं से जडित पशिया पतुर्मुख ने प्रदान किया । लोगों के नेत्रों को आनन्द देनेवाली सबकी असीस से मैंने तब यह हरिमंश-कथा प्रारण की जो स्वस्त और परमत के विचारों को सहन करनेवाली है।
SR No.090401
Book TitleRitthnemichariu
Original Sutra AuthorSayambhu
AuthorDevendra Kumar Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1985
Total Pages204
LanguageHindi, Apbhramsa
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size4 MB
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