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________________ तमग्गो] भूरीसउ यिरहे भफुल्ल ॥ तिह गंगेय-दो कि बम्मउ । तिह किं लिह कलिंग ससुसम्म उ ॥ जो जो जो रणंगणं मुच्चइ । सो सो सरि कोषिण पट्टप्पइ ॥ ताव समुद्दविजयउ बसे भग्गए । स गियरवरेण भित्र अग्गए ॥ घत्ता - णिएवि जणेरीणंदणु वाहिय-संदणु अण्ड मणेण पहिदुर । दिवस विहिगार भाइ महारज वरिससर्या सारहि मोष्ण प्रति मानें। सो बोल्लाबिउ बहिणा में ।। मंच वाहि वाहि रह तेतहो । जे समुविजउ मह सही ॥ फेम व विवसेण विन्छोइज । afterers fragorfह वोह ।। हजं णिरवेबखु रणे खाएं सहियज । एउ परमत्यु मित म कहियज ॥ जगण समाणु केस घाटुज्जइ । श्राहरे छाया-भंगु ण किज्जइ ॥ जिह जब तेम रह जोहर' | श्रावणात्यु तह ढोइउ ॥ तेण वि वि कुमार सहोय रु । सारहि वृत्त ताम धरि रह्वरु ।। दिव ॥ ११ ॥ [३३ रथ पर लुढ़क गया। इसी प्रकार गांगेय, द्रोण, कृतवर्मा, कृपाचार्य, कलिंग और सुशर्मा, जोयोद्धा युद्ध के मैदान में भेजा जाता, वह शीर्य पुरवासी वसुदेव के सामने समर्थ नहीं हो पाता । सैन्य के भग्न होने पर तब अपने रथबर के साथ समुद्रविजय आगे आकर स्थित हो गया । ता-माता के पुत्र को देखकर, जिसने रथ हाँका है, ऐसा अनुज ( वसुदेव) मन में प्रसन्न हो गया। ( वह सोचने लगा ) आज का दिन भाग्यशाली है जो मैंने सैकड़ों वर्षों में अपने भाई को देखा ।।११।। विमुख नाम का जो सारभि ससुर ने दिया था, उससे वसुदेव ने कहा- "रथ को धीरेधीरे वहाँ ले जाओ जहाँ मेरा बड़ा भाई समुद्रविजय है । भाग्य के वश से किसी प्रकार बिछुड़ा हुआ मैं सैकड़ों वर्षों के अपने पुण्य से यहाँ उपस्थित हुआ हूँ। इसके साथ युद्ध में मैं तटस्थ हूँ । हे मित्र ! यह परमार्थ बात मैंने कह दी। पिता के समान इन पर आघात किस प्रकार किया जाए ? इनकी कान्ति भंग न की जाए। जैसा मैंने बताया है, तुम उस प्रकार रथ ले चलो। वहाँ पहुंचो जहाँ यादवनाथ हैं । उस (समुद्रविजय) ने भी सगे भाई कुमार को देखा और सारथि १. चोइज्जइ ।
SR No.090401
Book TitleRitthnemichariu
Original Sutra AuthorSayambhu
AuthorDevendra Kumar Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1985
Total Pages204
LanguageHindi, Apbhramsa
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size4 MB
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