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जेण जुवाणु लइउ धरखतें ॥ तं सिवि पिहिवि-परिवालें । णियबूत विसजिउ कालें ॥ घाउ सत्तुं वसु एव हो ।
सरेणेमिचरिए
विष्णिवि ससर सण हृत्य । विष्णिविजय सिरिगहण - समत्य' ॥ विष्णियि वावरंति थपमाह । जलहर बलहारोषम बाणेह ॥ तो सह लखावसरें । दिष्ण सुरंगण - लोण पसरें ॥ सर-रिजणाराएं ताडिउ सारहि पाछिउ य य विष्णु महार समरभररोढियबंधहो गज जरसंधहो निष्फलु णाहं भणोरङ्ग ॥१०॥ पाडिउ जंजि सत्त् सत्तुंजय | भाइज वंशवत्त ( वक्कु ) रणे दुज्जउ ॥ सो वि सिलीमहि विणिवारिख । मुच्छ्राणि कवि ण मारिज ॥ धाइय कालवत्त् सहो बीउ । सो विदुषषु मरि-रक्तिय-जीव सल्लु ससल्लू करेष्पिणु सुक्कउ ।
कवि कवि जम-जयद ग टुबकर ॥ सोमय वित्थारिवि वल्लिउ ।
क्या, जिसने अक्षात्रभाव से ( क्षात्रधर्म के विरुद्ध ) इस ( अकेले ) युवा से युद्ध किया है। यह सुनकर पृथ्वीपाल ( जरासंध ने) ने अपना दूत भेजा, गानो काल ने अपना दूत विसर्जित किया हो । शत्रुंजय वसुदेव के ऊपर दौड़ा। दोनों के ही हाथ में तीर-धनुष थे। दोनों ही विजयभी ग्रहण करने में समर्थ थे। दोनों ही मेघ जलवारा के समान अप्रमेय वाणों से युद्ध करते हैं । तब अवसर पाकर सौभद्र (वसुदेव) ने देवांगनाओं को नेत्रों के प्रसार का अवसर देते हुए,
धता - शत्रु को तीर से आहत किया। सारथि गिर पड़ा, घोड़े आहत हो गए, महारथ छिन्न-भिन्न हो गया, मानो युद्धमार से ऊंचे कंधेवाले जरासंध का मनोरथ ही असफल हो गया ॥ १०॥
जब दात्रुंजय ही गिरा दिया गया, तो दुर्जेय दंतवत्र युद्ध में दौड़ा, बहु भी तीरों से गिरा दिया गया। मूर्च्छा को प्राप्त वह किसी प्रकार मरा भर नहीं। तब दूसरा कासव उस पर दौड़ा, वह भी दुखित मृत्यु से जीवन को बचा सका । उसने शल्य को पीड़ित करके छोड़ा, किसी प्रकार वह यम की नगरी नहीं पहुंचा। सोमदत्त को उछालकर फेंक दिया। सूरिश्रवा अपने
१. सभी प्रतियों में एक पंक्ति नहीं, अतः यह युग्म अधूरा है । २. ज. ब--.. विष्णवि जयसिरिमहणसमत्य । ३. अ - दंतनंतु ।