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यो सम्मो]
साहने ।
भिजि वर जर रहबर-तुरय- महागय-वाहणे ॥ हम्मेह एक्कु प्रणतेहि जोहह । तो वि पवरसिज सरघा रोहहि ॥ चदिसु र बाहृतु ण चक्क । संगलवणाई परिसरकइ । एक सरासणु विष्णवि हरयच । विष णं घणु फोडिवि हस्थउ ।। सरहं पागु णाहि णिवतहं । 'णं घणचण जह हो वरिसंत ॥ किउ पारमकज लोहावद्धउ । णं सवणेण तिमिस्र ओषद्धउ ॥
उजास साहार ण बंध। स सरासणि णं सरासणे संघ ॥
धसा जरसंषहो साह्णु रहगधवाणु एसके रंग म्हे धरिष । रोयो कम पडियहो गयहहो अन्हरियज ॥ ६ ॥
सहि अवसर मज्झत्योभावें क्लोएं ललय सहायें ॥ रिद्धि-सोहाग मषहो । विस्कार विष्णु जरसंघहो ॥ कि जोइएण नराहिवसतें ।
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अश्वों, महागजों और वाहनों वाली जरासंध की सेना से भिड़ गए । यद्यपि अनेक योद्धाओं द्वारा वह अकेला मारा जाने लगा। फिर भी वह तीरधाराओं के समूह के साथ बरस पड़ा । चारों दिशाओं में रथ घुमाता हुआ वह नहीं ठहरता, लाखों रथों वाले के समान वह (एक रथी) परिभ्रमण करता । एक धनुष और दो हाथ, परन्तु वह इस प्रकार भेदन करता जैसे करोड़ों धनुषवाला हाथ हो । गिरते हुए तीरों का कोई प्रमाण नहीं था, जैसे आकाश से धमाधम बरसते हुए मेवों का कोई प्रमाण नहीं होता। उसने शत्रुओं को एक कतार में ऐसे बांध दिया, जैसे सूर्य ने आकाश में अंधकार को बाँध दिया हो। वह सैन्य न तो भाग पाता और न अपने को ढाढस दे पाता । धनुष होते हुए भी, वह तीरों के आसन का संघान
करता ।
धत्ता - युद्ध में उस अकेले ने जरासंघ की सेना और रथ गजादि वाहनों को पकड़ लिया । वह सैन्य ऐसा मालूम होता था, जैसे किशोर सिंह से युद्ध करता हुआ गज समूह उसके पैरों के पथ में आ पड़ा हो ॥६॥
उस अवसर पर मध्यस्थ भाव धारण करने वाले सुन्दर स्वभाव वाले प्रेक्षक लोक ने रूप वैभव और सौभाग्य से मदांध जरासंध को धिक्कारा कि उस राजा के सत्व को देखने से
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बणं घणघणं पंहि परिसंत ।