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पेक्सु बाण सरासण हत्थउ । पणं वसुए सामि सग्गस्य ॥
[सयंभू एक रिट्ठमिर्धारिए
पत्ता- तो रणरसिहूएं कुखइ सूएं सामिसाल - अवचितए । भिश्वचु जेम पहरेब्बड जेम मरेथ्वउ एस्बुकाई सुचितए १२ ॥ संगिसुधि वयणु जुत्ता हो । जायवणाहू कुमार हो ॥
विष्णधि भिडिय रणंगणे कुज्जय ।
१. अ - कुपसिरि रामालिंगिय ।
बुद्धरपरगर पवर-पुरंजय ॥ विष्णिवि जायव गरुड - महसूय । असि सुद्दाएवि पणधय ॥ विष्णिवि षय-विट्टिहे गंवण । गिर्याणिय- सारहि वाहिय संवण ॥ ब्रिणिषि रणगण बरि- वियारण । जिणणारायण खम्मण-कारण ।। विष्णिष संजुगिग्ण - बणु करवल । भग्गालाणखंभ णं मयगल ॥ विजयसरि समासिंगिय ।
सासय पुरवर - रामण-मणिगिय ॥ विणिव बिक्कम - विढिय-जयजस । वाणि-माणे समरंगणे सरस ।।
से कहा - " रथ रोको तब तक अनुप -बाण हाथ में लिए युवा को देखो, जैसे स्वर्ग में स्थित कुमार वसुदेव हों ।
मृत्य
पत्ता-स्वामिश्रेष्ठ के अपचिता करने पर युद्ध-रस के वशीभूत होकर सारथि ने कहा'की तरह प्रहार करना चाहिए जिससे यह मारा जाए, अपचिता करने से क्या ? " ॥ १२ ॥ जोतनेवाले (सारथि) के उस वचन को सुनकर यादवनाथ समुद्रविजय कुमार पर दोड़े ! युद्ध के मैदान में अजेय वे दोनों भिड़ गए। वे दोनों दुर्धर शत्रुजनों के बड़े-बड़े नगरों के विजेता थे। दोनों ही यादवों के महागरुड़ध्वज को धारण करनेवाले थे। दोनों ही
थकवृष्णि के पुत्र थे। दोनों अपने-अपने सारथियों के साथ रथ चलानेवाले थे। दोनों शत्रुओं का विदारण करनेवाले थे। दोनों ही जिन (नेमिनाथ) और नारायण ( वलभद्र) के जन्म के कारण थे। दोनों ने हथेलियों पर धनुष तान रखे थे। वे दोनों, जिन्होंने आलान खंभों को उखाड़ लिया है, ऐसे मदमाते गजों के समान थे। दोनों ही विजयलक्ष्मी रूपी रमणी के द्वारा आलिंगित थे। विक्रम के कारण दोनों के जय और यश बढ़ रहे थे। दानमान और युद्ध प्रांगण में हर्ष धारण करने वाले थे t