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पंचमो सग्गो]
सहो कज्जु परिष्टुिउ भारिउ। सजससु मणे उष्पग्णु गिराश्चि । कहिय वेडि गोटुंगणणाहहो। "ज उण-महावहहो अगाहहो॥ मंगोद्र नाया। गं तो मिति का जं जाणहि ।। तहि अवसरि परिबडिय सोयहो। णियडिय पं गिरिवज्ज-जसोयहो। एक्क पुत्तु मह अम्भुबरपउ । तासु वि कंस समिच्छामरणउ॥ होतु मणोरह महुरारायहो। बरि अपाणु समष्पिजे णायहो ।। मई जीवंतए काईहतासर। भूमिहोणाई सिल-संकासए । अहवाइ जइ गउ णंब सणवणु।
तो मह धुउ अपुत्तणु रंपत्तषु॥ पत्ता–कालिज काल कालसम् मई साहु जामि तहो पास। लग्गज तडि वोहित्थबर मा सम्वहो होहि विणासु ॥१३॥
तो "वल्लहजण-णयणाण। णिय पिययम-मभोसिय गंवें ॥ घोरी होइ त कि रोवहि। माणिक्कारणे अप्पर 'सोयहि ॥
बरु परिरक्षण करि गोविदहो। घसा-बाएँ हाथ में यनुष ले लिया, और दाहिने हाथ से शंख बजा दिया। नागशग्या पर बैठकर बात्र को इस प्रकार देखा जैसे यम ने देखा हो ॥१२॥
कंस का काम भारी हो गया, उसके मन में अत्यधिक भय उत्पन्न हो गया। गोठ प्रांगण के स्वामी नन्द को घेर कर उसने कहा- "हे नन्दगोप, अगाध यमुना सरोवर से कमलों को लाओ, नहीं जसा ठीक जानो वैसा सोच लो।" उस अवसर पर, जिसका शोक बढ़ रहा है ऐसी यशोदा के सिर पर जैसे गिरिवन गिर पड़ा। मेरा उद्धार करने वाला एक ही पुत्र है, कंस उसी की मरयु चाहता है, मथुराराज का मनोरथ पूरा हो, अच्छा है मैं स्वयं को नाग के लिए अर्पित कर दें। हताश मेरे जीने से क्या? चट्टान की तरह, मैं इस धरती के लिए केवल भार स्वरूप हैं। अथवा यदि नन्द पुत्र के साथ जाते हैं तो निश्चय से मैं पुत्रविहीन और विधवा हो जाऊँगी।
तब प्रियजनों के नेत्रों को आनन्द देनेवाले नन्द ने अपनी पत्नी को अभय वचन दिया"हे कांते, तुम धर्य रखो, रोती क्यों हो, अकारण अपने को सोच में मत डालो, अच्छा है तुम १. अ—विसहरभया समावहिवि। २. प्र-जउणावालाहियहो अगाहहो। ३. बजसोयहि । ४. अ. बल्लवजण।