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[सयंभूएवकए रिटणेमिनरिए
सिलसंघाउ सिलोपरि घत्ता ॥ हरि-चाहिं कहिज्जा कंसहो। सच्चज होह पायंसहो।, कावि अपुस्ख भंगि तहो केरी।
बुपकर, छुट्टष्प वसुमा सेरी ।। पत्ता महरापुर-परमेसरहो भन या धीरु ण था। हरिबलगुण-करवसेंहि कप्पिमइ हियवउ भाइ ॥११॥
दुज्जसमसि-भलिय-णियवंसें। घोसग पुरि वेवाविय करें। विजारेण मुक्त्तिमगामें। णिम्जिय-णिरक्सेस-संगामें ॥ मेरुमहोहर-णिञ्चल चित्तें। सच्चहामवर इस-गिमित । रहगेउरणयरहो पट्ठवियई। रयणई तिमि एत्यु चिर विया। तहिं जो गायसेज्ज आयामह । पूरइ पंचजणु षणु णामइ ।। असर तहोमि णिकाओ। हपनाय-रयग-दुहिय-संगुत्तो ॥ सो सेज्वहि 'णिसणु गरुडास।
पूरिउ संस्नु बढाविउ सरासण। पत्ता-बामह करि सारंगु किउ वाहिणेण संप मुहि बोइया ।
विसहर-सेज्जे समावहिवि रिउ णाई कयंत जोइपज ॥१२॥ नहीं करता, वह शिला के ऊपर शिलालों का समूह स्थापित करता है। दूतों ने जाकर कंस से कहा, "सचमुच श्रीकृष्ण हरिवंश के स्वामी होंगे। उनकी कोई अपूर्व ही भंगिमा है। अब बड़ा कठिन काम है, तुम्हारी धरती हाथ से जाएगी।"
घसा-मथुरा नगरी के परमेश्वर कंस के मन में डर है, उसके मन में धीरज स्थिर नहीं रहता। जैसे वासुदेव और बलराम के गुणरूपी करोंत से उसका हृदय काट दिया गया हो ॥११॥
बिसने अपयशरूपी काली स्याही से अपने वंश को कलंकित कर लिया है, ऐसे कंस ने नगर मैं घोषणा करायो-"सत्यभामा के वर के निमित्त से, रमनूपुर नगर से भेजे गए तीन रस्न यहाँ बहुत समय से रखे हुए हैं। वहां जो नागशय्या पर सोता है, शंख बजाता है और धनुष चढ़ाता है निश्चय से में उसे अश्व, गज, रस्न और कन्या से मुक्त आधा राज्य दूंगा।" तब श्रीकृष्ण नागवाय्या पर जा बैठे, उन्होंने शंख फूंक दिया और धनुष चढ़ा दिया।
घसा-...कालिया नाग काल के समान काला है, मैं उसके पास जाती है, वह मुझे साए; माण किनारे लग जाए और सबका नाश न हो ॥१३॥
१. अ-हरेवि परेहि । २.—णागसेज्ज । ३. अ----णिवष्णु ।