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________________ ( २८ ) दिनचर्या देखने जाते हैं। वे पाते हैं कि योगमाया से श्रीकृष्ण सब जगह मौजूद हैं। जरासंध के द्वारा बन्दी राजाओं का दूत श्रीकृष्ण के पास आता है। वह कृष्ण की सुधर्मा सभा में मिलता है। सभी नारद वहां आ जाते है । यादवों के इस विचार पर कि आक्रमण करके जरासंघ को जीत लिया जाए, उद्धव परामर्श देते हैं कि राजसूय यज्ञ बोर शरणागतों की रक्षा के लिए जरासंध पर विजय प्राप्त करना जरूरी है लेकिन भीम ही उसे द्वन्द्रयुद्ध में हरा सकते हैं । दूसरे वह बड़ा ब्राह्मण-भक्त है। श्रीकृष्ण जरासंध के पास गिरिव्रज दूत भेजते हैं। श्रीकृष्ण द्वारिका से इन्द्रप्रस्थ प्रस्थान करते हैं। राजसूय यज्ञ के अवसर पर भीमसेन, अर्जुन और कृष्ण गिरिव्रज जाते हैं। वे ब्राह्मण के देष में जाते हैं । दैत्यराज जरासंध इस तथ्य को जानते हुए भी उन्हें युद्ध की भीख देता है । वह भीम से द्वन्द्वयुद्ध में मारा जाता है। जरासंघ की मृत्यु के बाद, बंदी राजाओं को मुक्त कर कृष्ण इन्द्रप्रस्थ वापस आ जाते हैं। राजसूय यज्ञ में 'अग्रपूजा' के प्रश्न को लेकर विवाद खड़ा हो जाता है । श्रीकृष्ण इसके लिए सबसे अधिक उपयुक्त समझे जाते हैं । शिशुपाल सहदेव के प्रस्ताव का न केवल विशेष करता है, प्रत्युक्त श्रीकृष्ण को भलाबुरा कहता है । उनके भक्त शिशुपाल पर आक्रमण करना चाहते हैं परन्तु श्रीकृष्ण ही चक्र से उसका सिर धड़ से अलग कर देते हैं। शिशुपाल के निधन के बाद, युधिष्ठिर अवभृथ स्नान ( यज्ञान्त स्नान ) करते हैं । लोला-वर्णन का मुख्य स्रोत 'रिमिचरिउ' के यादवकाण्ड में यादवों और कृष्ण से सम्बन्धित जिस वृत का वर्णन है, उसका महाभारत में उल्लेख नहीं है । महाभारत में जिस वृत्त का उल्लेख है वह मालोच्य कृति के कुरुकाण्ड और युद्धकाण्ड में आता है। प्रश्न है कि कृष्ण के जन्म से लेकर बाल्यकाल तक की जिन घटनाओं का वर्णन 'रिटुणेनिचरित' में है और जिनका प्रभाव हिन्दी साहित्य की कृष्णभक्ति शाखा के प्रतिनिधि कवि 'सूर' के सगुण-लीला गान में देखा जाता है, उनका स्रोत क्या है ? पउमचरिउ' में स्वयंभू स्पष्टरूप से स्वीकार करते हैं कि उन्होंने आचार्य रविषेण के प्रसाद से, परम्परा से आयी हुई रामकथा रूपी नदी में अवगाहन किया। परन्तु ऐसा कोई उल्लेख 'रिट्ठभिचरित' की प्रारम्भिक प्रस्तावना में उपलब्ध नहीं है। आचार्य रविषेण का समय है ६७४ और 'हरिवशपुराण' का ७८३ ई० । पुष्पदन्त ने स्वयंभू का उल्लेख किया है । वह १०वीं सदी में हुए। इससे यह अनुमान सहज ही किया जा सकता है कि स्वयंभू का आवि र्भाव वीं वीं शती में हुआ। लेकिन दो सौ वर्षों की यह लम्बी अवधि, किसी कवि के जीवनवृत्त और रचनाकाल का निश्चित बिंदु निर्धारित करने में कोई अर्थ नहीं रखती। ई० ७७८ में उद्योतनसूरि की 'कुवलयमाला' में यह उल्लेख है "बुहजण सहस्स-दइयं हरिवं सुम्पत्तिकारयं पढमं । बंदामि बंदियं पिहुं हरिवंसं जेव विमलपयं ॥ " आचार्य जिनसेन द्वारा रचित 'हरिवंशपुराण' की भूमिका में, सम्पादक- अनुवादक पं० पन्नालालजी साहित्याचार्य ने उक्त श्लोक का यह अर्थ किया है— 'मैं हजारों बुधजनों के लिए प्रिय हरिवंशोत्पत्तिकारक प्रथम वन्दनीय और विमलपद की वन्दना करता हूँ ।' यहाँ दलेष से बिमलपद के ( विमलसूरि के चरण, और बिमल हैं पद जिसके
SR No.090401
Book TitleRitthnemichariu
Original Sutra AuthorSayambhu
AuthorDevendra Kumar Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1985
Total Pages204
LanguageHindi, Apbhramsa
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size4 MB
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