SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 24
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ (२६) ऐसा हरिवंश) को अर्थ घटित होते हैं । मूर्तिदेवी ग्रन्थमाला के सम्पादक स्व. ग. हीरालाल जैन के उक्त अवतरण पर यह टिप्पणी है। उन्होंने (पं० पन्नालालजी ने) 'कुवलयमाला' में विमलकृत हरिबंशपुराण या चरित के उल्लेख का कथन किया है किन्तु उन्होंने उक्त अंश के उस पाठ को सर्वथा मुला दिया है जिसे 'कुवलयमाला' के सम्पादक (डॉ० उपाध्ये) ने अपने संस्करण में स्वीकार किया है। उसमें हरिवंस' की जगह 'हरिवरिस' पाठ होने से कुछ अन्य अर्थ भी निकाला जा सकता है। उन्होंने रविषेणाचार्य कृत 'पद्मपुराण' का प्रस्तुत रचना में, तथा 'महापुराण' में इस रचना का अनुकरण किये जाने का उल्लेख किया है, किन्तु इन महत्वपूर्ण मतों का जितनी सावधानी और गम्भीरता से प्रमाणीकरण वांछनीय था, वह यहाँ नहीं पाया जाता। प्रश्न है। क्या 'कुवलयमाला' के 'विमलपद' में प्राकृत 'पउमचरित' के रचयिता विमलसूरि का उल्लेख है या किसी दूसरे विमलसूरि का ? सथ्य यह है कि जिनसेन के पूर्व लिखित 'हरिवंशपुराण या चरित' अभी तक उपलब्ध नहीं है। अत: इस विषय में कुछ कहना अटकल लगाना मात्र है 1 'पजमचरिउ' के रचयिता विमलसूरि जैन चरित काव्य-परम्परा के आदि कवि हैं फिर भी स्वयंभू ने भाषामों की लम्बी परम्परा में उनका उल्लेख नहीं किया। वह अपने रामकाव्य का सम्बन्ध सीधा रविषेण से जोड़ते हैं। यह भी एक विचारणीय प्रश्न है कि रामकाव्यपरम्परा की तरह 'रिटणेमिचरित' में पूर्ववर्ती कृष्णकाव्य-परम्परा का प्रारम्भ में उल्लेख करना कवि ने क्यों नहीं उचित समझा ? जबकि उद्योतनसुरि का सन्दर्भ और आचार्य जिनसेन का हरिवंशपुराण उनके सम्मुख था। ___ यहाँ यह भी उल्लेख है कि हरिवंशपुराण के कर्ता आचार्य जिनसेन (महापुराण के रचयिता जिनसेन से भिन्न) ने ६६वें सर्ग में भगवान महावीर से लेकर लोहाचार्य तक की आचार्यपरम्परा दी है। फिर वीर-निर्वाण के ६५३वर्ष के बाद की अपनी गुरुपरम्परा का उल्लेख किया है जो इस प्रकार है-बिनयघर, श्रुतिगुप्त, ऋषिगुप्त, शिवगुप्त, मन्दरार्य, मित्रवीर्य, बलदेव, चलमित्र, सिंहबल, वीरयित्, पद्मसेन, व्याघ्रस्ति, नागहस्ति, जितदण्ड, नन्दिषेण, दीपसेन, धरसेन, धर्मसेन, सिंहसेन, नदिषेण, ईश्वरसेन, नन्दिषण, अभयसेन, सिद्धसेन, अभयसेन, भीमसेन, जिनसेन, पान्तिषेण, अयसेन, अमितसेन, कोतिषेण और जिनसेन (हरिवंश के रचयिता) । लोहाचार्य का अस्तित्व वि० सं० २१३ माना जाता है । इन नामों में विमलसूरि का नाम नहीं है। कुवलयमाला के उक्त श्लोक का एक अर्थ यह भी हो सकता है (मूल पाठ में किसी प्रकार का परिवर्तन किये बिना) "हजारों बुधजनों के प्रिय और वन्दित, हरिवंश के उत्पत्तिकारक को प्रथम वन्दना करता हूं और फिर विमलपद विशाल हरिवंश को।" हरिवंश से यह स्पष्ट नहीं है कि यह वंश का नाम है या अन्य का । जो भी हो, यदि यह पुराण का नाम है तो उसके और उसके रचयिता के बारे में कुछ नहीं कहा जा सकता । जिनसेन के हरिवंशपुराण का रचनाकाल ७८३ ई है। उद्योतन सूरि ७७८ में हुए । अतः यह निश्चित है कि यदि संदभित श्लोक में 'हरिवंश' पाठ ही है तो जिनसेन आचार्य के पहले एक और हरिवंश लिखा जा चुका था जो अभी तक अनुपलब्ध है । वह उपलब्ध भी हो जाए तो भी वस्तुस्थिति में अन्तर नहीं पड़ता। यह प्रश्न तब भी अनुत्तरित रहता है कि 'हरिवंशपुराण' या रिट्ठमिचरित' में वर्णित कृष्ण की बाल
SR No.090401
Book TitleRitthnemichariu
Original Sutra AuthorSayambhu
AuthorDevendra Kumar Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1985
Total Pages204
LanguageHindi, Apbhramsa
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size4 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy