________________
तइओ सग्गो
रोहिणिकर-घरमाणा सयल वि राणा मिलिया जरसंधै। पं वसविसिहि पसत्ता महुयरमत्ता कटिय फेया-सांधे ।
णिग्गय रोहिणि जयजय सद्दे । गहिय पसाहण-जुवण-गचे ॥ सम्वाहरण-विसिम-देही।
मोहण वेल्लिघ मोहणलीला। यम्महं भल्लिव बिधणसीला। ताराएवि व थाणहो चुक्की। तस्वय-ट्ठिीव सम्बहो चुक्की ॥ जंजं जोयह सं मारह। सोण प्रथि जो मगु साहारई ।। सोण अस्थि जो णउ संतत्तउ। सो ण अस्थि जो मुन्छ ण पत्तउ । सो ण अस्थि सा जेण ण विष्टुि'। सो ण अस्थि जसु हियइ ण पइट्टि । सबलु लोउ भूसिउ मणचोरिए ।
मोहिज हरिण-णिबहु णं गोरिए॥ रोहिणी से पाणिग्रहण करनेवाले समस्त राजा जरासंध से इस प्रकार मिले, जैसे केतकी की गन्ध से आकर्षित होकर मतवाले भ्रमर सभी दिशाओं में फैल गए हों। यौवन के गर्व से प्रसाधन करने वाली रोहिणी जय-जय शब्द के साथ निकली--जिसकी देह सब प्रकार के आभूषणों से विकसित है, जो बिजली के समान उज्ज्वल शारीरवाली है, जो सम्मोहन लता ओर संमोहन लीला के समान है, जो कामदेव की मल्लिका के समान बँधने के स्वभाववाली है, जो स्थान से व्युत तारा के समान है । गिद्ध-दृष्टि के समान वह सबके पास पहुंची। जिस-जिस को वह देखती है, उसको मार डालती है। वहाँ एक गी ऐसा नहीं था जो मन को सहारा दे। वहां एक भी ऐसा नहीं था जो संतप्त न हुआ हो। ऐसा एक भी व्यक्ति नहीं था जो मुछित न हुआ हो । वहाँ एक भी ऐसा व्यवति नहीं था जिसने उसको न देखा हो और जिसके हृदय में उसने प्रवेश न क्रिया हो । मन को चुराने वाली उसने सारे लोक को ठग लिया, मानो गोरी ने मृग-समूह को मोह लिया हो। १. प-यह पंक्ति नहीं है। २. सभी प्रतियों में 'सो णड अत्यि जेण ण दिट्ठि' पाठ है; उममें दो मात्राएं कम है।