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________________ (४३) चार्य इन्हें जयग्रस्त होने का शाप देते हैं । पुरु अपना यौवन पिता को दे देता है, क्योंकि शुक्राचार्य के अभिशाप का निवारण एकमात्र यही था कि यदि पुत्र अपना योवन दे दे तो राजा ययाति युवा हो सकता है। हजारों वर्षों तक विषय सेवन करने पर भी तृप्ति नहीं होने पर, ययाति पुरु को यौवन यापस देकर और उसका राज्याभिषेक कर वन के लिए प्रस्थान करता है। इतिहासविदों का मत है कि यदु से यादव, पूर्व से यवन, दूसरा ये भोजपुर से कौरव और अनू से म्लेच्छ हुए । र ययाति की दूसरी पत्नी शर्मिष्ठा वृषपर्वा की पुत्री थी। श्री वैद्य का मत है कि पुरु के वंश में पहला राजा दुष्यन्त हुआ । भरत के वेदाज हस्ति ने हस्तिनापुर बसाया । हस्ति के प्रपौत्र कुछ ने गंगा और यमुना के दोआब के ऊपरी क्षेत्र में कुरुक्षेत्र का विस्तार किया। गंगा के पूर्व और दक्षिण में बसने वालों को ब्राह्मण-ग्रन्थों में उन्नत और प्रतापी बताया गया है । चन्द्रवंशी राजा सिन्धुनदी के तट पर राज करते थे। राजा बुषपर्वा ( ईरान के राजा) का राज्य मयाति के राज्य से लगा हुआ था । 'उक्त दोनों कथनों की तुलना से हम इस समान निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि महाभारत के अनुसार, चन्द्रवंशी यवातिपुत्र यदु से जिस समय यादव हुए उसी समय, ययाति के दूसरेदूसरे पुत्रों से अन्य अनेक क्षत्रियवंशों का विकास हुआ। चन्द्रवंश और सूर्यवंश के आदि पुरुष नारायण हैं। जैन परम्परा के अनुसार भी यादवों का आदिपुरुष यदु था। यह मूलतः हरिवंश का था तथा हरिवंश का मूल पुरुष 'हरि' था जो विद्याधर दम्पती आर्यक और मनोरमा की सन्तान था। जैन परम्परा सूर्यवंश और चन्द्रवंश की उत्पत्ति इक्ष्वाकुवंश से मानती हैं । नर-नारायण और नरोत्तम महाभारत में वेदव्यास का यह मंगलाचरण है "अरे नारायणं नमस्कृत्य नरं चैव नरोत्तमम् । देवीं सरस्वतीं चैव ततो जयमुदीरयेत् ।" I इसमें पहले नारायण को नमस्कार है। फिर नर को और तब नरोत्तम को विद्वानों का मत है कि 'नर-नारायण' मूल उपास्य देव हैं। ये 'नर नारायण' ही अर्जुन और कृष्ण के रूप में अवतार लेते हैं। महाकवि स्वयंभू ने 'अर्जुन' के अर्थ में 'नर' का प्रयोग किया है। महाभारत के अनुसार नर और नारायण एक ही तत्त्व के दो रूप हैं। नर और नारायण की स्तुति के बाद नरोत्तम को नमस्कार किया गया है। यह नरोत्तम श्रीकृष्ण है, ये नारायण ऋषि के अवतार नहीं | नरोत्तम कृष्ण ही सबके मूल, सर्वव्यापी, सर्वातीत, सच्चिदानन्दघन, स्वयं भगवान्, परात्पर ब्रह्म हैं । अवतार रूप में वह परमब्रह्म स्वरूप वासुदेव भगवान् श्रीकृष्ण हैं । 'रिमिरि' में श्रीकृष्ण की जिन बाललीलाओं का वर्णन और योवनलीलाओं का संकेत है। उनका स्रोत महाभारत नहीं है। महाभारत में श्रीकृष्ण पहले पहल आदिपर्व में राजा द्रुपद की राजधानी में द्रौपदी के स्वयंवर के अवसर हमारे सामने आते हैं। लक्ष्यभेद के फलस्वरूप द्रौपदी अर्जुन के गले में जयमाला डाल देती है । इस पर कौरव युद्ध प्रारम्भ कर देते हैं। श्रीकृष्ण तब पाण्डवों का पक्ष लेते हैं और कर्ण को परास्त करते हैं । पाण्डवों को ब्राह्मणवेप में देखकर उपस्थित राजा सामूहिक युद्ध की बात सोचते हैं परन्तु कृष्ण सबको समझा-बुझा देते हैं। दूसरी बार बलराम के साथ श्रीकृष्ण उस समय उपस्थित होते हैं जब पाण्डव माँ कुन्ती और द्रौपदी
SR No.090401
Book TitleRitthnemichariu
Original Sutra AuthorSayambhu
AuthorDevendra Kumar Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1985
Total Pages204
LanguageHindi, Apbhramsa
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size4 MB
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