SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 146
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ णमो सग्गो] ६१०३ तिह-तिह मुहहो ण काई वि भावइ ।। जिह-मिह चिहुर-णिवषणु जोयउ। तिह-तिह हरि संबह बोयज ॥ बसमा पाणु णाहित चक्कर । गं तो मरणावस्थहो ठुक्कउ॥ मता-ता पिणिरूव णिस्वेधि बल-पारायण णीसरिय। धगुलहिहे होइज्जतह कामसरहं विहि अगृहरिय ॥५॥ हरिवलएव वेविगय तेतहि। रुपिणि थिय पदणषणे जेत्तहि ॥ किरमावलि पिवई तरुषियही। रहबर मकु ताम गोविंदहो । मंदह गाइं सुरेहि संचालित। घंटाकिंफिणिजाल-वमालिफ्ट ।। गारडलकण-लंछिय-यययः । परणरवर-संगर-सिरि-लंबा। वारुइ-कसतोरविय तरंगम्। पाककारे चूरियउ-जंगमु॥ रह सुमणोहरू वीसह कण्णए। णारस दूरहो दाबह सग्गए ।। ऍह सो हप्पिणि कंतु तुहारउ। दुहमवाणव-हविद्यारउ ॥ सो आरूढ बाल वरसंदगि। सिय-सोहग्ग वेंतु जज गंवणि ॥ जैसे-जैसे प्रतिमा कण्ठ दिखाती है वैसे-वैसे मुख के लिए कुछ भी अच्छा नहीं लगता। जैसे-जैसे केश निबन्धन देखते है वैसे-वैसे हरि सन्देह करते हैं। दसवां स्थान नाभि वे चक जाते हैं, नहीं तो वे मरण अवस्था को पहुंच जाते । पत्ता-तब चित्रपट में शक्मिणी का रूप देखकर, बलभद्र और नारायण निकल पड़े। धनुर्यष्टियों पर बोए हुए कामदेवों के घाणों का उन्होंने अनुकरण किया ॥५॥ कुष्ण और बलराम दोनों यहाँ गये जहाँ उद्यान में रुक्मिणी स्थित थी। वृक्षों के समूह द्वारा किरणावली ग्रहण की जा रही थी। इतने में गोविंद का रथ वहाँ पहुँचा जो मंदर(सुमेरुपर्वत) के समान देवों से संचालित था । घण्टों की किकणियों (धूपरओं) के जाल से मुखर, गरुड़ के चिह्न से अंकित ध्वजपटकाला, शराबाओं की युद्ध-लक्ष्मी का लंपट, लकड़ी के चाबुक से उत्तेजित अश्यों वाला, चक्रों के चलने की आवाज से जीवों को चूर-चूर करता हुआ सुन्दर रय कन्या ने देखा । नारद दूर से उसे बताते हैं—'हे रुक्मिणी ! यही तुम्हारा वह पति है-दुर्दम दानवों के देहों को चूर-चूर कर देने वाला।" सब बाला वर के रथ पर यदुनन्दन को श्री और सौभाग्य देती हुई घड़ गयी।
SR No.090401
Book TitleRitthnemichariu
Original Sutra AuthorSayambhu
AuthorDevendra Kumar Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1985
Total Pages204
LanguageHindi, Apbhramsa
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size4 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy