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[सयंभूएवकए रिट्ठणेमिपरिए पत्ता--तहि अवतरि केण बि अक्खिाउ दुद्दमवणु:विणिवायणेण । कुढि लागहो जइ ओलग्गहों रुप्पिणि पिय पारायणेण ॥६॥
तो कंदपवाप-उद्दालहो । साहणु संणझइ सिसुवालहो । भिच्चु भिषषु जो अवसरू सारइ।
रसर जोर धार रह रह जो रहसेण पयट्टइ। करि करि जो अरि करो बिटु॥ तुरिउ सुरिउ जो तुरउ पयाणइ । आणु जाणु जो जाएवि जागा ।। जोह जो जो जोहुवि सक्कह। रहिउ रहिउ जो रहिषि ण थक्कह ॥ खणु स्वग्ग खरगुज्जल धारउ । चक्कु चक्कु परचषक-णिधारउ॥ कोंतु कोतु परसोंतु-णिवार। सेरुल सेल्ल परसेल्ल-णिवारउ॥ सव्वल सन्चल सवल-भंजणि ।
लाडि लजि उठाउह तज्जणि ।। पसा-सण्णहेवि सेपण सिसुवालही बाइउ रणरहसुज्जमेण । महमहणेण पडिच्छिउ एंतउ 'आओसमणेण जं जमेण ॥७॥
तामपत्त मयमत्तवारमा।
संपहार-वावार-बारणा ॥ घसा-उस अवसर पर किसी ने जाकर कहा-"दुर्दम दानवों का विदारण करनेवाले नारायण के द्वारा रुक्मिणी ले जायी जा रही है। यदि पीछा कर सकते हो तो करो"||६||
सब कामदेव के दर्प को चूर-चूर करनेवाली शिशुपाल की सेना तैयार होती है । मृत्य वही है जो अवसर साधता है, शूर वही है जो रथ की धुरा को धारण करता है, रथ वही है जो वेग से दौड़ता है, हाधी वही है जो दात्रु के हाथी को नष्ट कर देता है और तुरंग (अश्व) वही है जो तुरंस' प्रयाण करना है, यान वही है जो चलना जानता है, योगा वही है जो लड़ सकता है, रयिक वही है जो रथ में (बैठा हुआ) नहीं थकता। खड्ग वही है जो खड्ग के पानी को धारण करता है। चक्र बहीं है जो शत्रुचक्र का निवारण करनेवाला है, कोंत नहीं है जो शत्रुकोत का निवारण करनेवाला है। सेल वही है जो शत्रु-सेल का निवारण करनेवाला है। सबल भी नहीं है जो दात्रु के सब्बल को नष्ट करनेवाला है । लकुट वही है जो लकुट-आयुष का सर्जन करने वाला हो।
पत्ता—शिवपाल की सेना तैयार होकर युद्ध के लिए हर्ष और उद्यम से दौड़ी 1 आती हुई उस सेना को क्रुद्धमन अम की तरह श्रीकृष्ण ने चाहा ।।७।। __इतने में मद से मतवाले हाधी पहुंचे जो प्रहार के व्यापार का प्रतिकार करने वाले थे।
१. ज, ब-आयोसमण, अ-आवोसमणु ।