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________________ छोगी] कालिज ग विठु नारायण || उप्पण्ण भंति णउ गाउ गाउ । घसा बिष्फुरिउ ताम कणिमणि-पिहाउ ॥ उज्जोएं जाणिज परमचाय । की गुणेहिं ण पाविड बंधणार | तो समरमा सहि दुम्महे । पुरंदकुम पंचगुलि पंच णजलंग । णं फुरिम फणामणि- वर भुयंग ॥ तहो तेहि घरिज्जइ फणकउप्पु । उपाय को कर करण सप्पू ॥ अक्सिज्ज इ णवरवि-उगामेण । उज्जलउ लज सिरि-संगमेण ॥ डिफड फणि झडप देह । विसहरु करोड़ -- पत्येष्पिषु ममहगें कालिउ जहयले भामिउ । भीeray कंसह गाई काल दंड उगाभिउ ॥ ६ ॥ मणि किरण कालिय- मीहि । विसर - सिर- सिहर सिलावलेहि ॥ जियत्पदं किमई समुज्जलाई । पिरिम जउणमहाजलाई ॥ तह हाउ गाउ णं गिल्लगंडु । [६३ भ्रांति उत्पन्न हो गयी. नाग ज्ञात नहीं हो सका। इतने में नाग के फण के मणियों का समूह धमका। उसके प्रकाश से साँप को जाना जा सका। गुणों के कारण कौन बन्धन को प्राप्त नहीं होता ? तब हजारों युद्धों में दुर्दम श्रीकृष्ण ने अपना बाहृदण्ड फैलाया जो पांचों अंगुलियों के पाँचों नखों से उज्ज्वल अंगवाला था और ऐसा लगता था जैसे चमकते हुए फणमणियों वाला श्रेष्ठ सांप हो । उन उंगलियों से साँप के फनसमूह को पकड़ लिया गया । यह मालूम नहीं हो सका कि उनमें कौन हाथ है और कौन साँप। नवसूर्य के उदम होने पर ही यह जाना जा सका कि लक्ष्मी का संगम करनेवाले (श्रीकृष्ण) ने उज्ज्वल साँप को पकड़ लिया है। विल सप आक्रमण करता है, लेकिन गारुड़ी का सांप क्या कर सकता है ? पत्ता - श्रीकृष्ण ने कालिय नाग की नायकर आकाशतल में इस प्रकार घुमा दिया, जैसे कंस के लिए उन्होंने भयंकर कालदण्ड उठाया हो ॥ ३ ॥ मणिकिरणों से महीधरों को भयंकर बना देनेवाले विषधरों के सिर रूपी शिखर - शिलातलों पर श्रीकृष्ण ने अपने वस्त्र समुज्ज्वल किये। यमुना का महान जल पीला हो गया। उस सरोबर में उन्होंने स्नान किया, जैसे गीले गंडस्थल वाला हाथी हो । फिर उन्होंने स्वर्णकमल समूह को १. अ फणिमणिहाउ । २. अ - समरसहासह दुम्मुहेण ३. महुमहण |
SR No.090401
Book TitleRitthnemichariu
Original Sutra AuthorSayambhu
AuthorDevendra Kumar Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1985
Total Pages204
LanguageHindi, Apbhramsa
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size4 MB
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