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अनुगत हूँ, भत्तः वियोग का प्रश्न ही नहीं बटन्स बारे हैं जिस प्रकार समुद्र में नदियों में तुमसे मिलूंगा, निराश होने का कोई कारण नहीं ।
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यह सुनकर गोपियाँ संतुष्ट हो जाती हैं। वे कृष्ण की एक-एक लीला का स्मरण करती हैं। कृष्ण की सामाजिक और राजनैतिक सफलताओं पर वे हर्ष प्रकट करती हैं। वे जानना चाहती है कि क्या मथुरा की स्त्रियों के प्रति भी उनका ऐसा ही प्रेम है। दूसरी सखी कहती है, "ये प्रेममोहिनी कला के विशेषज्ञ हैं अतः ऐसी कौन होगी जो उन पर नहीं रोकेगी ?" तीसरी गोपी पूछती है, "नागरिक स्त्रियों से कभी उनकी बात चलती है या नहीं ? क्या कृष्ण उन रात्रियों का स्मरण करते हैं जिनमें हमने रासलीला की थी ? क्या वे फिर हमारी सुध लेंगे ?" एक गोपी को यह आशंका है कि राजा बनने पर उन्हें कई राजकुमारियाँ मिल सकती हैं, फिर वे हमारी याद क्यों करने लगे? अपना काम पूर्ण होने से, उन्हें किसी से क्या प्रयोजन ?" एक पिंगला वेश्या की यह बात दुहराती है कि "आशा न रखना ही सबसे बड़ा सुख है ( परं सौख्यं हि नैराश्यं स्वरियह पिंगला) फिर भी उनकी आशा छोड़ना सम्भव नहीं । गोपियां उद्धव को सारे स्थान दिखाती हैं जिनसे कृष्ण का सम्बन्ध था। वे वियोग में कृष्ण से अपनी रक्षा चाहती हैं।
लेकिन उद्धव के माध्यम से प्रिय का सन्देश सुनकर गोपिय शान्त हो रहती हैं। उद्धव महीनों व्रज में रहते हैं। प्रिय में गोपियों की निष्ठा देखकर उद्धव प्रसन्न हो उठते हैं। वह प्रेममय fter महाभाव बड़े-बड़े मुनियों को दुर्लभ है।
भगवान् की लीलाकथा का रस जिसने चल लिया वह भूल नहीं सकता । उद्धव वृन्दावन में रह जाना चाहते हैं जिससे गोपियों की चरणधूल मिल सके। वे ब्रजरज को प्रणाम करते हैं । पश्चात् उद्धव मथुरा के लिए प्रस्थान करते हैं ।
कुब्जा अपने घर पर कृष्ण और उद्धव की पूजा करती है । उद्धव आसन से उठकर जमीन पर बैठते हैं। वह कुब्जा के साथ क्रीड़ा करते हैं। फिर वे उद्धब के साथ लौटते हैं । वे और बलराम अक्रूर से उनके घर भेंट करते हैं। अक्रूर उनकी सेवा करते हैं, उनकी स्तुति करते हैं । श्रीकृष्ण अक्रूर को पाण्डवों की कुशलता पूछने हस्तिनापुर भेजते हैं क्योंकि पाण्डु की मृत्यु के वाद धुतराष्ट्र उन्हें अपनी राजधानी में ले आये हैं। अकूर जाकर सबसे मिलते हैं और स्थिति का अध्ययन करने के लिए महीनों वहाँ रहते हैं। अक्रूर धृतराष्ट्र का कुल गोरव बढ़ाने की बात कहते हैं। वृतराष्ट्र स्वीकार करते हैं कि पुत्रों की ममता के कारण उनका चित्त विपम हो उठा है । बाद में अक्रूर मथुरा आकर श्रीकृष्ण को वहाँ का सारा समाचार सुनाते है ।
शुकदेव परीक्षित से बहते हैं— कंस की दो रानिम थीं, अस्ति और प्राप्ति। पति की मृत्यु के बाद वे अपने पिता जरासन्ध के पास चली जाती हैं। वह अपने दामाद के वध
क्रुद्ध होकर अक्षौहिणी सेना के साथ यदुवंशियों की राजधानी मथुरा को घेर लेता है। कृष्ण और बलराम जरासन्ध का सामना करते हैं । बलराम उसे ललकारते हैं। जरासन्ध सेना के साथ उन्हें घेर लेता है। मथुरा की वनिताओं में इसकी गहरी प्रतिक्रिया होती है। उन दोनों के प्रहार से जरासन्ध की सेना धराशायी हो जाती है । देवता फूल बरसाते हैं। कई बार यह क्रम चलता है । अठारहवीं बार कालयवन युद्ध करने आता है और म्लेच्छों की तीन करोड़ सेना के साथ मथुरा नगरी को घेर लेता है । कृष्ण और बलराम परामद कर पश्चिमी समुद्र में जलदुर्ग बनवाने का फैसला करते हैं । वास्तुकला के अनुसार सुन्दर नगरी बसाई जाती जाती है । श्रीकृष्ण माथा के द्वारा सबको वहाँ पहुँचा देते हैं । बलरामजी मथुरा में रहने लगते हैं और श्रीकृष्ण सादे