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अद्रमी सग्गो
लक्ष्य लछिय कोरह उद्दालिज । एवं काई करेस बाहयच ॥ एण भएण लोह-रई । दिपण यत्ति णं हरिहो समुद्दे ॥ छ ॥ तहि हरियल भय दम्भासणेण । सुरु गर तह वही पेग ॥ संपाइ सरह सुगहिय मुद्द्द्दु । बोल्लाविउ तेण महासमु ॥ अहो सायर सुंदरसुरवरेण । उं पेसिज पासु पुरंदरेण ॥ ममहही कएव पणिवासु । पंचास रहिउ जोयण सहासु ॥ सुरु गउ तसु एम भणेवि जं जि । मणि रयण अग्घु लए वि सं जि ॥ गज जलजिहि पासु जणद्दमासु । चाणूरमल्ल बल मद्दणां ॥ लक्ष् दिष्ण यति करि पट्टणाई ।
सरियउ बारह जोजाई ॥ गज गरवइ एम भणेवि जान । पट्टा सुरि घण ताम ।
पहले लक्ष्मी ले लो, फिर मणि छीन लिया, अब आकर ( श्रीकृष्ण ) क्या करेंगे? इस डर से जलसमूह से रौद्र समुद्र ने हरि के लिए स्थान (स्थिति) दे दिया। वहाँ हरि और बलभद्र दर्भासन पर स्थित हो गये । इन्द्र के आदेश से रूप (मुद्रा) धारण कर एक देव बैग से वहाँ या । उसने महासमुद्र से कहा "हे सागर ! सुन्दर इन्द्र ने मुझे तुम्हारे पास भेजा है। तुम्हे श्रीकृष्ण के निवास की रचना करनी चाहिए जो पचास कम एक हजार योजनों वाला हो । " जैसे ही उससे यह कहकर देव गया, वैसे ही मणिरत्न और अर्घ लेकर समुद्र चाणूर मल्त के बल का मर्दन करनेवाले श्रीकृष्ण के पास गया [ और बोला ]-"लो, मैं स्थान देता हूँ। नगर की रचना कीजिए। मैं बारह योजन (पीछे) हट गया " जब नरपति (श्रीकृष्ण ) से यह कहकर समुद्र चला गया, तो देवेन्द्र ने कुबेर को भेजा ।
१. अ-आश्रिउ ।