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________________ ३८ ] [सयंभूवक रिमिरिए धत्ता---स इन्डिय देसें देइ विसेसें सा वसुएवं वत सूय । भुवंड-पयंडे णं वेयंडे जमलालाण खंभ विद्वय ॥ ११॥ ug tofi avfarqUAM I बसुएउकंस गय वे वि जग ।। उपरि पोषण-परमेसर हो । केसरि-संजोत्तिय रहबर हो । परिवेदित पुरवत गयबरोह । रविमंडलु णं णवजलहरे अमहंतु पधाइ सी हरहु । सरजाले पच्छायंतु गहु ॥ तहि अवसर कंसें वुत्तु गुरु हज आयहो रणहि वैमि उरु ॥ तु पेक्खु अज्जु महराग बसु । सीसण स्वखहो परमहलु ॥ वसुए हत्थुच्छलय । रहू दिष्णु कंसु संचल्लियज ॥ से भिडिय परोप्पर दुसह । णाणाविह पहरण- भरियर ॥ पत्ता - आयामिवि कंसें लक्ष पसें छत्तु संचिषु ससीहर छिदिवि सरपसरें लद्धावसरे घरि रणंगणे सोहर ॥२॥ रिच लेवि वे विगय तं ' मगहू । माल-मंडल पर णिहु ॥ पता - मनचाहे देश के साथ वह विशेष रूप से देय होगी। अपने बाहुदंड से प्रचंड वसुदेव ने यह बात इस प्रकार सुनी मानो हाथी ने दोनों आलानख भों को कंपा दिया हो ॥ १ ॥ असहिष्णुता से कुपित भन, कंस और वसुदेव दोनों सेना के साथ, जिसके रथ में सिंह जुते हुए हैं ऐसे पोदनपुर के राजा सिंहस्य के यहाँ गये। उन्होंने गजवरों के द्वारा नगरवर को इस प्रकार घेर लिया जैसे नवजलधरों ने सूर्यमण्डल को घेर लिया हो। [यह ] सहन न करता' हुआ सिंहरथ भी दारजाल से आकाश को आच्छादित करता हुआ दौड़ा। उस अवसर पर कंस ने गुरु से कहा- ...इस युद्ध में इसे मैं अपना वक्ष दूंगा । आप आज मेरा बल और अपने शिष्यत्वरूपी वृक्ष का फल देखिएगा ।" वसुदेव ने हाथ उठा दिया । रथ दे दिया गया, और कंस चला। असह्य वे दोनों परस्पर लड़े। उनके रय नाना प्रकार के आयुधों से भरे हुए थे । स---- प्रशंसा अर्जित करनेवाले कंस ने अयाम कर सिंहों के रथ और चिह्नों सहित छत्र को तीरों के प्रसार से छेदकर, युद्ध के मैदान में अवसर पाते ही सिंहस्थ को पकड़ लिया ||२|| शत्रु (सिहरथ) को लेकर दोनों उस मगध ( देश में) गये जो इन्द्र-मण्डल के नगर के १. जिगिहु ।
SR No.090401
Book TitleRitthnemichariu
Original Sutra AuthorSayambhu
AuthorDevendra Kumar Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1985
Total Pages204
LanguageHindi, Apbhramsa
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size4 MB
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