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[सयंभूएवकए रिट्टणेमिचरिए पियकंसिलया लिंगिय-मवणु। यसएएं बालिउ महंमहणु॥ मलएएं मायवत्त परित। ते रिणिरतरु अतरित॥ पारायण-चलणंगु-हज ।। विहडेवि पोलि-कवाड गउ ।। धम्मोजम अग्गए पसल थिज। तें अउणाजलु वे भाय फिर॥ हरि देप्पिण लइय जसोय सुय । हलहरु क्तुएच कयस्थकिय ।। गोवंगय फंसहो अल्लाविय। बिमाहिव-जक्ने विजय णिय । गोषितु गंद गणए।
बदद णव ससि च गहंगणए । धत्ता हरिवंस हो मंडणु कंप्सहो खंडणु हरिपरिबह पंवघरे । णियपक्ष विठूसण परगयदूसणु रायहंस गं कमलसरे ॥१२॥
गोठंगणे पुण्णइ पाइयई। महरहि दुणिमित्तई जाए। गोरुंगणे परिवहइ हरिसु । मरहि वरिसाइ सरेणिय-चरसु ।। गोठंगणे अणुविषु पाई छ। महरहि संतत्तउ सपलु जणु ।। गोठंगगे मंडव-संकुलाई। महरहि वीसति अमगसई॥
गोठेंगणे खोरई पदियई। करनेवाले श्रीकृष्ण को वसुदेव ने चलाया, और बलदेव ने आतपत्र [छत्र] धारण कर लिया, उससे वर्षा की निरन्तरता बच गयी। नारायण के पैर के अंगूठे से मुख्य द्वार के किवाड़ खुल गए। धर्मतुल्य वृषभ आगे आकर स्थित हो गया। उसने यमुना का जल दो भागों में बोट दिया । हरि देकर वसुदेव ने यशोदा की पुत्री ले ली। बलभद्र और बसुदेव कृतार्थ हो गये। गोपकन्या कंस को दे दी गयी। विध्यराज पक्ष उसे विंध्य पर्वत पर ले गया। गोठ के प्रांगण में गोविन्द उसी प्रकार बढ़ने लगे जिस प्रकार नभ के आँगन में नभचन्द्र बढ़ने लगता है।
पत्ता-हरिवंश के मंडन और कंस के खंठन हरि नंद के घर में बढ़ने लगते हैं, उसी प्रकार जिस प्रकार अपने पक्ष के लिए भूषण और दूसरे के पक्ष के लिए दूषण राजहंस सरोवर में बड़ने लगता है। ___ गोकुल में पुण्य आ गए, मथुरा में खोटे निमित्त हुए। गोकुल में हर्ष बढ़ता है, मथुरा में रक्त की वर्षा होती है। गोठों के आंगन में प्रतिदिन उत्सव होता है, मथुरा में समस्त जन संतप्त होते हैं। गोठ के आंगन मंडपों में व्याप्त हूँ, मथुरा में अमंगल दिखाई देते हैं । गोठ के आंगन में दूध