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________________ १२४] घता केण वि महत्तु विनियउ ॥ तहो जीविउलित कुम्म । किह सोसु प फुट्ट पावइहे ॥ - तहि अवसरे धीरिय महूमहेण पुत्तु तुम्हारिउ । तो वही कियगारहो सणि अक्लोयणे अज्जुधिउ ११ ॥ १. अ - विडंवियर | [सएवकए रिटुमिचरिए ण मरइतु गंदषु जइवि जिउ । केवलिहि आसि आएसु किवज ।। होस विभव सुहेमु । पम्म सुरकरिकर- पवर-भूत ॥ युग्मेनु अवश्य च वि मर सुरिव वज्जाउ बि मिं हवं लहर वेवि सहाय जहि ॥ तहि अवसर जवर समावडिए । आयासही णारउ णं पडिउ ॥ भभोय ते सुरंतएन । कि रोव हि भई जीवंसएण ॥ अमुमहारसि सिद्धि उ । जिणु अणुपओइप ण कहइ राज ॥ हरं ताम गवेसमिसल-महि । सो जामम बिट्टू गुण-मगि-उवहि ॥ दुर्मति प्रजापति का सिर क्यों नहीं फूट गया ? घता --- उस अवसर पर श्रीकृष्ण ने उसे ( रुक्मिणी को) धीरज बंधाया कि तुम्हारा पुत्र जिसके भी द्वारा ले जाया गया है, उस दृष्ट अन्यायकारी को देखने में मैं आज शनि के समान हूँ । तुम्हारा पुत्र मरेगा नहीं, यद्यपि उसका अपहरण किया गया है । केवलज्ञानियों ने ऐसा आदेश किया है कि विदर्भपति की कन्या का पुत्र कामदेव ऐरावत के सूंड के समान प्रबल बाहुओंवाला, अपक्षय से न होने पर दुर्गा, देवेन्द्र के वच्च से माहत होने पर भी नहीं भरेगा । है कति ! जाकर भी, यह कहाँ जाएगा कि जहाँ मैं और हलधर उसके सहायक हैं। उस अवसर पर मात्र यह बात हुई कि नारद आकाश से आ टपके । तत्काल उन्होंने अभय वचत दिया कि मेरे होते हुए तुम क्यों रोती हो ? अतिमुक्तक मुनि ने सिद्धि प्राप्त कर ली है। जिनेन्द्र भगवान् अनुपयोगी कथन नहीं करते। मैं पृथ्वी पर तब तक खोज करूंगा कि जब तक गुण रूपी मणियों के समुद्र 'उसे नहीं देख लेता ।
SR No.090401
Book TitleRitthnemichariu
Original Sutra AuthorSayambhu
AuthorDevendra Kumar Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1985
Total Pages204
LanguageHindi, Apbhramsa
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size4 MB
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