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छज्जीव-णिकश्य दयाव रहो । भावतयालिथियविग्गहो ।
सियल परिग्गहो । दरिसाविध परमममपहहो' । सुरवंदण भक्तियप्राय हो । हि अंधयविद्वि-राविद । स परवड - विट्ठएं एक्कम ॥ णिसुर्णेपिणु यिभवंतर यिनामुपत्ति परं परई ॥
पण मई गरइ पतु घरे । तब चरणग्ग्रहणे पसाज करे || बता-सरणे अधिरे असारे एत्यु लेते ण रम्मइ । जहि अजरामर लोउ तो येस हो करि मग्गइ ॥ ६ ॥
१. ज अ मोक्खपथहो ।.
तो परमभाव सम्भावरया । विकिय सूरवीरतणया ॥ सहि समुविज भियत । महराहि उम्गसेणु किय ॥ अति जाम जति घर ।
| सयंभूएवकए रिटुमिचरिए
वसुए ताम अणंगसर || परिपेसिय पायरियामणहो । कावि हरु समप्पइ अंजनहो ॥
के द्वारा वंदनीय हैं, जो संपूर्ण पवित्र केवलज्ञान के कुल-गृह हैं. छहीं जीव- निकायों की दया करनेवाले हैं, जिनकी देह भावरूपी लता से अनिति है, जिन्होंने समस्त परिग्रहों को दूर छोड़ दिया है, जो परम मोक्ष-पथ को दिखाने वाले हैं, जो देवों की वंदना - भक्ति से स्व-वश हैं ऐसे- सुप्रतिष्ठ मुनि से, वहाँ का नराधिपति अंधकवृष्णि नरपतिवृष्णि के साथ, एक मति होकर अपने भवान्तर सुनकर अपनी उत्पत्ति, नाम और परम्परा को सुनकर कहता है-नरक में पड़ते हुए मुझे बचाओ, तपाचरण ग्रहण करने में मुझ पर प्रसाद कीजिए ।
घत्ता अशरण अस्थिर इस क्षेत्र ( मत्यलोक) में रमण नहीं किया जाता। जहाँ अजर-अमर लोक है उस देश का वर मांगा जाए ।
तब परम भाव और सद्भाव में लीन शूरवीर के पुत्र अंधकवृष्णि और नरपतिवृष्णि ने दीक्षा ग्रहण कर ली। शौरीपुर में समुद्रविजय स्थापित हुआ । उग्रसेन को मथुरा का राजा बनाया गया । इस प्रकार घरती का उपभोग करते हुए जब वे रह रहे थे कि इतने में वसुदेव ने नगर वनिताओं के मनों में कामदेव के तीर प्रेषित कर दिये । कोई अपना अपर