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मगंएवकए रिणेमिघरिए एता पवेस्पिण कहि मि गउ । सरछक णिरंकुसु पाई गज ॥ सहयरेण कहिउ सव्वहो पुरहो। मायर-रिव-अंतउरहो। रोवंतई सना उहियाई। पेक्वेवि साहरण प्रद्वियई॥ बंधवेहि विहाणई दिग्गु जलु ।
तहिं कालि कुमार वि अतुल बलु ।। पत्ता--विजयखेन पत्त तहिं सुगगीवेण विष्णउ ।
सरसइ-सक्छि समाणु सई भूसेवि चे काणउ ॥१३।।
इय रितुणेमिचरिए सयंभूएवकए समुद्दविजयाहिसेय णामो
इमो पढमो सम्गो। गया हूँ।" यह कहकर वह(वसुदेव ) कहीं चला गया- स्वच्छंद निरंकुश गज की तरह । सहचर ने पूरे नगर में, मां और राजा के रनिवास में यह बात कह दी। सब लोग रोते हुए उठे । आमूपणों के साथ हड्डियां देखकर दूसरे दिन सबेरे भाइयों ने उरो जलन्दान किया। उस अवसर पर अतुल छल कुमार बसुदेव--
यत्ता-विजयलेट नगर पहुँचा । वहाँ पर सुग्रीव ने सरस्वती और लक्ष्मी के समान दो कन्याएं स्वयं अलंकृत करके प्रदान की ॥१३॥
इस प्रकार स्वयंभूदेवकृत अरिष्टनेमिचरित में समुद्रविजयाभिषेक नामक
यह पहला सर्ग समाप्त हुआ।