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पडनो सगो]
पभयभूय-छाइयं ॥ महीगहोडसेषियं । मराफ्वच्छ वेवि ॥ णिसातमधारियं । जमाणणाणुकारियं ॥ दिग्गिजालमालियं। खगावलो-वमालियं॥ सरंडसूलियाउलं । सिवासिलया-संकलं॥ मिसायरेक्क-कवियं । परिस-मिमानि" तहिं महामसाणए।
जमालयाणुमाणए॥ घता-जायवणाहु पइट्ट साह्या दूरु यवेप्पिणु ।। 'माणुस णबल बढ़ कटुइं मेलावेप्पिणु ॥१२॥
तहि सम्बाहरणाई मेल्लियई। सत्तनिवहे उप्परि घल्लियई ।। बोल्लाविउ सहचर माहि तुई। सिववेविहिं एवहिं होज सह ।। परंतु मगोर पट्टणहो। सूरहिव-गंदण-गंदणहो । कहि चुस्कु सहोयर-पेसणहो ।
हर्ड उपरि चडिउ हुआसणहो। ज्ञात था, जो प्रचुर भूतों से आच्छादित था, जो महीग्रह (वक्षों/ब्राह्मणों ?) से सेवित था, हवा से हिलते वृक्षों से प्रकंपित था, जो रात्रि से अंधकारमय था, जो यम के मुख का अनुकरण करता था, जो चिताओं की ज्वालमालाओं वाला था, जो खगावली के नवशब्दों से भरपुर था, जो सरकंडों और शूलियों से व्याप्त था, जो सियारों और तलवारों से संकुल था, जो निशाचर समूह से आक्रान था, जो प्रसिद्ध सिद्धों से शब्दायमान था, ऐसे यम के आकार वाले उस महा श्मशान में
बत्ता—यादवनाथ वसुदेव ने राहचर को दूर कर प्रवेश किया, जहां लकड़ियाँ इकट्ठी कर एक युवक जल गया था ।।१२।।
यहाँ उसने (वसुदेव ने) सब आभूषण इकट्ठे किए और आग में डाल दिए । सहचर से उसने कहा, "तुम जाओ । इस समय शिवादेवी को सुख हो और नगर के मनोरथ पूरे हों। राजा शूर के पुत्र के पुन (समुद्रविजय) भाई की सेवा में किसी प्रकार का हुआ मैं आग पर चढ़
१.व माणुस गवाल ।