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तइयो सग्गो]
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सीह-विरको विवरखे।
हीयमाणए सबक्खे ॥ घत्ता-तहि अवसरि पाहियर मरण-मणोरहु सउरि ससालउ पक्का। दुस्सस एक्क हासणु अवरु पहुंजण वैवि धरिवि को सक्कह ॥६॥
विहिमिहिरण्णणाह-वसुएहि । रणरसियहिं दिय-अवलेवे हि । पाप-रह हि अखचिय-वरोहिं । गंधवह-धुन-धबलधयम्गेहि ।। सुरवेयंड-मुंड-भुयहि । इंदायुह-पयं उ-
कोहि ॥ विसहरदोह-वीह दोह-णाराऐहैं। मेह समद्द-रउद्द-णिणाऍहि ॥ छाइउ परबल सरबरजालें। गं गिरिजलु पक्पाउसकाले ।। सो ण जोह रोहण गयबरु । तंग रहंगु ण रहिउ गउ रहबरु ।। सो बि आसवार ण तुरंगम्। सो णराहिउ जसिरि-संगम् ॥ सं पनि प्राय वस्तु विविधउ ।
जं वसुएल-सरहिं ग विध॥ पराक्रम वाला हो उठा और वसुदेव का अपना पक्ष दुर्वल था
घसा--तब उस अवसर पर रथ चलाने वाला और मरने की इच्छा रखने वाला वसुदेव अपने साले के साथ स्थित हो गया। एक तो आग वैसे ही असा होती है दूसरे हवा हो, तो वोनों को कौन धारण कर सकता है ? ।।६।।
जो युद्ध में गरज रहे हैं, जिनका अहंकार बढ़ रहा है. जो रथों को हांक रहे हैं, जिन्होंने लगामें खींच रखीं है, जिनके ध्वजों के अग्रभाग प्रकंपित हैं, जिनके बाहुदण्ड देवसाओं के ऐरावत महागज की सूड के समान हैं, जो इन्द्रधनुष के समान प्रचण्ड धनुष वाले हैं, जिनके तीर विष. घरों के समान हैं, जो मेघ और समुद्र के समान रोदरस वाले हैं, ऐसे हिरण्यनाभ और वसुदेव ने पात्रसेना को शरबरों के जाल से ऐसा आच्छादित कर लिया, जैसे नवपावस काल ने पर्वत समूह को आच्छादित कर लिया हो । यहाँ ऐसा एक भी योद्धा और नर समूह नहीं था, गजधर नहीं था, चक्र नहीं पा, सारथि नहीं था, अश्वारोही नहीं था, अश्व नहीं था, विजय रूपी लक्ष्मी का आलिंगन करने वाला ऐसा राजा नहीं था, ऐसा आतपत्र नहीं था, ऐसा निशान नहीं था, जो वसुदेव के तीरों से छिन्न-भिन्न न हुआ हो ।
१. अ-गंधव्यहो घुय घबल घपग्ग हो।