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________________ १३२] [सयंभूएक्कए रिटुणेमिघरिए सूरप्पाह-रह-जिमाणु-पक्षषु । सियत-सेयचामर-जुयलु १ गउ पिउल पावितहि मय बिउ। उपलक्खणु णवर षयगे किउ । धत्ता—वहरिहि अमरिस-कुखहि सिलविजन याविहि अंपगउ । ताहि जिम वम्महेण जिह चितिउ मह अहियत्तणज ॥८॥ अगाउले बालें तलिय सिला। सश्लगेण आसि कोरिसिला॥ पाणप्ति-पहा परि जिय। असमस्य-णिरत्य-असत्य किया। ज-अ-बोषद्ध-रुद्ध किह। थिय पाविबाउल पिहय जिह ।। कह कहवि तहिं चुक्फ ए जणु । गड संवर-भवणु पवणगमणु ॥ परवा तुह गंदण गटविय । उग्वषषि सयल परिटुक्मि॥ परिकुविज कालसंवरु मणेण। पद्धविय असेसु सेग्णु खणेण ॥ सुरमाण सुरंगारूड भा। वाहियरह चोइय हरिबहा॥ सेणावह तहि सुघोसु पर। बाउर पाउबेज अवर ।। उससे मायामयी सर्वोषषि प्राप्त की । सूर्य की प्रभा के समान रथ और प्रबल विमान, श्वेत छत्र और दो चामर भी। वह विशाल बावड़ी पर गया और वहां मगर को जीता और उसे केवल अपनी ध्वजा का चिह्न बनाया। घता-असहिष्णुता के कारण क्रुद्ध शत्रुओं ने वावटी को ढकने के लिए शिला रख दी। तब तक कामदेव अपने मन में समझ गया कि किस प्रकार मेरा अहित सोना गया है 11८॥ अनाकुल उस बालक ने शिला उठा ली; जो लक्षण से कोटिशिला थी। उसने प्रज्ञप्ति विधा के प्रभाव से श्रुषों को जीत लिया और उन्हें असमर्थ, मिरर्य और अशस्त्र बना दिया। उठे हुए; माघे बंधे हुए और अवरुद्ध वे ऐसे मालूम होते ये जैसे वृक्ष पर बाउल पक्षी स्थित हों। वहां किसी प्रकार एक आदमी बच गया। पवन की गतिवाला वह कालसवर के घर गया, (और बोला), राजन् ! तुम्हारे पुत्र नष्ट हो गये हैं, वे सब बांधकर रख दिए गये हैं। कालसंधर अपने मन में कुपित हुना। एक क्षण में उसने समूची सेना भेज दी । पोद्धा शीघ घोड़ों पर आल्द हो गये, रप हाक दिये गये और गमघटा प्रेरित कर दी गयी। यहाँ सुघोष प्रघर सेनापति था तथा दूसरा वायु के समान उद्धत वायुवेग था ।
SR No.090401
Book TitleRitthnemichariu
Original Sutra AuthorSayambhu
AuthorDevendra Kumar Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1985
Total Pages204
LanguageHindi, Apbhramsa
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size4 MB
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