Book Title: Jainatva Jagaran
Author(s): Bhushan Shah
Publisher: Chandroday Parivar
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनत्व जागरण..... - भूषण शाह Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प.पू. सिद्धिदाता, सिद्धनाम, वचनसिद्ध, आचार्य श्री सिद्धिसूरीश्वरजी महाराजा (बापजी म.सा.)को कोटीशः वंदना... प.पू. आगमप्रज्ञ, श्रुतस्थविर, दर्शनप्रभावक मुनिसत्तम गुरुदेव श्री जम्बूविजयजी महाराजा को कोटीशः वंदना... Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ ॐ ह्रीं श्रीं श्री जीरावला पार्श्वनाथ रक्षां कुरु कुरु स्वाहा ॥ ॥ जिनशासन - जिनागम जयकारा ॥ जागे रे जैन संघ... जैनत्व जागरण..... -: देवलोक से दिव्य आशिर्वाद :आगमप्रज्ञ मुनिराज श्री जम्बूविजयजी महाराजा ँ भूषण शाह : प्रकाशक / प्राप्तिस्थान : चन्द्रोदय परिवार B-405/406, सुमतिनाथ बाबावाडी, मांडवी - कच्छ (गुजरात) Pin-370465 (M) 9601529519, 8490051343 Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राप्तिस्थान चदोदय परिवार की सभी शाखाएँ मुंबई महाराष्ट्र दक्षीण भारत तारदेव, कृणालभाइ- 9867911896 | बेंगलुर, प्रेमलताबेन- 9008544119 बोरीवल्ली, चेतनभाइ- 9987654198 चेन्नाइ, कोमलबेन- 9884368366 मलाड, संजयभाई- 9869040104 के.जी.एफ, आशीष- 9036761788 अहमदाबाद सौराष्ट्र - कच्छ (गुजरात) साबरमति, नीरवभाड- 9425028805/ मांडवी, नविनभाइ - 8490051343 सीटी, नीखीलभाई- 9426755901 |राजकोट, पूर्वीबेन - 9033663881 मोरबी, सनतभाइ- 9426732902 राजस्थान जयपुर, अनुजी जैन- 9426028805 नीलेश ओसवाल- 9822801192 बाडमेर, राकेशभाइ- 9460462999 जोधपुर, दीपकभाइ- 9828083214 मांडल उत्तर भारत पीकेशभाइ- 7405160351 लंडन दिल्ही, हीमांशु जैन- 9711406456 लुधियाना, अभिषेक- 9888060008 नैनेशभाइ- 00447802209090 आग्रा, मनिष जैन- 9359930418 म्यानमार (बर्मा) हितेषभाइ- +95-9420305250 हमें आप ओनलाइन भी पढ सकते है... फेसबुक पर - jainatva jagaran इस पेज को लाइक करे. Email:- jainatva jagaran@gmail.com हमसे जुड़ने के लीए jainatvajagran पर लीखे. आपको हमारे अपडेट मीलते रहेंगे jainelibrary से भी आप इसे पढ सकते है। (पत्र से मंगानेवाले केवल मांडवी के एड्रेस से ही पुस्तक मंगाए) Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १ | ............. ............. ॐ 3 अनुक्रमणिका प्रस्तावना.............. संपादक की और से ............... आशा की एक किरण................. जागो रे जैन संघ ! ...................... जैन धर्म की विश्वव्यापकता. जैन समाज की घटती हुई जन संख्या .............. संस्कृति का स्त्रोत .. जिनप्रतिमा का प्राचिन स्वरुप............. श्रमण संस्कृति की शलाका भूमि ............ १०. उत्तर पूर्व में जैन धर्म.. ......... ....... ११. सराक जाति का रहस्य . १२. सराक जाति का इतिहास........... ........ .......... .......... १४८ १६६ ९ : ३ ग्रंथ समर्पितम्..... आपका आपको ही सादर समर्पित..... इस ग्रंथ को मैं मेरे माता-पिता तुल्य, मेरे सदा सहयोगी मेरे बहन ऋषिना एवं बहनोइ जिम्मिभाइ भणसाली को सादर समर्पित करता हुं । - भूषण शाह Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४ q. Uzaldoll..... जैन धर्म विश्व का सबसे प्राचीन धर्म | जैन धर्म आत् से परमात्मा बनने का धर्म जैन धर्म - सुबोध विशाल वाङ्मय का धर्म । यह वही सर्वोत्कृष्ट धर्म है जिसकी प्ररूपणा ऋषभदेव जी - महावीर स्वामी पर्यन्त तीर्थंकरों ने की है । यह वही सर्वश्रेष्ठ धर्म है जिसका सवहनसंवर्धन सुधर्मा स्वामी- हेमचंद्राचार्य जैसे अपरिमित धुरंधरों ने किया है । यह वही सर्वमुखी धर्म है जिसका संरक्षण सम्राट सम्प्रति-सम्राट कुमारपाल जैसे परमार्हतों ने किया है । जैन धर्म का जाज्वल्यमान - देदीव्यमान इतिहास आज भी हमें प्रकाश प्रदान करता हैं । धरातल का सत्य हमें आलोकित करता है कि विगत शताब्दियों से जिस प्रकार भस्म ग्रह प्रभावेण जैन धर्म - जैन समाज का ह्रास हआ है, वह दयनीय है - निन्दनीय है । चरमतीर्थपति शासननायक भगवान् महावीर स्वामी जी के शासन में धर्मद्वेषियों द्वारा जिस प्रकार आक्रमण हुए हैं, उससे निस्संदेह रुप से हमें अपूरणीय क्षति हुई हैं । अब समय हैं उठने का जगने का । वर्षों से हम जिस चिरनिद्रा के वशीभूत हुए है, उसे तोड़े का समय है । जैन धर्म की दिव्य पताका पुनः दिग्दिगत फहरे, उसके लिए आवश्यकता है - 'जैनत्व जागरण' की । अतीत के अंधकार में खोता जैन धर्म का इतिहास — जैनत्व जागरण....... - I युगादिदेव श्री ऋषभदेव परमात्मा ने समूचे विश्व की सभ्यता-संस्कृति को पुष्पित - पल्लवित किया जिसके प्रमाण आज भी विश्व की सभी संस्कृतियों में प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष रुप से मौजूद हैं । उनके मार्ग से निकले भिन्न मत विभिन्न धर्म उन्हीं के वंशज है, किन्तु ऋषभदेव जी की मूल परम्परा को जीवन्त रखने वाले, उनके आत्मस्पर्शी उपदेशों को सजीव रखने वाले धर्मो में मात्र जैन धर्म ही शेष हैं । करोड़ो - अरबों की संख्या वाला जैन समाज आज संकुचित होकर हज़ारों-लाखों में रह गया है । यह संख्या मात्र जैन धर्मानुयायी बंधुओं की ही नहीं है, बल्कि जिनप्रतिमाओं - जिनशास्त्रों के संरक्षण के अभाव में उनकी संख्या भी आशातीत घटी है। आज भी Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनत्व जागरण..... हज़ारों तीर्थंकर-प्रतिमाएं चुन्नी पहनाकर अन्य धर्मी लौकिक देवी-देवताओं के रुप में पूजी जा रही है। आज भी सैंकड़ों जैन तीर्थ अपनी वास्तविक पहचान खोकर मिथ्यात्व के केन्द्र बने हुए हैं। आज भी लाखों जैन शास्त्रग्रंथ विभिन्न कोनो में पडे होकर दीमकों का भोजन बन रहे हैं । जिम्मेदार कौन?? इसकी जिम्मेदारी आज हम सभी को लेनी होगी । वर्षो-वर्षों पूर्व हमारे पूर्वजों को किस प्रकार के द्वेष का, आक्रमण का सामना करना पड़ा होगा, कहना रुठिन हैं । लेकिन निश्चित ही बहुत भयंकर परिस्थितियाँ रही होंगी। वर्तमान में जो-जितना हमें मिला है, उससे सन्तोष नहीं करना है किन्तु जैन धर्म के गौरव को पुनः विश्व व्यापक बनाने का संकल्प लेना भविष्य निर्माण हेतु जैनत्व जागरण के पथ पर । - हमारे परम आराध्य तीर्थंकर भगवंत 'सवि जीव करूँ शासन रसी' रुपी स्वपर कल्याण की परम मंगल-परमोत्कृष्ट भावना भाते हैं । जैनत्व जागरण का मूल आधार भी यही हैं । यथा – किस प्रकार में अपना प्रत्येक श्वास जिनधर्म-जिन-शासन को समर्पित कर सकूँ? किस प्रकार में जिनाज्ञा की आराधना कर स्वयं के जीवन को आत्मोन्नति के पथ पर ला सकूँ ? किस प्रकार में एक-एक व्यक्ति को प्रभु के इस शासन से जोड़ सकूँ? अपना चिन्तन-मनन तथा ऊर्जा-शक्ति को इसी उच्च दिशा में लगाकर जैनधर्म का गौरव पुनः स्थापित किया जा सकता है । जिनशासन के सतत् विस्तार में अनेकों आचार्य, साधु-साध्वी जी मंडल भिन्न-२ क्षेत्रों में कार्यरत् हैं। विगत वर्षों में जैनत्व जागरण के पथ पर चले अथवा चल रहे विभूतियाँ अनुमोदनीय कार्य करते रहे हैं - वर्षों पूर्व आचार्य विजयानंद सूरि जी (आत्माराम जी)ने पंजाब में जैन धर्म की छाप छोड़ी तथा विश्व के अनेकों विद्वानों को जैनधर्म से परिचित कराया । सराक आदि क्षेत्रों में पूर्व मुनि प्रभाकर विजय जी के, अब आचार्य सुयश सूरि जी, आचार्य मुक्तिप्रभ सूरि जी के विचरण से अच्छी जागृति Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनत्व जागरण..... आई हैं। आचार्य इन्द्रदिन्न सूरि जी ने बोडेली आदि क्षेत्रों में लाखों परमार क्षत्रिय जैन रुपी आदिवासियों को वर्षों के परिश्रम से पुनः जैन बनाया । साध्वी शुभोदया श्री जी आदि ने ३५-३५ वरष पल्लीवाल क्षेत्रों में सतत् विचरण कर पल्लीवालों को पुनः जैन धर्म में स्थिर किया । आचार्य नररत्न सूरि जी के साध्वी मण्डल ने गुजरात के अनेकों अजैन गांवों में जैन धर्म का बीजांकुरण किया है। दिगम्बर मुनिराज ज्ञानसागर जी भी सराक क्षेत्रों में कार्यरत् हैं एवं बहुत से मंदिरों-पाठशालाओं - जैन भवनों का निर्माण करा रहे हैं । मुनिराज जम्बू विजय जी आदि ने महान् श्रुतोद्धार कर विश्व-विद्वानों में जैनधर्म की पहचान जगाई है । स्थानकवासी श्री जयन्त मुनि जी पेटरबार स्थित होकर अनेकों को जैन बना रहे हैं। वीरायतन की चन्दना माताजी इन पिछड़े क्षेत्रों में सामाजिक कार्य कर रही हैं। स्थानकवासी मुनि ने राजस्थान में अहिंसानगर गांव वसाकर सबको जैन बनाया । शासनरत्न कुमारपाल भाई ! जैन शासन के एक आदर्श श्रावक के रुप में अनेकों जैनों को सम्यक्त्व दान देकर पुनः जैनधर्मी बनाया एवं शासन के प्रत्येक कार्य में अविस्मरणीय अनुमोदनीय योगदान है। जिनशासन की धुरा चतुर्विध संघ है। जैन धर्म का भविष्य उज्ज्वल से उज्ज्वलतम हो, इसी उद्देश्य से चतुर्विध संघ कोआगे बढ़ना है। 'आचार्याः जिनशासनोन्नतिकराः" परम पूज्य आचार्य-गुरु भगवंतों के नेतृत्व में जिनशासन की महती प्रभावना में हम सभी को जुड़ना है, हम सभी को योगदान देना है। प्रत्येक जैन में जैनत्व की जागृति ही हर समस्या का मूलभूत समाधान है। Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनत्व जागरण..... प्रस्तुत पुस्तक: जैनत्व जागरण के परिप्रेक्ष्य में इतिहास हमारा दर्पण होता हैं । इतिहास हमें दो प्रकार की शिक्षाएँ देता है - १. समृद्ध इतिहास से गौरवान्वित होना - प्रेरित होना एवं अनुकरम-अनुसरण योग्य अनुमोदनीय बातों को ग्रहण करना । २. इतिहास को बदल देने वाली गलतियों को पुनः न दोहराने की प्रतिज्ञा लेना । प्रस्तुत को पुस्तक आहवान हैं उन सभी शासनप्रेमियों को, जो इतिहास एवं वर्तमान के बल पर भविष्य की दिशा निर्धारित करने में चिंतनशील-मननशील हैं । प्रस्तुत कृति आह्वान है उन सभी धर्मप्रेमियों को जो जैन धर्म के गौरवशाली इतिहास के हस का पठन कर जैनत्व की जागृति करने के इच्छुक हैं । यह पुस्तक दो खण्डों में विभाजित हैं - • प्रथम खण्ड - जैन धर्म की विश्वव्यापकता प्राचीन समय में स्वतंत्र जैन धर्म विश्वभर में विख्यात था। जैन तीर्थंकर विविध रूपों प्राचीन समय में स्वतंत्र जैन धर्म विश्वभर में विख्यात था । जैन तीर्थंकर विविध रुपों में आज भी अनेकों संस्कृतियों-धर्मों में उपास्य हैं । विश्व की समूची सभ्यताओं का आदिधर्म तीर्थंकर प्रणीत जैन धर्म ही रहा है, जिसका अनुसंधान प्रस्तुत खंड में किया गया है । • द्वितीय खण्ड - सराक संस्कृति : एक अनुशीलन किसी समय जैन धर्म के अनुयायी रहे जैन भावक (सराक) किन्तु समय की आधी से अपनी मूल पहचान खो चुके है । भारत के पूर्वोत्तर राज्यों में बसे थे सराक संस्कृत एवं सराक भाई एक जीवन्त उदाहरण हैं जैन समाज के एक उन्नत वर्ग के हस का । पुरातात्विक साक्ष्य भी जैन धर्म के गौरवमयी इतिहास की गवाही देते हैं। प्रस्तुत खण्ड में सराक संस्कृति का समीक्षात्मक अध्ययन किया है। - पं. पुंडरिकरत्नविजय गणि. Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८ जैनत्व जागरण..... ॥ ॐ ह्रीँ श्रीँ श्री जीरावला पार्श्वनाथ रक्षां कुरु कुरु स्वाहा || २. संपादक की ओर से..... इतिहास गवाह है कि हजारो वर्ष पूर्व करोडो श्रावकों की आबादी वाला जैनशासन आज अन्य धर्मियों के आक्रमण से अल्पसंख्यक बन गया है । आज सरकारी अंको के अनुसार जैन मात्र 35 लाख बचे है । विधर्मी लोगों ने जैन शासन को, असंख्य जिनमंदिरो को एवं असंख्य जिनबिंबो को भारी मात्रा में नुकसान पहुँचाया । अरे ! अल्लाउदीन खीलजी की सेना ने तो ६ महीने तक अपने ग्रंथ भंडारों से से मिले ग्रंथो को जलाकर तापणा किया । दक्षिण में असंख्य जैन साधु-साध्वीओ की जिन्दा जला दिया गया । अरे ! जगन्नाथपुरी जो जीरावला पार्श्वनाथ का मूल स्थान था वहाँ जब जैन श्रावको ने अपना मन्दिर बचाने की कोशिश की सबका गला काट दिया गया । लाखो बच्चों को जिन्दा जला दिया गया औरतो पर अत्याचार होने लगा । उसी समय इन अमानवीय अत्याचारों से अपने प्राणों की व अपने जैनशासन की रक्षा के लिए कई जैनुधर्मी भाई-बहनों ने नगरं छोडा, कई ने अपना बलिदान दिया, कई लोगने धर्म परिवर्तन का शरण स्वीकार कर लिया । क्यों ? मजबूरी थी उनकी उस समय जैनों का कत्लेआम हो रहा था । ओ जैन धर्म के लोगो, ज़रा आँख में भर लो पानी जो शहीद हुए है उनकी, जरा याद करको कुर्बानी.... ऐसे ही धर्मपरिवर्तन हुए अपने भाईओं की जानकारी और विचार हमारे मन में होना ही चाहिए । धर्म परिवर्तित जैनों में (१) पल्लीवाल जैन : प्रदेश राजस्थान, उत्तरांचल, मध्यप्रदेश, हरियाणा, पंजाब, दिल्ली आदि. Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनत्व जागरण..... कुल संख्या - ५ लाख मूल देश - पाली से निकले जैन पालीवाल कहलाने लगे. आज का समय - आज कई पालीवालो ने फिर से जैन धर्म में प्रवेश कर लिया है । पालीवाल क्षेत्र में जैन साधु-साध्वी मंडल का विचरण आवश्यक है। क्योंकि इन भाइओं में अभी भी धर्म के प्रति अज्ञानता व असमंझसता खूब है। धर्म करने की रुचि भी बहुत कम है। लेकिन अगर जागरण किया जाए तो जागृति आ सकती है। ५०% लोग अभी भी अन्यधर्मी है । उनको फिर से जैन धर्मी बनाना चाहिए । (२) अग्रवाल जैन : प्रदेश : मध्यप्रदेश - उत्तरप्रदेश - दिल्ली - पंजाब राजस्थान आदि संख्या ५० लाख . . अग्रवाल जैन - घटती आबादी प्राचीन काल में भगवान महावीर स्वामी के निर्वाण के पश्चात् उसी परंपरा में लोहाचार्य हुए है । उन्होंने अपने पुरुषार्थ के बल पर मथुरा से पंजाब प्रांत तक फैली अग्रवाल समाज को जैन धर्म में पुनर्दीक्षित किया था । उसके पश्चात् अग्रवाल जैनों ने पूरे भारत में ही नही बल्कि विश्व स्तर तक जैन धर्म की पताका को फहराया । ११वीं शताब्दी में पूरनमल जी द्वारा शिखर जी की यात्रा संघ निकालने का उल्लेख तथा १३वीं शताब्दी में पार्श्वनाथ जिनालय महरौली योगनीपुर में अनेक शास्त्रों की रचना करवाने वाले लट्टल शाह का उल्लेख विशेष तौर पर जाना जाता है । मुगलों के आतंक का इन जैनों ने कड़ा मुकाबला किया । परंतु १८वीं शताब्दी के बाद जब हम इतिहास पर नजर डालते हैं तो देखते हैं कि तेजी से यह समाज वैष्णव धर्म की तरफ झुक गया तथा आज अग्रवाल जैन मुख्यधारा से हटकर अन्य धर्मों की तरफ जा रहे हैं। प. बंगाल, झारखंड आदि प्रदेशों में सरावगी बंध (अग्रवाल जैन) जिनके पूर्वजों ने राजस्थान से जाकर वहाँ व्यापार फैलाया तथा मंदिर बनवाए, वे सभी आज जैन परंपरा से हटकर अन्य मत की तरफ झुक गए हैं। रघुनाथपुर आदि छोटे-छोटे कस्बों में रहने वाले सभी सरावगी आज जैन धर्म का Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनत्व जागरण....... पालन नहीं करते हैं। इसी प्रकार पंजाब, हरियाणा, जम्मू कश्मीर, हिमाचल प्रदेश में भी यही स्थिति देखने को मिल रही है । जैनों की ८४ जातियाँ मुख्य रूप से शास्त्रों में उल्लिखित हैं जिसमें अग्रवाल जाति पक्के तौर पर जैन धर्म को मानने वाली बताई है लेकिन आज यह समाज तेजी से अजैन वर्ग में सम्मिलित होता जा रहा है । कहीं ऐसा तो नहीं कि अग्रवाल समाज की यही दशा हो जाए इसलिए मेरा अनुरोध है कि समय रहते हमें इस पर गंभीरता से ध्यान देना चाहिए कि सभी जैन जातियाँ संगठित हों और उत्तर भारत की वैश्य सिरमौर जाति अग्रवाल पूरी तरह से अपने पूर्वजों के धर्म को अंगीकार करे, ऐसी रूपरेखा समाज में बने । १० (३) जयस्वाल जैन प्रदेश : पूरे उत्तर हिन्दुस्तान में बिखरे है कुल संख्या : ३ लाख से उपर मूल देश : जयपुर (जयराज पुरी) से निकले आ. जिनचंद्र सूरि द्वारा प्रतिबोधित लोग जयस्वाल कहलाए । आज : जयस्वाल समाज आज जैन नहीं है पूर्णत: वैष्णव धर्मी है । व इनको वापिस जैन बनांना खाने का खेल नहीं है । प्रयत्नकिया जा सकता है (४) खंडेरवाल जैन प्रदेश : राजस्थान, मध्यप्रदेश, दिल्ली. मूल देश : खंडेराजपुर ( आज का सांडेराव) से निकले व आ. जिनपति सूरि द्वारा प्रतिबोधित लोग खंडेरवाल है । जैन. संख्या २० हजार, स्थिति आज कई जैन है । (५) लींगायत जैन क्षेत्र : दक्षिण भारत । संख्या ५ करोड से ज्यादा. मूल स्थान : दक्षिण लंका से निकले आ. भद्रबाहु द्वारा प्रतिबोधित आज : वहीं सब जानते है की हम जैन है । दक्षिण में अन्यलींगी Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनत्व जागरण..... ११ ने लाखों जैन साधुओं को जला दिया था । व लाखों साध्वी मंडल को बे-रहेमी से गला काटकर मार दिया था। साध्वी मण्डल पर बहुत अत्याचार गुज़रने लगे तब कई साध्वी गण, श्रावक - श्राविका गणने अन्य धर्म का शरण ले लिया । आज ये लोग संपूर्ण शाकाहारी है । जीवदया इनका मुख्य उद्देश्य है। प्राचीनलिपि के जानकार है । शुद्ध श्रावक की तरह जीवन जाते है फिर भी जैन नहीं है । आज जैनत्व जागरण करने से जागृति आ सकती है। साधु-साध्वी मण्डल का आज विचरण आवश्यक है। आज गुजरात, पालीताणा, मुंबई, महाराष्ट्र, राजस्थान छोडकर इन राज्यों में हमारा विचरण अति आवश्यक है। इसके आगे जब मुस्लिमों ने आक्रमण किया तब बहुत से जैन मुस्लिम धर्म में परिवर्तित हो गए जो आज बहोरा आदि के नाम से जाने जाते है तिब्बत, म्यानमार, थाइलेन्ड, वियेतनाम, आदि देशों में बौद्धों ने जोर जबरदस्ती अनेक जैनों को बौद्ध धर्मी बना दिया, आज भी वहाँ के कई जैन मन्दिर, बौद्ध मन्दिर के रुप में पूजे-जाने जाते है। सुप्रसिद्ध बौद्ध मन्दिरों को देखने से यह सच मालूम पडेगा । अब इसका कोई उपाय नहीं है। . (६) सराक जैन : आज इस ग्रंथ में हमें इन भाइयों के बारे में चर्चा करनी है। क्षेत्र : उत्तर-पूर्व भारत, बंगलादेश, म्यानमार (बर्मा) सिक्किम, भूटान तिब्बत आदि देशो में. आबादी : ५५ लाख से ज्यादा. आज : आज इन भाईओं को पता चल रहा है की हम वास्तव में जैन ही थें । इस क्षेत्र में असंख्य जैन मन्दिर के ध्वंस अवशेष पाए जाते हैं । वर्तमान मे सराक क्षेत्रो में करीब २० जैन नए मन्दिर बन चुके है। सराक जाति के गोत्रों का नाम भी ऋषभदेव गोत्र, आदिदेव, वर्धमानदेव, धर्मदेव, शान्ति आदि चोबीस तीर्थंकर के नामों के अनुरुप है । कई सराक Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनत्व जागरण....... १२ भाइओँ के घर में गोत्रदेव के रुप में प्रभु प्रतिमाजी पाए जाते है | अहिंसक हमारे भाइ मारो-काटो ऐसे शब्द भी नहीं बोलते । मांसभक्षण यहाँ का मुख्य खुराक होते हुए भी यह हमारे भाई मांसाहार नहीं करते । इन लोगो को रात्रिभोजन व कंदमूल का त्याग है । हमारे तारक तीर्थो की महिमा हृदय में स्वीकारते है । प्रभुवीर का निर्वाण कल्याणक असाधारण तरीके से मनाते हैं । अंतराय धर्म का पालन करते है । बस मात्र हमारी तरह देव - गुरुधर्म का अवलंबन नहीं पा सके । समय की पुकार है कि सम्यक्त्व से विमुख हो चुके अपने इन भाईबन्धुओं को पुनः सम्यक्त्व मार्ग की ओर अग्रसर किया जाए । विकृत इतिहास के कारण अन्य धर्मों में जा मिले जैन जातियों को फिर से उनको आदिधर्म अर्थात् जैनधर्म की मुख्य धारा में जोड़ा जाए । समय है अंधकार को च्चीरते अरुणोदय का । समय है जिनशासन के नवल सूर्योदय का । समय है साधुत्व श्रावकत्व के घंटनाद का । समय है जैनत्व जागरण के शंखनादका । भूषण शाह Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनत्व जागरण.... 3. आशा की एक किरण आज हम सब अपने - अपने कार्यक्षेत्र - पंथ - समुदाय - प्रोजेक्ट - भक्तगण तक सीमित है । मैं चाहता हूँ हम सब साथ मिलकर चौराहे पर खडे हों और धर्म प्रचार करें । जैन धर्म - विश्वधर्म बने । अब समय आ चुका है की जैन धर्म के विनाश को अटकाने के लिए, एवं चारो तरफ से आ रही आपदाओं का नाश करने हेतु हम सब एकजुट हों । सब साथ मिलकर चिन्तन करें । आज हमारे में ही कई जैन अजैन जैसे बन गए है। कई क्षेत्रों में साधु-साध्वीजी भ. का विचरण नहीं है । हर एक जैन कट्टर जैन बने । धर्म का आचरण कट्टर रुप से करे । अपने धर्म के प्रति वफादार हो, यही मेरी हार्दिक तमन्ना है । लाखों मुसीबते हमारे धर्म के सामने है। हमे अपने धर्म को इससे बचाना है। धर्मरक्षा सबसे बडा धर्म है । मात्र माला या किताबे लेकर व प्रवचन सुनने से अब कुछ नहीं होने वाला, अब बाहर आओ, आगे बढों, जैनशासन का उज्ज्वल भावीप्रकाश आपकी राह देख रहा है । शासन रक्षव शासन की प्रभावना के लक्ष्य से ही मैने यह पुस्तक लिखी है । इस विषय में मुझे जोडने वाले आ.भ. राजशेखर सूरिजी व. उनके समर्थ शिष्यगण पं. राजपद्म रत्न - हंसविजयजी म.सा. को मैं सदा वन्दना करता हूँ । एवं इस कार्य में मुझे ज़्यादा प्रेरणा-ज्ञान देनेवाले प.पू. आ.भ. कीतियश सूरिजी म.सा. पू. आ. हर्षवर्धन सूरिजी म, प.पू. मु. विवेकयश विजयजी म. का मैं ऋणी हूँ। इस पुस्तक में जिनका सहयोग मिला है वे.-श्रीमति लताबेन बोथरा, श्री हीरालाल दुग्गड़, श्री प्रबोधचंदसेन आदि का मैं आभारी हूँ। विविध लेखकों नामी-अनामी संस्थाओं जिनके प्रकाशित साहित्य में से कइ चीजे ली गई है उन सबका मैं आभारी हूँ। मेरे परमगुरुदेव प.पू. मुनिवर्य तीर्थनंदन विजयजी महाराज मेरे ऊपर सदा आशीर्वाद बरसायें । मेरे माता मेरे पिता जिनकी छत्रछायों में सब धर्मकार्य हो रहे है उनको सदा मोरी वंदना । भाई हेरत व भाई आकाश, बस जिनके नाम से ही मेरे सब काम पूर्ण हो रहे है। Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४ जैनत्व जागरण..... मेरा यह प्रयत्न जो जैन धर्म की विजयपताका को फैलाने वाला है यह आ. भ. दुप्पसह सूरिजी हो, तब तक अमर बने । जैन शासन जयवंत बने । जैन शासन की जय हो... विजय हो । जैन शासन में एकता बजे... सब लोग एक हो... विश्व में शासन के नाद गूंजते रहे भव्य जीवो का कल्याण हो... मंगल हो उसी शुभ भावना के साथ... जिनाज्ञा विरुद्ध कुछ भी लिखा गया हो तो बार-बार मिच्छामि दुक्कड़म् - हेरत प्रमोदभाइ EN SSSS... SN PATAAS . Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनत्व जागरण...... हृदय की अभिलाषा "जैनं जयति शासनम्' 'अन्यथा शरणं नास्ति"... हमारे जैन धर्म को मानने वाले वीतराग के मन्दिरों से अन्यत्र न जाए आज कईओंने भगवान के मन्दिरो में न जा कर अन्यत्र शरण ली है। धीरे-धीरे जैन धर्म लुप्त हो रहा है । करोड़ों से लाखो में आ गए है हम | जैन धर्मी इतना ख्याल रखें... ↑↑↑ ↑ 44 → जैन धर्मी महाजन है। अपना छोटा भी व्यापार होना चाहिए। नौकरीJob आदि जैन धर्मी की शोभा नहीं है । → अपने व्यापार में जैन धर्मी को ही रखें व जैन धर्मी अन्य साधर्मिक को आगे बढ़ाने का कार्य करें । → बडे बडे शहरो का मोह छोडकर अपने निज मातृभूमि में रहें। अपने मूल मातृभूमि में अपना मकान अवश्य रखें। जब आपत्ती आएगी बहुत काम आएगा । अन्य देव-देवी, अन्य मन्दिर, अन्य ज्योतिष वगैरेह । पितृ अर्पण वगैरह जैन धर्म मे नहीं है । ↑ 11 अन्य धर्म में विवाह (शादी) ना करें । मांसाहार से व मांसाहारियों से दूर रहें । अपने शिर पर एक जैन गुरु रखें मन्दिर जाएँ, कंदमूलादि का त्याग करें व रात्रिभोजन न करे । भारत देश् छोडकर ना जाएँ । क्योंकि देखने में foreign शब्द अच्छा है लेकिन वास्तव में खतरनाक है । १५ . हो सके उतना साधु-साध्वीजी के परिचय में रहे । उनकी सेवा भक्ति करें । → दीन में कम से कम १ घंटा जैन धर्म के लीए नीकाले । - भूषण शाह Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६ ४. जागो रे जैन संघ ! जैनत्व जागरण.... साधु-साध्वी-श्रावक-श्राविका, सब जिनशासन के अंग । समय आया अब जैनत्व जागरण का जागो रे जैन संघ ॥ प्रभु के इस शासन में सम्यक्त्व दान महादान कहा गया है । सराक जाति हमारे लिए साधर्मिक बंधुवत् है । उन्हें पुन: जैन धर्म की स्मृति कराके जैन धर्म में स्थिर करने से न केवल जिनशासन का विस्तार होगा, बल्कि सराक भाई सम्यक्त्व के पथ पर आएँगे तथा जैनधर्म पुनः गौरवपूर्ण स्थिति पर आरुढ़ होगा। सराक जाति के पुनरुद्धार का कार्य कठिन है, किन्तु असंभव नहीं है। तीर्थंकरों व पूर्वाचार्यो की साक्षी से अब हम सभी को एक योजनाबद्ध तरीके से आगे बढ़ना है । जब इसी मंगल भावनाओं के साथ हम सभी जैनत्व जागरण के पथ पर बढ़ेंगे तब निश्चित ही दैवीय शक्तियाँ इस अनुपम कार्य में सहयोग करेंगी एवं एक नए स्वर्णयुग का अध्याय प्रारम्भ होगा जो आगे आने वाली पीढ़ी के लिए प्रेरणा स्त्रोत बनेगा । यह समय की पुकार है कि जैन संघ का प्रत्येक व्यक्ति इस दिशा में एक कदम बढाए ताकि संयुक्त रुप से हम लाखों कदम आगे बढ़ें । आचार्यादि पदस्थ - अपदस्थ साधु-साध्वी वृंद से निवेदन एक आचार्य को १५-२० सराक क्षेत्रों का कार्यभार सोंपा जाए एवं वे अपने आज्ञानुवर्ती साधु-साध्वी जी को इस क्षेत्र में विचरण हेतु भेजें। भले चातुर्मास सम्मेद शिखर, पावापुरी, कलकत्ता, पटना, राजगीर, धनबाद, कटक, सरकेला, भुवनेश्वर जरीया आदि बड़े क्षेत्र में हो, किन्तु शेषकाल (८ महीने) का सम्पूर्ण विचरण सराक क्षेत्रों में हो । Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनत्व जागरण....... १७ सराक क्षेत्रों में अनेकों प्रतिमाएँ प्राप्त होती है । सराक भाई को जैनधर्म में स्थिर करके उन्हें ज्ञान प्रदान किया जाए एवं प्रत्येक क्षेत्र में जिनमंदिर की प्रतिष्ठा की जा सकती है । गुरु भगवन्तों की निश्रा में सराक क्षेत्रों से सराक भाईयो का सम्मेद शिखर जी, आदि तक की यात्रा । छरी पालित संघ निकाला जा सकता है जो निश्चित उनमें जैनत्व का बीजाकुरण करेगा । ● यहाँ धर्म कम होते हुए भी २० लोग यहाँ से दीक्षित हैं। साधु-साध्वीजी की प्रतिबोध कुशलता से प्रत्येक क्षेत्र में सराकों को दीक्षा के लिए भी प्रेरित किया जा सकता है । फलस्वरुप, बंधुओं को जैन श्रमण के रुप में देख सम्पूर्ण क्षेत्र के लोग जैन धर्म में अनुरक्त होंगे । सराक भाईयों में जैनत्व जागरण हेतु गुरु भगवंत दवारा रचित, सम्पादित, प्रकाशित साहित्य (विशेषकर सराकों की मातृभाषा में) प्रचारित करना चाहिए । आचार्य भगवन्त कुशल प्रशिक्षण द्वारा धर्मप्रचारक मण्डल तैयार कर इन क्षेत्रों में भेजे जा सकते हैं। शिविर, पाठशाला, उपधान आदि के द्वारा सराक बंधुओं के पुनः श्रावक बनाया जा सकता है । देव-गुरु- धर्मोपासक श्रावक-श्राविका गण से निवेदन सम्मेद शिखर आदि तीर्थों की यात्रार्थ पधारने वाले श्रावक-श्राविका गण सराक क्षेत्र में निर्मित जिनमंदिरों के दर्शनार्थ एव यहाँ यत्र-तत्र जैन धर्म के पुरातात्त्विक अवशेषों के अवलोकन करने पधारें, नया अनुभव मिलेगा । कोई विशेष उद्योग-व्यापार के मालिक हों, तो अपने उद्योग आदि में सराक जाति को जोड़े एवं अपने व्यापार में उनका भाग रखें । किसी का होलसेल आदि का व्यापार ही, प्रभु फोटो, वगैरह देकर साधर्मिक भक्ति का लाभ ले एवं स्वयं इन सब वस्तुओं धार्मिक उपकरण Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८ जैनत्व जागरण....... को वितरित करें तथा जैनत्व पर बल दें । दान का प्रवाह इस ओरभी दौडायें । यहाँ कार्यरत् गुरु भगवंतो, ट्रस्टों आदि को यथाशक्ति सहयोग की भावना रखें 'एवं सदैव अनुमोदना करके शासन समर्पित विभूतियों का मनोबल बढ़ाएँ । दर्शन - ज्ञान - चारित्राराधक ट्रस्टों-संघों से निवेदन धर्मप्रचारकों की विशाल टीम बनाई जानी चाहिए। जिस प्रकार तेरापंथ जैनो में समण - समणीरुप धर्मप्रचार टीम है, वैसे ही श्वेताम्बर - दिगम्बर दोनों में धर्मप्रचारक परिषद होना चाहिए। जैसे अनेक युवा पर्युषण कराने भारतभर में जाते हैं, वैसे ही एक व्यवस्था के अनुरुप सराक गाँवों में भी धर्मप्रचारकों नियत ड्रेसकोड से पधारना चाहिए । एक समर्थ संघ एक सराक गाँव दत्तक (गोद) ले तथा आचार्य भगवंत के मार्गदर्शन से एक मंदिर देवद्रव्य से बनाया जाए । इतिहासविद श्रावकों को साथ लेकर इन क्षेत्रों की पुरातात्त्विक शोध एवं वहाँ के पुरातात्त्विक विभाग सरकार आदि से नियत संपर्क में रहने के लिए छोटी टीम तैयार की जा सकती है । जहाँ जहाँ तीर्थों में, मंदिरों में, जैन भवनों में कर्मचारी । कार्यकर्त्ताओं की आवश्यकता हो, तो प्रथम रुप से सरांक भाईयों को ही बुलाया जाए ताकि वे एवं उनका परिवार जैन धर्म से जुड़े । स्थानीय भाषाओं मं पत्र-पत्रिकाएँ आदि का प्रकाशन एवं सराक भाईयों के मध्य में प्रचार किया जा सकता है जिससे इन भाईयों को अपनी वास्तविक पहचान पता चले । पाठशालाओं का संस्थापन - संचालन, गुरुदेवों की विहार में सहयोग इत्यादि ॥ समाज के प्रबुद्ध विचारकों के पास इसी प्रकार के अनेकों सुझाव Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनत्व जागरण...... १९ हैं किन्तु आवश्यकता है उनके क्रियान्वण की । अब हमें प्रमाद नहीं करना है - आगे बढते जाना है। अभी नहीं, तो कभी नहीं । आप अपने २५ लाख से भी अधिक जैनत्व भूल चुके भाईयों-बहनों के जैन धर्म में पुनः प्रवेश के ऐतिहासिक प्रसंग के साक्षी बनोगे । चलो अपने खोए हुए भाईयो को अपने आंगण में वापस लाने का प्रयत्न करे । बिना पंथभेद बिना लालच बिना उम्मीद बिना नाम वीर पुत्रों । उठो, अब चल पडो... - हीमांशु जैन Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनत्व जागरण....... ॥ ॐ ह्रीं श्रीं श्री जीरावला पार्श्वनाथ रक्षां कुरु कुरु स्वाहा ॥ ५. जैन धर्म की विश्व व्यापकता जैन धर्म एक स्वतंत्र धर्म है । वह किसी से निकला हुआ पंथ नहीं है अपितु विश्व के सभी धर्मों का मूल स्त्रोत है । लोग भ्रान्तिवश जिसे हिन्दु धर्म के नाम से जानते - पहचानते हैं, वह वस्तुतः वैदिक धर्म है । हिन्दु धर्म नामक कोई भी धर्म इस विश्व में है नहीं क्योंकि हिन्दु एक संस्कृति है, सभ्यता है। हिन्दुस्तान की भूमि में बस रहे सभी वैष्णक, सीख, जैन आदि हिन्दुत्व सभ्यता के अंग है । जैन धर्म तथा वैदिक धर्म में मूल तत्त्वों का भेद है । जैनधर्म वैदिक धर्म नहीं है, इस निम्नलिखित भेद द्रष्टत्य I है । २० १. ३. ४. यह कुछ तफावतें जिससे पता चले जैनधर्म वैदिक धर्म नहीं है । जैन धर्म वैदिक धर्म भगवान के अवतार की मान्यता भगवान को खुशी भी होती भी होता है । दुख प्रभु को चढ़ाया हुआ भोग प्रसाद के रूप में खा सकते हो । जगत् को चलानेवाले व . बनाने वाले भगवान् है I सभी भगवान की स्त्री है । राम-सीता, शिव-पार्वती, १. भगवान कभी अवतार नहीं लेते वे सिद्धशिला पर विराजते है । भगवान कभी भी खुश - नाखुश नहीं होते है । वे तो वीतरागी है। प्रभु को चढ़ाया हुआ भोग कभी भी हम नहीं खा सकते. २. ३. जगत् सहज रीत से था, है और रहेगा । भगवान नहीं चला व बना स तीर्थंकर कभी स्त्री नहीं रखते । स्त्री राग का कारण है और Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनत्व जागरण...... ६. ७. ८. राधा-कृष्ण वगैरह प्रभु अकेले होने से थक गए इसलिए उन्होंने पृथ्वी का सर्जन किया । है । उपवास में फलाहार वं आलू आहार होता है । बड़े ऋषि पत्नीधारी होते है जैसे की पृथ्वी स्वयं संचालित है । ब्रह्मा-विष्णु-महेश जगत की ७. जो पालन - संहार करते है वे रचना - पालन व संहार कभी भगवान नही हो सकते । क्योंकि प्रभु वीतरागी है । ८. उपवास में सिर्फ पक्का पानी पी सकते है, वो भी कुछ - ६. अत्रि अनसुया, काश्यप अदिती, वसिष्ठ - अरुन्धति आदि १०. मेनका द्वारा पतित विश्वमित्र जैसे ऋषि के रुप में चल है । ११. ऋषि बच्चे के लिए तप आदि करते है २१ जैन धर्म रागी - देव नहीं मानता. प्रभु कभी अकेले थे ही नहीं । अकेले थे तो वे कहाँ से आए ? समय तक. ९. जैन धर्म में पत्नी हो तो ऋषि (मुनि) बनने से पहले ही त्याग करना पड़ता है। १०. एक बार पतित को घर वापस भेज देते है । १९. ऋषि को पत्नी ही नहीं होनी चाहिए तो बच्चे की भला क्या कल्पना. १३. बालक के संभवित मृत्यु से ऋषि डरते थे । १२. राजा ईश्वर का अंग होता है। १२. राजा एक सामान्य मानवी ही है । १३. यह आर्तध्यान है, साधु को बहु प्रायश्चित मिलता है । १४. जैन धर्मानुसार गाय सिर्फ चतुष्पद प्राणी है । १४. हिन्दु धर्म के अनुसार गाय माता है। १५. गाय की पूंछ में तेंतीस १५. विष्टा आदि खाने वाले प्राणी के Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२ १६. करोड़ देवों का वास है । अकाल मरण पाने वाले व्यक्ति को विधि करके मोक्ष में पहुंचा सकते है । १७. श्राद्ध करना चाहिए । १८. हिन्दुधर्म में पितृ लोगों को परेशान कर सकते है १९. पंच महाभूतो को मानते है । २२. वर्ण व्यवस्था स्वीकृत है २३. शुद्र (दलित) साधु नहीं हो सकता । २४. राम भगवान है । २५. कृष्ण की स्त्री संबंधी प्रवृत्ति एक लीला है । २६. कर्म की व्याख्या अलग अलग है । २७. भगवान युद्ध की प्रेरणा कर सकते हैं । २८. बकरों - घोडा आदि के होम से मोक्ष मिलता है । जैनत्व जागरण...... कोई अंग में देवों का वास भला कैसे हो सकता है ? १६. जैन धर्म के अनुसार यह महामिथ्यात्व है । २०. वेदो में हिंसा का समर्थन है । २०. २१. साधु शाप दे सकते हैं ( मिथ्यात्व = गलत समजना) एसा करने से खुद को तर्क मिलती है। १७. श्राद्ध कभी भी नहीं हो सकता । १८. जैन धर्म में पितृ का स्थान व अस्तित्व ही नहीं है । १९. पंच महाभूतो से धर्म का कोई संबंन्ध नहीं है । वेद कभी हिंसा करना नहीं बताता. २१. शाप देनेवाले कभी भी साधु नहीं हो सकते । २२. वर्ण व्यवस्था अस्वीकृत है । २३. सभी साधु जन सकते है मेतार्य मुनि, हरिकेशी चंडाल वगैरह. २४. राम सिर्फ अच्छे राजा है 1 २५. यह कोई लीला नही बल्कि संसार पोषक प्रवृत्ति है । २६. कर्म की व्याख्या एक है । २७. वो भगवान ही क्या जो युद्ध करें ! २८. होम-हवन से मोक्ष नहीं केवल नर्क ही मिलती है । Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनत्व जागरण...... २९. अश्वमेघ करनार चक्रवर्ती राजा होता है । ३०. आलू, आदि ज़मीनकंद धार्मिकदृष्टि से खाते है । ३१. रात्रिभोजन पाप नहीं है । ३२. अपुत्रीया को गति नहीं है । (अपुत्रस्य गतिर्नास्त्रि) ३३. शंकर के लिंग की पूजा होती है । ३४. हिमालय में देवो का वास . है । ३५. रावण राक्षस है । ४०. गोंय की पूंछ पकड़ के मोक्ष में जा सकते है । २३ ४१. चित्रगुप्त सभी आत्माओं चोपडे के चोपडे लिखता है । २९. अश्वमेघ करनार महापाप का भागी बनके दुर्गति में जाता 1 ३०. आलू आदि ज़मीनकंद सदा ही वर्जित है । ३१. रात्रि भोजन महापाप है । ३२. अपुत्रीया को मोक्ष में मिल सकता है । पात्र था । ३६. नदी में स्नान करने से मोक्ष मिलता है । 1 ३७. होली विशिष्ट पर्व है ३८. रक्षाबंधन धार्मिक भाई के ३६. नदी में स्नान करने से केवल संसार की वृद्धि होती है । ३७. होली भट्ठा महामिथ्यात्व है । ३८. केवल मिथ्यात्व है । बहन पूरा साल भाई के लिए शुभकामना करती है । प्रति बहन के लगाव का त्योहार है । ३९. मृत्यु यमराज के हाथ में है । ३९. यमराज का तो जैनो ने कभी स्वप्न भी नहीं देखा । ४०. गोंय की पूंछ पकड के केवल होस्पीटल जा सकते है । ३३. मूत्रादिक अशुचि के उत्सर्जन करनार अंग की पूजा कैसे हो सकती है ? ३४. दूसरे पर्वतो जैसा ही पर्वत हिमालय हैं । ३५. रावण मनुष्य था सिर्फ भूल का ४१. आत्माएँ खुद ही अपने कर्म के लिखती है I Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४ ४२. कृष्ण युग युग में अवतार लेंगे । ४३. प्रभु की इच्छा - कृपा और मर्ज़ी से ही सबकुछ होता है । सब आत्मा भगवान के अधीन है । ४५. वैदिक धर्म में सतीप्रथा थी और आज कई जगह पर जारी है । ४६. वैदिक धर्म कहता है हाथी के पाँव तले मरना अच्छा लेकिन जैन मन्दिर का आश्रय लेना बुरा । ४७. रांधण छट्ठ बड़ा त्योहार है । बासी खाने की यह सबसे बड़ी त्योहार है । ४८. संतो के मृत शरीर को समाधि दी जाती है । अग्निदाह नहीं किया जा सकता । ४९. सत्व, रजस् और तमस् तीन गुणों की धारणा है । आत्मा के चौरासी लाख अवतार होते हैं । ४४. ५०. जैनत्व जागरण...... ४२. युग युग में मोक्ष पहुँचनेवाले कभी अवतार नहीं लेते । ४३. प्रभु कभी भी इच्छा नहीं रखते प्रभु की मर्जी भी कर्म के सामने नहीं चलती । ४४. सब आत्मा खुद के अधीन है । ४५. जैन धर्म में पहले से ही सती प्रथा ना थी न है . और ना होगी. ४६. जैन धर्म किसी की भी व्यक्तिगत निंदा टीका नहीं करतीं । ४७. जैन धर्म में बासी खाने को महापाप कहा गया ४८. संतो के कालधर्म पश्चात श्रावकजन उनके मृतदेह को अग्निसंस्कार करते हैं । ४९. जैन धर्म में ये तीन गुणो की धारणा है ही नहीं. ५०. जन्म जन्मांतर की निश्चित संख्या नहीं होती । आत्मा के पुरुषार्थ पर आधारित है । Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनत्व जागरण..... ६. जैन समाज की घटती हुई जनसंख्या - एक चिंता का विषय किसी समय जैन धर्म और जैन समाज भारत में प्रमुख जाने जाते थे। जनसंख्या के आँकड़ों से ज्ञात होता है कि पारसी और जैनों की जनसंख्या में तेजी से गिरावट आ रही है, जबकि अन्य समुदायों की संख्या में उत्तरोत्तर वृद्धि हो रही है । अकबर के समय में जैन धर्मानुयायी पांच करोड़ थे, जबकि उस समय देश की जनसंख्या भी बहुत कम थी । जैन समाज का ध्यान इस ओर नहीं है। हमारा अधिकांश धन भवन निर्माण, पंचकल्याणक, मूर्ति प्रतिष्ठा और विधि-विधान में खर्च हो रहा है । ज्ञानकांडी जैन धर्मकर्मकांडी होता जा रहा है । मूर्ति और मंदिर के साथ पूजकों की संख्या भी निरंतर बढ़नी चाहिए, तभी मंदिरों और मूर्तियों की अभिवृद्धि की सार्थकता है । किसी विदेशी विद्वान ने घटती हुई जैन संख्या पर गंभीरतापूर्वक विचार किया और इस निष्कर्ष पर पहुंचे कि इस धर्म में अपने व्यक्तियों का निष्कासन तो है, किंतु दूसरे मत को मानने वाले का प्रवेश नहीं है । भगवान की सभा को समवसरण कहा जाता था क्योंकि उसमें सभी जातियों का प्रवेश विहित था । कालांतर में राजसत्ताओं के जैन धर्म से विमुख होने के कारण जैनों को दक्षिण और पूर्वी भारत में तेजी से हास देखना पड़ा और शेष जैनों को अपना अस्तित्व कायम रखना मुश्किल हो गया । बंगाल, बिहार और उड़ीसा के मूल जैनों को राजनैतिक विप्लव के समय सुदूरवर्ती जंगली इलाकों में अपना घर बसाने के लिए विवश होना पड़ा । कालांतर में वे यह भूल गए कि वे जैन हैं और उनके पूर्वज जैन धर्मानुयायी थे । इतना सब होने के बाद भी उनकी जीवन-शैली में जीवदया, अहिंसा, शाकाहार, शुद्ध खान-पान के संस्कार मिले रहे है। आज वे सराक (श्रावक) के नाम से प्रसिद्ध हैं और उनकी जनसंख्या लाखों में है। उनके स्थितिकरण की बहुत बड़ी आवश्यकता है। __हमारे साधुओं का चातुर्मास प्रायः सराक क्षेत्रों में नहीं होता । ग्रीष्मकालीन अवकाश में यहाँ संस्कार शिविरों का आयोजन होना चाहिए । Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनत्व जागरण.... बड़े शहरों के जैनियों को ऐसे कुछ गाँव गोद लेकर उनके हितार्थ योजनाएँ बनानी चाहिए । अपने व्यापारिक संस्थानों में सराक भाइयों को सर्विस देनी चाहिए और उनके साथ समता का व्यवहार करना चाहिए । जैनों की कुछ जातियाँ ऐसी हैं, जिनमें वैष्णवों के साथ परस्पर रोटी, बेटी का व्यवहार प्रचलित है। इनके गोत्र भी एक से हैं । अग्रवाल जाति ऐसी ही जाति है। पहले वैष्णव अग्रवाल जाति ऐसी ही जाति है। पहले वैष्णव अग्रवाल लडकिया जैन परिवार में आकर जैन धर्म को आत्मसात् कर लेती थीं, अतः कोई विशेष हानि नहीं होती थी । आज यदि कोई वैष्णव अग्रवाल पुत्री जैन परिवारों में आती है तो वह परिवार . के शेष सदस्यों को जैन धर्म छोडने का उपक्रम करती है। यदि जैन पत्री अग्रवाल घर में जाती है तो कुछ अपवादों को छोड़कर प्रायः उसका वैष्णवीकरण हो जाता है। परिणामतः हजारों अग्रवाल जैन धर्म छोड़ चुके है। इस ओर भी विशेष जागरूकता की आवश्यकता है। अमेरिका और कनाडा में लगभग ढाई लाख जैन हैं । इनकी पुरानी पीढ़ी तो जैन धर्म में दृढ़ थी, किंतु नई पीढ़ी शिथिल होती जा रही है। अतः विदेशों भाषा में जैन साहित्य प्रकाशित करना चाहिए । विद्वानों और त्यागियों को विदेश में जाकर वहाँ के जैनों का स्थितिकरण करना चाहिए। समाज में यह भ्रम फैलाया जा रहा है कि जैन धर्म भारत के बहुसंख्यक धर्म की एक शाखा है। यह एक निर्मूल और भ्रांत धारणा है । वास्तविकता यह है कि जैन धर्म एक मौलिक, स्वतंत्र तथा विश्व का प्राचीनतम धर्म है । हमारे देव, शास्त्र और गुरु हिंदू धर्म से पृथक् हैं । हमारा साहित्य स्वतंत्र और मौलिक है। भारत की प्रायः सभी प्रमुख भाषाओं में जैन साहित्य रचा गया है। ___अजैनों के साथ विवाह संबंध स्थापित होने का मूल कारण दहेज प्रथा है । एक कुप्रथा के निराकरण हेतु समाज के युवक जैन युवतियों को आगे आना चाहिए । यद्यपि हमारे समाज में भ्रूणहत्या जैसी कुप्रथा का अभाव है, किंतु लड़कों की अपेक्षा लड़कियों का अनुपात घट रहा है । सर्विस को अत्यधिक महत्व मिलने के कारण कुछ कम शिक्षित या अर्द्धशिक्षित जैन लड़कों को सुयोग्य कन्या नहीं मिल पाने के कारण दूसरे धर्म की Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनत्व जागरण..... २७ लड़कियों के साथ विवाह किए जाने की घटनाएँ दिनोंदिन बढ़ रही हैं । ___ स्थानीय पाठशालाओं का अभाव होने के कारण जैन बच्चे अपने धर्म के विषय में बहुत कम ज्ञान रखते हैं, अतः जैन पाठशालाएँ स्थापित करने की प्रथा को पुनर्जीवित करना श्रेयस्कर है। जैन बच्चे अपनी पढ़ाई को सुचारु रूप से चलाने केलिए सुदूरवर्ती शहरों में चले जाते हैं । वहाँ छात्रावासों में सभी प्रकार का आहार ग्रहण करने वाले बच्चों के बीच रहने के कारण उनके संस्कार गड़बड़ हो जाते हैं । अतः इस प्रकार के शिक्षा केंद्रों के समीप जैन छात्रावासों के निर्माण की वृहत् योजना बनानी चाहिए। जैनेत्तर समाज में जैन धर्म को लोकप्रिय बनाने हेतु जनकल्याणकारी योजनाएँ बनाकर दूसरों का हृदय जीतने के उद्देश्य से जैनों को आगे आना चाहिए । धर्मनेताओं को इस विषय में गंभीर चिंतन करना चाहिए । जैन समाज अल्पसंख्यक हैं, किंतु भारत सरकार या प्रादेशिक सरकारें अल्पसंख्यकों को जो सुविधाएँ प्रदान कर रही हैं, उसका शतांश भी जैनों को उपलब्ध नहीं है, न ही वे इस विषय में कोई प्रयत्न करते हैं। अधिकांश अल्पसंख्यक कार्यालयों के कर्मचारियों को यह ज्ञात ही नहीं है कि जैन भी अल्पसंख्यक हैं । जैन समाज जब भारत सरकार को प्रभूत मात्रा में इनकम टैक्स आदि देता है तो वही समाज अल्पसंख्यकों को प्राप्त होने वाली सुविधाओं का हकदार क्यों नहीं है? असली कारण यह है कि हम अपने अधिकारों के प्रति जागरूक नहीं हैं । महाराष्ट्र आदि राज्यों में कुछ जातियाँ ऐसी हैं, जो पहले जैन थीं, अब उन्होंने जैन धर्म छोड़ दिया है या जैनों ने उन्हें अपनी समाज से बाह्य कर दिया है। ऐसी जातियों को पुनः जैन धर्म के मार्ग पर चलकर समाज की मूलधारा में लाना चाहिए । मंदिरों और सामाजिक संस्थाओं में जैन कर्मचारियों की नियुक्ति होनी चाहिए । प्रति सप्ताह एक ऐसा दिन अवश्य निश्चित होना चाहिए जिसमें सामूहिक पूजन पाठ, प्रवचन आदि हों और उसमें पूरे समाज की भागीदारी हो तथा मद्यपान, सामूहिक रात्रिभोज, रात्रि में विवाह जैसे प्रवृत्तियों पर रोक लगाई जाए । Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनत्व जागरण..... ७. संस्कृति का स्रोत निरन्तर विषय भोगों की अभिलाषा करने के कारण अपने वास्तविक प्रेय से चिरकाल तक बेशुद्ध हुए लोगों को जिन्होंने करुणावश निर्भय आत्मलोक का उपदेश दिया और जो स्वयं निरन्तर अनुभव होने वाले आत्म स्वरुप की प्राप्ति के कारण सब प्रकार की तृष्णाओं से मुक्त थे, उन भगवान ऋषभदेव को नमस्कार है। जैन धर्म के प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव (आदिनाथ) विश्व की सभी संस्कृतियों द्वारा मान्य तथा किसी न किसी रूप में उपास्य है। जैन दर्शन में २४ तीर्थंकर हैं जिनके पंच कल्याणकों को तीर्थ स्थान माना जाता है विशेषकर जन्मस्थल और निर्वाण स्थल पर बड़े बड़े विशाल स्तूपों चैत्यों आदि का निर्माण किया जाता है। स्वामी दयानन्द सरस्वती भी मानते हैं कि मंदिरों एवं मूर्तियों का निर्माण सबसे पहले जैनियों ने प्रारम्भ किया था । भारतवर्ष में आज जितने भी बड़े बड़े जैन तथा जैनेतर तीर्थ हैं जैसे बद्रीनाथ, केदारनाथ, अमरनाथ, तिरूपति, उड़ीसा के जगन्नाथ सब अर्हत संस्कृति के प्रतीक हैं । ऐतिहासिक अवलोकन से यह स्पष्ट होता है कि ये तीर्थंकर सभी धर्मावलम्बियों द्वारा किसी न किसी रूप से पूजे जाते हैं। इसका सबसे महत्वपूर्णप्रमाण बौद्धों द्वारा अर्हत् तीर्थंकरों को बुद्ध के रूप में पूजा जाता है । सारनाथ सांची आदि के स्तूप जैन होते हुए भी बौद्ध परम्परा में भी मान्य है । इसी श्रेणी में कैलाश पर्वत का विवरण आता है । जो प्रथम तीर्थंकर भगवान ऋषभदेव का निर्वाण स्थल है । जहाँ की यात्रा हर वर्ष अनेकों यात्री करते हैं । यह क्षेत्र शिव के नाम से भी जुड़ा हुआ है। तिब्बती भाषा में शिव का अर्थ मुक्त होता है। इसलिए भगवान् ऋषभदेव को पुराणों में शिव के नाम से भी अभिहित किया है । कैलाश पर्वते रम्ये वृषभों यं जिनेश्वर चकार स्वारतारं यः सर्वज्ञ सर्वगः शिवः । (स्कन्धपुराण कौमारखं अ० ३७) Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनत्व जागरण...... केवलज्ञान द्वारा सर्वव्यापी सर्वज्ञाता परमकल्याण रूप शिव वृषभ ऋषभदेव जिनेश्वर मनोहर कैलाश अष्टापद पर्वत पर पधारे । तिब्बती भाषा में लिंग का अर्थ क्षेत्र होता है । २९ It may be mentioned that linga is a Tibetan word of land (S.K. Roy Historic Indian Ancient egypt, Pg. 28). 1 तिब्बती लोग इस पर्वत को पवित्र मानकर अति श्रद्धा के साथ पूजा करते हैं तथा इसे बुद्ध का निर्वाण क्षेत्र कागरिक पौंच कहते हैं । यहाँ बुद्ध का अर्थ अर्हत् से है जो बुद्ध अर्थात् ज्ञानी थे । श्री ऋषभदेव ने माघ कृष्णा त्रयोदशी की रात्रि को कैलाश पर्वत पर निर्वाण प्राप्त किया था । आज भी इसी रात्रि को प्रभु ऋषभदेव के निर्वाण कल्याणक की पूजा के प्रतीक के रूप में महाशिवरात्रि का पर्व मनाया जाता है । शिवलिंग का अर्थ मुक्त क्षेत्र अर्थात् मोक्ष क्षेत्र होता है। शिव भक्त लिंग पूजा करते हैं जो प्राचीनकाल में भी प्रचलित था । In fact shiva and the worship of linga and other features of Popular Hinduism were well established in India long before the Aryans came (K.M. Pannekar A survey of Indian History, Pg. 4) बाद में तांत्रिकों ने इसका अर्थ शिव ऋषभ के चरित्र अर्हत धर्म के विपरीत बनाकर विकृत कर दिया । लिंग का अर्थ क्षेत्र के रूप में न रहकर पुरुष जननेन्द्रिय के अर्थ में लिया जाने लगा । इस पर्वत पर तपस्या के फलस्वरुप प्राप्त आत्मसिद्धि को पार्वती नाम से एक स्वतन्त्र स्त्री के व्यक्तित्व का रुप दे दिया और उस स्त्री की जननेन्द्रिय में पुरूष जननेन्द्रिय को स्थापित कर इस नयी आकृति को शिवलिंग कहने लगे । इस बात को उस समय के अशिक्षित और अज्ञानी लोगों ने आसानी से ग्रहण कर ली । आवश्यक शास्त्र में महेश्वर और उमा के उपाख्यान से ग्रहण कर ली । आवश्यक शास्त्र में महेश्वर और उमा के उपाख्यान से इस बात की पुष्टि होती है । आत्मसिद्धि रूप द्वादशांग वाणी से प्राप्त गणपति ( गणधर ) तथा षण्मुख (षडद्रव्यात्मक) रुप को क्रमशः हाथी की सूंड वाले लम्बोदर गणेश तथा Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनत्व जागरण...... ३० छः मुख वाले कार्तिकेय की मानव आकृतियों का रूप देकर शिव और पार्वती की संतान रूप कल्पना कर डाली । इस प्रकार शैव लोगों ने तांत्रिक उपासना के लिये संसार सहारक शिव के शिवलिंग को जननेन्द्रिय रुप में कल्पित करके संसार सर्जक बना डाला । कल्हाण ने राजतरंगणिनी में गणपति या गणेश का अर्थ गणों का अध्यक्ष बताया है । ऋग्वेद (२:२३:१) में श्री गणनाँत्वा गणपति उल्लेख किया गया है । जैनागमों में गण अर्थात् मुनियों के समूह और गण के नेता को गणधर कहा जाता है । प्रत्येक तीर्थंकर के गणधर होते थे तो सूंडवाले गणेश नहीं वरन् पूर्ण मानव थे । I भारतीय जीवन का प्रवाह सृष्टि के प्रारम्भ से आज तक जिन नियमों और नियन्त्रणों के सहारे चल रहा है वही संस्कृति का आदि स्रोत कहा जा सकता है और जो विश्व के विभिन्न प्रचलित धर्मों और संस्कृतियों का भी आदि स्त्रोत हैं । प्राचीनकाल से अविच्छिन्न रूप में चली आ रही यह जीवंत परम्परा आज भी जैन धर्म के रूप में विद्यमान है । यद्यपि जैन शब्द का प्रयोग ७वीं शताब्दी से प्रारम्भ हुआ परन्तु इसकी प्राचीनता ही इसकी विशेषता है । वर्तमान समय में संख्या में अल्प होते हुए भी इसका प्रभाव समस्त धर्मों और विश्व की सभी प्राचीनतम संस्कृतियों में परिलक्षित होता है। डॉ. ज्योति प्रसाद जैन के शब्दों में 'जैन धर्म ऐसी सनातन धार्मिक एवं सांस्कृकि परम्परा का प्रतिनिधित्व करता है जो शुद्ध भारतीय होने के साथ ही प्राय: सर्व प्राचीन जीवन्त परम्परा है। उसके उद्गम और विकासारम्भ का बीज सुदूर अतीत प्रागैतिहासिक काल में निहित है । मानव जीवन में कर्म युग के प्रारम्भ के साथ ही साथ इस सरल स्वभाव आत्मधर्म का भी आविर्भाव हुआ था ।' श्री अजितकुमार शास्त्री ने अपने लेख में लिखा है 'विश्व के सभी धर्मों का निरीक्षण एवं परीक्षण किया जाये तो जैन धर्म की सत्ता सबसे प्राचीन सिद्ध होती है तदनुसार जैन संस्कृति संसार में प्राचीनतम है ।' इतिहासकारों की भूल इतिहास अपने युग का दर्पण होता है । जिस काल की जैसी परिस्थिति Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनत्व जागरण....... हो उस काल का वैसा ही वर्णन इतिहासकारों को करना चाहिये । दुर्भाग्यवश हमारे देश के इतिहासकारों ने अपने देश के इतिहास के साथ जितना अन्याय किया है उतना शायद अन्य कहीं भी नहीं हुआ है । इस सन्दर्भ में मैं यह कहना चाहूँगा कि जैन धर्म के साथ भारतीय इतिहासकारों ने बहुत ही अन्याय किया है। उन्होंने वेदों और पुराणों को ज्यादा महत्व दिया है । प्राप्त इतिहास द्वारा प्राग्वैदिक की संस्कृति और समाज के विषय में कुछ भी पता नहीं चलता । यदि श्रमण साहित्य वैदिक लेखों से अलग दिखते हैं तो पूर्वाग्रह से ग्रस्त होकर वैदिक स्त्रोतों को ज्यादा महत्त्व दिया गया है । पुरातत्व वेत्ताओं की अल्पप्रज्ञता, पक्षपात तथा उपेक्षा के कारण भी जैन पुरातत्व सामग्री को अन्य मतानुयायियों का रंग दे दिया गया है । हम यह भी कह सकते हैं कि भारतीय इतिहासकार वैदिक और श्रमण स्रोतों को समान रूप से देखने में असफल रहे हैं । यहाँ तक कि उन्होंने उन प्राचीन विदेशी इतिहासकारों के वर्णनों को भी अनदेखा कर दिया जिन्होंने समकालीन भारतीय समाज का चित्रण किया है । प्राचीन विदेशी स्रोतों तथा लेखकों के वर्णनों को हम इसलिए महत्त्वपूर्ण मानते हैं कि वो ना तो यहाँ के शासक थे ना ही ब्राह्मण या श्रमण थे । उनके लेख सूचनापरक हैं तथा भारतीय इतिहास को सही रूपसे जानने एवं लिखने के एक महत्त्वपूर्ण स्रोत बन गये हैं । ३१ "The available histories of Bharata suffer from three defects. Firstly they present a biased view... the court historians and the subject historians are un reliable Secondly, almost all the historians neglected the pre-Aryan history of Bharat. Three foreign conquests the Aryan, The Turko Afgan and the British changed the course of history and the texture of the Cutlture and civilization of Bharata. The history and texture of the culture civilization of the Pre-Aryan Bharata is conveniently forgotten. Thirdly, The Indian historians are generall undialectical and unchronoligical in writing the history of Bharat specially its cultural History. the reason lies in the fure of the Bhartiya historians in taking full and Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनत्व जागरण..... complete view of the gradual progress of Bhartiya life through the ages. The Bhartiya Historians give undue weightage to the vedic and puranic sources - They by and large failed to present the balanced view of the Bhartiya history with the critical and comparitive use of these sources. Just for this reason, they have failed to rightly appreciate the foreign sources and specially the greek sources” R. K. Jain from the ‘Preface of Ancient India as described by Megasthenes' (Revised by R. C. Jain). यदि विदेशी लेखकों के वर्णनों को पूर्ण तर्कसंगत नहीं भी माने तो भी एक विश्वसनीय आधार माना जा सकता है तथा उनकी महत्ता को नकारा नहीं जा सकता । मैनस्यनीन, टोलमी, एरियन, एवं प्लीनी आदि इतिहासकारों के लेखों में हमें आर्य पूर्व भारतीय संस्कृति का जो चित्रण मिलता है वह एक ऐसा प्रमाण है जो हमे आदि संस्कृति के मूल स्तोत्र को समझने में या स्थापित करने में मार्गदर्शक हो सकता है। मैगस्थनीज की कलम से जैनधर्म भारत का इतिहास विधिवत् रूप से सिकन्दर के आक्रमण के समय से प्राप्त होता है। ब्रह्म आर्यों के आक्रमण के पश्चात् यूनानी आक्रमण का बहुत महत्त्व है । सिकन्दर के साथ अनेक यूनानी विद्वान् भी भारत आये थे। मैथस्थनीज़ जो चन्द्रगुप्त के दरबार में सेल्यूकस का दूत बनकर आया था, उसकी 'इन्डिका' एक विश्वसनीय ग्रन्थ मानी जाती है जो आज पूरी उपलब्ध नहीं है फिर भी उसके कुछ भाग मिलते हैं जो भारत की तत्कालीन संस्कृति और इतिहास जानने का एक बड़ा साधन हैं । "The Greek records which shows that the Alexander the great had heard of the wise sraman, The naked monks whom the Greeks referred as Sophists”... Dr. Bhuvanendra Kumar. मैगस्थनीज के उल्लेखों में समनीक शब्द श्रमण शब्द का अपभ्रंश है। श्रमणों से सिकन्दर अत्यन्त प्रभावित था । कालोनिस और दण्डामिस Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनत्व जागरण...... ३३ नामक मुनियों का वर्णन मैगस्थनीज के विवरण में हमें मिलता है जो कि निर्ग्रन्थ मुनि थे । मैगस्थनीज के अनुसार समाज में जिनका बहुत आदर था उन्हें Hylobioi of Allobiol या अर्हत् कहते थे | Its Hierophants were the prophets among the Egyptians, the Chaldeans among the Assyrians the Druids among the Gauls, The Sarmanaeans who were the Philosophers of the Baktrains and the Kelts. The Magi among the Persians and among the Indians the Gymnosophists. (Mc. Crindle's Ancient India) सुप्रसिद्ध इतिहासकार प्लीनी के अनुसार बेकस से लगातार सिकन्दर तक के समय में भारत वर्ष पर १५४ राजाओं ने राज्य किया । इनका राज्यकाल ६४५१ वर्ष था । अकबर के समय अबुलफजल ने भी कई राजाओं का उल्लेख कर उनका राज्य काल ४१०९ वर्ष बताया है। प्रो. हीरन अपने Historical researches ग्रन्थ में लिखते हैं कि डायोनिज से सम्राट चन्द्रगुप्त के समय तक ६०४२ वर्ष व्यतित हुए । डायोनिज और स्पेटबस भारतीय राजाओं के यूनानी नाम है । कौनट जानस्टार्जन के ग्रन्थ “Theogony of the Hindu” में लिखा है कि चन्द्रगुप्त के समय में उसके राजदरबार में प्रचलित प्राचीन इतिहास तो मैगस्थनीज द्वारा सुनकर इन्डिका में लिखा गया उसके अनुसार चन्द्रगुप्त से ६०४२ वर्ष पूर्व में १५३ राजा हुए । इस प्रकार हमें भारत वर्ष का इतिहास साढ़े आठ हजार वर्ष का प्रमाणित रूप से उपलब्ध होता है । इसकी पुष्टि सर विलियम जोन्स को काश्मीर में 'दविरतान' नामक ग्रन्थ में लिखे एक 'बेरियन' लेख से होती है । जिसमें अनेक राजाओं की नामावली है। जिसमें प्रथम राजा सिकन्दर के आक्रमण में ५६०० वर्ष पूर्व राज्य करता था ( भारतीय सभ्यता और उसका विश्वव्यापी प्रभाव पृष्ठ ४) कैप्टन ड्रायस ने १८४१ ई. के ऐशियाटिक जर्नल में यह सिद्ध किया है कि ३००० ई.पू. भारत में अनेक महान राज्य थे जो सभ्यता और संस्कृति में बहुत ही उन्नत थे । यह बहुत ही खेद का विषय है कि पाठ्य पुस्तकों में जो प्रचलित इतिहास मिलता है उसमें आर्य पूर्व इतिहास का वर्णन नहीं है | यह एक महत्त्वपूर्ण प्रामाणिक तथ्य है कि मौर्य साम्राज्य के संस्थापक चन्द्रगुप्त मौर्य अर्हत् संस्कृति को मानने वाले थे । इसीलिए I Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनत्व जागरण....... ३४ ब्राह्मणों ने उन्हें निम्न कुल से बताया है । मैगस्थनीज और टौलमी द्वारा वर्णित पाण्डिया राज्य श्रमण राज्य था। क्योंकि वहाँ पर मातृक प्रथा थी जो कि आर्य पूर्व की प्रचलित प्रथा रही थी । All the Pandaian regions of Magesthenese and Ptolemy are historically the Krishna regions. The Krishna were the Pre-Aryan, Non - Aryan People of Bharat, of the Australoid Erhnic Stock and following the Shramanic way. (Ancient India as described by Ptoblermy). इतिहासविद् टोलमी की कलम से जैनधर्म टोलमी जो मिस्त्र देश का इतिहासकार था जिसका समय दूसरी शताब्दी है उसने अपने समय तथा उससे पूर्व के भारतीय इतिहास का वर्णन किया The Pre-Aryan, The Dravidian and the Brahmani Peoples and the places were clearly rognisable in the age of Ptolemy. टोल्मी के अनुसार The Bhartiya people despite three foreign intrusions were still vigorous and powerful people. They had kept there shramanic way of life intact in the whole of Bharata (Ancient India) टोलमी और मैगस्थनीज द्वारा वर्णित आदि सदरा, पांडियन राज्य, अहि राज्य श्रमण संस्कृति के केन्द्र थे । मैगस्थनीज के समय तक ब्रह्मआर्य दक्षिण से अपरिचित थे लेकिन टोलिमी के समय में दक्षिम में जाने लगे I 1 थे । दक्षिण श्रमण संस्कृति का गढ़ था । और वहाँ पर उनका प्रभाव तब तक स्थापित नहीं हो सकता था जब तक कि वो आर्य पूर्व के महापुरुषों को नहीं अपनाते । The Brahamanas could not do without borrowing the Pre Bhahmaryan shramanic heroes Ram and Krishna. They recast them in there own settings. The shramanised rudraism and shaivism was also developed by them. Though the shramanic society materially suffered heavily at the hands Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनत्व जागरण..... ३५ of foreign Brahamaryans, it celebrated its cultural triumphs over the Brahamaryans. (McCrindles) ___टोलमी ने चम्पा राज्य का वर्णन किया है। उसमें चम्पा को 'जबई' के नाम से अभिहित किया है। जो कम्बोज के पश्चिमी किनारे पर स्थित है। यह एक शक्तिशाली राज्य था । यहा के राजा अत्यन्त प्रसिद्ध थे । श्रुतवर्मन और उसका पुत्र श्रेष्ठवर्मन । श्रुत की अवधारणा जैन आगम साहित्य से है और श्रेष्ठी जैन व्यापारियों को कहते थे । उस समय तक ब्राह्मण पूर्वी भारत में अपना प्रभाव स्थापित नहीं कर पाये थे और बौद्ध सुदूरपूर्व में नहीं गये थे। बौद्ध चीन गये थे पश्चिम तथा उत्तर के मार्ग से । अतः कम्बोदिडा और चम्पा में जो सांस्कृतिक विरासत गयी वो जैन लोगों द्वारा ही गयी । डॉ. आर.सी. मजुमदार ने भी इसका समर्थन किया है । It is wrong to suggest that champa was a Hindu kingdom in the 2nd century A.D. (Cultural and colonial expansion.) According to Rooney South Vietnam was called champa till 2nd Century A.D. यद्यपि अनेक ग्रंथों में इतिहासकारों ने लिखा है कि प्राचीनकाल से भारतीयों ने सब जगह उपनिवेष बसाये हैं । The story of Bhartiya emmigration dates back from the hoary past. We know such emmigrations since 4000 B.C. whe the known chapter of the human opens. The Bhartiya cultural ambassodors went to sumer egypt greece & America. ये भारतीय कौन थे ? ये हिन्दू और बौद्ध नहीं थे वरन् अर्हत या जिन थे । क्योंकि आर्य पूर्व जो संस्कृति यहाँ आदि काल से थी वो अर्हत् परम्परा की थी । बौद्ध धर्म भी ५०० ई.पू. अस्तित्व में आया था । तब तक ब्रह्म आर्यों का कोई भी साम्राज्य यहाँ स्थापित नहीं हो पाया था । जैन संस्कृति का विस्तृत क्षेत्र मलाया देश का नाम भारत के मलय गिरि क्षेत्र से पड़ा । नीलगिरी से कन्या कुमारी तक के क्षेत्र मलयगिरि कहलाता था । इन श्रमण श्रेष्ठियों Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनत्व जागरण....... ३६ द्वारा व्यापार के साथ साथ श्रमण संस्कृति का प्रभाव व प्रचार तो होता ही था ये अपने देश का नाम भी वहाँ के देशों और स्थानों को देते थे They gave the name of there mountains to the whole country B.C. Law. इस सन्दर्भ में यह स्पष्ट है कि जैन व्यापारी बर्मा स्याम मलाया चम्पा आदि देशों में व्यापार के लिये जाते थे । उन्होंने वहाँ अपने उपनिवेश भी बसाये थे । वहाँ के जगहों की भारतीय स्थानों के नामों की समानता से यह सिद्ध होता कि उनकी संस्कृति का प्राचीन भारतीय श्रमण संस्कृति से अभिन्न सम्बन्ध रहा है । जिस प्रकार भारतीय व्यापारी करने आते थे। जैन साहित्य में 'नायधम्मकहाओ' कथानक में चम्पा का वर्णन है जहाँ से व्यापारी माल लादकर समुद्र में अन्य जगहों में व्यापार के लिए जाते थे । ये निश्चित ही भागलपुर स्थित चम्पा नहीं है वरन् वियतनाम की चम्पा है जो mekong river के किनारे और समुद्र से नजदीक है । अगकोरवाट का मंदिर जैन मन्दिर था । यह मंदिर थाई तथा बर्मी लोगों द्वारा १२वीं शताब्दी में ध्वंस कर दिया गया । वास्तव में यहाँ जो मूर्तियाँ पद्मासन में तथा साँपफण से सुशोभित हैं वो बुद्ध की नहीं हो सकती वरन् भगवान पार्श्वनाथ की हैं । “ According to Harisatya Mahacharya and other Archaelogists the famous statues of so called Naag Buddha are actually of Tirthankar Parsvanatha belonged to Naag Dynasty. (Meru temples of Angkor-Jineshwar Das Jain)." "The existence of Angkorval, Angkorthan along with many statues in Ardhapadmasana posture are a sufficient proof that these areas were dominated by shraman culture and traditions. since there areas were the birth place of many Tirthankar as, people from India used to visit these placeas pilgrimage centres (Jineshwar Das Jain). " यह हम पहले ही कह आये हैं कि प्राक्वैदिक युग में दक्षिण श्रमण संस्कृति का प्रभावशाली क्षेत्र था । श्रीलंका में बुद्ध धर्म के पूर्व जैन धर्म स्थापित था इसका प्रमाण प्राचीन बौद्ध ग्रन्थों से प्राप्त होता है । Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनत्व जागरण..... ३७ कन्या कुमारी को पाणिनी ने अपने अष्टध्यायी (२, १, ७०) में कुमारी श्रमणा के नाम से सम्बोधित किया है। पाणिनी के समय तक ब्रह्म आर्य दक्षिण से अपरिचित थे तथा बौद्ध भी अशोक से पूर्व दक्षिण में नहीं गये थे । अतः यह कहा जा सकता है कि यह नाम तथा क्षेत्र जैन संस्कृति से प्रभावित था । 'Cape Kumari was so named after the name of the Jain female was so named after the name of the jain female Ascetic. The concept of Kumari means a celibate woman.' अखण्ड भारत के मूल निवासी श्रमण आर्य पूर्व काल में श्रमणों को जिन्हें ब्रह्मआर्यों ने असभ्य तथा सुर कहा वो आर्यों से ज्यादा सभ्य तथा उन्नत संस्कृति के थे । जब आर्य उनके सम्पर्क में आये उस समय आर्य लुटेरे एवं असभ्य अवस्था में थे । ब्रह्म आर्य भौतिक जीवन के सुखों में विश्वास रखते थे जब कि श्रमण आध्यात्मिक जीवन में विश्वास करते थे । “The Brahmans believed in the materialistic life while shramans in the spiritual one. The Brahmans knew no penance, meditation and fortitude.” Dr. Zemmer $ 317HR “Jainism represent the thinking of the non-Aryan peoples of India and believed that there is truth in the Jaina idea that there religion goes back to a remote antquit in question being that of the Pre-Aryan so called Dravidian period which has recently been dramatically illuminated by the discovery of a series of great late stone age cities in the Indus valley dating from the third and perhaps even to the forth millennium B.C.” डॉ. बुद्ध प्रकाश (डी. लिट्) ने अपने ग्रन्थ 'भारतीय धर्म एवं संस्कृति' में लिखा है, महाभारत में विष्णु के सहस्त्रनामों में श्रेयांस, अनन्त, धर्म, शान्ति, और सम्भव आते हैं और शिव के नामों में ऋषभ, अजित, अनन्त और धर्म मिलते हैं । विष्णु और शिव दोनों का एक नाम सुव्रत दिया गया Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८ जैनत्व जागरण..... है। ये सब नाम तीर्थंकरों के हैं । ऐसा लगता है कि महाभारत के समन्वय पूर्ण वातावरण में तीर्थंकरों को विष्णु और शिव के रूप में सिद्ध कर धार्मिक एकता करने का प्रयत्न किया गया था । इससे तीर्थंकरों की प्राचीन परम्परा सिद्ध होती है। मैगस्थनीज टोलमी इत्यादि सभी के विवरणों से यह स्पष्ट निष्कर्ष निकलता है कि ब्रह्म आर्यो के आने से पूर्व भारत के मूल निवासी श्रमण धर्मानुयायी थे । प्रो. फल्ग ने अपनी पुस्तक 'Short Studies In the Science of Comparitive Religion, Pg. 243-244 में स्पष्ट लिखा “There was also existing throughout uppea India an ancient and highly organised religion, Philosophical, ethical and severally ascetical viz Jainsm. Out of which clearly developed the early ascetical features of Brahmanism and Buddhism." "अति प्राचीन काल से भारत के ऊपरी क्षेत्र में एक बड़ा सुव्यवस्थित धर्म विद्यमान था । उसका उच्च श्रेणी का तत्त्वज्ञान तथा नीति थी एवं अति उग्र तपश्चर्या का समर्थन करने वाला था उसका ही नाम जैन धर्म तथा इसी से ही आगे चलकर ब्राह्मण और बौद्धधर्म को अध्यात्मवादी स्वरूप स्पष्ट रूप से प्राप्त हुआ ।" __ किसी भी संस्कृति और धर्म का मूल स्रोत एक होता है । जब कि पूर्वाग्रह से युक्त इतिहासकारों ने अपने से पूर्व इतिहासकारों का अनुकरण करते हुए लिखा है कि प्रारम्भ से ही दो संस्कृतियों चली आ रही हैं आर्हत् और बार्हत् । एक साथ दो संस्कृतियों का जन्म नहीं होता, मूल संस्कृति एक ही होता है । इस बार्हत् वैदिक संस्कृति का जन्म अर्हत् ऋषभदेव जो आर्हत-संस्कृति के संस्थापक थे उनके पौत्र मरिचि तथा उसके शिष्य कपिल द्वारा हुआ । प्राग्वैदिक काल में जो श्रमण संस्कृतिथी वह अर्हत् के नाम से प्रसिद्ध थी । जैनों के प्रसिद्ध नवकार मंत्र में सर्वप्रथम अर्हतों को ही नमस्कार किया गया है। अर्हत परम्परा की पुष्टि श्रीमदभागवत, पद्मपुराण, विष्णुपुराण, स्कन्धपुराण तथा शिवपुराण आदि ग्रन्थों से भी होती है। इसमें जैन धर्म की उत्पत्ति के विषय में अनेक उपाख्यान भी है। यथार्थ में आर्हत Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनत्व जागरण....... ३९ धर्म जिस परम्परा का प्रतिनिधित्व करता है वही वेदों में, उपनिषद में महाभारत तथा पुराण साहित्य में कुछ परिवर्तन के साथ स्पष्ट रूप में दिखायी देता है । इसका कारण ब्रह्म आर्यो पर श्रमण संस्कृति का प्रभाव पड़ना था क्योंकि वो उसी से विछिन्न हुए थे । और जिनका प्रभाव हमें उनके साहित्य में मिलता है । यहाँ तक कि वैदिक ग्रन्थ योग वशिष्ठ के वैराग्य प्रकरण १५/८ में राम को भी शान्ति प्राप्ति हेतु जिनेन्द्र की आत्मसाधना का अनुकरण करने की भावना प्रकट करते हुए वर्णित किया है । 'नाहं रामो न में वांछा, भावेषु च न मे मन, शान्ति मा सितु मिच्छामि, वात्मीय जिनो यथा ।' अर्हत् शब्द का वर्णन हमें ऋग्वेद में भी मिलता है । जिससे स्पष्ट है कि ऋग्वेद रचनाकाल के पूर्व भारत में अर्हतो का ही प्रभाव था । प्राच्य विद्याओं के विश्व विख्यात् अनुसन्धाता डॉ. हर्मनयाकोबी ने अपनी किताब के नवें पृष्ठ में स्पष्ट लिखा है कि " पार्श्वनाथ जैन धर्म के संस्थापक थे इसका कोई भी प्रमाण नहीं है । जैन परम्परा प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव से ही अपने धर्म का उद्भव मानती है "वैदिक साहित्य के अन्तर्गत ऋग्देव में जिस ऋषभदेव का वर्णन मिलता है वही जैन धर्म के ऋषभनाथ है । ऋषभदेव ब्राह्मण धर्म और श्रमण धर्म के समन्वय बिन्दु के रूप में मान्य है । श्री ऋषभदेव के अतिरिक्त अन्य तीर्थंकरो का भी वर्णन वैदिक साहित्य में मिलता है। Bhagwat Purana shour that the Tirthankar Sumati followed the path of Rishabha." - B. R. Kundu (J.J. 1981 Pg. 67) 1 जैनधर्म की प्राचीनता के साहित्यिक- पुरातात्त्विक साक्ष्य भारतीय संस्कृति के आदि स्रोत को जानने के लिए प्राचीनतम साहित्यिक स्रोत के रूप में वेद तथा प्राचीनतम पुरातात्त्विक स्रोत के रूप में मोहनजोदाड़ों एवं हड़प्पा के अवशेष ही हमारे आधार हैं संयोग से इन दोनों ही आधारों और साक्ष्यों से श्रमण धारा के अति प्राचीनकाल में भी उपस्थिति होने के प्रमाण मिलते हैं । वैदिक साहित्य के पूर्व मोहनजोदडों और हड़प्पा के उत्खनन से प्राप्त वृषभ युक्त ध्यान मुद्रा में योगियों की I Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनत्व जागरण....... सीले इस बात का तथ्य प्रमाण है कि ऋग्देव की रचना काल से भी पहले भारत में श्रमण धारा का, अस्तित्व ही नहीं वरन् वही एक मात्र प्रमुख धारा थी । ४० Dr. Thomas Mcevilley of Rice University of Los Angeles and Dr. Katherine Harpar of Loyala Marymount University further strengthen the suggestion. that "there existed Pre Aryan Jain Tradition in the Indus Valley." हैं हुए सिन्धु घाटी सभ्यता में कोई भी वैदिक धर्मके अवशेष प्राप्त नहीं । अत: आर्हत् परम्परा ही आदि परम्परा है । “The religion of . the Jinas can be traced before the advent of the vedic Aryans to the Pre historic period in India. The first of these Jinas was R. shabha whose bull insignia is found in Indus valley civilization.” भगवान ऋषभदेव ने जहाँ कर्म युग की नींव डाली वही धर्म युग की भी आधार शिला रखी थी । वे विश्व के आद्य प्रचारक सिद्ध हुए । वेदों में ऋषभ शब्द भिन्न अर्थों में प्रयुक्त हुआ है । रुद्र, शिव, मेघ, बैल, साँड तथा अग्नि के रूप में उल्लेख है ये नाम ऋषभदेव के पर्यायवाची हैं। ऋग्वेद में दो जगह ऋषभदेव को आराध्य के रुप में स्वीकार किया गया है । जैनागमों में ऋषभदेव को इस अवसर्पिणी काल के धर्म का आदि प्रवर्तक कहा है भागवत् में ऋषभदेव को अवतार मानकर उनका उद्देश्य वातरशना श्रमण ऋषियों के धर्म को प्रकट करनेवाला बताया है । श्री रामधारी सिंह जी 'दिनकर' ने अपनी पुस्तक 'संस्कृति के चार अध्याय' में लिखा है - " यह मानना युक्ति युक्त है कि श्रमण संस्था भारत में आर्यो आगमन के पूर्व विद्यमान थी ।" पातंजलि जो ब्रह्म आर्य थे उन्होंने भी लिखा है कि पौराणिक धर्म आगम और निगम पर आधारित माना जाता है । निगम वैदिक प्रधान है और आगम प्राग्वैदिक काल से चली आ रही वैदिकेतर परम्परा का वांचक है । जैन इतिहास के अनुसार मूलवेदों के ३६ उपनिषद् थे । मूल प्राचीन वेद आधुनिक वेंदों से भिन्न हैं। उनकी रचना आदि तीर्थंकर ऋषभदेव के पुत्र राजर्षि भरत चक्रवर्ती द्वारा अपने पिता के उपदेश से श्रावकों के लिये Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनत्व जागरण..... ४१ की गयी थी । ये वेद नवें तीर्थंकर सुविधिनाथ के उपदेश से श्रावकों के लिये की गयी थी । ये वेद नवें तीर्थंकर सुविधिनाथ के समय तक चले उसके बाद जब विछिन्न होने लगे तो उस समय के भाष्यकारों नेक श्रुतियाँ रची जिनमें हिंसक बलि, यज्ञ तथा शक्तिशाली देवताओं इन्द्र वरुण आदि को प्रसन्न करने की स्तुतियाँ की गयी । बाद में वेद व्यास जी ने इनको एकत्रित कर उनके चार भाग कर चार नाम से चार वेद बनाये । वेद में स्थान स्थान पर वैदिक देवताओं के प्रति की गयी प्रार्थनाओं से यह तथ्य स्पष्ट होता है कि इस संस्कृति के लोग भौतिक कामनाओं की पूति के लिए देव शक्तियों पर आश्रित रहने वाले थे। इनके द्वारा यज्ञ में बलि दी जाती थी । इनका जीवन संघर्षमय व असुरक्षा की भावना से ग्रस्त था । व्यास जी ने ब्रह्म सूत्र की रचना की जिसके तीसरे अध्याय के दूसरे भाग के ३३वें सूत्र में जैनों की सप्तभंगी का खंडन किया है । जिस समय में जो मत प्रबल होता है उसी का खंडन किया जाता है। अतः यह स्पष्ट होता है कि वेद व्यासजी के समय जैन धर्म प्रभावशाली था । उपनिषद और पुराणों के अध्ययन से यह मालूम पड़ता है कि इसमें वेदों के विपरित लिखा है। उपनिषद जैन मत के समीप कहे जा सकते हैं उसमें जैन दर्शन की अभिव्यक्ति देखने को मिलती है। क्योंकि उपनिषद् के प्रवक्ता ब्राह्मण नहीं थे. श्रमण धर्म के तीर्थंकरो की तरह क्षत्रिय थे। एक बात और ध्यान देने योग्य है कि जिस प्रकार ब्राह्मणों के चार वेद हैं उसी प्रकार मग जाति के भी चार वेद होते थे । विद, विश्वरद, विराद और अंगीरस । ये वेद खरोष्टि लिपि में थे। मगों के इन वेदों का वर्णन पारसी धर्म ग्रंथ अवेस्त के प्राचीनं अंश में भी मिलता है । जरथुस्त्र तथा उनके वंशज मग कहलाते थे। मगों का शासन मिस्त्र बेबीलोनिया, तातार, साइबेरिया, रूस आदि अनेक देशों में फैला हुआ था । दक्षिण भारत में आज भी जिन वेदों का अध्ययन किया जाता है वे उत्तर भारत के वेदों से भिन्न हैं । आवश्यक शास्त्र में वर्णन है कि जीव हिंसा युक्त यज्ञ ऋषि याज्ञवलक्य सुलसा तथा अरु आदि द्वारा शुरू किये गये थे । इस सन्दर्भ में एक उपाख्यान भी आता है जो इस प्रकार है । 'रावण जब दिग्विजय करने निकलता है तो रास्ते में नारद Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२ जैनत्व जागरण..... दुःखी होकर रावण के पास आते हैं और बतलाते है कि राजपुर में मरुत नाम का राजा यज्ञ कर बेचारे निरीह पशुओं की बलि दे रहा है। मैंने उसे समझाया कि असली यज्ञ आत्मा की पवित्रता का है । लेकिन राजा ने नहीं सुना और मुझे मारना चाहा अतः मैं आपके पास आया हूँ। तब शक्तिशाली रावण ने जाकर यज्ञ बन्द कराया । इस उपाख्यान से यह स्पष्ट है कि ब्राह्मण ग्रन्थों में जो कहा गया है कि राक्षस व असुर यज्ञ विध्वंस कर देते थे वास्तव में इसका अर्थ शक्तिशाली अर्हत् जैन धर्मी राजाओं से है जो हिंसक यज्ञों का विरोध करते थे, उनको ही असुर और राक्षस तथा दैत्यराज के नाम से सम्बोधित किया जाता था । देव और असूरो के मध्य हुआ संघर्ष भी एक प्रकार से दो संस्कृतियों या जातियों के मध्य था । विद्वानों का अनुमान है कि असुर राजा प्राय: अहिंसक जैन संस्कृति से सम्बन्ध थे । यह बात और है कि विद्वेष के कारण असुर शब्द को हिंसा को पर्यायवाची बना दिया है। विष्णु पुराण के अनुसार असुर लोग अर्हत् धर्म के अनुयायी थे । इनका अहिंसा में पूर्ण विश्वास था यज्ञ और पशुबलि में इनकी पूर्ण अनास्था थी। श्राद्ध और कर्म काण्ड के ये विरोधी थे । (विष्णु पुराण ५७३/ १७, १८-१८, २६, २८, २९, ३०,४९ १३/१७०-४१३) ' महाभारत के शान्तिपर्व में असुर राजा बलि अपने मुख से आत्म साधना का जो वर्णन करते हैं वह भी जैन धर्म के अनुकूल हैं । (दामोदर शास्त्री भारतीय संस्कृति और जैन साधना ।) वेदों में वर्णित आश्रम व्यवस्था ऋषभदेव द्वारा कर्मों के आधार पर स्थापित की गयी थी जो बाद में ब्रह्म आर्यो द्वारा जन्मगत आधार पर की गयी । ब्राह्मणों ने वेदों की ईश्वरोक्त बताया है जबकि ऋग्वेदकी संहिता अष्टक तीन, अध्याय दो, वर्ग १२, १३, १४ से यह सिद्ध होता है कि विश्वामित्र ऋषि ने पंजाब में जहाँ व्यास और सिन्धु नदी मिलती है वहाँ पर अगाधपानी देखकर उन्होंने नदी पार करने के लिये इन तीन ऋचाओं से नदियों की स्तुति की । ऋग्वेद के दसों मंडलों के सृष्टा दस ऋषि हैं । शंकराचार्य के समय से आज तक लगभग १२०० वर्ष पूर्व वेदों में काफी फेर बदल किया गया । कितने ही पुराने श्लोकों को निकालकर नए श्लोक स्थापित किए Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४३ जैनत्व जागरण...... गए । वेदों के अर्थ करने में शंकर माधवाचार्य और सायनाचार्य ने अपने अपने भाष्य में बहुत अर्थ मन कल्पित भी लिखे हैं । पाणिनी तथा पांतजलि ने भी भाष्य लिखे हैं परन्तु ये जो नवीन भाष्य रचे गये, इनसे भी शास्त्रों की सत्यता नष्ट हो गयी । 1 पाणिनी अष्टाध्यायी व्याकरण से भी पूर्व प्राचीन जैन व्याकरण के साक्ष्य मिलते हैं | पाणिनी ने अपने रचे व्याकरण में अपने से पूर्व अनेक भाष्यकारों का वर्णन किया है जिनमें शाकटायनाचार्य का नाम भी है । शाकटायनाचार्य के भाष्य के मंगलाचरण से स्पष्ट है कि वो जैन मत के थे । जैनेन्द्र व्याकरण और एन्द्र व्याकरण ये भी पाणिनी से पूर्व के हैं । पातंजलि ने भी जो अष्टध्यायी के ऊपर भाष्य रचे रहैं वह भी जैनेन्द्र, इन्द्र, शाकटायनादिव्याकरणानुसार रचा है। जैन तीर्थंकरों की मान्यताओं के विषय में भी जैनेत्तर विद्वानों द्वारा यह भ्रामक प्रचार कर सन्देह पैदा करने का प्रयत्न किया गया । गुजरात के महान् साहित्यकार श्री चन्द्रशेखर दीवानजी के अनुसार “जैन कथाओं के विषय में कुछ विद्वानों ने इस प्रकार की मान्यता प्रचलित की कि जैन धर्माचार्यों ने हिन्दु इतिहास और पुराण ग्रन्थों से महापुरूषों के नाम तथा उनके जीवन की प्रमुख घटनाएँ लेकर उन्हें जैन परम्परा के अनुकूल परिवर्तित किया । उनके वैज्ञानिक ग्रन्थ इतिहास की दृष्टि से कोई महत्त्व नहीं रखते । पर उनके ग्रन्थों के रचनाकारों ने अपने प्राचीन ग्रन्थों से उपलब्ध जानकारी को ही नाम निर्देश के साथ प्रस्तुत किया है । कलकत्ता विश्व विद्यालय के भाषा शास्त्री Dr. Chaturjya ने भी लिखा है - “Myths and legends of gods and heroes curents among Austric and Dravidians long attending the period of Aryans advent in India (1500 B.C.) appeared to have been rendered in the Aryan Language in late and garbled or improved version according to themselves to Aryan Gods and heroes worlds and it is these myths and legends to Gods, sages which are largely found in puranas." Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४ जैनत्व जागरण.... "आस्टिक और द्रविडों में आर्यों के यहाँ आगमन के पूर्व (ई. पू. १५००) देवताओं और वीरों की दंतकथाएँ प्रचलित थी । ये कथाएँ आर्य भाषा में बहुत समय बाद आयी जिनमें आर्य देवताओं और मान्यताओं के अनुसार सुधार या परिवर्तन हुआ और वे आर्यों के देवों एवं वीरों के रूप में बदल गए । पुराणों की कथाएं भी इसी प्रकार पैदा हुई । इस प्रकार हम देखते हैं कि वास्तविकता के मूल्यांकन के लिये निरपेक्ष दृष्टि से ब्राह्मण साहित्य का गवेषणापूर्ण अध्ययन करने की आवश्यकता है । आदिनाथ का आदिधर्म आदि तीर्थंकर ऋषभदेव केवल भारतीय उपास्य देव ही नहीं भारत के बाहर भी उनका प्रभाव देखा जाता है । विश्व की प्राचीनतम संस्कृति श्रमण संस्कृति अर्हतों की उपासक थी तथा वह उतनी ही प्राचीन है जितनी आत्म विद्या और आत्म विद्या क्षत्रिय परम्परा रही है। पुराणों के अनुसार क्षत्रियों के पूर्वज ऋषभदेव हैं । ब्राह्मण पुराण २१४ में पार्थिव श्रेष्ट ऋषभदेव को सब क्षत्रियों का पूर्वज कहा गया है। महाभारत के शान्ति पर्व में भी लिखा है कि क्षात्र धर्म भगवान आदिनाथ से प्रवृत्त हुआ है, शेष धर्म उसके बाद प्रचलित हुए हैं। प्राचीन भारत की युद्ध पद्धति नैतिक बन्धनों से जकड़ी हुई थी । प्राचीन युद्धों में उच्च चरित्र का प्रदर्शन होता था । इतनी उच्च श्रेणी का क्षत्रिय चरित्र का उदाहरण अन्यत्र कहीं नहीं दिखता इसका एक मात्र कारण श्रमण संस्कृति का प्रभाव है। आर्यों ने यह भारत की प्राचीन श्रमण परम्परा से ही सीखा है। प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव के पिता नाभि राजा चौदहकुलकरों में अन्तिम कुलकर थे उनका समय संक्रान्ति काल था । उस समय भोग भूमि थी। नाभि राजा के नाम पर ही इस क्षेत्र का नाम नाभि खंड या अजनाभ वर्ष पड़ा था। भागवत पुराण में स्पष्ट लिखा है कि अजनाभ वर्ष ही आगे चलकर नाभि के पौत्र एवं ऋषभदेव के पुत्र चक्रवर्ती भरत के नाम से भारतवर्ष हुआ । नाभि और ऋषभदेव का प्रभाव समस्त मध्य पूर्व एशिया, यूनान, Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनत्व जागरण..... ४५ मिस्त्र, फिनिशिया में था । फिनिशियों का भारत के साथ प्रागैतिहासिक काल से ही सांस्कृतिक और व्यापारिक सम्पर्क था । फिनिशियनों में सिर्फ ऋषभदेव ही नहीं वरन् अन्य तीर्थंकर भी पूजनीय थे । इतिहासकार हेरेन ने मिस्त्र और फिनिशियनों के सम्बन्धों के मानते हुए लिखा है। “The gods Anat and Reschuf seems to have reached the phoenecians from north Syria at a very early period. So far indeed, it is only certain that they were worshipped by the phoenecians colonists on cyprus portraits of these deities are displayed on the monuments of the Egyptians, who has appropriated them during their intercourse with Syria. The circumstancer that the Egyptians were fond of representing both dieties with the town godders of Kadesh on the Orontes point to Reschuf as well as Anat having been received into the phoenicians system of Gods from the pantheon of the northen portion of Syria. From the closing sentence of the treaty which Ramses II concluded with the Kheta (Hittites) it even seems that Anat were worshipped in many towns in the Hittites Kingdom” (History of Phoenicia Pg. 270). डा. रामप्रसाद चंदा के अनुसार भारत के पूर्वी भाग में ऐसे आदिम धर्म का पता चलता है जिसमें प्रतीकों के रूप में पहला चैत्य आदि, दूसरा पूज्य प्रतीक स्तूप जो अण्डाकार होता था - एक तीसरा प्रतीक था ध्वज स्तम्भ जिसके शीर्ष भाग में ऐसे पशुओं की मूर्ति बनाते थे जो समाजों में पूज्य होते. थे । आदि धर्म की यह विशेषता भारत में ही नहीं अपितृ मिस्त्र, बेबीलोनिया, असीरिया तथा प्राचीन यूनान में मिलती है । मिस्त्र के जैनधर्म की मौजूदगी ईसा पूर्व अनेक शताब्दियों से मिस्त्र श्रमण तपस्वियों का विचरण क्षेत्र रहाहै । इन तपस्वियों को थेरापुते कहा जाता था । थेरापुते का अर्थ अपरिग्रही मौनी होता है । यह थेर शब्द वास्तव में स्थविर शब्द से निकला है जिसका अर्थ निर्ग्रन्थ मुनि था। जैन कल्प सूत्र आदि में तथा जिन प्रतिमाओं Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनत्व जागरण...... ४६ के लेखों में भी थेर शब्द का प्रयोग मिलता है । आचार्य कुन्दकुन्द स्वामी ने भी थेर शब्द का प्रयोग किया है । मिस्त्र में कुछ ऐसे पत्थर प्राप्त हुए हैं जिन पर धर्म चक्र और त्रिरत्न बने हुए हैं । उन पर कोई लेख नहीं है। मेमफिस में भी कुछ भारतीय मूर्तियां मिली है । टोलमैक कब्र के पत्थर पर भी धर्म चक्र और त्रिरत्न के चिन्ह है । (Journal of Asiatic research society 1899 pg. 875). I यद्यपि लेखकों ने इसे बौद्ध चिन्ह बताया है लेकिन ये उनकी जैनधर्म के प्रति अज्ञानता का परिचायक है । जैन तीर्थंकरो के लांछन वृषभ, बैल, सूअर, गैंडा, बकरा आदि का मिस्त्र निवासी पवित्र तथा पूज्य मानते थे ऐसा वर्णन वहाँ की साहित्यिक परम्परा में मिलता है । "More over what acts of Religious worship they performed toward Apis in Memphis, Mnevis in Heliopolus, the goat in Mendes, The crocodile in thak of Moeris- when any of them die they are as much concerned as at the death of their own children and lay out in burring of them as much as all their goods are worth and far more." "The Egyptians not only paid during honours to the full apis but to considering him the living image and representative of Osiris (Reshuf).” मिस्त्र में जब भयानक अकाल पड़ा था तब भी वहाँ के लोग शाकाहारी ही रहे थे | Diodorous के अनुसार For it is reported that at a time when there was a famine in Egpt many were...but not a man was accused to have in the least tasted of any of these sacred creatures. इस सन्दर्भ में प्रो. ए. चक्रवर्ती ने यह विवरण दिया है. "Gymnosophists used already Megasthenes applies very apply to Nirgranthas travellers must travelled to Egypt preaching Ahimsa. They must have influence these people because they considered aborition from meat eating and Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनत्व जागरण..... drinking wine as important ethical aspect of their religion. (Encyclopedia Britanica vol. 25 Edn proved.)' इतिहासकार हेरेन का मानना था कि मिस्त्र के लोग भारतीय मूल के हैं । यही एक महत्त्वपूर्ण कारण था भारत और मिस्त्र की प्राचीन धर्म और संस्कृति में समानता का । The skull of the Egyptians and those of Indian races of antiquity as preserved in the tombs of the respective countries bear a close resemblance to one another. रायबहादुर राम प्रसाद चन्दा (जैन-विद्या) ने मिस्त्र से प्राप्त मूर्तियों और सिन्धु घाटी से प्राप्त मूर्तियों की तुलना करते हुए लिखा है - "लैट एफ.डी.पी. १५१ में खुदी हुई आकृति की अवस्था इण्डियंस (इण्डस) की मोहरों पर खडे हुए देवताओं जैसी है । तत्कालीन इजिप्शियन शिल्पों में प्रकट. प्राचीन राजवंशों में (III, VI.) दोनों तरफ लटकते हाथों वाली मूर्तियाँ थीं। ये मिस्त्र (egypt) और ग्रीक मूर्तियाँ उसी प्रकार के हावभाव बतलाती हैं । फिरभी इण्डस मुहरों पर खडी आकृतियों में विशेषता के रूप में जो त्याग भावना दिखायी देती है उसका इनमें सम्पूर्ण अभाव है।" । मिस्त्र से प्राप्त काँसे की कपि की मूर्ति का सादृश्य चौथे तीर्थंकर अभिनन्दन स्वामी के लांछन से है । इतिहासकारों ने इसकी तुलना सारनाथ के प्रतीकों के कर इसे बौद्ध धर्म से जोड़ा है । लेकिन सारनाथ का स्तूप जैन धर्म का द्योतक है। क्योंकि इसमे बने त्रिरत्न और सिंह की मूर्ति इस बात को प्रमाणित करते हैं । जैन जातक कथाओं में श्रेष्ठियों और व्यापारियों द्वारा समुद्री रास्तों से मिस्त्र में जाने का वर्णन मिलता है। भारत और मिस्त्र का सम्बन्ध प्राग् ऐतिहासिक काल से विद्वान् लोग मानते हैं । अतः यह कहने में जरा भी संकोच नहीं है कि मिस्त्र की संस्कृति श्रमण संस्कृति का प्रतीक थी तथा श्रमण संस्कृति के तीर्थंकरो की उपासना का केन्द्र नथी। Anat and Reschpu were extensively worshippen in the eastern delta and in the whole of Eqypt. Thomus Maries ने अपनी किताब 'The History of Hindusthan, its arts an its Sciences' में Egypt के विषय में महत्वपूर्ण जानकारियाँ दी है। उनके अनुसार पुरी के जगन्नाथ मंदिर की मूर्तियों और Egypt Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८ जैनत्व जागरण..... के Sphinx की समानता है क्योंकि दोनों का मूल एक ही है। यह सर्वविदित है कि पुरी का मंदिर ऋषभदेव का मंदिर है। आगे उन्होंने लिखा है कि अफ्रीका का एक भाग श्रमणस्थान कहलाता था । और Babel का Tower पद्मावती देवी का मंदिर था । A considerable portion of Africa was called Sharmasthan alias Sharm or Shem. The tower of Babel was the Padma Mandir alias Lotus Temple on the banks of river Kumudwati which can be no other than the Euphrates (Pp. 44.46 of Maurice's book). Egypt का नाम मिस्त्र इसलिए पड़ा क्योंकि वहाँ पर विभिन्न जातियाँ आपस में धुलमिल गयी थी । Egypt का अर्थ है अजपति । राम के पूर्वज अज इक्ष्वाकु वंश के थे तथा दूसरे तीर्थंकर अजितनाथ भी इक्ष्वाकु वंश के थे। अतः यह माना जा सकता है कि अजितनाथ से ही अजपति नाम आया है । Sir Flinders Petrie of the British school of Egyptian Archaeology discoverd at Memphis, the ancient capital of Egypt, some statues of Indian type. Such discoveries prove the existence of an Indian colony in ancient Egypt about 500 B. C. One of the statues represents an Indian Yogi sitting crossed legs in deep meditation. the well known Jain posture. लेखराम जी ने अपनी किताब Kulyat-I-Arya Musafir में लिखा है कि मिस्त्र की एक पहाड़ी पर भारत के गिरनार पर्वत के समकक्ष तीर्थंकर मूर्तियाँ देखी थी । मिस्त्र निवासियों के धार्मिक सिद्धान्त जैन परम्परा के धार्मिक सिद्धान्तों से मिलते हैं। वे लोग सृष्टि कर्ता को नहीं मानते एवं आत्मा की अमरता पर विश्वास करते हैं । The religious dogmas of the Egyptians were also most like those of the Jains. They had no belief in the creator of universe, and further like the Jains they professed and preached plurality of Gods, whom they described as infinitely perfect and happy, They accepted the existence of an immortal soul and extended it even to the lower animal world. They observed the rules of abstinence, and never took flesh and vegetables like redish garlic etc. in their diet The Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनत्व जागरण....... ४९ feeling of Ahimsa was so manifest in them that they did not even wear shoes other than those made of the plant papyrus. They also made nude images of their God Horus. रायबहादुर रमाप्रसाद चन्द (जैन विद्या) ने मिस्त्र से प्राप्त मूर्तियों और सिन्धु घाटी से प्राप्त मूर्तियों की तुलना करते हुए लिखा है । लैट एफ. डी. पी. १५९ में खुदी हुई आकृति की अवस्था इण्डस की मोहरों पर खड़े हुए देवताओं जैसी है | तत्कालीन इजिप्शियन शिल्पों में प्रकट प्राचीन राजवंशों में (III. IV.) दोनों तरफ लटकते हाथों वाली मूर्तियाँ थी । ये इजिप्ट और ग्रीक मूर्तियाँ उसी प्रकार के हावभाव बतलाती है । फिर भी इण्डस मुहरों पर की खड़ी आकृतियों में विशेषता के रूप में जो त्याग भावना दिखाई देती है उसका इनमें सम्पूर्ण अभाव है । जैन तीर्थंकरों के लांछन वृषभ, बैल, सुअर, गैंडा, बकरा आदि को मिस्त्र निवासी पवित्र तथा पूज्य मानते थे । ऐसा वर्णन वहाँ की साहित्यिक परम्परा में मिलता है । पशुओं की रक्षा करना महान् कर्त्तव्य माना जाता था । "More over what acts of Religious worship they performed toward Apis in Memphis, Mnevis in Heliopolus, the goat in Mendes, The crocodile in the lake of Moeriswhen any of them dye they are as much concerned as at the death of their own children and lay out in burrying of them as much as all their goods are worth and far more." "The Egyptians not only paid during honours to the bull apis but to considering him the living image and representative of Osriris (Reshuf).' बेबीलोन और सीरिया की संस्कृति में जैनधर्म विश्व की अति प्राचीन संस्कृतियों में सुमेरीय संस्कृति उल्लेखनीय है । प्राग् ऐतिहासिक युग में सिन्धु सभ्यता एक ऐसी सभ्यता की कड़ी के रूप में थी जिसका एक छोर सुमेर में था । सिन्धु घाटी की सभ्यता जो श्रमण संस्कृति की ही थी उसका प्रभाव भी बेबीलोन संस्कृति पर था । A Royal Cemetry of Ur shows Precious stone metal which Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५० जैनत्व जागरण..... many have been brought there by the traders of Indus valley civilisation. All these evidence clearly indicate wide maritime contact of the Indus Valley civilisation with Sumerians. It will be interesting to mentionhere the fortified citadels at Mohenjodaro and Harappa which have been compared with the Sumerian Zigurats by K.N. Shastry (New light on the Indus Valley) with these many be remembered the kayotsarga form in the art of statuary of the Indus Valley (PC. Dasgupta). प्राचीनकाल से यह क्षेत्र तीन भागों में विभक्त था। उत्तरी विभाग की राजधानी असुर थी । जिसे आज असीरिया के नाम से पहचाना जाता है। यहा के राजा असुर राजा कहलाते थे। बाणासुर, समरासुर, मायासुर आदि यहाँ के राजाओं के वर्णन पुराणों में भी मिलते हैं । वैदिक आर्य जब भारत में आये तो यहाँ के लोगों को जो श्रमण धर्मावलम्बी थे उनको भी उन्होंने असुर कहा । पार्टिजर ने 'Ancient India Historical tradition' (Pg. 271) में लिखा है “Jarasandh the King of Maga dh-is estimated as an Assur and the Buddhist and Jains are treated as Asuraj and Detyas." इससे यही निष्कर्ष निकलता है कि यहाँ कि श्रमण संस्कृति और असुर संस्कृति में निश्चय ही समानता थी । सुमेर नाम भी श्रमण संस्कृति का परिचायक है । यह शब्द सोनगिर से निकला है । “Later Songir is called Sumer and gave its name to whole of Southern Babylonia. (History of Mesopotamia Pg. 323.) नाभि राजा और ऋषभदेव समस्त जम्बुद्वीप के अधिपति थे ऐसा जैन तथा जैनेतर शास्त्रों में वर्णन है। मध्य पूर्व एशिया जम्बुद्वीप का एक महत्त्वपूर्ण क्षेत्र था । सुमेरियन सभ्यता इस क्षेत्र का हृदय स्थल कही जा सकती है। यहाँ नाभि राजा और ऋषभदेव का प्रभाव ही नहीं वरन अन्य तीर्थंकरों के भी प्रमाण उपलब्ध हैं । बेबीलोन के ईश्वर मानव थे जिनका जन्म और मृत्यु सामान्य मानव के रूप में हुआ था । जो श्रमण संस्कृति के तीर्थंकरो से साम्य रखता है। The Babylonian Gods are very human. They Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनत्व जागरण....... are born. live, fight and even die like the people of the earth. नाभि और ऋषभदेव की स्तुति में प्रार्थनायें भी कही जाती थीं । तथा उनके सन्मान में जुलूस भी निकाले जाते थे । 'The German Excavating Society has recently brought to light the old procession street between babyion and Borshippa over which the image of god Nabu used to be Carried on his visit. to Marduk at Babylon (History of Mesopotamia).' From pg 104, 105 ५१ दूसरे तीर्थंकर अजितनाथ जो सगर राजा के समय हुए थे उनका भी पश्चिम में जन्म स्थान रहा होगा । उत्तराध्ययन सूत्र के सत्रहवें अध्याय में सगर राजा का साम्राज्य भारत वर्ष तक था ऐसा लिखा है। पुराणों के आधार पर भी सगर राजा का साम्राज्य सीरिया और बेबीलोन से लेकर भारत तक फैला हुआ था । सगर राजा की राजधानी अगैड थी जो अयोध्या की ही पर्याय मानी जाती है I सगर राजा के समय ही उनके ६०,००० पुत्रों द्वारा तिब्बत में कैलाश पर खाई खोदने का वर्णन आता है । दूसरे तीर्थंकर अजितनाथ भगवान का लांछन हाथी है । प्राचीन समय में मेसोपोटामियन हाथी बहुत प्रसिद्ध थे । मक्का के पास पेट्रा में जो प्राचीन मंदिरों में जो मूर्तियाँ थी उनमें अजितनाथ भगवान को अजह के नाम से पूजा जाता था । एक और महत्वपूर्ण ध्यान देने योग्य उल्लेख मिलता है । इजेप्ट का नाम अज से पड़ा । अतः अजितनाथ से निश्चय रूप से इस क्षेत्र का संबंध होना स्वाभाविक है । I बेबीलोन का नाम ऋषभदेव के पुत्र बाहुबली के नामपर पड़ा ऐसा कुछ विद्वानों का मत है | Thomas Maurice ने अपनी किताब The History of Hindustan, its Art and its Science में लिखा है कि- The original Sanskrit name of Babylonia is Bahubalaneeya, the realm of king Bahubali.' सीरिया का नगर ंरषाफा तथा बेबीलोन का नगर इसबेकजुर ऋषभ शब्द का अपभ्रंश है । रेशेफ (ऋषभ का विकृत रुप) चल्डियन देवता नाबू तथा मूरी (मरुदेवी) के पुत्र माने गये है । असीरियन Godderr Mylith का वर्णन हमें मिलता है जो १९ वें तीर्थंकर मल्लिनाथ से साम्य रखता I Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२ जैनत्व जागरण..... जैनियों के एक वर्ग की मान्यता है कि मल्लिनाथ को स्त्री रूप में कैवल्य की प्राप्ति हुई थी। सुमतिनाथ, अरनाथ, मल्लिनाथ, अनन्तनाथ आदि तीर्थंकर असुर थे । मिस्त्र, सीरिया, बेबीलोन आदि में इनकी उपासना प्रचलित थी तथा ये क्षेत्र वृषभ संस्कृति का केन्द्र था । बेबीलोन के जैन राजा नेबूचंदनेझर Times of India (1935) में प्रकाशित एक लेख में एक ताम्रपत्र की खोज का विवरण आया था । जिसे डॉ. प्राणनाथ ने पढ़कर बताया कि बेबीलोन के राजा नेबूचन्द्र नेझार ने रेवत गिरि पर नेमिनाथ के मन्दिर का जीर्णोद्धार करवाया था । लेकिन इस पर आज तक विद्वानों ने कोई ध्यान नहीं दिया । The King Nebuchad Nazzar belonged to the Sumerian tribe has come to the place (Dwarika) of the Yadu Raja. He has built a temple and paid homage and made the great perpetual in favour of Lord Nemi of paramount deity of Mt Ravata. (Times of India, 1935). जैन साहित्य में अनार्य भूमि के आर्द्रकुमार का वर्णन आता है जिसने श्रेणिक पुत्र अभयकुमार की प्रेरणा से प्रतिबोध पाकर भगवान महावीर से दीक्षा ली थी। प्रश्न उठता है कि यह आर्द्र देश कहाँ पर है ? मैसोपोटामिया केतीन भाग थे असीरिया या असुर, किश और दक्षिणी भाग जिसकी राजधानी एर्ज थी । बाद में ये तीनों क्षेत्र मिलकर बेबीलोन बन गये । एर्ध नगर एक समृद्धशाली प्रमुख बन्दरगाह था । जहाँ से भारत के साथ सीधा जलमार्ग का सम्बन्ध था । कालान्तर में नदी के कटाव के कारण बन्दरगाह भर गया और इसका महत्व कम होता गया । ६०० ई. पूर्व बेबीलोन का सम्राट नेबूचन्द्र नेजर था जो भगवान महावीर का समकालीन था, यह बहुत ही शक्तिशाली था । उसने अनेक देशों को जीता था । मैगस्थनीज ने इसके विषय में लिखा - Nebuchad Nazzer King of Babylonia surpassed Herakles in courage and the greatness of his achievements. इसका बना Hanging garden विश्व प्रसिद्ध है। उसके द्वारा निर्मित Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनत्व जागरण...... ५३ महल अद्वितीय था जहाँ सिकन्दर ने भी निवास किया था । उस समय यह राज्य एध्य के नाम से जाना जाता था बेबीलोन के नाम से नही । क्योंकि भारत के बाहर उस समय नेबूचन्द्र नेजर से शक्तिशाली अन्य किसी का राज्य नही था अत: मगधाधिपति श्रेणिकके पुत्र अभय कुमार ने भेट स्वरूप ऐर्ध राजकुमार को जिन प्रतिमा भेजी थी जिससे प्रतिबोध पाकर आर्द्र राजकुमार भारत आया। पुत्र की खोज में नेबुचन्द्रनेजर स्वयं भारत सौराष्ट्र के रास्ते से आया और उसने गिरनार की यात्रा की । इस सन्दर्भ में आर्द्र देश और आर्द्र राजकुमार के विषय में जैन साहित्यिक स्रोतों द्वारा जो प्रमाण उपलब्ध है उन पर खोज की जानी चाहिए | Records shows that Mahavira had travelled extensively in India as far as south to Krishna river valley and had influenced with the religious Gospel not only various Kingdoms within India but also persian King Karusa and Prince Adreka Dr. Bhuvendra Kumar. सायरस के शिलालेखों से यह प्रमाण मिलता है कि बेबीलोन में मर्दुक की पूजा तथा बलि की प्रथा नेबूचन्द्र नेजर ने बन्द करायी थी । प्रारम्भ में यह मर्टुक का भक्त था परन्तु बाद में जैन धर्म स्वीकार कर लिया । इसने नौ फुट ऊँची व नौ फुट चौड़ी स्वर्ण प्रतिमा बनवायी तथा उसके समीप सिंह तथा सर्प बिम्ब बनवाया था । आज इस मन्दिर के टूटे फूटे टुकडे बर्लिन और Constantipole के म्यूजियमों में सुरक्षित हैं । इसका जो भाग अभी भी वहाँ मौजूद है उस पर वृषभ, गैंडा, सुअर, साँप, सिंह, बाज इत्यादि खुदे हुए दिखायी देते हैं । जो जैन तीर्थंकरों के प्रतीक चिन्ह या लांछन हैं। वृषभ का ऋषभदेव, गैडा श्रेयांस नाथ का, सुअर विमलनाथ का, बाज अनन्त नाथ का, साँप पार्श्वनाथ का, और सिंह भगवान महावीर का प्रतीक है। तीर्थंकरो के लांछन या प्रतीक पहले दीवारों, स्तम्भों, आदि पर बनाये जाते थे । कालान्तर में जब इन मूर्तियों की अन्यमतानुसार पूजा होने लगी, तब ये प्रतीक मूर्तियों के नीचे चिह्नित किये जाने लगे । बेबीलोन का बाज मन्दिर चौदहवें तीर्थंकर अनन्त नाथ का होना चाहिये क्योंकि बाज चौदहवें तीर्थंकर अनन्त नाथ का चिन्ह है एवं बाज मन्दिर की मूर्तियाँ अन्य I Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५४ जैनत्व जागरण... किसी धर्म से सम्बन्धित नहीं हो सकती । मार्शल के अनुसार जैन स्थल तक्षशिला का स्तूप जिसको इतिहासकार 'दो सिरोंवाला बाज मन्दिर' ‘Shrine of the double Headed Eagle' कहते हैं, बेबीलोन के प्राचीन बाज प्रतीक से मेल खाता है । "If the comparison drawn by Marshall between the edifice and those occuring on Jain Ayag patt from Mathura has any real significance, the eagle here may be recognised as either a formalised congnisance of the fourteenth Tirthankar Anantnatha..." (P.C. Dasgupta). इतिहासकार ईसा पूर्व ३००० वर्षो से भारत और बेबीलोन के सम्बन्धों को मानते हैं | Indian Merchants establish Colonies in ur, Kish and Aprachiya...(S.R. Rao, Dawn and Devolution of Indus Valley civilisation Pg. 15) मैगस्थनीज, एरियन, टोलमी आदि के वर्णनों से यह स्पष्ट है कि दक्षिण भारत निर्ग्रन्थ धर्म के केन्द्र स्थल था । अतः दक्षिण भारत और बेबीलोन का सम्बन्ध दोनों संस्कृतियों की समानता का प्रतीक कहा जा सकता है । The excavation of Ur dating back 7th and 6th century B.C. revealed Amazonite beeds which could only come from Nilgiri Hills of South India. It appears that the relations between Babylone and the coast of India were intimate from the earliest time. मिस्त्र की प्राचीन हीरोलिपिक सुमेरियन फिनिशियन तथा यूनानी लिपि की भारतीय ब्राह्मी लिपि से समानता है । डॉ. बुलर आदि अनेक लेखकों की भ्रम मूलक धारणाओं को खंडित कर रायबहादुर पं. गौरीशंकर ओझा ने ब्राह्मी लिपी को सबसे प्राचीन सिद्ध किया है । जैन साहित्य में ब्राह्मी लिपि के विषय में कहा गया है कि श्री ऋषभदेव ने अपनी पुत्री ब्राह्मी को दाहिने हाथ से जो १८ लिपियाँ सिखाई थी उनमें प्रथम ब्राह्मी लिपि थी । I स्मारक और साहित्य परम्परा का धनी : जैनधर्म पोप के पुस्तकालय के एक Latin आलेख से जिसका हाल ही में अनुवाद हुआ है, जिससे पता चलता है कि दिगम्बर भारतीय दार्शनिक निर्ग्रथों Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनत्व जागरण..... की एक बहुत बड़ी संख्या इथोपिया के वनों में रहती थी और अनेक यूनानी विद्वान् वहीं जाकर उनके दर्शन करते थे और उनसे शिक्षा लेते थे। जिम्बावे के मन्दिरों के अवशेषों के विषय में भी यह कहा जाता है कि ये प्राचीनकाल में भारतीयों द्वारा निर्मित किये गये थे । "There are some who say that it was Indians and not the Arabs, Phoenicians of Africans who built there stone walls and temples. The ruin of which remain one of the mystries of Zimbabwe.” - G. M. Sarah. - 'The people of South Africa' (Pg. 223) ये भारतीय कौन थे ? ये सर्व विदित है कि मूर्ति कला के उत्कृष्ट नमूने जैनियों द्वारा निर्मित किये गये । श्री अष्टापद कैलाश (हाल की खोजों से वहाँ मन्दिर होने के प्रमाण मिले हैं । और जिनका वर्णन सिर्फ जैन साहित्य में ही मिलता है ।) श्रीशिल्पकला के प्रतीक माने जाते है तथा इस बात के द्योतक है कि मूर्तिकला का प्रारम्भ सबसे पूर्व जैनधर्मानुयायिओं द्वारा हुआ था । स्वामी दयानन्द सरस्वती ने भी इसे स्वीकार किया है । ____ भारत में अब तक प्राप्त सिक्कों में लीडिया देश के सोने और चाँदसे मिश्रित श्वेत धातु के सिक्के सबसे प्राचीन है। पंजाब के सिन्धु नदी के पश्चिमी तट पर लीडिया के राजा क्रीसस का सोने का एक सिक्का मिला। इस सिक्के में एक और वृषभ और एक सिंह का मुह बना है दूसरी ओर एक छोटा और एक बड़ा पंचमार्क चिन्ह अंकित है। उक्त सिक्के में अंकित वृषभ और सिंह का सम्बन्ध भगवान ऋषभदेव और भगवान महावीर से है । इसके अतिरिक्त वहाँ से प्राप्त ताँबे के सिक्को में से एक में अश्व का अंकन है जो भगवान संभवनाथ का प्रतीक है, दूसरे में हाथी का अंकन है जो तीर्थंकर अजीतनाथ का चिन्ह है। रैप्सन के Notes on Indian coins and seals में यूनानी राजाओं के सिक्कों का जो विवरण दिया है उससे स्पष्ट होता है कि यूनान के अनेक राजाओं पर जैन धर्म का प्रभाव था । (Journal of Royal Asiastic Society 1900-5). __यह सर्वविदित है कि जैन धर्म के २४ तीर्थंकरो के प्रतीकों की सांस्कृतिक धार्मिक परम्परा के महत्त्व के दर्शन सुदूरवर्ती देशों में मिलते Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जागरण..... हैं । ये लांछन की परम्परा प्रागैतिहासिक काल से चली आ रही है । विश्व की सभी प्राचीन सभ्यताओं में इन प्रतीकों का अत्यधिक महत्त्व रहा है जो Aegean Isle से अफ्रीका के रेगिस्तान तक फैली थी। ___J.H.Q. vol. 11, pg. 293 में वर्णन है कि A Naked Shraman Acharya went to Greece as his samadhi spot was found marked at Athens. यह मैगस्थनीज द्वारा वणित जैन आचार्य के यूनान जाने के विवरण से मिलता है। बुखारा में कल्याण मस्जिद है जिसे कल्याण मुनि के शिष्यों ने इस्लाम के पूर्व निर्मित किया था जिसे बाद में मस्जिद में परिवर्तित कर दिया गया। यूनान के तत्त्व ज्ञान पर जैन तत्त्व ज्ञान का स्पष्ट प्रभाव देखा गया है महान् यूनानी दार्शनिक पीरों ने जैन श्रमणों के पास रहकर तत्त्व ज्ञान सीखा । फिर यूनान लौटकर एलिस नगर में एक नयी यूनानी दर्शन पद्धति की स्थापना की जिसके अनुसार वास्तविक ज्ञान की प्राप्ति अन्तःकरण की शुद्धि द्वारा ही सम्भव है। भारत से लौटने के बाद पीरो दिगम्बर रहता था । उसका जीवन इतना सरल और संयमी था कि यूनानी उसे बड़ी भक्ति और श्रद्धा से देखते थे । यूनान में ६०० ई. पू. की प्राप्त दिगम्बर मूर्ति जिसे यूनानी कुरोस या अपोलो देवता की मूर्ति कहते हैं जैन तीर्थंकर ऋषभदेव की मूर्ति के समान है। पाइथागोरस आदि की धार्मिक मान्यतायें एवं आत्मा सम्बन्धी धारणायें यूनानी धर्म पर जैन दर्शन की अमिट छाप है। मथुरा अत्यन्त प्राचीन जैन तीर्थ स्थल था वहाँ से प्राप्त प्राचीन स्तुप तथा मूर्तियाँ इस बात की साक्षी हैं । वहाँ के देव निर्मित स्तूप के विषय में - Museum report में लिखा है - "The Stupa was so ancient that at the time when the inscription was inscribed its original had been forgen on the evidence of its character. The date of the inscription may be referred with certainty to the indo scythian era and is equivalent to A.D. 150: The stupa must therefore have been built several centuries before the begining of the Christian era. प्राचीन धार्मिक केन्द्र के तथा 'ईश्वरीय स्थल' के रूप में मथुरा से प्राचीन ग्रीकवासी भी परिचित थे । To the Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनत्व जागरण..... ५७ www ~ faithful the Devanirmit stupa or stupas of Mathura evidently appeared resplendent with Purilty. In this connection it may be remembered that the greeks in antiquity knew the city as Madoura ton the on Mathura of Gods (J.J. October 1981, pg. 53) जैन श्रमणों के प्रभाव से यहूदियों में २०० ई.पू. एक एस्सीनी नामक सम्प्रदाय की स्थापना हुई जो अहिंसा के सिद्धान्त पर चलते थे। ईसामसीह के समय इनकी संख्या अत्याधिक थी । यूनानी लेखक स्ट्रेबो के अनुसार अफलातुन जैसे दार्शनिक और विज्ञानवेत्ता उनके दर्शन करने और उनसे उपदेश लेने के लिये आते थे मेजर फल्ग ने अपनी कृति Science of Compartitive religion में लिखा है कि ३३० ई. पू. अरस्तू के वर्णनों से पता चलता है कि काले सीरिया के निवासी यहूदी तत्त्वज्ञानी थे जो इक्ष्वाकु वंशीय थे तथा जुदिया में रहने के कारण यहूदी कहलाते थे । विशम्भर नाथ पांडेय के अनुसार इन यहूदियो के ऊपर जैन साधुओं के त्याग का प्रभाव विशेष रुप से पड़ा तथा उन आदर्शों का पालन करने वालों की यहूदियों में से एक खास जाति बन गयी जो एस्सिनी कहलाते थे । इन्हीं एस्सिनी लोगों के दर्शन का प्रभाव पहले ईसाई तत्पश्चात् इस्लाम पर पड़ा था। __Major Furlong's, declaration in his 'Science of Comparative Religion' “After understanding Arisotelian version, it appears that before 330 B.C., a race of darskinned jewish inhabitants lived, who were spiritually inclined and belonged to the dynasty of lkshavaku. Because they belonged to a place called Judah, they were identified as Yahudi" (Jewish). According to Vishambher Nath Panday, these Jews were highly impressed by the discipline of detachment maintained by Jain monks and in order to study this art, they formed a special school of Jews known as Essenese" ईसाई धर्म में मठों और महन्तों की प्रथा भी इनसे ही ली गयी है। यहूदियो के धार्मिक ग्रन्थों में ऋषभदेव का वर्णन मिलता है । Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ stra GIMTU..... In 200 B. C., under the influence of Jain Shramans, the Jews formed a civilized race called Essenese, who believed in teachings of "Ahimsa.' These followers of Essenese subsently believed in teachings of 'Ahimsa.' These followers of Essenese subsequently shaped the initial foresight of the Christian and Islamic religion H. Spencer Lewis observes “In recent years the dead sea scrolls have confirmed the authors references to the essenese and their secret teachings which preceded Christianity.” he understands that during the time of Jesus Christ, they had a very large following. According to Strabrow, the Greek writer, “many advanced philosophers like Socrates and other religious leaders, would often come there to offer their respects and seek advice from them.” Historian, Yusuf, is of the opinion that philosophers, like Pythagoras and Stoic gained their True Knowledge of wisdom from them. The establishment of Church with it religious order of clergy was the result of these followings. 8800 s. yo # fe2154 155139 37 Ram say II wo ala a tifa के सबसे प्राचीन लिखित दस्तावेज मिले हैं। इसमें संधि की शर्तों के साथ हिटाइट dani3ii a 14 FEHTË 29969 al 19 ft From the closing sentence of the treaty which Rameses II concluded with the Kheta (Hittites), it even seems that Reshab and Anat was worshipped in many towns in the Hittites Kingdom.” çfaela लेखक युसुफ के अनुसार युनान के पाइथागोरस और स्टोइक दार्शनिकों ने अपने अनेक सिद्धान्त इन्हीं से सीखे थे । ईसाई धर्म में मठों और महन्तों की प्रभा भी इनसे ही ली गयी है। यहूदियों के धार्मिक ग्रन्थों में ऋषभदेव da qufa fucian Some old testamen passages Indicate.. Among the pre Israelitish inhabitants of the these Anakites were identical with or closely related to the Rephain or Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनत्व जागरण..... Rephaites (History of Israel pg. 7). ईसा मसीह के विषय में भी यह कहा जाता है कि उन्होंने भारत की यात्रा की थी । वे यहाँ निर्ग्रन्थ मुनियों के विषय में सुनकर ही भारत आये थे और यहाँ उनके पास रहकर उनसे ज्ञान प्राप्त किया था । श्री जिनेश्वर दास जैन ने लिखा है “It has been reported by a few historians that Lord Jesus visited desert of India... Lord Christ must have heard about the popularity and miracles of naked Jain Monks in Greece. Hence he decided to come to Rajasthan to meet such naked sadhus and know more about them and their way of living and their religious philosophy. Lord Christ must have been profoundly impressed by their strict austerities and then he decided to remain naked when he reached back to his country. Probably his naked way of life must have been vehemently opposed by the Roman Kinfa and rulers. Otherwise there could be no other reason for one of the greatest saints of that period to meet an opposition leading to such end results. This view is supported by many photograph of his crucification that his whole body is shown naked, a cloth is put around his waist.” यह भी कहा जाता है कि ईसा बच गये थे और भारत में कश्मीर में आये जहाँ उनकी समाधि का उल्लेख मिलता है। _ भारत वर्ष से अनेक जैन यात्री व्यापार करने टर्की जाते थे। मध्य एशिया और जैन धर्म मसीहसूली से जिन्दा । उनके हस्तलिखित विवरण भारत के अनेक शास्त्र भण्डारों में सुरक्षित है । ठाकुर बुलाखी दास ने शाहजहाँ के समय १६८३ ई. में अपनी तुर्किस्तान की यात्रा का विवरण लिखा है जो दिल्ली के एक जैन हस्तलिखित शास्त्र भण्डार में सुरक्षित है। यह राजस्थानी भाषा में है इसके अनुसार इस्तम्बोल नगर से ५७० कोस दूरी पर तारम्बोल नामक एक बड़ा नगर है । अनेक मुनि समुदाय उस समय वहाँ विद्यमान थे । श्रीयुत एन सी महेता ने स्टडीज इन इंडियन पेम्टिंग नामक पुस्तक में एक Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६० जैनत्व जागरण.... जर्मन पुस्तक के आधार पर लिखा है कि पुर्किस्तान में जो प्राचीन चित्र मिलते हैं उनमें जैन धर्म सम्बन्धी अनेक घटनायं भी चित्रित हैं । (C. J. Shah Jainism in Northern India, 1932, Pg. 199) टोकियो विश्वविद्यालय के प्रोफेसर नाकामुरा को चीनी भाषा में एक जैन सूत्र मिला है जो इस बात का प्रमाण है कि शताब्दियों पहले चीन में जैन धर्म प्रचलित था । सर विलियम जोन्स के अनुसार चीनी लोग अपनी उत्पत्ति भारत से बतलाते हैं। प्रोफेसर लेकेनपेरि चीन शब्द की उत्पत्ति भारत से हुई बतलाते हैं । Ancient Chinese Tradition नामक ग्रन्थ में यह वर्णन है कि ई.पू. ३००० में भारतीय व्यापारियों का एक दल चीन में गया था उसने वहाँ अपने उपनिवेश बसाये थे । लामचीदास जैन जो गोलालारे जाति के थे उन्होंने भूटान होते हुए चीन आदि देशों के जैन तीर्थों की यात्रा की थी। उन्होंने यह यात्रा १८ वर्ष में पूरी की थी। अपने विवरणों में वहाँ के जैन मन्दिरों का विस्तृत वर्णन किया है। • उनके अनुसार पेकिंग शहर में तुनावारे जाति के जैनियों के ३०० मन्दिर थे । इन मन्दिरों में कायोत्सर्ग मुद्रा एवं पद्मासन मुद्रा में मूर्तियों थी । वहाँ के जैनियों के पास जो आगम ग्रन्थ हैं वह चीन की लिपि में • तातार देश में पातके और घघेरवाल जाति के जैनी है। यहाँ की प्रतिमाएँ समवसरण में देशना की सूचक हैं। • तिब्बत देश में वाधानारे तथा भावरे और सोहना जाति के जैन निवास करते हैं । यहाँ च्यवन कल्याणक की पूजा करते हैं तिब्बत में १०वीं शताब्दी के पश्चात् ही बौद्धधर्म गया था । प्राप्त प्राचीन चित्र तथा पेटिंग्स दिसम्बर मुनियों की हैं परन्तु जिन्हें भ्रम-वश बौद्धों की मान लिया गया है। जब कि बौद्धों में नग्न प्रतिमाएँ नहीं होती। “The four monastries... their special marks... these paintings represent Buddhist saints often nude and in a standing position.” (Hustory of Western Tibet - A. H. Frenche.) कर्नल जेम्स टाड के अनुसार Nemunatha the 22nd of the Jinas and whose infunc, Tod Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनत्व जागरण..... ६१ believed has extended into China and Scandinavia where he as worshipped under the names of Fo and Odin respectively. भूमध्य देशों में भारतीयों को सबसे पुराना प्राप्त अवशेष श्रमणी की मूर्ति है जिसके बायें कन्धे पर चादर लटक रही है ! ईसा १२०० की एक काँसे की ऋषभ की मूर्ति अलासिया साइप्रस में मिली है ऋषभदेव की मूर्तियाँ मलाशिया में, इसबुकपुर में और हिट्टी देवताओं में प्रमुख देवताओं के रूप में मिली हैं । ऋषभदेव व कुछ अन्य तीर्थंकरों की मूर्तियां दूसरे देशों में भी मिलती है । फ्रांस के पेरिस म्यूज़ियम में एक सुन्दर कलाकृति की श्री ऋषभदेव की प्रतिमा रखी हुई है ये प्रतिमा मथुरा के कंकाली टीले की प्राचीन मूर्तियों के समान है । I 1 मध्य एशिया के यास्कर नगर से २० मील दक्षिण में कुगियर नामक स्थान में कागज में लिखे हुए सबसे पुराने भारतीय लिपि के चार ग्रन्थ मिले हैं । जिसका समय डा. हार्नल ने ई. पू. चौथी शताब्दी निश्चित किया है । डा. स्टेन को खोतान प्रदेश में एक पुराना ग्रन्थ मिला है जिसका नाम संयुक्तागम है । जैसा कि आगम नाम से विदित होता कि यह निश्चित ही जैन ग्रन्थ है | रूस के अजरबेजान (जो आज एक पृथक् देश बन चुका है) की राजधानी बाकू में एक मंदिर (खाम ओग्न्या) आज भी संरक्षित स्मारक के रूप में है । इस मंदिर के अन्दर विभिन्न सोलह गुफानुसा कक्षों में मूर्तियों है । इन मूर्तियों को देखने से ही इनकी सजीवता का अनुमान होता है । इनमें से कुछ मूर्तियों तपस्वियों की उपवास की मुद्रा में है । यह निश्चित रूप से भगवान आदिनाथ शिव अर्थात् ऋषभदेव का मंदिर है । ( अजरबेजान का शिव मंदिर डा. काशीराम उपाध्याय) मंगोलिया में सैंकडो बिहार है जिनमें गाण्डडू : प्रमुख बिहारों में है । इस बिहार का द्वार शंख, चक्र और मीन के चित्रों से सजा है । तथा दो सिंह बने हैं । मुख्य द्वार पर धर्म चक्र और मृग हैं । इससे स्पष्ट है कि यह बिहार पहले जैन केन्द्र था । शंख, चक्र, मीन, सिंह, मृग आदि जैन प्रतीक है, बौद्ध नहीं । जब भारत में ही इतिहासकारों ने ऐसी भूल की है तो विदेशों में यह एक सामान्य बात है । इसी मन्दिर का तीसरा Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६२ जैनत्व जागरण..... भवन चन्दन जीवों भवन है जिसका अर्थ चन्दन के प्रभु है । इसके छत्र पर धर्म चक्र बना है। यहाँ के पुस्तकालय में स्थित पटल का वस्त्र नवरत्नों से कढ़ा है। जिसके मध्य में स्वस्तिक और चारों आर अष्टमांगलिक चिन्ह है जो केवल जैन परम्परा में प्राप्त होते हैं । इस्लाम धर्म का आद्य जनक जैन धर्म नाभि राजा तथा ऋषभदेव की मान्यता का प्रमाण इस्लाम में भी मिलते हैं । मुसलमानों ने उन्हें ईश्वर का दूत रसूल नबी पैगम्बर माना है जो नाभि का ही रूपान्तर है। हजरत मोहम्मद से पूर्व इस पूरे क्षेत्र में जैन तीर्थंकरो की उपासना प्रचलित थी। अति प्राचीनकाल से मुसलमानों का पवित्र धार्मिक स्थल मक्का अत्यन्त प्रसिद्ध धार्मिक क्षेत्र माना जाता था जहाँ पूरे विश्व से लोग दर्शनार्थ आते थे । However no temple had the fame of the kaaba whose, Pre eminence was universally admitted by के शब्दों में A very high antiquity must be assigned to the main features of the religion of Mecca.. Diodorus, Secules, writing about half a century before our era, says of Arabia washed by the Red sea, there is in this country a temple greatly revered by the Arabs, These words must refer to the Holy house of Mecca, for we know of no other whichever commanded such universal homage... Tradition represents the Kabah a from time immemorial the scene of pilgrimage from all quarters of Arabia, from yeman and the Hadhrmaut, From the stores of persian Gulf, the desert of Syria and the distant environe of Hira and Mesopotamian men nearly flocked to Mecca, So extensive homage must have had its beginning in an extremely remote age. मक्का के प्राचीन नाम से भी उसके प्राचीन उपासना स्थल होने में कोई सन्देह नही रहता Most Intersting is the Ancient name of Maca Macorabi.' The name is derived from 'Caraba' which in Baylonian means worship, bless, Pray (History of Arab). इस्लाम धर्म का आरम्भ ७वीं शताब्दी में हजरत मोहम्मद साहब के द्वारा हआ । काबा जो जैन धर्म Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनत्व जागरण...... ६३ का महान तीर्थ माना जाता था । वहाँ पर तीर्थंकरों की ३६० मूर्तियाँ स्थापित थी । ऐसी मान्यता है कि यहाँ पर जो ऋषभदेव की मूर्ति थी वह सीरिया से लायी गयी थी । इन ३६० मूर्तियों को मोहम्मद साहब ने खंडित कर चकनाचूर कर दिया था | When order had been restored in the city Mohammed himself at the temple. He went round the Kaaba seven times on his camel each time touching the sacred stone with his staff, and then broke in pieces the idols 360 in number which were place round round the sanctuary. All this he had the doors of the temple thrown open cleans the house of the lord from all images. (Historians History of Arabs). काबा के महत्त्व का कुरान में भी वर्णन है । इसे ईश्वर का प्रथम घर कहा गया है । ब्राह्मण पुराणों एवं जैन साहित्य के अनुसार नाभि राजा तथा आदि तीर्थंकर ऋषभदेव के समय अयोध्या नगरी का निर्माण किया गया था | आज जितने भी ऐतिहासिक प्रमाण काबा की प्राचीनता के मिलते हैं इससे क्या यह सिद्ध नहीं होता कि मक्का ही प्राचीनतम अयोध्या नगरियों में से है ? The Kaba is stated in the Quran to be the first house (of divine worship) appointed by blen. In one place it is called At... Baital ... Aliq (Ancient House )... All Available historical evidence uphold this claim. (The Religion of Islam by Maulana Muhammed All pg. 383) इस्लाम में मक्का की तीर्थ यात्रा जिसे हज यात्रा कहते है । ये परम्परा प्राचीन आदि परस्परा की देन है । प्राय: यह देखा जाता है कि प्रत्येक धर्म अपने पूर्व चले आने वाले धर्म या परम्पराओं से कुछ अवश्य लेता है इस परिपेक्ष्य में हम यह कह सकते हैं कि यह हज यात्रा की परम्परा जैन धर्म की छ'री पालित तीर्थयात्रा की परम्परा से ली गयी है । This pilgrimage was borrowed from the ancient religion with all the ceremonies which accompan it, although they have been modified in some respects and received touch of Islamism. Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६४ जैनत्व जागरण..... जैन आम्नाय तीर्थ-यात्रा परम्परा आदि कालीन है । जिसके प्रमाण जैन साहित्य में हमें भरपूर मिलते हैं । आज भी यह परम्परा उसी रूप में देखने को मिलती है । यह जैन धर्म की महत्त्वपूर्ण विशेषता है तथा उसका प्राचीनता का प्रतीक भी । इसी यात्रा में जैन श्रावकों द्वारा जिन व्रतों का पालन किया जाता है और जिन नियमों का अनुसरण किया जाता है, ठीक वही नियमों तथा व्रतों का पालन हज यात्रा में भी किया जाता है। हज यात्री वैसे ही वस्त्र पहनते हैं जैसे कि जैन साधु या मुनि पहनते हैं कुरान के ४६वें अध्याय में जिन सम्प्रदाय का वर्णन आता है जिसमें मोहम्मद साहब के उनके मिलने का वर्णन है । मक्का के इतिहास में लिखा है कि नग्न साधु वर्ष में एक या दो बार अवश्य मक्का की यात्रा करने आते थे। चार्ल्स बरटिलस ने अपनी किताब 'Mysteries from forgotton world' में उत्तरी अमेरिका की खोज यात्रा के विषय में लिखा है जिसमें चीनी यात्रियों के मैक्सिकों जाने का वर्णन है । तथा उन्होंने अपने लेखों में वहाँ की चित्रकला में कमल और स्वस्तिक आदि प्रतीकों का वर्णन किया है। मैक्सिकों से प्राप्त कायोत्सर्ग दिगम्बर मूर्ति, स्तूप तथा माया और एजटेक सभ्यता के अवशेषों में जो मूर्तियाँ तथा प्रतीक चिन्ह मिले हैं उसकी सादृश्यता आश्चर्यजनक रूप से जैन तीर्थकरों की मूर्तियों तथा उनके प्रतीको से है। इस सन्दर्भ में विशेष खोज की जानी चाहिए। इस प्रकार हम देखते है कि जैन धर्म सिर्फ भारत में ही नहीं पूरे विश्व में फैला हुआ था। इसका प्रभाव विश्व की सभी संस्कृतियों पर किसी न किसी रूप में आज भी विद्यमान देखा जा सकता है सिर्फ आवश्यकता है वहाँ के प्राचीन इतिहास के गवेषणा की । आज जो खोजे हो रही हैं औरजो इतिहासकार इनको कर रहे हैं दुर्भाग्यवश वो जैन धर्म से अपरिचित हैं । अधिकांश विदेशी इतिहासकार अज्ञानवश जैन धर्म को बौद्ध धर्म के रूप में मान लेते हैं जिसके अनेक प्रमाण उपलब्ध हैं। ये विदेशी इतिहासकार तो अनजान थे लेकिन भारतीय इतिहासकार पूर्वाग्रही थे इन्होंने भारतीय होते हुये भी भारत की मूल संस्कृति को अनदेखा किया । आर्य जाति की श्रेष्ठता स्थापित करने में विलुप्त हो रही प्राचीनतम सांस्कृतिक धरोहरों को फिर Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनत्व जागरण....... से गहन शोध और अध्ययन द्वारा सही रूप में सामने लाने की आवश्यकता है । आज भी जो सबसे प्राचीन लिखित शिलालेखीय प्रमाण भारत में मिलता है, वह जैन धर्म से सम्बंधित है का है, अजमेर में वड़ली के पास । ६५ जैन धर्म न केवल भारत का वरन् विश्व का प्राचीनतम आध्यात्मिक धर्म है इसकी प्राचीनता के सम्बन्ध में काफी प्रमाण दिये जा चुके है । वास्तव में जैन धर्म विश्व की आदि सभ्यता का स्त्रोत है और भारत की सभ्यता और संस्कृति का एक ऐसा अंग है जिसे निकाल देने से हमारी संस्कृति का रूप एकांगी और विकृत रह जायेगा । यह निर्विवाद है कि यह धर्म ना तो विश्व के किसी धर्म के विरोध में प्रारम्भ हुआ ना ही किसी का रूपान्तर है यह आर्हत्-संस्कृति अध्यात्म प्रधान है तथा विश्व को भारत की देन है । जो प्राग्वैदिक काल से विश्व ने अपनायी तथा विश्व के सब देशों में इसका प्रचार हुआ, यहाँ तक कि वेदों, स्मृतियों, पुराणों और उपनिषदों में भी इस संस्कृति को सर्वोच्च स्थान मिला । ७वी शताब्दी तक आर्हत् संस्कृति सारे विश्व में फैली रहो । कवि सूरदास जी के शब्दों में बहुरि रिसम बड़े जब भये नाभि राज देवनको गये । रिसभ राज परजा सुख पायो जस ताको सब जग में छायो ॥ लोगस्स उज्जोअगरे, धम्मतित्थयरे जिणे । अरिहंते कित्तइस्सं, चउवीसंपि केवली ॥१॥ इस लोक में स्थित सम्पूर्ण वस्तुओं के तत्त्वज्ञान का यथार्थरूप बताकर तीनों लोकों को प्रकाशित करने वाले, धर्म रूपी तीर्थ की स्थापना करने वाले, राग, द्वेष आदि कषायों को जीतने वाले, तीनों लोकों में पूज्य ऐसे चौबीस केवलज्ञानी तीर्थंकरों को मैं वन्दना करता हूँ । ये चौबीस तीर्थंकर हैं उसभमजिअं च वंदे, संभवमभिणंदणं च सुमई च । पउमप्पहं, सुपासं, जिणं च चंदप्पहं वंदे ॥२॥ Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनत्व जागरण..... सुविहिं च पुप्फदंतं, सीअल-सिज्जंस वासुपुज्जं च । विमलमणंतं च जिणं, धम्मं संति च वंदामि ॥३॥ कुंथु अरं च मल्लिं, वंदे मुणिसुव्वयं नमिजिणं च । वंदामि रिट्टनेमि, पासं तह वद्धमाणं च ॥४॥ तीर्थंकर परम्परा के आज भी इतने प्रमाण मिलते हैं कि हम निःसंदेह कह सकते हैं कि यही आदि परम्परा, मानव सभ्यता और संस्कृति का मूल स्रोत रही थी। कालान्तर में इसी से निकलकर लोगों ने अलग-अलग धार्मिक मत चलाये जो विभिन्न धर्म के रूप में प्रचलित हुए । उन सब मतों का आधार ये तीर्थंकर परम्परा ही रही । इस उच्च कोटि की परम्परा को धूमिल करने का प्रयास हजारों वर्षों से चल रहा है । इसी में से पृथक हुए लोगों ने अपनी-अपनी मान्यताएँ स्थापित करने के उद्देश्य से मूल को नष्ट करने की चेष्टा की और आज भी ये चल रही है। अभी हाल ही में भारत के पालिताना तीर्थ (सौराष्ट्र) में कुछ अराजक जैन विद्वेषी लोगों ने पहाड़ के ऊपर गणेश और शिव की आकृति के पत्थर रख दिये और जैन समाज के दो नवयुवकों को अगवा कर लिया तथा इस शर्त पर उनको छोड़ा कि यहा पर उनका मंदिर बनवाना होगा। इसी प्रकार गिरनार तीर्थ में भी धीरेधीरे ऐसा ही किया जा रहा है। इसके पीछे हजारों वर्षों से चली आ रही मानसिक संकीर्णता और धर्म के नाम पर जेहाद करने वालों का यह कार्य है। यहाँ पर प्रचलित ऐतिहासिक महापुरुषों के चरित्रों को अपनी मान्यतानुसार परिवर्तित कर शूद्र जाति (वाल्मीकि) के बीच प्रचलित करवाकर समाज से नैतिकता को समाप्त करना तथा प्राचीन सांस्कृतिक मूल्यों को परिवर्तित करने का दुष्परिणाम आज समाज में स्पष्ट देखा जा रहा है । जैन ऐतिहासिक साक्ष्यों को नष्ट करना, मंदिरों एवं मूर्तियों को नष्ट तथा परिवर्तित करना, क्षेत्र पूजा को लिंग पूजा में बदल देना आदि सैकड़ों उदाहरण हैं जो प्रमाणित करते हैं कि किस तरह एक उच्चकोटि की सांस्कृतिक परम्परा को नष्ट एवं परिवर्तित किया गया और आज भी किया जा रहा है। इस विषय में डॉ. सुनीतिकुमार चटर्जी का यह वक्तव्य बहुत महत्त्वपूर्ण है जिसमें उन्होंने लिखा है कि- "Myths and legends of Gods and Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनत्व जागरण..... ६७ heroes current among Austric and Dravidians long attending the period of Aryans advent in India (1500 B.C.) appeared to have been rendered in the Aryan Language in late and garbled or improved version according to themselves to Aryan Gods and heroes worlds and it is these myths and legends to Gods, sagas which we largely find in puranas. "आस्ट्रिक और द्रविड़ों में आर्यों के यहाँ आगमन के पूर्व (ई. पू. १५००) देवताओं और वीरों की दंतकथाएँ प्रचलित थी । ये कथाएँ आर्य भाषा में बहुत समय बाद आयी जिनमें आर्य देवताओं और मान्यताओं के अनुसार सुधार या परिवर्तन हुआ और वे आर्यों के देवों एवं वीरों के रूप में बदल गए । पुराणों की कथाएं भी इसी प्रकार पैदा हुई ।" इस प्रकार हम देखते हैं कि वास्तविकता के मूल्यांकन केलिए निरपेक्ष दृष्टि से ब्राह्मण साहित्य का गवेषणापूर्ण अध्ययन करने की आवश्यकता है । इतिहासकार रोमिला थापर ने भी इस विषय पर प्रकाश डालते हुए कहा है- “We are now finding evidence of Shaivite attacks on Jain temples, the destruction of temple, the removal of idols, the reimplanting of shaivite images in their place, this is a regular occurence.........Even temple were destroyed or Jain monuments were destroyed by Hindus pauticulurl by shaivites.” __ यह हमारा दुर्भाग्य है कि हमारे समाज में शिखर पर बैठे हुए व्यक्ति सोये हुए हैं। अपने कर्तव्यों के प्रति सजग नहीं है, सच का सामना करने की वीरता उनमें नहीं रही है; सिर्फ अपने स्वार्थ के मद में आँखें मूंदे तमाशा देखते हैं और अपनी जय-जयकार सुनने की लालसा रखते हैं । अब भी अगर नहीं चेते तो हमारी परम्पराएं सिर्फ धूमिल ही नहीं होगी बल्कि समाप्त हो जाएगी और हम देखते, हाथ मलते और आपस में लड़ते रह जाएंगे। तीर्थंकरों द्वारा प्रतिपादित सिद्धान्तों का सही मूल्यांकन हम तभी कर पाएंगे जब उसको सम्यक् रूप से जाने और उस पर चलने के लिए प्रतिबद्ध हो । Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनत्व जागरण ....... तीर्थकरों के प्रामाणिक इतिहास पर यह शोध लेख देने का प्रमुख कारण यही है कि हम अपने प्राचीन इतिहास से अवगत हो और हमें गर्व होना चाहिए कि हमने एक ऐसी संस्कृति में जन्म लिया जो मानव इतिहास एवं सभ्यता की जननी कही जा सकती है । कैसे थे वे लोग ? कैसा था उनका अथाह आत्मज्ञान ? हम सोच भी नहीं पाते क्योंकि हमारी दृष्टि संकुचित होती जा रही है । मैं मेरे में ही उलझकर अपने तक ही सीमित बन गए हैं। इस मैं - मेरे को छोड़कर सर्वदर्शी, दूरदर्शी बनना होगा, तभी मानव जाति का उत्थान संभव होगा । समर्पित है यह कृति यह प्रयास यह जीवन, उन तीर्थंकरों के प्रति जो हमारे परम आदर्श हैं । ६८ - चौबीस तीर्थंकर पुरासाक्ष्यों एवं ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य में आज से लगभग पन्द्रह वर्ष पूर्व जापान के एक विद्वान सुजुको ओहिरो का एक लेख पढ़ने में आया जिसमें चौबीस तीर्थंकरों के अस्तित्त्व पर प्रश्न चिन्ह लगाया गया था । उनके कहने का सार यह था कि इन चौबीस तीर्थंकरों में भगवान पार्श्वनाथ और भगवान महावीर के अलावा कोई वास्तविकता नहीं है । ये आज के प्रचलित हिन्दू धर्म के चौबीस अवतारों तथा बौद्ध धर्म के चौबीस बुद्धों का सरासर अनुकरण है । दुर्भाग्यवश जैन समाज कुछ प्रतिष्ठित लोग भी इन बीस तीर्थंकरों के अस्तित्व को लेकर असमंजस में है । इस विषय पर अध्ययन करके उपलब्ध साहित्यिक, पुरातात्त्विक और प्राचीन परम्पराओं के आधार पर कुछ निष्कर्ष निकाले हैं जिन्हें आपके समक्ष रखा जा रहा है । I T तीर्थंकरों की ऐतिहासिकता की खोज करने से पूर्व तीर्थंकरों के विषय में जानना आवश्यक है । ये तीर्थंकर शब्द कहाँ से आया, इसका अर्थ क्या है ? ये इतना महत्त्वपूर्ण क्यों है ? और इसकी विशेषताएँ क्या है ? सबसे प्राचीन चली आ रही परम्परा 'समन' है । विश्व के प्राचीन इतिहास का अवलोकन करने से सभी प्राचीन संस्कृतियों में समन परम्परा मिलती है। 'समन' और 'जिन' शब्द का सबसे प्राचीन रूप हमें साइबेरिया, मंगोलिया तथा चीन में मिलता है । यह उत्तरी ऐशिया के 'इवेंक' भाषा का शब्द है । मंगोलियन और चीनी भाषा में 'जिन' का अर्थ है 'शुद्ध' । चीन में Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनत्व जागरण..... ६९ 'समन' और जिन शब्द का प्रचलन अधिक मिलता है । चीनी भाषा में 'समन' को 'Wu' कहते हैं । 'Wu' का सबसे प्रथम वर्णन १६०० ई.पू. में Shang Dynasty के शासन में मिलता है । बाद में यहीं शब्द चीनी बौद्ध ग्रन्थों में श्रमण के रूप में लिखा जाने लगा । यद्यपि कुछ विद्वानों के अनुसार साइबेरियन समन और चीनी Wu में कुछ अन्तर है लेकिन लेखक आर्थर वेली ने लिखा है कि “ Indeed the functions of the Chinese Wu were so like those of siberian and Tungus Shamans that it is Convenient......to use as a translation of Wu." इस प्रकार यह समन शब्द श्रमण का ही अपभ्रंश है । मिस्त्र से ईराक, ईरान, टर्की, यूनान, रूस, चीन, मंगोलिया तथा दक्षिण पूर्वी एशिया के प्राचीन देशों की आदि परम्परा समन ही रही है । इसी परम्परा में जिन, अर्हत, अरिहंत, व्रात्य, निर्ग्रन्थ, श्रमण और तीर्थंकर होते हैं । १. जिन इस श्रमण परम्परा के प्रतिष्ठापक जितेन्द्रिय होने के कारण जिन कहलाते हैं । २. ३. ४. ५. ६. ७. ८. अर्हत् समस्त पूज्य गुणों से युक्त होने के कारण अर्हत् नाम से अभिहित, वातरशना निरन्तर योगपूर्वक सदाचरम के मार्ग पर आरुढ़ होने के कारण वातरशना. व्रात्य - व्रतपूर्वक सदाचरण के मार्ग पर आरूढ़ होने के कारण व्रात्य, निर्ग्रन्थ समस्त अंतरंग और बहिरंग से मुक्त होने से निर्ग्रन्थ. समन - सम्पूर्ण समत्व के साधक और उद्घोषक होने के कारण समन. स्वेच्छा एवं श्रमपूर्वक तप, त्याग, संयम का मार्ग अपनाने के कारण श्रमण.. श्रमण तीर्थंकर - संसार को दुःखरूप जान और मानकर उससे पार होने के लिए धर्मरूपी तीर्थ का प्रारम्भ करने के कारण तीर्थंकर. अरिहंत - रागद्वेष रूपी आंतरिक शत्रुओं पर विजय पारने के कारण अरिहंत. - - - Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७० जैनत्व जागरण.... - १०. अरहंत - सब भव बीजांकुर क्षीण करने के कारण अरहंत. ११. सर्वज्ञ - चार घातिय कर्म को क्षय करके केवलज्ञान, केवल दर्शन प्राप्त करने के कारण वीतराग सर्वज्ञ कहलाते है। तीर्थंकरों में ये सभी गुण होते हैं । वर्तमान इतिहासकारों ने श्रमणों की कुछ सामान्य विशेषताएं बतायी है । जो प्राचीन श्रमण धर्म की भी विशेषताएँ है (१) आत्मा का अस्तित्व. (२) मूर्तिपूजा (३) कर्म सिद्धान्त (४) संसार अनन्त और अनादि (५) अचेलकता सब मनुष्य व्रात्य, निर्ग्रन्थ, जिन, और बुद्ध हो सकते हैं लेकिन तीर्थंकरों की एक विशेषता उन्हें इन सबसे अलग करती है । यद्यपि केवलज्ञान सभी को होता है लेकिन तीर्थंकर वे होते हैं जो केवलज्ञान प्राप्त करने के बाद साधु-साध्वी, श्रावक-श्राविका चतुर्विध संघ रूपी तीर्थ की स्थापना करते हैं । जबकि जिन, बुद्ध, निर्ग्रन्थ, व्रात्य आदि केवलज्ञान तो प्राप्त करते हैं लेकिन चतुर्विध संघ रूपी तीर्थ की स्थापना नहीं करते । प्राचीन काल में इस चतुर्विध संघ को ही तीर्थ कहा जाता था और इस तीर्थं के संस्थापक तीर्थंकर कहलाते थे। ___ केवली और तीर्थंकर दोनों में ज्ञान की समानता रहती है। परन्तु एक अन्तर उन्हें अलग रखता है। तीर्थंकर स्व-कल्याण के बाद पर-कल्याण के लिए तत्पर रहते हैं । वे तीनों लोकों के उद्धारक होते हैं। उनका बल, वीर्य जन्म से ही अनन्त होता है । कथा साहित्य में नवजात शिशु महावीर द्वारा चरण अंगुष्ठ से मेरु पर्वत को कंपित करने का आख्यान प्राप्त होता है। एक प्रमुख विशेषता जो तीर्थंकरों में होती है वह उनका जन्म क्षत्रियकुल में होना । जैन दर्शन में जातिवाद का कोई स्थान नहीं है तब ऐसा क्यों माना गया है कि तीर्थंकरों का जन्म क्षत्रिय कुल में होगा? ब्राह्मण ब्रह्मचर्य Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनत्व जागरण....... सत्य-संतोष प्रदान भिक्षाजीवी होता है जबकि क्षत्रिय ओजस्वी, तेजस्वी, पराक्रमशाली एवं प्रभावशाली होता है । धर्म - शासन के संचालन और रक्षण में यह क्षत्रिय वृत्तियाँ होना आवश्यक है । ब्राह्मण कुल का व्यक्ति तेजस्वी और त्यागी नहीं होता । इसी लिए ऋषभदेव से महावीर तक सभी तीर्थंकर क्षत्रियकुल में हुए । तीर्थंकर अपनी तप- साधना स्वयं करते हैं किसी देव, दानव या मानव का सहारा नहीं लेते हैं । जब श्रमण भगवान महावीर से देवेन्द्र ने आकर निवेदन किया कि 'भगवन् आप पर भयंकर कष्ट और उपसर्ग आने वाले है अत: मैं आपकी सेवा में रहकर इन कष्टों को दूर करना चाहता हूँ आप ऐसी आज्ञा दें ।' उत्तर में प्रभु ने कहा 'हे शक्र ! स्वयं द्वारा बाँधे हुए कर्मों को स्वयं ही भोगना होता है दूसरे किसी की सहायता लेने से कर्म के फल को भोगने का समय आगे पीछे हो जाता है लेकिन कर्म नहीं कटते ।' तीर्थंकर स्वयं ही कर्म क्षय कर अरिहंत पद प्राप्त करते हैं । सब व्यक्ति समान है यानि सबकी आत्मा एक है, । आत्मा एक है इस सिद्धान्त को स्वीकारते हुए भी तीर्थंकरों का जन्म क्षत्रिय कुल में माना गया क्योंकि क्षात्र तेज वाला शस्त्रास्त्र सम्पन्न व्यक्ति ही राजवैभव को साहसपूर्वक त्यागकर अनेक कष्टों और बाधाओं का सामना कर अहिंसा का पूर्णरूपेण पालन कर सकता है । अपनी कठोर साधना और तपोमय जीवनचर्या से तीर्थंकरों ने यह दिखाया कि प्रत्येक व्यक्ति अपने साहस और पुरुषार्थ से अपने कर्मों को क्षय कर सकता है । कर्मों के अशुभ फल को भोगते समय भी घबराकर भागना वीरता नहीं बल्कि धैर्य के साथ उसका सामना करना और अपने शुभ ध्यान से कर्मों को काटना ही वीरत्व है । ७१ तीर्थंकरों के गुणों का वर्णन 'नमोत्थुणं' नामक प्राचीन प्राकृत स्तोत्र में मिलता हैं । इसमें तीर्थंकर को धर्म का प्रारम्भ करने वाला, तीर्थ की स्थापना करने वाला, धर्म का प्रदाता, धर्म का उपदेशक, धर्म का नेता, धर्म मार्ग का सारथी और धर्म चक्रवर्ती कहा गया है । तीर्थंकर का कार्य है स्वयं सत्य का साक्षात्कार करना और लोक मंगल के लिए सत्य मार्ग व सम्यग् मार्ग का प्रवर्तन करना । वे धर्म मार्ग के उपदिष्टा और धर्म मार्ग पर चलने वालों के मार्गदर्शक हैं । उनके जीवन का लक्ष्य होता है स्वयं Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनत्व जागरण... को संसार चक्र से मुक्त करना, आध्यात्मिक पूर्णता को प्राप्त करना और दूसरे प्राणियों को भी इस मुक्ति और आध्यात्मिक पूर्णता से लिए प्रेरित करना और उनके साधना में दिशा प्रदान करना । तीर्थंकरों को संसार समुद्र से पार होने वाला और दूसरों को पार कराने वाला कहा गया है। वे पुरुषोत्तम हैं, उन्हें सिंह के समान शूरवीर, पुण्डरीक कमल के समान वरेण्य और गन्धहस्ती के समान श्रेष्ठ माना गया है । वे लोक के उत्तम, लोक के नाथ, लोक के हितकर्ता, दीपक के समान लोक को प्रकाशित करने वाले कहे गए हैं। ७२ जैन साहित्य में चौबीस तीर्थंकरों की मान्यता है । प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव से चौबीसवें तीर्थंकर महावीर का जीवन चरित्र एवं उनके पूर्वक भवों का वर्णन एक आत्मा के परमात्मा बनने का उदाहरण है । मानव भव को दुर्लभ माना गया है, क्योंकि आत्मा की मुक्ति मनुष्य भव में ही होती है । इसीलिए ये चौबीस तीर्थंकर कोई देवता नहीं बल्कि साधारण मानव थे । वे स्वयं के पुरुषार्थ से मानव से महमानव बने, पुरुष से महापुरुष बने । Mr. Neo Rating जो स्वयं को जैन कहलाना पसन्द करते थे उन्होंने अपने लेख ‘My decision for Jainism' में लिखा है- Mahavira, of all religious teachers, I feel closest to him. He was human like my self and nothing morin the beginning. आगे उन्होंने लिखा है कि "Instead of God becomes man we see that in the person of Mahavira man becomes God." लिखित रूप में सबसे प्राचीन साहित्य जो आज माना जाता है वे वेद हैं। वेदों का जो रूप हमें मिलता है वह मौलिक नहीं होकर संकलित वेद हैं । अत: मूल वेद उससे भी प्राचीन रहे होंगे । संकलित वेदों में जो उल्लेख मिलते है वे अवश्य ही उन प्राचीन मौलिक वेदों से लिये गये होंगे जो श्रुत में चले आ रहे थे । वेदों और पुराणों आदि में ऋषभ परम्परा के उल्लेख प्रचुर रूप से मिलते हैं । ऋग्वेद के गवेषणात्मक अध्ययन के आधार पर प्रसिद्ध विद्वान् श्री सागरमल जी ने 'अर्हत् और ऋषभवाची 1 Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनत्व जागरण...... ऋचायें' नामक लेख में लिखा है "ऋग्वेद में न केवल सामान्य रूप से श्रमण परम्परा और विशेष रूप से जैन परम्परा से सम्बन्धित अर्हत्, अरिहन्त, व्रात्य, वातरसनामुनि, श्रमण आदि शब्दों का उल्लेख मिलता है अपितु उसमें अर्हत् परम्परा के उपास्य वृषभ का भी उल्लेख शताधिक बार मिलता है । मुझे ऋग्वेद में वृषभवाची ११२ ऋचाएँ प्राप्त हुए है । सम्भवत: कुछ और ऋचाएँ भी मिल सकती है ।" डॉ. राधाकृष्णन, प्रो. जिम्मर प्रो. वार्डियर आदि कुछ जैनेतर विद्वान इस मत के प्रतिवादक है कि ऋग्वेद में जैनों के आदि तीर्थंकर ऋषभदेव से संबंधित निर्देश उपलब्ध होते हैं । बौद्ध साहित्य के धम्मपद में उन्हें (उसभं परवं वीर - ४२२ ) कहा गया है । ७३ अत: यह ऋषभ परम्परा निश्चित रूप से वेदों से प्राचीन है । इसलिए यहीं आदि परम्परा भी है । 1 डॉ. बुद्ध प्रकाश ने अपने ग्रन्थ भारतीय धर्म एवं संस्कृति में लिखा है, "महाभारत में विष्णु के सहस्त्रनामों में श्रेयांस, अनन्त, धर्म, शान्ति और सम्भव आते हैं और शिव के नामों में ऋषभ, अजित, अनन्त और धर्म मिलते हैं | विष्णु और शिव दोनों का एक नाम सुब्रत दिया गया है । ये सब नाम तीर्थंकरों के हैं । ऐसा लगता है कि महाभारत के समन्वयपूर्ण वातावरण में तीर्थंकरों को विष्णु और शिव के रूप में सिद्ध कर धार्मिक एकता करने का प्रयत्न किया गया था । इससे तीर्थंकरों की प्राचीन परम्परा सिद्ध होती है ।" जैन साहित्यानुसार एवं कर्नल जैम्स टॉड ने भी खेती के प्रारम्भ कर्ता ऋषभदेव को माना है । टॉड ने अपने ग्रन्थ एनल्स ऑफ राजस्थान में लिखा है कि ‘Arius Montanus’ नामक महाविद्वान् ने लिखा है नूह कृषि कर्म से प्रसन्न हुआ और कहते हैं इस विषय में वह सबसे बढ़ गया । इसलिए उसी की भाषा में वह इश आद मठ अर्थात् भूमि के काम में लगा रहनेवाला पुरुष कहलाया । इश- आद- मठ का अर्थ पृथ्वी का पहला स्वामी होता है । Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७४ जैनत्व जागरण..... आगे टॉड साहब कहते हैं "उपर्युक्त पदवी, प्रकृति, निवास स्थान जैनियों के प्रथम तीर्थंकर आदिनाथ के वृत्तांत के साथ ठीक बैठ सकते हैं जिन्होंने मनुष्यों को खेती बाड़ी का काम और अनाज गाहने के समय बैलों के मुंह को छीकी लगाना सिखाया !" कलिकाल सर्वज्ञ हेमचन्द्राचार्य ने ऋषभदेव को इस अवसर्पिणी काल के पहले राजा, पहले त्यागीमुनि, और पहले तीर्थंकर बताया है। उनकी स्तुति करते हुए उन्होंने लिखा है आदिमं पृथिवीनाथं आदिमं निष्परिग्रहम् । आदिमं तीर्थनाथं च ऋषभस्वामिनं स्तुमः ॥ ऋषभदेव कर्मभूमि और धर्म के आद्य प्रवर्तक होने के कारण आदिनाथ के नाम से भी जाने जाते हैं। उनके विषय में प्रो. वी. जी. नायर ने लिखा ऋषभदेव का निर्वाण स्थल : अष्टापद जैन परम्परा में तीर्थंकरों की अन्य कल्याणक भूमियों की अपेक्षा निर्वाण कल्याणक भूमि को ज्यादा महत्वपूर्ण माना गया है। जैन साहित्य में पाँच तीर्थों की महिमा का विशेष वर्णन मिलता है। जिमें आबू, अष्टापद, गिरनार, सम्मेत शिखर और शत्रुज्जय उल्लेखनीय है । अष्टापद जो ऋषभदेव की निर्वाण भूमि है उसके प्रमाण रूप में जो भी जैन एवं जैनेत्तर साहित्यिक स्रोत हमारे पास है उससे अष्टापद की अवस्थिति का निश्चित रूप से पता चलता है। वैदिक पुराणों में ये संदर्भ बिखरे पड़े हैं जिसके अनुसार नाभि और उनकी पत्नी मरुदेवी से ऋषभ नाम के पुत्र हुए जो योग में, तप में, क्षत्रियों में, राजाओं में श्रेष्ठ थे। उनके सौ पुत्र हुए और हिमालय के दक्षिण क्षेत्र को अपने पुत्र भरत को सौंप दिया तथा भरत के नाम से ही इस क्षेत्र का नाम भारत पड़ा । दूसरी महत्वपूर्ण बात जो हमें इन पुराणों से पता चलती है वह है कि आदिनाथ भगवान जो सब देवों के पूजनीय थे, सर्वज्ञ थे, जिनके चरण कमल का ध्यान कर हाथ जोड़कर सभी देवता तत्पर रहते Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनत्व जागरण...... I थे । ऐसे जिनेश्वर कैलास पर्वत पर मोक्ष गए । समस्त जैन वाड्मय में आचार्य जिनसेन, कलिकाल सर्वज्ञ हेमचन्द्राचार्य, श्री जिनप्रभसूरिजी, तथा वर्तमान में स्वामी आनन्द भैरव गिरि, स्वामी पड्वानन्द जी और सहजानंद जी महाराज अपने उल्लेखों में कैलाश पर्वत को ही ऋषभदेव का निर्वाण स्थल अष्टापद बताया है । अष्टापद के विषय में विभिन्न शास्त्रों में तथा भिन्नभिन्न समय में, भिन्न-भिन्न महापुरुषों द्वारा रचित वर्णनों में अष्टापद का कैलाश के रूप में वर्णन मिलना स्वयं में एक पुष्ट प्रमाण है । क्योंकि यदि यह वर्णन काल्पनिक होता तो एक व्यक्ति की कल्पना में होता सभी की कल्पना एक जैसी कैसे हो सकती है । ७५ कैलाश और अष्टापद दोनों का एक ही पर्यायवाची अर्थ है स्वर्ण या सोना । प्राकृत भाषा में अष्टापद को अट्ठावय कहा गया है । जिसका अर्थ भी स्वर्ण होता है । सूर्य की किरणें जब अष्टापद पर पड़ती है तो वह स्वर्ण की तरह चमकता है । कैलाश के दक्षिण में स्वर्ण की खानों का उल्लेख साहित्य में मिलता है। प्राचीन समय से यहाँ पर प्रचुर मात्रा में सोना निकाला जाता था । भारतीय व्यापारी भी वहाँ से सोना लाते थे । इसका वर्णन ए. एच. फ्रेन्के ने अपनी किताब 'दि वेस्टन तिब्बत' में किया है। चीन का इस क्षेत्र पर अपना अधिकार बनाये रखने का यह भी एक कारण है । इस संदर्भ में एक और महत्वपूर्ण प्रमाण तीसरी, चौथी और छठी शताब्दी में निर्मित एलोरा की सोलह और तीस नम्बर की गुफाएँ हैं जिन्हें बड़ा कैलाश और छोटा कैलाश कहा जाता है। छोटा कैलाश तो जैन गुफा है और बड़ा कैलाश शैव गुफा मानी गयी है लेकिन वास्तविकता यह है कि ये गुफा भी प्रारम्भ में जैन गुफा ही थी जिसके प्रमाणस्वरूप इस गुफा के शिखर पर जैन मूर्तियाँ आज भी देखी जा सकती है । कैलाश के पश्चिम में जो गुफा है उसमें भी जिन मूर्ति प्रतिष्ठित है जो बौद्धो के अधिकार में है 1 I यक्ष मान्यता जैन धर्म में आदिकाल से चली आ रही है । पुराणों में मणिभद्र यक्ष का निवास स्थान कैलाश बताया गया है जो ऋषभदेव स्वामी के निर्वाण स्थल पर यक्षों का वास, यक्षों की परम्परा को ऋषभ परम्परा से सीधा जोड़ता है । महुडी के यक्ष घण्टाकर्ण बद्रीनाथ तीर्थ के Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७६ जैनत्व जागरण..... क्षेत्रपाल है । शिखर जी पर्वत के क्षेत्रपाल भूमियाजी है उसी प्रकार कैलाश के क्षेत्रपाल मणिभद्र यक्ष है । इसके अलावा कैलाश क्षेत्र में शूलपाणि यक्ष के वास का भी पुराणों में उल्लेख हमें मिलला है । अष्टापदकी विलुप्ति और कैलाश शब्द का प्रचलन इसकी झलक हमें ऐतिहासिक विवरणों से खोजनी पड़ेगी । एक समय ऐसा आया जब सब लोग यह मानने लगे थे कि अष्टापद आलोप हो गया और कैलाश विराजमान है । जहाँ अष्टापद से ऋषभदेव को याद करते थे वहीं कैलाश को शिव के रूप में देखने लगे ऐसा कब से हुआ, इसका उद्देश्य क्या था यह जानना आवश्यक है । यह एक ऐतिहासिक तथ्य है कि प्राचीन साक्ष्यों को मिटाने एवं अपना बनाने के लिए उन्हें नये नाम दिये जाते रहे हैं जिसके सैकड़ों प्रमाण हमारे पास उपलब्ध है। अष्टापद तीर्थ का महत्व कम करने के लिए एवं उसे अपना साबित करने के लिये परवर्ती काल में ब्रह्म आर्यों ने कैलाश का नाम दिया । ऋषभदेव के निर्वाण के समय यह पूरी पहाड़ी श्रृंखला अष्टापद के नाम से जानी जाती थी। उनके निर्वाण के पश्चात् उनकी स्मृति में जो स्तूप बना वहीं परवर्तीकाल में कैलाश के नाम से प्रसिद्ध हुआ । उत्तर भारत में जब कोई स्वर्गवासी होता तो उसके लिए कहा जाता कि यह कैलाशवासी हो गया । इस प्रकार ऋषभदेव स्वामी की निर्वाण भूमि की स्मृति कैलाश के नाम से आज भी जीवन्त है । कैलाश यात्रा के तीसरे चरम में डॉ. वेलेजा की रिपोर्ट के कुछ अंशों का उल्लेख है जो अष्टापद की खोज की दिशा में बहुत ही महत्वपूर्ण है । The earliest archaeological horizon detectable at Mount Kailas belongs to the so called Zhang Zhung civilization a broadly defined cluster of cultural orders spanning the first millennium BCE and first millennium CE over a large area of Upper Tibet. The most salient physical feature of the Zhang zhung civilization at Mount Kailas in the remains of an extensive network of all stone cobbelled residences known in the native parlance as dokhong These are among the highest archaeological remains found any where in Uper Tibet. They Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनत्व जागरण....... also constitute the loftiest permanent residence built any where in the world, past or present, an impressive physical feat to be certain. ७७ The south side of Mount Kailas also receives maximum solar exposure, a key natural endowment in a brutally cold climate. Moreover, there are a surprising number of cave sites, valley branches, flats, and water sources lying in the lap of the mountain fit for human habitation. 1 इन विवरणों के अनुसार कैलाश के स्तूप के समीप में बहुत ही सुसंस्कृत सभ्यता विद्यमान थी जिसे ग्यारहवीं-बारहवीं शताब्दी में बौद्धों ने अपने प्रभाव में कर लिया। डॉ. बेलेजा ने इनको बौन्पो धर्म से या Zang Zung सभ्यता से युक्त किया है । बौन्पो लोग अपने धर्म का प्रारम्भ शेनारिब से मानते है जिसका अर्थ है सबसे बुद्धिमान व्यक्ति । बौन्पो धर्म के प्रमुख भगवान को तपारिष्ट कहते है जिसका अर्थ है तप द्वारा अपने शत्रुओं का शमन करने वाला । ये शत्रु हमारे आन्तरिक है । काम, क्रोध, लोभ, माया, मोह आदि । तीर्थंकर तप द्वारा अपने आन्तरिक शत्रुओं को जीतकर जिन और अरिहन्त कहलाते है । तपोरिष्ट शब्द ऋषभदेव के लिए ही प्रयुक्त हुआ है ऐसा मेरा मानना है । बौन्यो से पूर्व यहाँ जो लोग थे वह कौन थे और किस संस्कृति के थे । इसके लिये वहाँ के इतिहास पर एक दृष्टि डालना आवश्यक है जिससे घुंघली पड़ी तस्वीर स्वतः ही स्पष्ट हो जायेगी । अभी हाल के शोधों से यह पता चला है कि बौन्पो से पूर्व यहाँ लिच्छवी जाति के राजाओं का शासन था । मनु स्मृति में इन लिच्छवियों को व्रात्य क्षत्रिय कहा गया है । अथर्ववेद में व्रात्य काण्ड मिलता है जो श्रमण परम्परा का पुष्ट प्रमाण है । इसके अलावा साइबेरिया में व्रात्य जाति के लोग आज भी मिलते है इन्हें Buryats कहते हैं जो व्रात्य का ही अपभ्रंश है। ये Buryats श्रमणों को अपना आध्यात्मिक गुरु मानते हैं । पूर्वी भारत की प्राचीन ऐतिहासिक परम्परा के सूत्रधार भी ये व्रात्य क्षत्रिय थे जो श्रमण या निर्ग्रन्थ परम्परा के वाहक रहे विश्व प्रसिद्ध वैशाली गणतंत्र के प्रमुख चेटक भी इसी लिच्छवी जाति के थे जो चौबीसवें तीर्थंकर वर्द्धमान महावीर Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७८ जैनत्व जागरण.... के मामा थे। अतः महावीर का इस जाति से रक्त संबंध था । दूसरे तीर्थंकर अजितनाथ के समय समर राजा के अख्यान से यह स्पष्ट होता है कि कैलाश में उस समय नाग जाति के लोग वास करते थे। वहाँ पर जल भर जाने के फलस्वरूप इस जाति को अपना पैतृक निवास छोड़कर नीचे उतरना पड़ा और धीरे धीरे ईरान, ईराक से लेकर अन्य भू-भाग में फैल गये । २३वें तीर्थंकर पार्श्वनाथ का प्रभाव ईरान तक था। जिसके कारण उस समय ईरान पारस के नाम से विख्यात था जो कालक्रम में पारस से फारस हो गया । तीर्थंकर जहाँ-जहाँ होते और विचरण करते हैं वह क्षेत्र समृद्धशाली हो जाते हैं । बाद में जब दूसरे तीर्थंकर का प्रादुर्भाव अन्य क्षेत्र में होता है तो जहाँ पहले समृद्धि थी वहाँ से लोग पलायन करके नये तीर्थंकरों के समृद्धिशाली क्षेत्रों में आकर बसने लगते हैं। यह एक क्रम है जो चलता रहता है और इतिहास को दिशा देता है । कैलाश यात्रा के दौरान कुछ तिब्बती किताबें व साहित्य मिला जिसके अनुवाद से कुछ महत्वपूर्ण तथ्य सामने आये हैं । Gangkare Teashi (White Kailas) नामक किताब में स्पष्ट लिखा है कि बौद्ध धर्म से पूर्व जैन इस क्षेत्र में रहते थे। उनके प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव थे और अन्तिम तीर्थंकर महावीर । इसी किताब में ऋषभदेव के पुत्र भरत और बाहुबली का उल्लेख आता है और सबसे महत्त्वपूर्ण वर्णन २०वें तीर्थंकर मुनि सुव्रत स्वामी का कैलाश में आकर अपने हजारों शिष्यों के साथ तपस्या करने का मिलता है । यह एक बहुत महत्वपूर्ण विवरण हैं जो हमारे तीर्थंकरों की ऐतिहासिकता को भी पुष्ट करता है । इसी किताब में लिखा है कि ऋषभदेव ने कैलाश के पास एक गुफा में तपस्या की थी। अष्टापद खोज यात्रा के तीसरे चरण में कैलास के बेस पर एक गुफा तक दल के लोग पहुंचे जिसके १३ ड्रिगुंग कहा जाता है क्योंकि यहाँ तेरह छोटे स्तूप बने हुए हैं। इन स्तूपों पर तीर्थंकर मूर्ति तथा लेख है जो अभी पढ़े नहीं गये है। मैक्सिकों के प्राचीन स्तूपों, मिस्त्र के पिरामिडो और सारनाथ के स्तूपों की कुछ सामान्य विशेषताएं है । प्रथम यह स्तूप किसी महान व्यक्ति की याद में बनाये जाते थे एवं उनकी चिता Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनत्व जागरण..... ७९ के अवशेषों पर इनका निर्माण भी किया जाता था । उदाहरण के रूप में बुद्ध के अग्नि संस्कार की राख को चौरासी भागों में विभाजित कर उनके ऊपर स्तूप बनाये गये थे ऐसा उल्लेख मिलता है । इन स्तूपों के नीचे अन्दर की तरफ गुफा का निर्माण किया जाता था । प्रो. ए. के. वर्मा ने अपनी यात्रा की रिपोर्ट में कैलाश पर्वत की इस गुफा को ही ऋषभदेव स्वामी का निर्वाण स्थल मानते हुए लिखा है No place in the surrounds of the Kailash-Manasarovar region can impact as much as the cave in Mount Kailash itself and it is no wonder that mystics of various cultural origins retreated to the holy cave. Sri Adinathji couldnot have been an exception and Ashtapad identified as Mount Kailash itself, the Serdung Chuksum (Saptarishi cave) is where Sri Adinathaji would have attained Nirvana and thus rendering it as the holiest of all Jain Pilgrim sites. I believe a first hand experience of the cave is a must for forming any opinion on the most probable site of Nirvana of Sri Adinathaji. I strongly recommend a visit to the cave to anyone seriously interested. I can conclude based on my convictions that the cave is indeed the site of Sri Adinathaji's Nirvana. कैलाश के विषय में एक Russian report में लिखा है कि यह प्राकृतिक पहाड़ नहीं होकर मानव निर्मित पिरामिड़ है । “Nor should one ignore recent Russian studies of Tibet and the Kailas range in particular, the results of which, if true, could radically alter our thinking on the growth of civilizations. One of the ideas the Russians have put forward is that Mt. Kailas could be a vast, human built pyramid, the centre of an entire complex of smaller pyramids, a hundred in total. This complex, moreover, might be the centre of a worldwide system connecting other monuments of sites where paranormal phenomena have been observed. The idea of the Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनत्व जागरण...... pyramid in this region is not new. It goes back to the timeless Sanskrit epic of the Ramayana." ८० In shape, it (Mount Kailas) resembles a vast cathedral The sides of the mountain are perpendicular and fall sheer for hundreds of feet, the strata hori-zontal. the layers of stone varying slightly in colour, and the dividing lines showing up clear and distinct......which give to the entre mountain the appearance of having been built by giant hands, of huge blocks of reddish stone. (G.C. Rawling, The Great Plateau, London, 1905). अष्टापद की खोज में ऋषभदेव स्वामी के निर्वाण स्थल पर स्तूप निर्माण की जैन शास्त्रों में जो उल्लेख दिये है उसकी पुष्टि Swen Heden के इस वर्णन से होती है जो उन्होंने कैलाश परिक्रमा करते समय डिरापुक गुफा से आगे चलने पर किया है। The holy ice mountain or the ice jewel is one of my most memorable recollections of Tibet,and quite undersatand how the Tibetan can regard this wonderful mountain as a divine sanctuary which has a striking resemblace to a chhorten. The monument which is erected in memory of a deceased saint within or without the temples. यद्यपि अष्टापद की खोज अभी भी पूर्णतया नहीं हो पायी है फिर भी अभी तक जितने भी वर्णन मिले है उससे यह स्पष्ट जाहिर है कि कैलाश में ही अष्टापद हो सकता है । डॉ. वेलेजा ने नहीं जानते हुए भी अपनी खोज के निष्कर्ष के अन्त में यह माना है कि कैलाश ही अष्टापद हो सकता. है। ‘Given the findings set forthin this report Sri Ashtabad being mount Kailash itself seems the most likely prospect.' अतः इन सब उल्लेखों और निष्कर्षों को देखकर तथा जैन और जैनेत्तर साहित्य के अध्ययन से स्पष्ट और सर्वसम्मत रूप से यह स्वीकार किया Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनत्व जागरण...... जा सकता है कि कैलाश पर्वत किसी नार्कशी रूप में ऋषभदेव से सम्बन्धित है । ८१ सन् २००६ की कैलाश यात्रा के समय तिब्बत में सागा से कैलाश जाते समय रास्ते में गाँव के मकानों के बाहर स्वस्तिक और चंद्रबिन्दु बना हुआ देखा गया । पूछने पर यह पता चला कि ये प्राचीन परम्परा से चला आ रहा है । स्वस्तिक को एक मंगल चिन्ह के रूप में सभी संस्कृतियों I में अपनाया गया है “The Swastik is one of the oldest symbol still existing in history it is a sacred and Prehistoice symbol that predates all formal religons known to human kind, this common heritage of mankind. The connection between almost all devoloped cultures." इस स्वस्तिक का सबसे प्राचीनतम आधार क्या है यह गहन शोध का विषय है । जैन परम्परा के बाद बौद्ध धर्म से पूर्व तिब्बत में बौन धर्म प्रचलित था जिनके अनुसार कैलाश ' A Nine Storey' Swastik Mountain कहलाता हैं । स्वस्तिक की विभिन्न व्याख्याएँ उनको तीर्थंकरों से जोड़ती हैं । प्रत्येक धार्मिक साहित्य तथा स्थान विशेष में स्वस्तिक की व्याख्या हमें अलग-अलग रूप में मिलती है । (१) ऋग्वेद की ऋचा में स्वस्तिक को सूर्य मना गया है और उसकी चार भुजाओं को चार दिशाओं की उपमा दी गई है । जिस प्रकार सारे जीव जगत को प्राण देने वाला सूर्य है उसी प्रकार सारे जीवों में ज्ञान के उपदिष्टा तीर्थंकर भगवान होते हैं और सृष्टि के चारों दिशाओं में इन्हीं के ज्ञान की दुन्दभी बजती है । (२) यास्क के अनुसाव स्वस्तिक अविनाशी ब्रह्मा का नाम है। आत्मा का स्वरूप अविनाशी है इस बात को इसी स्वस्तिक भवन में विराजमान तीर्थंकर सबसे अच्छी तरह समझते हैं और बताते हैं I (३) अनेक देशों में स्वस्तिक का अर्थ अच्छा या मंगल करने वाले के रूप में माना गया है तीर्थंकरों की वाणी सर्वदा मंगलमय होती है इसलिये Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनत्व जागरण...... स्वस्तिक को मंगल का प्रतीक माना जाता है । कहीं कहीं स्वस्तिक को अनन्तकाल का प्रतीक और शांति का प्रतीक भी माना गया है । तीर्थंकर अनन्त ज्ञान के स्वरूप होते हैं। चारों गति से मुक्ति दिलाने वाले होते हैं जो स्वयं भी मुक्त होते हैं और सभी को मुक्ति का पथ दिखलाते हैं I चौबीस तीर्थंकरों का क्रम और काल का चक्र हमेशा चलाये मान रहता है । इसी लिये जैन धर्म में स्वस्तिक को चारों गति तथा अनन्तकाल का प्रतीक भी माना गया है । ८२ WW तीर्थंकर ही अहिंसा के, शांति के और मंगल के प्रतीक है, कल्याणकारी है। चंदन या रोली से जो हम स्वस्तिक बनाते हैं और उसके चारों खानों में विराजमान २४ तीर्थंकरों के चरणों में ही टीकी लगाकर तीर्थंकरों की पूजा करते हैं । परावर्त में भी टीकी लगाकर सभी सिद्ध आत्माओं की भी पूजा करते हैं । मनुष्य गति, देव गति, तिर्यंच गति, नरकं गति रुपी चारो गतियों में भवभ्रमण कर रही हमारी आत्मा पंचम मोक्ष गति में तीर्थंकर भगवन्तों के द्वारा दिखाए मार्ग से उनकी ही भांति संसार चक्र से मुक्ति की ओर अग्रसर हो, ऐसे मंगल भाव से रचा गया स्वस्तिक भी मंगल आकृति है कितना अद्भुत है आठ लकीरों से बना हुआ यह आकार, कितने ज्ञान के ज्ञाता होगे भरत महाराज जिन्होंने स्वस्तिक आकार में चौबींस तीर्थंकरों को स्थापित किया, उनको मेरा शत् शत् नमन् । जो भी इन तीर्थंकरों के आराधक रहे वे स्वस्तिक को अपने साथ जहाँ भी गये ले गये अतः पूरे विश्व में स्वस्तिक को सबसे शुद्ध, पवित्र और मंगलकारी माना गया है । सिन्धु घाटी सभ्यता भी तीर्थंकर परम्परा का प्रमाण देती है । वहाँ उत्खनन से प्राप्त तीर्थंकरों की योगमुद्रा तथा स्वस्तिक सीलों की प्राप्ति से यह पूर्णतया स्पष्ट हो जाता है कि तीर्थंकरों की पूजा उस समय भी प्रचलित थी । ३०० ई. पू. सम्प्रति महाराज के काल के सिक्को में भी हमें स्वस्तिक परावर्त और तीन ढिगली (ढेरी) का रूप चित्रित मिलता है । गौतमरास में वर्णन है कि अष्टापद पर चक्रवर्ती भरत ने नयनाभिराम चतुर्मुखी प्रासाद निर्मित किया था । श्री धर्म घोष सूरि जी ने भी लिखा है कि भरत चक्रवर्ती ने सिंह निष नामक चतुर्मुख चैत्य बनाया था और Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनत्व जागरण..... ८३ चारों दिशाओं में चार, आठ, दस, दो (चत्तारि अट्ठ दस दोय) के क्रम से चौबीस तीर्थंकरों की प्रतिमाओं की स्थापना की थी । इसी पर्वत पर गौतम स्वामी ने सिंह निषधा चैत्य के दक्षिण द्वार से प्रवेश कर पहले सम्भवनाथ, अभिनन्दन स्वामी, सुमतिनाथ, पद्मप्रभ स्वामी आदि चार प्रतिमाओं को वंदन किया, फिर प्रदक्षिणा देते हुए पश्चिम द्वार से आठ तीर्थंकरों सुपार्श्वनाथ, चन्द्रप्रभ स्वामी, सुविधिनाथ, शीतलनाथजी, श्रेयांस, वासुपूज्य स्वामी, विमलनाथ और अनन्तनाथ को तत्पश्चात् उत्तर द्वार से दस तीर्थंकरों धर्मनाथ, शांतिनाथ, कुंथुनाथ, अरनाथ, श्री मल्लिनाथ, मुनिसुव्रत स्वामी, नमिनाथ, नेमिनाथ, पार्श्वनाथ और वर्द्धमान महावीर को और फिर पूर्व द्वार से दो तीर्थंकरों अजितनाथ और ऋषभदेव के बिम्ब को वंदन किया । आज भी कैलाश की परिक्रमा इसी रूप में की जाती है। लेकिन बोंपो धर्म के अनुयायी कैलोश की परिक्रमा पूर्व से प्रारम्भ कर उत्तर पश्चिम तथा अन्त में दक्षिण की तरफ आते हैं । स्वस्तिक का शब्दकोश में अर्थ है चार मार्गों का मिलन या चार प्रकोष्ठ वाला चतुर्मुख प्रासाद या भवन । किसी भी चतुर्मुख महल को रेखाचित्र से दर्शाने पर यह स्वस्तिक आकार का ही दिखेगा । इसरो (Isro) के वैज्ञानिक डॉ. पी. एस. ठक्कर के अनुसार - कहीं-कहीं अति प्राचीन नगरों और भवनों का आकार स्वस्तिक प्रतीक के आधार पर होता था । बावन पुराण में लिखा है ततश्चकार शर्वस्य गृहं स्वस्ति कलक्षणम् योजनानि चतुः षष्टि प्रमाणेन हिरण्मयम् ॥२ दन्ततोरण निर्वृहं मुक्ताजालान्तरं शुभम् । शुद्ध स्फटिक सोपानं वैडूर्य कृतस्पकम् ॥३ विश्वकर्मा ने भगवान् शिव के लिये कैलाश पर स्वस्तिक लक्षण वाला गृह निर्मित किया था । जो हिरण्यमय तथा और प्रमाण में चौसठ योजन के विस्तार वाला था ॥२ उस गृह में दन्त तोरण थे और मुक्ताओं के जालों से अन्दर शोभित हो रहा था जिसमें शुद्ध स्फटिक मणि के सोपान (सीढ़ियाँ) थीं जिनमें वैडूर्य Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८४ जैनत्व जागरण..... मणि की रचना थी ॥३ कैलाश यात्रा से आने के बाद इन सारे उल्लेखों के गहन अनुसंधान से शोधकों को एसा प्रतीत हुआ है कि मन्दिर में चावलों द्वारा बनाया गया अर्द्ध चन्द्र सम्यग् ज्ञान दर्शन चारित्र के प्रतीक के रूप में तीन ढिगली (ढेरी) और स्वस्तिक सम्पूर्ण कैलाश क्षेत्र का प्रतिबिम्ब है। मंदिरों में चावलों के सर्वप्रथम परावर्त आकार में अर्द्धचन्द्र बनाते है जो अनन्त का प्रतीक है क्योंकि उसमें अनन्त-अनन्त मोक्षगामी आत्माएँ बसी हैं। इसी लिये इसको सिद्ध शिला का प्रतीक भी माना जाता है। यह कहा जाता है कि कैलाश पर्वत के उत्तर में शुद्ध आत्माएँ निवास करती है । ऋषभदेव के निर्वाण के पश्चात् इन्द्र ने वहाँ तीन स्तूप बनाये थे। पहला भगवान का, दूसरा उनके परिवारिक पुत्र और पौत्रों का, तीसरा अनगारों यानि साधुओं का जिन्होंने ऋषभदेव के साथ सिद्ध गति प्राप्त की थी। इन्हीं तीन स्तूपों को ही हम तीन ढिगली के रूप में बनाते हैं। भरत द्वारा बनाये गये सिंह निषध प्रासाद के प्रतीक के रूप में स्वस्तिक बनाना आज भी हमारी परम्परा में जीवन्त कैलाश के नजदीक होने के कारण तिब्बत में जो स्वस्तिक का रूप हमें देखने को मिला उसमें चारों खानों में टीकी लगायी हुई थी । दूरस्थ स्थानों में जिसने जैसे कहा उसे सुनकर और इसका धार्मिक उपयोग देखकर इसे मंगल चिन्ह मान लिया । परिणाम स्वरूप दूरस्थ स्थानों के देशों में टीकी लगाने की परम्परा नहीं है और आकार में सूक्ष्म परिवर्तन देखने को मिलता है। स्वस्तिक को जहाँ-जहाँ जिस रूप में पूजा गया उसको किसी भी तरह से देखे तो हमें स्वस्तिक आकार में भवन और उसमें चौबीस तीर्थंकर ही विराजमान दिखाई पड़ते हैं। भले ही आज हम तीर्थंकरों की बात भूल गये है लेकिन उनकी स्मृति शान्ति और शुभ, मंगल एवं कल्याणकारी तथा सूर्य के रूप में सारे विश्व में स्वस्तिक के प्रतीक के रूप में जीवन्त है। वैदिक साहित्य में भी स्वस्तिक प्रकार का भवन सिर्फ देवों और राजाओं के लिये उपयुक्त बताया गया है। कैलाश क्षेत्र के उपग्रह द्वारा लिये गये चित्रों से जो चतुर्मुख स्ट्रक्चर Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनत्व जागरण..... दिखायी पड़ा, वह जगह कैलाश पर्वत के पूर्वी छोर में अवस्थित है जो कैलाश का ही हिस्सा है। वहाँ का जो नक्शा है उसमें उस जगह का नाम धर्म राजा नरसिंह उल्लिखित है और ये नाम ही हमारे संदेहों का निवारण करके सिंहनिषधा प्रासाद की जगह को चिन्हित करता है । ये भगवान की चिता अग्नि संस्कार की जगह पर बनाये गये स्तूप के पास की भूमि पर भरत चक्रवर्ती द्वारा बनाये सिंहनिषधा प्रासाद की अवस्थिति को दर्शाता है। धर्म राजा, नरसिंह का अर्थ धर्म के राजा अर्थात् सबसे पहले धर्म का प्रवर्तन करने वाले, नरसिंह का स्पष्टीकरण जैन सूत्रों में वणित तीर्थंकरों के लिये परिस-सिहांण शब्द जिसका अर्थ पुरुषों में सिंह के समान निर्भीक, पर आक्रमणकारी नहीं होता है । यह तीर्थंकरों का एक विशिष्ट विशेषण भी है । अतः ये दोनों शब्द सिंहनिषधा प्रासाद के अर्थ से मेल खाते हैं । निषध शब्द का अर्थ राजा के लिये होता है राजा यानि सर्वश्रेष्ठ । कैलाश ही एक ऐसा तीर्थक्षेत्र है जो सभी धर्मों का श्रद्धा केन्द्र है। सभी धर्मों के लोग वहाँ जाते हैं और अपनी श्रद्धा अर्पण करते हैं। पश्चिमी देशों के लोग भी कैलाश को अत्यन्त पवित्र मानते हैं । इस विषय से सम्बन्धित प्रश्न के उत्तर में प्रसिद्ध Austrian explorer Bruno Baumann ने जो प्रत्येक वर्ष कैलाश की यात्रा करते हैं, कैलाश के विषय में कहा- “I regard Kailash and the region around spiritually as one of the most powerful places on earth and I feel a need to expose myself to that sacred energy. It is important for me to be in touch with this it enlightens me and bring me closer to my goal in life." विश्व की प्राचीनतम सभ्यताओं का विकास पश्चिमी एशिया में सबसे पहले हुआ जिसमें प्रमुख है असीरिया, बेबीलोनिया, ईरान, आरमीनिया, अजरबेजान, बहराइन, साइप्रस, इजराइल, जोर्डन, कुवैत, लेबनॉन, ओमान, कतार, सऊदीअरेबिया, सीरिया, तुर्की, यमन, अफगानिस्तान और यूनाईटेडअरंबमीरत आदि है । इसमें हम Egypt को भी सम्मिलित कर सकते हैं । पश्चिमी एशिया में ही इस्लाम, ईसाई, यहूदी, पारसी, आदि Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनत्व जागरण..... धर्मों का प्रादुर्भाव हुआ । यह क्षेत्र सात बड़े समुद्रों से घिरा हुआ है । कैलाश के पश्चिम में ही हिमाचल, सिन्धुघाटी, और कश्मीर भी पड़ता इसरो के वैज्ञानिक डॉ. पी. एस. ठक्कर के अनुसार कैलाश के पश्चिम में भारत चीन सीमा पर स्थित तीर्थ पुरी प्राचीन अयोध्या हो सकती है। ऋषभदेव की जन्मस्थली होने के कारण वह तीर्थपुरी कहलाने लगी । प्रसिद्ध आस्ट्रियन खोजकर्ता ब्रोनो बोमेन ने तीर्थपुरी के निकट सतलज नदी के किनारे अनेक ध्वंसावशेष खोजे है जो वहाँ पर एक उन्नत प्राचीन सभ्यता के होने की पुष्टि करते हैं । ऋषभदेव की जन्मभूमि तीर्थपुरी से बद्रीनाथ क्षेत्र के निकटवर्ती स्थानों पर भी अनुमानित कर सकते हैं । बद्रीनाथ को निर्वाण स्थली मानना उचित नहीं होगा क्योंकि जैनेतर साहित्य में, पुराणों में भी बद्रीनाथ को विष्णु की जन्मस्थली के रूप में मान्यता दी गई है। बद्रीनाथ क्षेत्र में नाभिराजा के चरण होने की मान्यता भी यह प्रमाणित करती है कि यह क्षेत्र ऋषभदेव स्वामी का जन्म स्थल हो सकता है । ऋषभदेव धर्म के आदिस्वरूप थे और सभी प्राचीन धर्मों में उनको किसी न किसी रूप में पूजा गया है । भागवत में उनके विषय में लिखा है धर्मब्रवीषी धर्मज्ञ धर्मोसि वृषभ रूप धृक् । यद्धर्मकृतः स्थानं सूचकस्यापि सद्भवेत ॥ (भागवत १।११।२२) हे धर्मतत्त्व को जानने वाले ऋषभदेव ! आप धर्म का उपदेश कर रहे हैं। अवश्य ही आप वृषभरूप में स्वयं धर्म है । अधर्म करने वाले को जो नरकादि स्थान प्राप्त होते है, वे ही आपकी निन्दा करने वाले को मिलते हैं । कैलाश की एक ऐसी जगह है जहाँ सभी प्रमुख धर्मों के लोग आते हैं और कैलाश को बहुत ही पवित्र और पूज्य मानते हैं । 'The Throne of The God # Arnold Heim and August Gansser À fa - The fundamental idea of Asiatic religions is embodied in one of the most magnificent temples I have ever seen, a sunlight temple of rock and ice. Its remarkable structure, and the Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८७ जैनत्व जागरण....... peculiar harmony of its shape, justify my speaking of Kailas as the most sacred mountain in the world. Here is a meetingplace of the greatest religions of the East, and the difficult journey round the temple of the Gods purifies the soul from earthly sins. 1 वास्तव में अष्टापद कहाँ है । आज वह क्यों नहीं दिखाई देता ये संदेह हमारे विश्वास को डगमगाता है । यदि हम श्रद्धा और विश्वास तथा आस्था के साथ इस विषय में संशोधन करे तो हमें किसी न किसी रूप में अष्टापद की अवस्थिति की जानकारी अवश्य मिलेगी और ऐसा ही हो रहा है। कैलाश का क्षेत्र बहुत ही विस्तृत और विशाल है । लगभग पचास से सौ किलोमीटर की परिधि में हमें खोजना होगा । इस क्षेत्र के नीचे सुरंगे और गुफाओं का जाल सा बिछा हुआ है । जिसका एक छोर कैलाश में है और दूसरा Shambhala माना जाता है । तिब्बती बौद्ध साहित्य में Shambhala बहुत रहस्यमय जगह है जहाँ साधारण व्यक्ति का पहुँचना असम्भव है । भगवान महावीर ने भी कहा था कि अष्टापद पर जाना असम्भव है । जो व्यक्ति वहाँ पहुँच सकेगा और दर्शन कर सकेगा वो इसी जन्म में मोक्ष प्राप्त करेगा । गौतम स्वामी ने भी अपनी सिद्धियों के बल पर अष्टापद के दर्शन किए थे | Shambhala के विषय में भी यही कहा जाता है कि जो व्यक्ति शुद्ध एवं निष्पाप होगा, सम्यक् चरित्र का पालन करने वाला होगा वही Shambhala जैसी रहस्यमय जगह को देख सकता है, वहाँ जा सकता है । Russian artise Nicholas Roerich ने वर्षों तक सम्भाला की खोज की । अपने चित्रों में, अपने अनुभवों का अंकन किया और इस खोज में वर्षों उस क्षेत्र में भटकते रहे । अनेक वृद्ध लामाओं से भी उन्होंने जानकारी हासिल की और इस संदर्भ में उनकी किताबें भी निकली । आज हमारे लिए अष्टापद और सम्भाला की विचारधारा एक जैसी है । विश्ववन्ध तीर्थकर ऋषभ प्रो. वी. जी. नायर के लेख से यह स्पष्ट हो जाता है कि ऋषभदेव का प्रभाव विश्वव्यापी था । उन्होंने लिखा है कि "भारत के बाहर के देशों में ऋषभदेव रेशिफ, अपोलो, तेशव, बाल और मैडिटेरियन लोगों में बुल गॉड के रूप में पूजे जाते थे । फिनिशियन्स जिन ऋषभ को पूजते है उन्हीं को यूनानी अपोलो I Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८८ जैनत्व जागरण..... के रूप में पूज्य मानते हैं । रेशफ ही ऋषभ है जो नाभि और मरूदेवी के पुत्र थे। नाभि चेल्डियन गॉड नाबू और मरूदेवी मुरु है। आरमेनिया के रेशफ निःसन्देह जैन धर्म के प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव है। सीरिया के एक नगर का नाम ऋषाका उन्हीं के नाम पर है । सोबियत आरमेनिया में एक शहर का नाम तेशाबानी है। बेबीलोनिया के शहर इस्बेकजूर ऋषभ का ही अपभ्रंश है । १२०० ई. पूर्व की ऋषभदेव की एक कांस्य मूर्ति साइप्रेस के अलासिया से निकली है.। यूनानी अपोलो की प्राचीन मूर्ति ऋषभदेव की मूर्ति से मिलती है । टर्की के बोगास्कोई, में मलाटिया में तता इस्बुकजूर में मुख्य हिट्टट्री लोगों के प्रमुख देवता के रूप में ऋषभदेव की मूर्तियाँ मिली हैं। सोवियत आरमेनिया के कारमीर ब्लर में खुदाई के दौरान तथा तेशाबानी शहर में खुदाई में कुछ मूर्तियां प्राप्त हुई है उनमें ऋषभदेव की कांस्य मूर्ति भी है।" यह माना जाता है कि हजारों साल पहले Arabia में घने जंगल और गहरी नदियां होती थी । यद्यपि आज यह पूरा रेगिस्तान है । उस समय वहा हाथी को बहुत महत्वपूर्ण माना जाता था। आज भी हाथीपथ अरेबिया में मदीना जाने वाले रास्ते पर देखा जा सकता है । _ “Elephants......formed a prominent feature of the cavelecades to leave an indelible impression on the long memory of the Arabs.” An ‘Elephant Road' is traceable in Arabia (leading to Medina). दूसरे तीर्थंकर अजितनाथ का लांछन हाथी है । मैसोपोटामिया के हाथी कभी विश्व प्रसिद्ध थे । अतः हम निश्चित रूप से अजितनाथ तीर्थंकर को इस क्षेत्र से संबंधित मान सकते है । गजनी शब्द भी गज से आया है जिसका अर्थ है हाथी । हजरत मोहम्मद का जन्म भी हाथी के वर्ष में हुआ, ऐसा कहा जाता है। यह दुर्भाग्य की बात है कि इस्लाम धर्मावलम्बियों ने हजरत मोहम्मद के पहले के इतिहास को नष्ट कर दिया । इस क्षेत्र में हमें जो प्रमाण हाथी के मिल रहे है उससे यह स्पष्ट हो जाता है कि यह क्षेत्र तीर्थंकर परम्परा से जुड़े हुए थे । अरेबिया से प्राप्त सरस्वती की मूर्ति वहाँ श्रमण प्रभाव को प्रमाणित करती हैं क्योंकि सरस्वती की सबसे प्राचीन मूर्तियाँ हमें जैनधर्म में ही मिली Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनत्व जागरण...... ८९ माउन्ट होर के पास पेट्रा में एक शिलालेख मिला है जिसमें rekem लिखा है जो ऋषभ का अपभ्रंश है बीस साल पहले यह शिलालेख वहाँ पुल बनने के कारण जमीन में दब गया था । पेट्रा का सबसे बड़ा मंदिर जिस देवता को समर्पित है वह और कोई नहीं आदिनाथ ऋषभदेव है । उत्तर पश्चिमी अरेबिया से एक लेख मिला है- An inscription form Beth Fasiel Near Palmyra Pays Tribute to the Jinnaye, The God and Rewarding Gods. वहाँ के इतिहास से ऐसा भी विदित होता है कि अरेबिया में मोहम्मद साहब द्वारा Alat, Manat, Azzah and Habal की मूर्तियाँ नष्ट की गयी थी। Alat शब्द में द की जगह ल का प्रयोग किया गया जो आदिनाथ के लिए था | Manat नेमिनाथ स्वामी, Habbal बाहुबली स्वामी और Azzah शब्द अजितनाथ भगवान के लिए उच्चारित किए जाते थे । मुसलमानों के प्रसिद्ध तीर्थ मक्का के काबा के अन्दर ऋषभदेव की मूर्ति होने का उल्लेख कई लेखकों ने भी किया है। काबा की यह मूर्ति सीरिया से लाई गई थी । ऋषभदेव ने क्षत्रिय जाति की स्थापना की थी । पुराणों के अनुसार क्षत्रियों के पूर्वज ऋषभदेव हैं । ब्राह्मण पुराण २:१४ में पार्थिव श्रेष्ठ ऋषभदेव को सब क्षत्रियों का पूर्वज कहा गया है । महाभारत के शान्ति पर्व में भी लिखा है कि क्षात्र धर्म भगवान आदिनाथ से प्रवृत्त हुआ है । इन्हीं क्षत्रियों को Egpyt में खत्ति या खेता कहते है और हिब्रू भाषा में हिट्टी । यद्यपि सभी तीर्थंकरों की मान्यता चारों दिशाओं में मिलती है लेकिन जो तीर्थंकर जिस दिशा के है उनकी मान्यता वहाँ पर अन्य तीर्थंकरों से ज्यादा है मिलती है । लेकिन प्रथम तीर्थंकर होने के कारण ऋषभदेव की मान्यता सभी दिशाओं में सबसे अधिक रही है । उनकी मान्यता अफ्रीका से लेकर स्पेन तक मिलती है | मेरीग्लाइडिंग ने अपने लेख 'The history and significant of the God Risef' में इस पर प्रकाश डालते हुए लिखा है- 1 The god Reshef (Reshpu, Rashshaf, Reshpa) had his beginings in Syria, and was particularly important in Ugarit. A war and thunder god, his cult spread throughout Canaan and Phoenicia, with links in Mesopotamia, eventually Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनत्व जागरण....... emerging in Egypt. There are even indications that Reshel was worshipped as far away as Spain. ९० To the Egyptians, Reshef, was, a god of war and pestilence associated with their own Montu. The pharaohs of the Eighteenth Dynasty were warrious and hunters and Reshefs warlike nature would have made him important to those rulers. His primary cult center at the Egyptian capital of Memphis serves as evidence of his importance to the royal family though he was likely worshipped through out Egypt's eastern frontier as well. He was believed to live in an area on the east bank of the "Valley of Reshep." Reshef was more than a simple thunder and war god. He was also known as a deity approachable by ordinary people as well as by rulers. He was honoured for answering prayers, and used his destructive power against human diseases of all types. His healing abilities were specially valued at Dair el-Medina, where he was also as the patron of honesty. Although he might be considered a relative latecomer to the Egyptian pantheon Reshef was held in high esteem by the Egyptians. Universal balance of good and evil was of paramount importance of the Egyptians, so it is not surprising that Reshef's nature contained power over both death and health. He well deserved his place among the complex pantheon of Egyptian gods. 1 Canaanite Deity या हिब्रू देवताओं में ऋषभदेव को ऋषभ रेसफ, रेशेफ कहते थे । यहीं से इनकी पूजा का प्रचलन Ugrait में नरगल और ग्रीस में अपोलो के नाम से होने लगा । Israel का प्राचीन शहर Arshef आज हजारों वर्षों बाद भी उनके नाम को जीवन्त रखे हुए है । Rishaf is listed as the divinities of the cities of Atanni, Gunu, Tunip and Shechem in the name of Ra-Sa-ap. He is chief God of Elbia. Jewish Historian Josephus Flavius ने लिखा है कि तेल अबीब से Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनत्व जागरण....... ९१ पंद्रह किलोमीटर की दूरी पर Apollonia में ६०० ई. पू. में जो लोग रहते थे उन्हें अरसफ कहते थे । उनका यह नाम फोनिशियन युद्ध देवता ऋषफ के नाम पर पड़ा | Hellenistic period में यूनानी जब वहाँ आये तब ऋषफ को अपोलो के रूप में पूजने लगे । लगभग इसी समय की यूनान से ऋषभदेव की कांस्य मूर्तियाँ मिली है, जो ब्रिटिश संग्रहालय में रखी हुई है। इनका समय ६०० से ५०० ई. पू. का है । A German scholar named Von - Kramer (49) has mentioned that "existing Samania community in Central east Asia were Shramans (Jains)" Mr. GF. Moor writes that "In 1st century BC many Jain and Buddhist saints were preaching principles of non-violence in eastern Iraq, Sham and Palestine. Innumberable naked jain saints were living in plains and on hills in western Asia, Egypt, Greece and Ethopia and were very famous for their renunciation and their deep philosophical knowledge." Major Gen. J.S.R. Furlong had discovered (36, P. 20) some jain religious centres in the cities of Oksinia, Caspia, Bulkh and Samarkand where the principles of non-violence specially non-killing of animals was followed with respect. Mr. Furlong also mentions (50. P. 14 ) The yatis or Jainsaints, who in man's earliest ages have on all lands separated themselves from the world and dwelt upon pious movements in lonely forests and mountains.' यूनानी इतिहासकार हेरोडोटस से अनुसार बहुत बड़ी संख्या में जिमनो सोफिस्ट अफ्रीका के इथोपिया और एबीसीनिया में विचरते थे । (इनसाइक्लोपीडिया व्रिटेनिका) के 11th edition Volume 15 pg. 128 में जिमनोसोफिस्ट का अर्थ दिगम्बर जैन परिव्राजक बताया गया है । जैन धर्म इतिहास के बिखरे मोती डॉ. कालीदास नाग जो एक प्रख्यात दर्शन शास्त्री है उन्होंने मध्य एशिया से प्राप्त एक नग्न मूर्ति का चित्र अपनी किताब डिस्कवरी ऑफ ऐशिया प्लेट नम्बर पाँच में दिया है जो लगभग दस हजार वर्ष पुरानी है तथा उसे ऋषभ Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनत्व जागरण ....... ९२ मूर्ति के सदृश्य बताया है । यह मूर्ति नग्न तथा कायोत्सर्ग मुद्रा में है तथा जटाएं कंधों पर ऐसी है जैसे ऋषभदेव की मूर्तियों पर होती है । • आज टर्की की खुदाई में जो भी अवशेष मिल रहे है वे भी वहाँ जैनधर्म तथा जैन तीर्थंकरों के अस्तित्व को स्वीकार करते हैं । ऋषभदेव को यहाँ पर तेशब कहते है | Bogazkoi में प्राप्त अभी तक का सबसे प्राचीन मंदिर के अवशेष मिले हैं जो समन संस्कृति से संबंधित है । वहाँ से प्राप्त तेशब का Sphinx प्राप्त हुआ है जिसे जर्मन ले गए थे । वे वहाँ पर तीर्थंकरों के अस्तित्व का महत्वपूर्ण प्राचीन प्रमाण है । 1 टर्की में सत्रहवीं शताब्दी तक श्रमण परम्परा कायम थी ठाकुर बुलाकी दास के अनुशीलन में वहाँ पर जैन मुनियों के विचरण का विवरण मिलता है। • प्रसिद्ध वैज्ञानिक डॉ. नरेन्द्र भण्डारी ने टर्की के Ephesus में Artemis के Temple (550 B. C. ) के स्तम्भों पर स्वस्तिक का प्रतीक देखा है । वहाँ पर Artemis को देवी के रूप में पूजा जाता है । तथा Artemis की मान्यता Resef या Teseb की युगलियां बहन के रूप में है । यह ऋषभदेव से भी पता चलती है । Artemis का एक प्राचीन सिक्का मिला है जिसके एक और Artemis का तथा दूसरी ओर Bull बना हुआ है । टर्की की संस्कृति यूनान, सीरिया, बेबीलोन तथा चाइना और रशिया से जुड़ी हुई है । Bull God के रूप में तेशब का अंकन Gobeleki cave के अलावा अन्य कई जगहों में प्राप्त होना साथ ही स्वस्तिक का पाया जाना तीर्थंकरों के अस्तित्व की पुष्ट करता है 1 Jerusalem में सिंह दरवाजा प्राचिन है जिसमें सिंह की मूर्तियों बनी हुई है तथा कमल भी बना हुआ है। तेल अबीब में १५ किलोमीटर उत्तर में Herzliya city हैं वहाँ Sidna Hill पर Sidnnali Temple के उत्तर में प्राचीन बन्दरगाह Rishpon था जिसका वर्णन हमें Assiriyan साहित्य में मिलता है । इसे आज Tel Arshaf कहते हैं । ये Kanaanite God Reshef की स्मृति में बसाया गया था । यूनानियों ने वहाँ ४०० ई. पू. में में कब्जा किया और Reshef को Apollo को रूप में पूजने लगे। तब से इस शहर का नाम Arshaf का पड़ा। सातवीं शताब्दी के बाद अरबों ने इस कब्जा किया और इसका नाम Apollo पड़ा। यूनानी लोग स्वस्तिक को Apollo के साथ जोड़ते हैं । १८०० B.C. में Byblos lebnan में God Reshef की स्मृति में मंदिर ७ Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनत्व जागरण....... ९३ बनाया गया था। बलगेरिया के Altimir शहर में खुदाई में स्वस्तिक प्रतीक मिला है। Budapest में चौबीसवें तीर्थंकर भगवान महावीर का मंदिर खुदाई में जमीन से निकला है । साइबेरिया के व्रात्य क्षत्रियों की विशेषताओं के विषय में लिखा हैसाइबेरिया के व्रात्य बहुत ही दयालु और शान्ति के प्रतीक थे । वे दूसरों का ही नहीं बल्कि पशु एवं वनस्पति के प्रति भी सम्मान रखते थे । ऋणों के पवित्र जगहों पर पशुवध घोर अपराध माना जाता था । वे वन संरक्षक रहे । "Buryats people were always characteresed by disinterested kindness and peacefulness, respect for people, nature and all creature being Nodody even thought of hunting at Sraman sacred sites, Killing of a stepped eagle and a swan was one of grevious sin. The swan 'Khum Shubuun was a main possessed by moral soul which is source of eternal love and worship. Buryats gaurded forest becouse they knew that an abindance of river lake wealth and diversity of animal and vegetal life depends on forest. Even the construction of Buryat foots, was shown an attitude of care towards nature. The toes of Buryat foots were turned up so as to prevent stumbling over the even ground or harming it in any way." मंगोलिया और साइबेरिया के कुछ पहाड़ बहुत ही पवित्र माने गए है जिनमें - BurthanHaldun, Altai, Sayan Mountain प्रमुख है । मंगोलिया की राजधानी उल्टई बाटर चार पवित्र पहाड़ो से धिरा है जिनमें एक सौगिनो हैरहन है । इन चारों पर्वतों की पूजा वहाँ के श्रमण करते हैं । यह क्षेत्र चार तीर्थंकरों की भूमि है अत: इसी संदर्भ में यहाँ खोज करने की आवश्यकता है। यहाँ पर Knots की परम्परा देखने को मिली जो निर्ग्रन्थ परम्परा से जुड़ी हुई है। निर्ग्रन्थ का अर्थ है जिन्होंने अपनी सभी गाँठों को खोल दिया और समस्त अन्तरंग व बहिरंग से मुक्त हो गए । मंगोलिया के व्रात्यों की mythology में बैल और घोड़े को बुद्धिमत्ता में प्रखर माना जाता है । तीसरे तीर्थंकर सम्भवनाथ का प्रतीक घोड़ा माना जाता Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनत्व जागरण....... ९४ 1 1 I I है । मंगोलियन घोड़ें विश्व प्रसिद्ध रहे हैं । मंगोलिया में आज अनेक बौद्ध बिहार है जिनमें कुछ पहले जैन केन्द्र थे । मंगोलिया के बिहारों में गाण्डडू: प्रमुख बिहारों में है । इस बिहार का द्वार शंख, चक्र और मीन के चित्रों से सजा है, तथा दो सिंह बने है । मुख्य द्वार पर धर्म चक्र और मृग है । इससे स्पष्ट है कि यह बिहार पहले जैन केन्द्र था । शंख, चक्र, मीन, सिंह, मृग आदि जैन प्रतीक है बौद्ध नहीं । जब भारत में ही इतिहासकारों ने ऐसी भूलें की है तो विदेशों में यह एक सामान्य बात है । इसी मन्दिर का तीसरा भवन चन्दन जोवो भवन है जिसका अर्थ चन्दन के प्रभु है । इसके छत्र पर धर्म चक्र बना है । यहाँ के पुस्तकालय में स्थित पटल का वस्त्र नवरत्नों से कढ़ा है जिसके मध्य में स्वस्तिक और चारों ओर अष्टमांगलिक चिन्ह है जो केवल जैन परम्परा में प्राप्त होते है । मंगोलिया में जैन मंदिरों के खण्डहर आज भी देखे जा सकते हैं । लटाविया के प्रमुख लेखक पादरी मलबरगीस ने १९५६ ई. में लिखा था कि लटाविया, जर्मनी और रूसियों के पूर्वज भारत से आकर यहीं पर बस गए थे । ये भारतीय पणि थे । ये भारतीय पणि थे जो व्यापार के लिए अन्य देशों में जाते थे । लटाविया, फिनलैड, लिथुआनिया आदि देशों की भाषा में अनेक संस्कृत शब्द प्रचलित है । कालान्तर में पणि व्यापार छिन्न-भिन्न होने के बाद भी वहाँ की सांस्कृतिक स्थिति अपरिवर्तित रही । फिनलैंड को नाम वहाँ बसी पणि जाति के नाम पर पड़ा प्रतीत होता है । फिनलैंड में १७वीं शताब्दी के बाद में ही ईसाई धर्म का प्रभाव हुआ था । श्रद्धेय श्री विशभरनाथ पाण्डेय जो कई राज्यों के गवर्नर रहे उन्होंने कोलकाता की एक सभा में अपने वक्तव्य के दौरान मंगोलिया के जैन पुरातत्त्वों के विषय में जानकारी दी थी जो बहुत ही महत्वपूर्ण थी । An Indian Archaeologist in his article ‘Jain Church' in a paper in Bombay News (4th July 1934) wrote that in Mongolia, at one time a large population of the Jain community with many of their temples used to reside there. Today ruins of these temples and statues are still being excavated by archeologists. • चीन तथा रूस It was long prior to Parsava and Mahavira, that India was the fruitful Centre of religion from 7th century B. C. and inwards. The Trans- Himalyan, Oxiana, Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनत्व जागरण..... religious views and practices as Indian Jain and Budhists claim and almost historically show that above a score of their saintly leaders perambulated the Eastem world long perior to the 7th century B. C. We may reasonably believe that Jainism was very anciently preached by them from China to Kaspiana. It existed in Oxiana and north of the Himalaya 2000 years before Mahavira. आज से ४५०० वर्ष पूर्व इन क्षेत्रों में जैन धर्म का अस्तित्व विद्यमान था । • Prof. Yuri Zadneprovsky of the Leningrd Institute of Archaelogy said at a press confeuence at New Delhi on June 20, 1967 that there had been contacts between India and Central Asia for about 100000 years “from as early as the stone age.” and naturally traces of Jainism were there. South Uzbekistan के Termiz में Kara Tepe में ध्यान मुद्र में जैन मूर्ति कमल के फूल के ऊपर प्रतिष्ठित है । Mr. J. A. Dubai, the author of “The Description of Character Manners and Customs of the People of India and English by the East India Company in 1817 from French, writer in the preface : “There was a time when Jainism flourished right from the Caspian Sea to the Bay of Kamachatka. Not only this, its followers could be found in Europe or even Africa. • आज चीन का नाम बौद्ध धर्म से जुड़ा हुआ लगता है लेकिन बौद्ध धर्म चीन में लगभग दूसरी शताब्दी से प्रारम्भ हुआ था । उससे पूर्व वहाँ पर Confusious धर्म तथा उससे पूर्व Lao जिसे आत्मधर्म भी कहते है प्रचलित था । जिन, श्रमण तथा व्रात्य परम्परा के साथ Lao धर्म की परम्परा जुड़ी हुई है। जिन, श्रमण व्रात्य आदि नाम हमे यहाँ मिलते हैं जो इस क्षेत्र को सीधेसीधे तीर्थंकरों से जोड़ते हैं । जैन मान्यतानुसार तीर्थंकरों को जिन और बुद्ध दोनों ही कहा जाता है। उसी प्रकार बौद्ध धर्म में बुद्धों को जिन कहा गया है । चीन में आज भी तीर्थंकरों को बुद्ध कहने की परम्परा देखी जा सकती है। जापानी Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सद जैनत्व जागरण..... विद्वान Okakura के अनुसार प्राचीन एक समय Loyang प्रान्त में ३०० भारतीय मुनि और १०,००० भारतीय परिवार रहते थे। प्राचीन श्रमण या अर्हत् संस्कृति सिन्धुघाटी अफगानिस्तान, ईरान, ईराक, इजिप्ट, सीरिया, असीरिया, टर्की से फैलती हुई रशिया, साइबेरिया, मंगोलिया और चीन तक पहुँची तथा चीन से वियतनाम तथा अन्य दक्षिण पूर्वी एशिया के देशों में प्रतिष्ठित हुई । • इक्ष्वाकु और सूर्य वंश का प्रादुर्भाव ऋषभ परम्परा से हुआ । चीन में १५०० B.C. में Shang Dynesty शासन करती थी। ये सूर्यवंशी क्षत्रिय थे जो श्रमण संस्कृति पालन करते थे। पश्चिमी तिब्बत में प्राचीन Sang Sung Civili-zation का जो वर्णन मिलता है और जिन्हें Bonpo धर्म से सम्बन्धित माना गया है। ये भी व्रात्य क्षत्रिय थे । इसके बाद Hsia वंश का शासन आता है। ये भी इक्ष्वाकू सूर्य वंशी थे। मार्कोपोलो ने Canton शहर में ५०० मूर्तियाँ होने का वर्णन किया है । जो तीर्थंकर मूर्तियाँ थी। उसने Suju शहर का वर्णन किया है । Kiang Han प्रान्त के Su Chau city में एक बहुत बड़ा मंदिर है जिसमें भूत, भविष्य और वर्तमान के बुद्धों की मूर्तियाँ है जो भूत, वर्तमान और भविष्य के तीर्थंकर चौबीसी के अनुसार है । Dragon चीन का प्रमुख धार्मिक प्रतीक है जो तेइसवें तीर्थंकर पार्श्वनाथ के प्रभाव में ही नहीं अपितु सभी क्षेत्रों में रहा है । Marco Polo ने अपने विवरण में लिखा है कि Hang Chau शहर की प्रमुख मूर्ति कमल पर प्रतिष्ठित है जो छठें तीर्थंकर पद्मप्रभु का प्रतीक है। Quang Zhouk के Janjia Ochang में जो मूर्ति मिली है वो भी तीर्थंकर मूर्ति ही है। चीन में Monkey God की मान्यता है। चीन और तिब्बत के लोग वानर को अपना पूर्वज मानते हैं । चौथे तीर्थंकर अभिनन्दन स्वामी का लांछन कपि है। पांचवें तीर्थंकर सुमतिनाथ का लांछन चकवा और छठे तीर्थंकर पद्मप्रभु का प्रतीक लालकमल माना जाता है जो कि चीन की बौद्ध प्रतिमाओं में परिलक्षित होता है। वहाँ पर तीर्थंकर केवलज्ञानी, तत्त्वज्ञानी, आचार्य या साधारण ज्ञानी सभी को बुद्ध कहने का प्रचलन है। Little Buddha, Big Buddha, Master Buddha, Disciple Buddha । बीजिंग के मंदिर में अन्य बुद्धाओं के साथ ऋषभबुद्ध और अजितबुद्ध की मूर्तियाँ भी है। वहाँ के मंदिरों के हॉल का नाम महावीर हॉल है और वे बुद्ध का ही एक नाम महावीर बताते है। अभी हाल में एक मूर्ति की फोटो कॉपी देखने में आई जिसमें स्वस्तिक सीधा बना हुआ था जो सामान्यतः वहाँ इस रूप में नहीं होता । उत्तरी चीन Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनत्व जागरण..... ९७ की प्राचीन गुफाओं में जो प्राचीन मूर्तियाँ पाई गयी है वे सभी तीर्थंकर मूर्तियाँ है। चीन की Dunhang Caves, Yangang Caves और Mangao Caves आदि में भी तीर्थंकर मूर्तियाँ देखी जा सकती हैं। Guang Zhou के Six Banyan Trees Pagoda में महावीर हॉल के अन्दर तीर्थंकर मूर्तियाँ आसीन है । चीनी साहित्य में प्राचीन श्रमण ( Wu) राजाओं का वर्णन प्राग् ऐतिहासिक कालमें मिलता है। उनकी राजधानी Sozhow थी जिसके पास Hill था । Guang Zhou के Hualine Temple प्राचीनतम मंदिरों में से एक है उसमें ५०० अर्हतों की मूर्ति है 1 चीन के Xiamen city में Nonputaou Temple हैं । ये बहुत ही प्रसिद्ध मंदिर माना जाता है । जिसका अर्थ है नाथपुत्त का मंदिर । बौद्ध साहित्य में भगवान महावीर के लिए नाथपुत्त का प्रयोग किया जाता था । इस मंदिर में महावीर हॉल भी है । ये मंदिर छठी शताब्दी में Tang Dynasty के समय में बना था । इसमें Guanyin Buddha की मूर्ति भी है । जो गौतम स्वामी की मूर्ति हो सकती है । क्योंकि महावीर के हॉल के अन्दर शाक्य मुनि काश्यप मुनि बुद्धा और मैत्रेय बुद्धा की मूर्ति प्रतिष्ठित है । I Dague में भी हमें महावीर हॉल निर्मित मिलता है Liaoning Province चीन में भी महावीर हॉल है । Hong-Con Fu Yung Shang Tsuen Wan Nam Tin Chuk Temple में महावीर हॉल है । कर्नल जेम्स टाड के अनुसार Neminatha the 22nd of the Jinas and whose influence, Tod believed has extendd into China and Scandinavia where he was worshipped under the names of Fo and Odin respectively. भारत से सुवर्ण भूमि यानि बर्मा होते हुए चीन में जाने का यह एक प्रमुख मार्गथा जिसपर बराबर आवागमन होता रहता था यह कहा जाता है कि बर्मा के Mount Popa (Bagan) में Win Daug Cave Hill में चार लाख मूर्तियाँ थी । इसलिए इसे Mountain of God के नाम से जाना जाता है। जैनाचार्य कालक द्वारा सुवर्णभूमि (बर्मा आदि) में शासन प्रभावना का उल्लेख मिलता है । Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९८ जैनत्व जागरण..... Bormeo Island का एक बड़ा भाग श्रावक कहलाता है । • Borobudur का मंदिर जावा द्वीप में स्थित है। यह इन्डेनेशिया की राजधानी जाकारता से ५०० किलोमीटर पूर्व में है। यहाँ पर संस्कृति का विकास उत्तरपूर्व में चाइना से और दक्षिण पश्चिम में भारत से प्रभावित रहा है। यह माना जाता है कि उड़ीसा के सम्राट महामेघवाहन खारवेल का इन द्वीपों पर आधिपात्य रहा था तथा इन क्षेत्रों में जैन धर्म का प्रचार और प्रसार 100 B. C. में उनके द्वारा हुआ । . श्री जिनेश्वर दासजी जैन ने दक्षिण पूर्वी एशियन देशों के विषय में गहन अध्ययन किया है। उनके अनुसार- Alex Wayman (19) mentions that on the basis of an inscription of Candi Plaosan of preninth centuary, the temple was built by constant flow of Gurjara. Here the word Jina clearly refers to Tirthankara. The historians have been calling Tirthankara Padmasan Mudra as Dhyani Buddha. Kemper belives that, besides other things, Borobudur represent the Universe. To achieve this the architect used a well established device the Stupa. The stupas are a spherical body having a circular or square base. Luis O Gomez summarizes his finding by mentioning One could conceive of the Borodudur simultaneously be a stupa (the nirvanized emptiness of the absolute, the cosmic samadhi of Vairochana), a cosmic mountain (the mundane sphere contained in the absolute) and perhaps a type of Mandala (as a map the correlation of the unmanifest absolute and man's ascent to it with the mundane sphere and Bodhisatva's descent from the absolute) to reveal its presence in the world. The situation of Borobudur so close to the ecliptic would be viewed with equal clarity.I further assume that the puranic name of Jave island was Nandishwar dveepa. प्राचीन काल में दक्षिण भारत एवं गुजरात आदि स्थानों से वहाँ के राजा तथा दर्शनार्थी यहाँ पर आते थे। लेकिन सातवीं शताब्दी से शैवों के प्रबल प्रभाव Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनत्व जागरण....... ९९ और विरोध के कारण उन जैन राजाओं को जैन मंदिरों के अन्दर शैव मूर्तियाँ भी स्थापित करनी पड़ी । ज्ञातव्य है कि पल्लव राजा महेन्द्र वर्मन पहले जैन धर्मी थे परन्तु बाद शैवधर्मी बन गए। और उन्होंने अनेक जैन मंदिरों में शैव मूर्तियाँ स्थापित की । इस प्रकार हम देखते है के सातवीं शताब्दी में शैव धर्म के प्रभाव के कारण अंगकोर के मंदिरों में भी हिन्दू देवताओं को प्रतिष्ठित किया गया । लेकिन बारहवीं शताब्दी में थाई और चाम लोगों ने इन मंदिरों को पूर्णतया नष्ट कर दिया । शिवलिंगों को तोड़ दिया और मूर्तियों को खण्डित कर दिया । वहाँ के लोगों और इतिहासकारों के अनुसार वहाँ बुद्ध की कोई मूर्ति नहीं थी । क्योंकि अगर बुद्ध की मूर्ति होती तो थाई और चाम लोग जो स्वयं बौद्ध धर्मी थे बौद्ध की मूर्तियों को नष्ट नहीं करते । आज भी वहाँ हजारों जैन मूर्तियाँ खण्डित अवस्था में पायी गई है। भाग्यवश कुछ मूर्तियां अच्छी अवस्था में भी मिली है । एक और महत्वपूर्ण बात यह है कि वहाँ पर जो मूर्तियाँ है जिनपर सर्पछत्र है वे सभी तेइसवें तीर्थंकर पार्श्वनाथ की हैं। बोरोबदूर मंदिर में नन्दीश्वरद्वीप कीतरह ७२ जिनालय जबकि अंकोरथोम ५२ जिनालय है । कंबोडिया की सीमा पर पूर्व में लाओस और थाइलैण्ड है । दक्षिण पूर्व में वियतनाम और पश्चिम में Gulf of Thailand वहाँ की अधिकांश • जनसंख्या खामेर जाति की है। कंबोदिया को संस्कृत में कम्बूजा कहते हैं, जो कभी बहुत बड़ा साम्राज्य रहा था । अंकोरवाट का मंदिर खामेर लोगों की उच्च दक्षता का नमूना है । तथा यह विश्व के आश्चर्यों में एक माना गया है। Candi Plaoson के शिलालेखों से पता चलता है कि यहाँ पर जिन मूर्तियाँ प्रतिष्ठित की गयी है 1 • प्राचीन काल में बर्मा ब्रह्मदेश कहलाता था । यहाँ दो प्रमुख नंदिया चिन्डविन और ईरावती है। ईरावती नदी के पूर्वी किनारे पर श्रीक्षेत्र सबसे प्रमुख धार्मिक स्थान है जहाँ हजारों स्तूप और मंदिर प्रत्येक दिशा में निर्मित किए गए थे । यहाँ बौद्ध मंदिरों का निर्माण राजा अन्नवर ने किया था (अनिरुद्ध) इसके पहले के जो मंदिर एवं मूर्तियाँ पायी जाती है वे निश्चित रूप में तीर्थंकरों के है । बागान म्यूजियम से पाये जाने वाली कुछ तीर्थंकर मूर्तियों का चित्र दे रहे I Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०० जैनत्व जागरण..... • Second Century तक इस क्षेत्र में जैन मुनि विचरण करते थे क्योंकि यह क्षेत्र अनेक तीर्थंकरों से संबंधित थे इसका प्रमाण कालकाचार्य का सुवर्णभूमि होते हुए चीन जाने का वर्णन जैन साहित्य में मिलता है। इस बात को डॉ. रमेशचन्द्र मजूमदार ने भी स्वीकार करते हुए लिखा है कि- “An Annamite text gives some particulars an Indian named Khauda-la. He was born in a Brahmana family of Western India and was well versed in magical art. He went to Tonkin by sea, probably about the same time as Jivake.. He lived in caves or under trees, and was also known as Ca-la-chala (kalatachauya-black preceptor)" About Suvarn Bhumi R.C. Majumdar states that now we have definite evidence that a portion of Burma was known in later ages as Suvarnabhumi. According to Kalyani Inscription (Suvarnabhumi-ratta-samkhata Ramannadesa) Ramannadesa) Ramannadesa what called Suvarnabhumi which would then comprise the maritime region between Cape Negrais and the mouth of the Salvin. There can also be hardly any doubt, in view of the statement of Arab and Chinese writers, and the inscriptic found in Sumatra itself, that the island was also known a Suvarnabhumi and Suvarnadvipa.... There are thus definite evidences that Burma, Malaya Peninsula and Sumatra had a common designation of Suvarnabhumi, and the name Suvarnadvipa was certainly applied to Sumatra and other islands of the Malaya Archipelago." • थाइलैण्ड के मंदिरों की शैली बंगाल और उड़ीसा के मंदिरों से मिलती है। जो कि सराकों द्वारा निर्मित है । इसका प्रमुख कारण यह है कि यहाँ से सराक शिल्पकार तथा मूर्तियां उन देशों को ताम्रलिप्त और पिहुड बन्दरगाहों से भेजी जाती थी । ५०० ई. पू. उड़ीसा से बड़ी संख्या में इनलोगों का उन क्षेत्रों में जाने का वर्णन मिलता है। अमेरिका के Grand Canyan में भी प्राचीन श्रमण अवशेष मिले है Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनत्व जागरण..... १०१ जो Egypt के प्राचीन संस्कृति के अनुरूप है। अतः यह कहा जाता है कि प्राचीन Egypt के लोगों ने वहाँ जाकर अपनी बस्तियाँ स्थापित की थी। Egypt की प्राचीन संस्कृति श्रमण संस्कृति थी तथा श्रमण महापुरुषों को वहाँ पूजा जाता था । वहाँ के पहाड़ों के नाम हमें Grand Canyan की पहाड़ों पर मिलते हैं। वहाँ से हमें प्राचीन ऋषभ की भी मूर्ति मिली है। जिसके विषय में विद्वानों का कहना है कि ये बौद्ध मूर्ति की तरह है। जैन संस्कृति से अनभिज्ञ पश्चिमी पुरातत्त्ववेत्ता इस असमंजस में है किये मूति किस धर्म के लोगों की है । यह देखने में बौद्ध मूर्ति की तरह लगती है। लेकिन बौद्ध काल के पहले की होने के कारण उन लोगों के मन में भ्रान्ति उत्पन्न हो गई । Over a hundred feet from the entrance in a cross hall, several feet long, in which was found the idol or image of the peoples God sitting cross legged The cast of the face is oriental, and a carving shows a skillful hand. The idol most resemble buddha though the scientists are not certain as to what religion worship it represents....... it possible that the worship most resemble the ancient people of libet में चार्ल्स बरंटिलस ने अपनी किताब 'Mysteries from forgotton world' में उत्तरी 'अमेरिका की खोज यात्रा के विषय में लिखा है जिसमें चीनी यात्रियों के मैक्सिकों जाने का वर्णन है । तथा उन्होंने अपने लेखों में वहां की चित्रकाल में कमल और स्वस्तिक आदि प्रतीकों का वर्णन किया है । मैक्सिकों से प्राप्त कायोत्सर्ग दिगम्बर मूर्ति, स्तूप तथा माया और एजटेक सभ्यता के अवशेषों में जो मूर्तियाँ तथा प्रतीक चिन्ह मिले है उसकी सादृश्यता आश्चर्य जनक रूप से जैन तीर्थंकरों की मूर्तियों तथा उनके प्रतीकों से है। इस सन्दर्भ में विशेष खोजकी जानी चाहिए । • नेपाल में हमें नमी और मलि नामक गाँव आज भी दृष्टिगोचर होते है। एक नेपाली विद्वान ऋषिकेश साहा के अनुसार A sage Muni named Ne became the Protector of their land and the founder of its first ruling dynasty नेपाल का अर्थ है Ne द्वारा संरक्षित भूमि । ये Ne नमि का ही प्रतिरूप है। मुनि सुव्रत स्वामी का कैलास में जाने का वर्णन हमें मिलता है । चौदहवीं शताब्दी में श्रीजिनप्रभ सूरि जी ने विविध तीर्थकल्प में श्री शान्तिनाथ भगवान के महातीर्थ का उल्लेख करके उसे श्रीलंका में होना बताया है। Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०२ जैनत्व जागरण..... • श्रीलंका में जैन धर्म बहुत प्राचीन काल से है । वहाँ की सबसे लम्बी नदी महावेली गंगा जिस पहाड़ी से निकली है उसे Adams peak कहते हैं। इसी के शिखर पर श्रीपद् मंदिर है, इसके दक्षिण और पूर्व में रत्न पत्थर प्राप्त होते हैं जिनमें Emarald, Rubies and Sapphires प्रमुख है, इसलिए इस क्षेत्र को रत्नद्वीप भी कहते हैं । यहाँ पर सिंहली जाति के लोग रहते हैं । सिंहल नाम से इस पहाड़ी का नाम Saman Takuta (peak of saman) पड़ा । इसकी चोटी पर चढ़ने को स्वर्गारोहण कहा जाता है । इसलिए इसे Mount Rohan भी कहते हैं । कहते हैं यहाँ जो पद-चिन्ह है God Saman के है। ब्राह्मण इसे शिव के चरण कहते हैं। चरणों के पास में जो मंदिर है वह Saman Temple है । यह पहाड़ी देखने में बिलकुल पिरामिड की तरह लगता है। प्राचीन काल में अरबवासी इस क्षेत्र को Dib कहते थे। जिनप्रभसूरि जी ने श्रीलंका में सोलहवें तीर्थंकर श्री शांतिनाथ के महातीर्थ होने का उल्लेख किया • वैदिक साहित्य में कुर्म पुराण का मुनि सुव्रत स्वामी के प्रतीक कुर्म से साम्य मिलता है । ऋग्वेद (२३, २७, ३२) में कुर्म ऋषि के उपदेश संकलित है जिनकों हम तीर्थंकर मुनि सुव्रत स्वामी के रूप में पहचान सकते हैं कुर्म पुराण (४०, २७, ४१) में लिखा है कि विष्णु के कुर्म अवतार के रूप में ऋषभ के वंश में जन्म लिया था तथा उन्होंने पंच महाव्रतों के पालन का उपदेश दिया था । पंच महाव्रत जैन दर्शन के मुख्य व्रत है। कुर्म पुराण में हिंसक बलि का विरोध, शाकाहार एवं दिन में भोजन करने का जो वर्णन मिलता है उससे यही प्रमाणित होता है कि मुनि सुव्रत स्वामी को वैदिक साहित्य में कुर्म अवतार के रूप में शामिल किया गया है । • यजुर्वेद (१-२५) में जैन तीर्थंकर अरिष्टनेमि के सन्दर्भ में वर्णन मिलता है। प्रभास पुराण में लिखा है कि उन्होंने रैवतगिरि गिरनार में निर्वाण प्राप्त किया था। महाभारत (अ १२९ श्लोक ५०-५२) में भी अरिष्टनेमि के विषय में उल्लेख मिलता है । डॉ. राधाकृष्णन ने (Indian Phlosophy Vol. Pg. 287) में लिखा है कि यजुर्वेद में तीन तीर्थंकर का वर्णन है ऋषभ, अजित और अरिष्टनेमि । Dr. G Roth ने अपनी पुस्तक "Historicity of the Tirthankaras" में इस तथ्य पर प्रकाश डालते हुए लिखा है । There are some motifs on the Mohanjodaro seals, are identical with those found in Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनत्व जागरण..... १०३ the ancient Jain art of Mathura." • सिन्धु घाटी की सभ्यता का प्रथम चरण ९,००० साल पूर्व का माना गया है तथा यहा पर खेती का प्रारम्भ भी ९,००० साल से ११०० साल के बीच हुआ ऐसा विद्वानों का मानना है कि हड़प्पा से प्राप्त मूर्ति के विषयमें डॉ. टी.एन. रामचन्द्रन ने स्पष्ट लिखा है कि We are perhaps recognising in Harrappa statue a full fledged Jain Tirthankara in the characteristic pose of physical abandon (kayotsarga). The statue under description is therefore a splendid representative specimen of this thought of Jainism at perhaps its very inception. ये सभ्यता गुजरात से लेकर सम्पूर्ण अफगानिस्तान से ऊपर स्वातघाटी, वैस्टर्न तिब्बत, काश्मीर, खोतान, कजाकिस्तान, चाइना, मंगोलिया साइबेरिया तक पनपी और ये सभी क्षेत्र Samanism से प्रभावित थे । डॉ. एम. एल. शर्मा, रायबहादुर रमाप्रसाद चन्द, प्रो. प्राणनाथ विद्यालंकार, डॉ. राधाकुमुद मुखर्जी आदि अनेक इतिहासकारों ने सिन्धु घाटी सभ्यता को ऋषभ संस्कृति से प्रभावित माना है । • Dr. Zimmer के अनुसार “Jainism represent the thinking of the non Aryan people of India and believed that there is truth in the Jaina idea that their religion goes back to a remote antiquity in question being that of the Pre Aryans' so called Dravidian period which has recently been dramatically illuminated by the discovery of a series of great late stone age cities in the Indus valley dating from the third and perhaps even to the forth millennium B.C." आज तक की खोजों के अनुसार यहाँ की सभ्यता दक्षिण-पूर्वी एशिया से ज्यादा प्राचीन मानी जाती है । South East एशिया में अभी तक पाँच हजार साल पूर्व और कुछ स्थानों पर आठ हजार सालों तक का समय विद्वानों ने निर्धारित किया है। Shri T. N. Ramcharandran Joint Director-General Archaeological Department, Goverment of India while leading an expedition of Afghanisatan says. Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनत्व जागरण....... "I had occasion to verify the records of Yuan Chwang (Hien Tsan-600-654A.A.) who said, 'There are many Tirthankaras heretiecs** here, who worship the Ksuna Deva. Those who invoke him with faith obtain their wishes....... The Tirthankaras by subduing their minds and mortifying the flesh get from the spirits of heaven sacred formule with which they control desires and recover the sick.' १०४ तिब्बत से प्राप्त प्राचीन चित्र दिगम्बर मुनियों के हैं परन्तु जिन्हें भ्रमवश बौद्धों का मान लिया गया है। जबकि बौद्धों में नग्न मूर्तियाँ नहीं होती । "The four monasteries.... their special marks... these paintings represent Buddhist saints often nude and in standing position.” (History of Western Tibet - A. H. Francka). पं. राहुल सांकृत्यायन ने अपनी तिब्बत यात्रा के दौरान अनेक जैन मूर्तियों को एक बंद कमरे में पड़ा हुआ देखा था । उन मूर्तियों के लेखों का विवरण भी उन्होंने अपनी किताब 'मेरी तिब्बत यात्रा' में दिया है । I इस प्रकार हम कह सकते है कि जैन धर्म के तीर्थंकरों का अस्तित्त्व सिर्फ भारत में ही नहीं बल्कि चारों दिशाओं में मिलता है । लेकिन दुर्भाग्यवश श्रमण संस्कृति का वास्तविक स्वरूप जैन धर्म के रूप में आज सिर्फ भारतवर्ष में ही सीमित रह गया है । पुष्यमित्र और शंकराचार्य जैसे प्रबल शैव उपासकों द्वारा प्रताड़ित करने के बावजूद जैनधर्म का अस्तित्त्व आज भी यहाँ पर बरकरार है । जैन धर्म की प्रागैतिहासिकता, अति प्राचीनता और अनादिता के प्रवहमान धारा से प्राप्त साक्ष्यों से चौबीस तीर्थंकरों के अस्तित्व में सहज ही आस्था और विश्वास स्थिर होता है । हमें अपनी इस विश्व विख्यात एवं मान्य तीर्थंकर परम्परा पर गर्व होना चाहिए। क्योंकि विश्व के समस्त धर्म और मानवीय आत्मविकास एवं स्सभ्यता-स्सामाजिक स्संस्कृति का मूल आधार यही तीर्थंकर परम्परा हैं । Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनत्व जागरण..... ८. जिनप्रतिमा का प्राचीन स्वरूप : एक समीक्षात्मक चिंतन जैन परम्परा में अति प्राचीन काल से ही जिनमूर्ति-जिनप्रतिमाओं के निर्माण एवं पूजन की परम्परा रही है । वर्तमान समय में श्वेताम्बर परम्परा में मान्य तीर्थंकरों की सवस्त्र नेत्रयुक्त प्रतिमाएँ एवं दिगंबर परम्परा में मान्य तीर्थंकरों की पूर्ण अल ध्यानमग्न प्रतिमाएँ प्रचलित है । पुरातन काल की प्रतिमाओं में दोनों प्रकार की प्रतिमाओं के अवशेष प्राप्त होते हैं। किन्तु, यह एक समीक्षात्मक सत्य है कि श्वेताम्बर परंपरा भी पूर्वकाल में दिगंबर प्रतिमाओं को मान्य रखती थी । अनेकों प्राप्त दिगंबर प्रतिमाएं पूर्वकाल में श्वेताम्बरों द्वारा प्रतिष्ठित को मान्य रखती थी । अनेकों प्राप्त दिगंबर प्रतिमाएँ पूर्वकाल में श्वेताम्बरों द्वारा प्रतिष्ठित-पूजित थी। अतः दिगम्बर प्रतिमाओं के अवशेष मात्र दिगम्बर परम्परा से संबंध रखते है, ऐसा कहना अनुचित होगा । इस लेख जिनप्रतिमा के इसी प्राचीन स्वरुप पर अनुसंधान किया गया है । जिनभाषित मई २००३ के अंक में दिगम्बरों की 'जिन प्रतिमा की पहचान के प्रमाण' नामक सम्पादकीय आलेख के साथ-साथ डॉ. नीरज जैन का लेख दिगम्बर जैन प्रतिमा का स्वरूपः स्पष्टीकरण तथा दिगम्बर प्रतिमा के स्वरूप के स्पष्टीकरण की समीक्षा के रूप में पण्डित मूलचंद जी लुहाड़िया के लेख देखने को मिले । उक्त तीनों ही आलेखों के पढ़ने से ऐसा लगता है कि ऐतिहासिक सत्यों उनके साक्ष्यों को एक ओर रखकर केवल साम्प्रदायिक आग्रहों से ही हम तथ्यों को समझने का प्रयत्न करते हैं । यह तथ्य न केवल इन आलेखों से सिद्ध होता है अपितु उनमें जिन श्वेताम्बर आचार्यों और उनके ग्रन्थों के सन्दर्भ दिये गये है, उससे भी यही सिद्ध होता है । पुनः किसी प्राचीन स्थिति की पुष्टि या खण्डन के लिए जो प्रमाण दिये जाए उनके संबंध में यह स्पष्ट होना चाहिए कि समकालीन या निकट पश्चात्कालीन प्रमाण ही ठोस होते हैं । प्राचीन प्रमाणों की उपेक्षा कर परवर्ती कालीन प्रमाणों को सत्य मान लेना सम्यक प्रवृत्ति नहीं हैं। आदरणीय नीरज जी, लुहाड़िया जी एवं डॉ. रतनचंद्र जी जैन विद्या के गम्भीर विद्वान हैं। उनमें भी नीरज जी तो जैन पुरातत्व के तलस्पर्शी विद्वान् है। उनके द्वारा प्राचीन प्रमाणों की उपेक्षा हो, ऐसा विश्वास भी नहीं होता। ये लेख निश्चय ही साम्प्रदायिक Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०६ जैनत्व जागरण..... विवादों से उपजी उनकी चिंताओं को ही उजागर करते हैं । वस्तुतः वर्तमान में मंदिर एवं मूर्तियों के स्वामित्व के जो विवाद गहराते जा रहे है, वहीं इन लेखों का कारण हैं । किन्तु हम इनके कारण सत्य से मुख नहीं मोड़ सकते है। इन लेखों में जो प्रमाण प्रस्तुत किये गये हैं, उन्हें पूर्वकालीन स्थिति में कितना प्रमाणिक माना जाये यह एक विचारणीय मुद्दा हैं । सबसे पहले उनकी प्रमाणिकता की ही समीक्षा करना आवश्यक है। यहाँ मैं जो भी चर्चा करना चाहूँगा वह विशुद्ध रूप से जैन संस्कृति के इतिहास की दृष्टि से करना चाहूँगा । यहाँ मेरा किसी परम्परा विशेष को पुष्ट करने या खण्डित करने का कोई अभिप्राय नहीं है । मेरा मुख्य अभिप्राय केवल जिन प्रतिमा के स्वरूप के संदर्भ में ऐतिहासिक सत्यों को उजागर करना हैं । ___ अपने सम्पादकीय में प्रो. रतनचन्द्र जैन से सर्वप्रथम विशेषावश्यकभाष्य का निम्न संदर्भ प्रस्तुत किया है : जिनेन्द्रा अपि न सर्वथैवाचेलकाः सव्वे वि एग दूसेणनिग्गया जिनवरा चउव्वीस -इत्यादि वचनात् (विशेषावश्यक भाष्य वृत्ति सह गाथा-२५५१) जब साक्षात् तीर्थंकर देवदुष्य-वस्त्र युक्त होते है जो उनका प्रतिमा भी देवदुष्य युक्त होना चाहिये । प्रस्तुत संदर्भ वस्तुतः लगभग छठी शताब्दी का है। यह स्पष्ट है कि छठी शताब्दी में दिगम्बर एवं श्वेताम्बर परम्परा एक दूसरे से पृथक को चुकी थी। प्रस्तुत गाथा और उसकी वृत्ति ही नहीं, यह सम्पूर्ण ग्रन्थ ही श्वेताम्बर मान्यताओं का सम्पोषक है, चाहे आचरांग का यह कथन सत्य हो कि, भगवान महावीर ने दीक्षित होते समय एक वस्त्र ग्रहण किया, किन्तु दूसरी ओर यह भी सत्य है कि उन्होंने तेरह माह के पश्चात् उस वस्त्र का परित्याग कर दिया था । उसके पश्चात् वे आजीवन अचेल ही रहे । किन्तु पार्श्व के संबंध में विशेषावश्यकभाष्य का यह कथन स्वयं श्री उत्तराध्ययन से ही खण्डित हो जाता है कि पार्श्व भी एक ही वस्त्र लेकर दीक्षित हुये थे । वस्त्र के संबंध में पार्श्व की परम्परा सन्तरोत्तर थी अर्थात् पार्श्व की परम्परा के मुनि एक अधोवस्त्र (अंतर-वासक) और एक उत्तरीय ऐसे दो वस्त्र धारण करते थे। यहाँ यह भी मानना बुद्धिगम्य नहीं लगता कि किसी भी तीर्थंकर की शिष्य परम्परा अपने गुरु से भिन्न आचार का पालन Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनत्व जागरण..... १०७ करती हो । अतः श्वेताम्बरों का यह ४कहना कि गौतम आदि महावीर की परम्परा के गणधर सवस्त्र थे- सत्य प्रतीत नहीं होता है इसी प्रकार दिगम्बर परम्परा की यह मान्यता कि सारे तीर्थंकर एवं उनके शिष्य अचेल ही थे, विश्वसनीय नहीं लगता हैं । यह बात भी सत्य हो सकती है कि चाहे भगवान महावीर ने मुनियों की निम्न श्रेणी के रूप में ऐलके और क्षुल्लकों की व्यवस्था की हो और ऐलको को एक वस्त्र तथा क्षुल्लको को दो वस्त्र रखने की अनुमति दी है तथा इसी संबंध में 'सामायिकचारित्र' और 'छेदोपस्थापनीय चारित्र' (महाव्रतारोपण) ऐसी द्विविध चारित्र की व्यवस्थाएं दी हो । यह भी सम्भव है कि भगवान महावीर ने सवस्त्र मुनियों को मुनिसंघ में बराबरी का दर्जा नहीं दिया हो । यह बात स्वयं श्वेताम्बर परम्परा में प्रचलित 'सामायिकचारित्र' और 'छेदोपस्थापनीय चारित्र' की अवधारणा से भी सिद्ध होती हैं । श्वेताम्बरों में जिनकल्प और स्थविरकल्प की अवधारणा तथा दिगम्बर परम्परा में क्षुल्लक, ऐलक एवं अचेल मुनि के भेद यही सिद्ध करते हैं । यहाँ हम इस चर्चा में विशेष उतरना नहीं चाहते, केवल यह स्पष्ट करने का ही प्रयत्न करेंगे के विशेषावश्यकभाष्य मूलतः श्वेताम्बर परम्परा के दृष्टिकोण का सम्पोषक है, उसके रचनाकाल तक अर्थात् छठी-सातवीं शती तक तीर्थंकरों की श्वेताम्बर मान्यता के अनुरूप मूर्तियाँ बनना प्रारम्भ हो गई थी। अकोटा की ऋषभदेव की प्रतिमा इसका प्रमाण हैं । अतः उसके कथनों को पूर्वकालीन स्थितियों के संदर्भ में प्रमाण नहीं माना जा सकता हैं । श्वेताम्बर परम्परा का यह कथन कि सभी तीर्थंकर एक देवदृष्य वस्त्र लेकर दीक्षित होते है और दिगम्बर परम्परा का यह कथन कि सभी तीर्थंकर अचेल होकर दीक्षित होते हैसाम्प्रदायिक मान्यताओं के स्थिरीकरण के बाद के कथन हैं । ये प्राचीन स्थिति परिचायक नहीं हैं । यह सत्य है कि महावीर अचेलता के ही पक्षधर थे, चाहे आचाराग के अनुसार उन्होंने एक वस्त्र लिया भी हो, किन्तु निश्चय तो यही किया था कि मैं इसका उपयोग नहीं करूंगा- जिसे श्वेताम्बर भी स्वीकार करते हैं । मात्र यही नहीं, श्वेताम्बर मान्यता यह भी स्वीकार करती है कि उन्होंने तेरह माह पश्चात् उस वस्त्र का भी त्याग कर दिया और फिर अचेल ही रहे । महावीर की अचेलता के कारण ही प्राचीन तीर्थंकर मूर्तिया अचेल ही बनी । पुनः चूंकि उस काल में बुद्ध की मूर्ति सचेल ही बनती थी, अतः परम्परा का भेद दिखाने के लिए भी तीर्थंकर प्रतिमाएं अचेल ही बनती थी। प्रो. रतनचंद्रजी ने दूसरा प्रमाण श्वेताम्बर मुनि कल्याणविजयजी के 'पट्टावली Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०८ जैनत्व जागरण..... पराग' से दिया, वस्तुतः मुनि कल्याणविजयजी का यह उल्लेख भी श्वेताम्बर पक्ष की पुष्टि के संदर्भ में ही हैं । उनका यह कहना कि वस्त्र भी इतनी सूक्ष्म रेखाओं से दिखाया जाता था कि ध्यान से देखने से ही उसका पता लगता था, यह बात केवल अपने सम्प्रदाय की मान्यता को पुष्ट करने के लिये कही गई है। प्राचीन मूर्तियों में ही नहीं, वर्तमान श्वेताम्बर मूर्तियों में भी सूक्ष्म रेखा द्वारा उत्तरीय को दिखाने की कोई परम्परा नहीं है, मात्र कटिवस्त्र दिखाते हैं । यदि यह परम्परा होती तो वर्तमान में भी श्वेताम्बर मूतियों में वामस्कंध से वस्त्र को दिखाने की व्यवस्था प्रचलित रहती। वस्तुतः प्रतिमा पर वामस्कन्ध से वस्त्र दिखाने की परम्परा बौद्धों की रही है और ध्यानस्थ बुद्ध और जिन प्रतिमा में अन्तर इसी आधार पर देखा जाता हैं। अतः जिन प्रतिमा के स्वरूप के संबंध में मुनि कल्याणविजयजी का कथन भी प्रमाण रूप में स्वीकार नहीं किया जा सकता । इसी प्रकार प्रो. रतनचंद्रजी ने 'प्रवचनपरीक्षा' का एक उद्धरण भी दिया है। उनका यह कथन कि जिनेन्द्र भगवान का गुह्यय प्रदेश शुभ प्रभामण्डल के द्वारा वस्त्र के समान ही आच्छादित रहता है और चर्मचक्षुओं के द्वारा दिखाई नहीं देता । वस्तुतः तीर्थकरों के संबंध में यह कल्पना अतिशय के रूप में ही की जाती हैं । लेकिन चाहे श्वेताम्बर परम्परा हो या दिगम्बर परम्परा, अतिशयों की यह कल्पना तीर्थंकर के संबंध में सत्य हो, मूर्ति के संबंध में सत्य नहीं । वैज्ञानिक सत्य यह है कि यदि मूर्ति नग्न है तो वह नग्न ही दिखाई देगी। किन्तु ‘प्रवचनपरीक्षा' में उपाध्याय धर्मसागरजी का यह कथन कि गिरनार पर्वत के स्वामित्व को लेकर जो विवाद उठा उसके पूर्व पद्मासन की जिनप्रतिमाओं में न तो नग्नत्व का प्रदर्शन होता था और न वस्त्र चिन्ह बनाया जाता था, समीचीन लगता हैं । अतः प्राचीन काल की श्वेताम्बर और दिगम्बर पद्मासन की प्रतिमाओं में भेद नहीं होता था। उनका यह कथन इस सत्य को तो प्रमाणित करता है कि पूर्व काल में जिन प्रतिमाओं में श्वेताम्बर और दिगम्बर का भेद नहीं होता था किन्तु हमें यह भी समझना होगा कि भेद तो तभी हो सकता था, जब दोनों सम्प्रदाय पूर्वकाल में अस्तित्व में होते। मथुरा की मूर्तियों तथा एक हल्सी के अभिलेख से यह स्पष्ट रूप से सिद्ध होता है कि संघभेद के पश्चात् भी कुछ काल तक मंदिर व मूर्तियाँ अलग-अलग नहीं होते थे । अभी तक उपलब्ध जो भी साक्ष्य है उनसे यही सिद्ध होता है कि श्वेताम्बर और दिगम्बर प्रतिमाओं में स्वरूप भेद लगभग छठी शताब्दी से Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनत्व जागरण..... १०९ अस्तित्व में आया । आकोटा की धातु मूर्ति के पूर्व वस्त्र युक्त श्वेताम्बर मूर्तियों के कोई प्रमाण उपलब्ध नहीं है, यद्यपि छठी शताब्दी से श्वेताम्बर दिगम्बर मूर्तियाँ अलग-अलग होने लगी, किन्तु उस समय भी प्राचीन तीर्थ क्षेत्र थे उनमें जो प्राचीन मूर्तिया थी, वे यदि पद्मासन की मुद्रा में होती थी तो उनमें लिंग बनाने की परम्परा नहीं थी और यदि वे खड़गासन की मुद्रा में होती थी तो स्पष्ट रूप से उनमें लिंग बनाया जाता था । हाँ, यह अवश्य सत्य है कि परवर्ती काल के श्वेताम्बर आचार्य भी उन नग्न मूर्तियों का दर्शन, वंदन आदि करते थे। प्रो. रतनचन्द्रजी ने बीसवीं शताब्दी के स्थानकवासी आत्मारामजी और हस्तीमलजी के ग्रन्थों से भी उद्धरण प्रस्तुत किये, लेकिन ये उद्धरण भी प्रमाण रूप में स्वीकार नहीं किये जा सकते, क्योंकि आचार्य आत्मारामजी एवं आचार्य हस्तीमल जी ने जो कुछ लिखा है वह अपनी अमूर्तिपूजक साम्प्रदायिक मान्यता की पुष्टि हेतु ही लिखा हैं । पुनः बीसवीं शताब्दी के किसी आचार्य के द्वारा जो कुछ लिखा जाये वह पूर्व काल के संदर्भ में पूरी तरह प्रमाणित हो, यह आवश्यक नहीं होता हैं । जहाँ तक आचार्य हस्तीमल जी के उद्धरण का प्रश्न है, वे स्थानकवासी अमूर्तिपूजक परम्परा के आचार्य थे । उन्होंने जैन धर्म के मौलिक इतिहास में जो कुछ लिखा है वह अपनी परम्परा को पुष्ट करने की दृष्टि से ही लिखा है अतः निष्पक्ष इतिहास की दृष्टि से उनके कथन भी प्रमाण रूप से ग्राह्य नहीं हो सकते हैं । अब हम जिनप्रतिमाओं के सम्बन्ध में प्राचीन स्थिति क्या थी, इसे भी कुछ पुरातात्विक अभिलेखीय साक्ष्यों से सिद्ध करेंगे । कंकाली टीले से प्राप्त पुरातात्त्विक सामग्री और शिलालेखों से यह स्पष्ट हो जाता है कि ईस्वी पूर्व प्रथम शताब्दी से ही वहाँ जिनमूर्तियाँ निर्मित हुई है और वे प्रतिमाएं आज भी उपलब्ध हैं । आचार्य हस्तीमलजी का यह कथन कि आचार्य नागार्जुन आदि यदि मूर्तिपूजा के पक्षधर होते तो उनके द्वारा प्रतिस्थापित मूर्तियां और मंदिरों के अवशेष कहीं न कहीं अवश्य उपलब्ध होते । किन्तु नागार्जुन के नाम का कोई मूर्तिलेख उपलब्ध न हो, तो इससे यह निर्णय तो नहीं निकाला जा सकता है कि जैन संघ में इसके पूर्व मूर्तिपूजा का प्रचलन नहीं था । श्वेताम्बर आगम साहित्य में विशेष रूप से कल्पसूत्र-स्थविरावली में उल्लेखित गण, शाखा और कुलों के अनेक आचार्यों की प्रेरणा से स्थापित अभिलेख युक्त अनेक मर्तियाँ मथुरा के कंकाली टीले से ही उपलब्ध हैं। आचार्य श्री हस्तिमलजी का 'कलिंगजिन' को 'कलिंगजन' पाठ मानना भी उचित नहीं हैं । पटना के लोहानीपुर क्षेत्र से Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनत्व जागरण....... ११० मिली जिन प्रतिमा इस तथ्य का स्पष्ट प्रमाण है कि जैन परम्परा में महावीर के निर्वाण के लगभग १५० वर्ष पश्चात् ही जिन प्रतिमाओं का निर्माण प्रारम्भ हो गया था। साथ ही यह भी सत्य है कि ईस्वी पूर्व तीसरी-चौथी शताब्दी से लेकर ईसा की छठी शताब्दी तक श्वेताम्बर और दिगम्बर मान्यताओं के अनुरूप अलगअलग प्रतिमाओं का निर्माण नहीं होता था । श्वेताम्बर दिगम्बर परम्परा के भेद के बाद भी लगभग चार सौ साल का इतिहास यही सूचित करता है कि वे सब एक ही मंदिर में पूजा उपासना करते थे । हल्सी के अभिलेख से यह स्पष्ट हो जाता है कि वहाँ श्वेतपट्ट महाश्रमण संघ, निग्रन्थ महाश्रमण संघ और यापनीय संघ तीनों ही उपस्थित थे, किन्तु उनके मंदिर और प्रतिमाएँ भिन्न भिन्न नहीं थे । राजा ने अपने दान में स्पष्ट रूप से यह उल्लेख किया है कि इस ग्राम की आय का एक भाग जिनेन्द्रदेवता के लिए, एक भाग वापनीय (confim) संघ हेतु और एक भाग जिनेन्द्रदेवता के लिए, एक भाग श्वेतपट्ट महाश्रमण संघ हेतु और एक बाग निर्ग्रन्थ महाश्रमण संघ के हेतु उपयोग किया जाए। यदि उनके मंदिर व मूर्ति भिन्न भिन्न होते, तो ऐसा उल्लेख सम्भव नहीं होता । भाई रतनचन्द जी का यह कथन सत्य है कि ईसा की छठी शताब्दी से पहले जितनी भी जिन प्रतिमा उपलब्ध हुई है, वे सब सर्वथा अचेल और नग्न हैं । उनका यह कथन भी सत्य है कि सवस्त्र जिन प्रतिमाओं का अंकन लगभग छठी-सातवीं शताब्दी से ही प्रारम्भ होता है । किन्तु इसके पूर्व की स्थिति क्या थी, इस संबंध में वे प्राय: चुप है यदि श्वेताम्बर परम्परा का अस्तित्व उसके पूर्व में भी था तो वे किन प्रतिमाओं की पूजा करते थे ? या तो हम यह माने कि छठी-सातवीं शताब्दी तक श्वेताम्बर परम्परा का अस्तित्व ही नहीं था, किन्तु इस मान्यता के विरोध में भी अनेक पुरातात्त्विक एवं साहित्यिक साक्ष्य जाते हैं । यह तो स्पष्ट है कि जैन संघ में भद्रबाहु और स्थूलिभद्र के काल के मान्यता और आचार भेद प्रारम्भ हो गए थे। और महावीर के संघ में क्रमशः वस्त्र - पात्र आदि का प्रचलन भी बढ़ रहा था । इस संबंध में मथुरा के कंकाली टीले के स्पष्ट प्रमाण उपलब्ध हैं । कंकाली टीले के ईस्वी पूर्व प्रथम सदी से लेकर ईसा की प्रथम द्वितीय सदी तक के जो पुरातात्विक साक्ष्य है, उनमें तीन बातें बहुत स्पष्ट है :१. जहाँ तक जिन मूर्तियों का संबंध है जो खड्गासन की जिन 1 प्रतिमाएं है उनमें स्पष्ट रूप से लिंग का प्रदर्शन है, पद्मासन की जो प्रतिमाएं है उनमें न तो लिंग का अंकन है न ही वस्त्र Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनत्व जागरण....... १११ अंचल का अंकन । सामान्य दृष्टि से ये प्रतिमाएँ अचेल है । २. किन्तु इन प्रतिमाओं के नीचे जो अभिलेख उपलब्ध है और उनमें जिन आचार्यों के नाम, कुल, शाखा एवं गण आदि उल्लेख है वे सभी प्रायः श्वेताम्बर परम्परा द्वारा मान्य कल्पसूत्र की स्थविरावली के अनुरूप हैं । यह भी सत्य है कि कल्पसूत्र की स्थविरावली में वर्णित कुल, शाखा एवं गण को एवं उसमें वर्णित आचार को श्वेताम्बर अपनी पूर्व परम्परा ही मानते हैं । यह भी सत्य है कि दिगम्बर परम्परा उन कुल, शाखा, गुण और आचार्यों को अपने से संबद्ध नहीं मानती है । ३. इसके अतिरिक्त जो विशेष महत्वपूर्ण तथ्य है वह यह है कि अनेक तीर्थंकर प्रतिमाओं की पादपीठ पर धर्मचक्र के अंकन के साथ-साथ चतुर्विध संघ का अंकन भी उपलब्ध है, उसमें साध्वी मूर्तियां तो सवस्त्र प्रदर्शित है किन्तु जहां तक मुनि मूर्तियों का प्रश्न है वे स्पष्ट रूप से नग्न हैं, किन्तु उनके हाथों में सम्पूर्ण कम्बल तथा मुख वस्त्रिका प्रदर्शित हैं । कुछ मुनिमूर्तियाँ ऐसी भी उपलब्ध होती है जिनके हाथों में पात्र प्रदर्शित है । एक मुनिमूर्ति इस रूप में भी उपलब्ध है कि वह नग्न है किन्तु उसके एक हाथ में प्रतिलेखन और दूसरे हाथ में श्वेताम्बर समाज में आज भी प्रचलित पात्र युक्त झोली है । इन मुनि मूर्तियों को सर्वथा अचेल परम्परा की भी नहीं माना जा सकता, वस्तुतः ये श्वेताम्बर परम्परा के विकास की पूर्व स्थिति की सूचक है तथा उसके द्वारा प्रतिस्थापित, वंदनीय एवं पूज्यनीय रही है, ये मूर्तियाँ निश्चित रूप से अचेल हैं । पुनः यदि श्वेताम्बर उनके प्रतिष्ठापक आचार्यों को अपना मानते है तो उन्हें यह भी मानना होगा कि प्राचीन काल में श्वेताम्बर परम्परा में भी अचेल मूर्तियों की ही उपासना की परम्परा थी । श्वेताम्बर मूर्तियों के निर्माण की परम्परा यद्यपि परवर्ती है, किन्तु इसका यह अर्थ भी नहीं है कि श्वेताम्बर धारा के पूर्व आचार्य एवं उपासक जिन मूर्तियों Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११२ जैनत्व जागरण..... की उपासना नहीं करते थे । वस्तुतः वे अचेल मूर्तियों को ही पूजते थे। आज जो श्वेताम्बर परम्परा में मूर्तियों को जिस प्रकार सवस्त्र रूप से अंकन करने की परम्परा है, वह एक निश्चित ही परवर्ती परम्परा है और लगभग छठी शती से अस्तित्व में आई है ताकि मूर्तियों को लेकर विवाद न हो, इसी कारण से यह अंतर किया गया हैं । तथा मूर्तियों को आभूषण आदि से सज्जित करने, कॉच अथवा रत्न आदि की आखे लगाने आदि की जो परम्परा आई है, मूलः सहवर्ती हिन्दू धर्म की भक्तिमार्गीय परम्परा का प्रभाव हैं । आदरणीय श्री नीरजजी जैन, श्री मूलचंदजी लुहाड़िया और प्रो. रतनचंदजी जैन की चिंता के दो कारण है, प्रथम तो मूर्ति और मंदिरों को लेकर जो विवाद गहराते जाते है. उनसे कैसे बचा जाये और प्राचीन मंदिर और मूर्तियों को दिगम्बर परम्परा से ही सम्बद्ध कैसे सिद्ध किया जाये । उनकी चिंता यथार्थ है, किन्तु इस आधार पर इस ऐतिहासिक सत्य को नकार देना उचित नही होगा कि ईसा की पांचवी-छठी शती के पूर्व श्वेताम्बर परम्परा भी अचेल मूर्तियों की उपासना करती थी, क्योंकि मथुरा के कंकाली टीले से प्राप्त अभिलेख और चतुर्विध संघ के अंकन से युक्त अनेकों मूर्तियाँ इसके प्रबलतम साक्ष्य उपस्थित करती है, उन्हें नकारा नहीं जा सकता है। .. AUHANA N . 4 Jatil नर.... Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनत्व जागरण...... ९. श्रमण संस्कृति की शलाका भूमि पूर्वी भारत नास्तं कदाचिदुपयासि न राहुगम्यः स्पष्टीकरोषि सहसा युगपज्जगन्ति । नाम्भोधरोधर-निरूद्ध-महाप्रभावः सूर्यातिशायि - महिमाऽसि मुनीन्द्र ! लोक ॥ प्राची दिशा से सूर्य प्रतिदिन उदित होकर सारे जगत को आलोकित करता है; लेकिन उसका यह प्रकाश सीमित क्षेत्र में होता है, कभी राहु से ग्रसित होता है, कहीं बादलों में आच्छादित हो जाता है, परन्तु तीर्थंकरों के ज्ञानरूपी सूर्य के प्रकाश को कोई भी पदार्थ अवरुद्ध नहीं कर सकती है । उनका ज्ञानरूपी सूर्य तीनों लोकों के सभी पदार्थों को तीनों कालों में एक साथ प्रकाशित करता है । " ११३ एक बार डॉ. एनी बेसेन्ट से किसी जिज्ञासु ने पूछा कि क्या आप बताएंगी कि विश्व के पुराने और नये देशों में भारत का क्या वैशिष्ट्य है ? जवाब में उन्होंने कहा - " भगवान ने भारत को जो दिया है वह किसी भी देश को नहीं दिया, किन्तु जो दूसरे देशों को दिया है वह सब भारत को दिया है। परमेश्वर ने यूनान को सौन्दर्य, रोम को विधि, इजराईल को मजहब और भारत को एक ऐसा धर्म प्रदान किया है जिसमें समस्त सृष्टि का योगक्षेम और प्राणी मात्र को धारण करने की शक्ति है । वास्तव में यदि हम देखे तो भारत के पास ऐसा तत्त्वज्ञान का दर्शन है" जिसमें समस्त जड़ और चेतन निहित है और यह तत्त्वज्ञान हमें हमारे तीर्थंकरों के दिव्य ज्ञान से प्राप्त हुआ है । जिन्होंने तप, त्याग और साधना द्वारा केवलज्ञान प्रकट किया और सर्वज्ञ बनने के बाद जिन सनातन सिद्धान्तों का प्रतिपादन किया उन्हीं के कारण आज भी भारत को वैचारिक क्षेत्र में दुनिया में सबसे महान माना जाता है । उत्तराध्ययन सूत्र में अन्तिम तीर्थंकर भगवान महावीर के केवल ज्ञान के विषय में उनके शिष्य सुधर्मा स्वामी से जम्बू स्वामी ने पूछा कि भगवान महावीर स्वामी का ज्ञान दर्शन कैसा था, उनका आचार कैसा था, आप इस Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनत्व जागरण....... ११४ विषय में यथातथ्य जानते थे और सुना भी है अतः कृपा कर बताइए ? जवाब में सुधर्मा स्वामी जी ने कहा- "हे जम्बू, भगवान महावीर स्वामी संसारी जीवों के दुःखों को जानने में कुशल थे । वे महायशस्वी भगवान, अनन्त ज्ञानी, अनन्त दर्शी और महान ऋषि थे । उनको अर्हन्त दशा में सूक्ष्म पदार्थ भी आँखों के समान देखने वाला जानो और उनके धर्म तथा संयम की दृढ़ता को विचारो ।” "उन केवलज्ञानी भगवान ने ऊंची-नीची और तिरछी दिशा में जो त्रस और स्थावर प्राणी हैं, उनको नित्य और अनित्य रूप से जानकर उनके आधार के लिये धर्म रूपी दीप का सम्यक रूप से प्रतिपादन किया ।" "वे सर्वदर्शी भगवान, अप्रतिहत केवलज्ञान वाले और निर्दोष चारित्र वाले थे, वे परम धीर प्रभु अपनी आत्मा में स्थिर, परिग्रह से रहित, निर्भय, आयु रहित और समस्त पदार्थों के उत्कृष्ट ज्ञाता थे ।" " वे महान बुद्धिमान प्रभु, अप्रतिबद्ध विहारी, संसार समुद्र से तिराने वाले, परम वीर, और अनन्त ज्ञानवान् थे । वे सूर्य एवं वैरोचन अग्नि की तरह अज्ञान रूप अन्धकार का नाश करके ज्ञान का प्रकाश करने वाले थे ।" भगवान महावीर की सर्वज्ञता के विषय में बौद्ध ग्रन्थ मज्झिमनिकाय भाग १ पृष्ठ ६२/६३ में लिखा है “निर्ग्रन्थ ज्ञात पुत्र सर्वज्ञ और सर्वदर्शी है, वे अशेष ज्ञान और दर्शन के ज्ञाता हैं । चलते, ठहरते, सोते, जागते समस्त अवस्थाओं में सदैव उनका ज्ञान और दर्शन उपस्थित रहता है । " तीर्थंकरों के इसी ज्ञान के प्रकाश से प्राच्यभूमि इतिहासातीत काल से सदियों तक प्रज्वलित रही । पौरविक भारत की इस गौरवमय ऐतिहासिक परम्परा को जानना और उसे पुनः स्थापित एवं प्रतिष्ठित करना ही हमारा ध्येय है । अथर्ववेद में व्रात्यों का प्रियधाम प्राची दिशा को बताया गया हैप्रिय धाम भवति तस्य प्राच्य दिशि । - अथर्ववेद १५/२/१५ Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनत्व जागरण..... ११५ इन व्रात्यों की साधना भूमि पूर्वी भारत के मगध, अंग, बंग और कलिंग के क्षेत्र थे। यद्यपि ये लोग देश के और भागों में भी फैले हुए थे लेकिन उनकी कर्मभूमि सदियों तक पूर्वी भारत ही रही । इस क्षेत्र के ब्राह्मणों के लिये भी ब्राह्मण सूत्रों में इस बात का उल्लेख है कि प्राच्य देश के ब्राह्मण वेद और याग-यज्ञ को आसानी से छोड़ देते हैं अर्थात् पतित हो जाते हैं । ज्ञातव्य है कि भगवान महावीर के प्रमुख गणधर इन्द्रभूति, वायुभूति, अग्निभूति, सुधर्मा स्वामी आदि मगध के प्रसिद्ध ब्राह्मण विद्वान थे जिन्होंने निर्ग्रन्थ धर्म को अपनाया था । जैनेतर ग्रन्थों में प्राच्य देश में ब्राह्मणों का जाना निषिद्ध माना गया था क्योंकि ये श्रमण संस्कृति से प्रभावित क्षेत्र थे । उनमें यहाँ तक लिखा है कि काशी में कोई कौवा भी मरे तो सीधा वैकुष्ठ जाता है लेकिन यदि मगध में मनुष्य भी मरे तो गधे की योनि में जन्म लेता है। इससे यह स्वतः ही स्पष्ट हो जाता है कि पूर्वी भारत उस समय एक ऐसा आईना था जिसके सामने जाने पर व्यक्ति को अपना सही चेहरा दिखाई दे जाता था । ब्राह्मण अपने को वेद ज्ञानी मानते थे लेकिन प्राच्य भूमि में जाकर वहाँ की संस्कृति और ज्ञान के वैभव के दर्शन से उनको अपना ज्ञान उसके सामने न्यून दिखाई पड़ता । इसीलिए आइने में वस्त्र पहने हुए भी वस्त्र विहीन दशा यानि अपने प्रकृतस्वरूप के दर्शन होने के भय से ब्राह्मणों को वहां जाना निषिद्ध लिखा गया। स्वर्गीय नेमिचंदजी जैन के शब्दों में- "अंग, बंग, मगध, उत्कल को छोड़ जो आर्य थे उनमें वस्तुतः धर्म की रागात्मक छवि का ही विकास अधिक हुआ था, उसका चिन्तनात्मक / ज्ञानात्मक / दार्शनिक पक्ष उनमें पूरी तरह खुल / उघड़ नहीं पाया । जिसे हम धर्म का चिन्तन-पक्ष कहते हैं, उसका पटोत्थान मुख्यतः मगध, बंग, उत्कल में ही हो सका । व्रात्यों को लेकर आर्यों का जो दृष्टिकोण था, वह भी अतिरंजित / पूर्वाग्रहयुक्त था । यह भ्रम ब्राह्मण ही अध्ययन, मनन, चिन्तन का अधिकारी है, मगध / विदेह ही धरा पर ही मिथ्या साबित हुआ और लड़खड़ा कर ध्वस्त हो गया । यहाँ यह सिद्ध हो सका कि क्षत्रिय भी अध्यात्म के प्राज्ञ वेत्ता हैं / हो सकते हैं, बल्कि इससे कहीं अधिक, जितने तत्कालीन ब्राह्मण Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनत्व जागरण..... ११६ थे । इन्द्रभूति आदि का महावीर के अनेकान्तात्मक प्रतिपादन के प्रति नतशीश होना इसी का ज्वलन्त प्रमाण है ।" इसीलिए वैदिक ब्राह्मणों का रुख इस क्षेत्र के निवासियों के प्रति शत्रुतापूर्ण था । ऋग्वेद में वर्णन है कि " ऋषियों के प्रति द्वेष रखने वालों को अपना शत्रु समझो, जो वेद से भिन्न व्रत वाले हैं दण्डित हो, यज्ञ परायण को यज्ञहीनों का धन प्राप्त हो ।" ये प्राच्य भूमि के निवासी कौन थे इस विषय में - ऋग्वेद का अध्ययन करने पर एक विशेष जाति के विषय में पता चलता है जो हिरण्य और मणि द्वारा शोभायमान थी । " व्यवसाय में दक्ष, जो रूप और सन्तान पर गर्व करती है, जो धनी है, जो खाने-पाने में रूचिसम्पन्न है, जो धन की खोज में सामुद्रिक यात्रा करते हैं, लेकिन वे इन्द्र को नहीं मानते, जो देवहीन थे, यज्ञोविहीन थे, जो देव निन्दक थे, जो ऋषियों को दान नहीं देते, जिनका दर्शन भी देवविहीन है ।" इस जाति को " पणि के नाम से अलंकृत किया गया है । इन समृद्धशाली पणियों से ही सम्भवतः हमारी प्राचीन मुद्रा का नाम पण एवं वाणिज्य संसार का नाम पण्य हुआ । भारतवर्ष में प्राचीन युग से मुद्रा धातु के निर्माण के लिए आवश्यक ताम्र धातु सम्पदा इन पणियों के अधिकार में थी एवं भारतवर्ष की तत्कालीन अर्थ व्यवस्था में इनकी मुद्राओं का अत्यधिक महत्व था । साधारणतः धातु सम्पदा इन पणियों के अधिकार में थी एवं भारतवर्ष की तत्कालीन अर्थ व्यवस्था में इनकी मुद्राओं का अत्यधिक महत्व था । साधारणतः धातु सम्पन्न लोग हमेशा ही कृषि पर आश्रित लोगों की अपेक्षा कहीं अधिक समृद्ध एवं सम्पन्न होते हैं । ऋग्वेद में इन्हें सप्तसिन्धु के अंचलों के पार प्राच्य देश का निवासी बताया है और इनको वश में करने के लिये सूक्तियों की रचना की गयी । इससे यह स्पष्ट होता है कि ऋग्वेद की रचना के पूर्व में ही पूर्वी भारत में एक उन्नतिशील सभ्यता निवास करती थी जो यज्ञ और हिंसा विरोधी थी और प्राचीन निर्ग्रन्थ धर्म से अभिन्न थी । (ऋग्वेद ६ ६१|१, १/३६/१६, १।३९१०, १।१७६/४, १।१७५/३, १/३३/५, २/२६ १, ५/२०१२, २२३८, |६|६१|१) Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनत्व जागरण...... ११७ चन्द्रगुप्त के समय यूनानी राजदूत मैगस्थनीज भारत आया था । वह चन्द्रगुप्त के दरबार में भी रहा उसने प्राच्य निवासियों के गुणों का वर्णन अपनी किताब 'इन्डिका' में किया है "All the Indians are free and none of thems a slave. They do not even use aliens as slaves and much less a country man of their own. They live frughally. They observe good order. Theft is a very rare occurrence. Their manners are simple. They have no suits about pledges or deposits. They confide in each other. Their houses and property they generally leave unguarded. They possess good, sober sense." मैगस्थनीज इन वर्णनों से यह स्पष्ट होता है कि प्राच्य निवासियों कीं सभ्यता बहुत ही सुसंस्कृत, सुसंगठित और उच्चकोटि की थी । शायद इसीलिए ईर्ष्या के कारण ब्राह्मणों ने इन्हें अनार्य और असुर कहकर संबोधित किया है। जैन धर्म ने सदा से ही अहिंसा - सत्य-अचौर्य-ब्रह्मचर्य - अपरिग्रह आदि के सिद्धान्तों से भावप्रधान व आचारप्रधान संस्कृति का निर्माण कर शालीन सभ्यता को प्रोत्साहित किया है । द्वेष एवं कषायवश तथाकथित ब्राह्मण समाज ने जैन श्रमण जैन श्रावक जैन संस्कृति को उत्तरोत्तर • प्रतिपक्षी माना है । | - "All the Prachyas were considered by the Brahmanas as Asuras, the non-Aryan Bharatiya people. It was very difficult to establish the Brahmanjc Yagnic way of life in these Prachya. Asura regions. The concept Prachya, in the age of Megasthernes referred to the whole of the eastern Bharata. These Prachyas were anti- Brahmanical people." (Ancient India) यहाँ ब्राह्मणों से तात्पर्य पतित ब्राह्मणों से है । ब्राह्मणों के वास्तविक स्वरूप के विषय में उत्तराध्ययन सूत्र के पच्चीसवें अध्याय में लिखा है कि "जिन्हें कुशल पुरुषों ने ब्राह्मण कहा है, जो स्वजनादि में आसक्त नहीं Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११८ जैनत्व जागरण..... AAAAA होता और प्रव्रजित होने में सोचता नहीं है, जो राग, द्वेष और भय आदि से रहित है, जो त्रस और स्थावर प्राणियों को संक्षेप या विस्तार से जानकर त्रिकरण त्रियोग से हिंसा नहीं करता, जो क्रोध से, लोभ से, हास्य से और भय से झूठ नहीं बोलता, जो काम भोगों से अलिप्त है वहीं वास्तव में ब्राह्मण है ।" आगे लिखा है कि न वि मुंडिएण समणो, न ओंकारेण बंभणो । न मुणी रण्णवासेणं, कुसचीरेण न तावसो ॥३१॥ । केवल सिर मुंडाने से कोई श्रमण नहीं होता, न ॐ कार बोलने से ब्राह्मण होता है, अरण्य में बसने मात्र से कोई मुनि नहीं हो जाता और . न वल्कलादि पहनने से कोई तापस हो सकता है । समयाए समणो होइ, बंभचेरेण बंभणो । नाणेण उ मुणी होइ, तवेण होइ तावसो ॥३२ समता से श्रमण, ब्रह्मचर्य से ब्राह्मण, ज्ञान से मुनि और तप से तपस्वी होता है। इस प्राच्य भू-भाग में मगध, विदेह, अंग, बंग और कलिंग आदि प्रमुख जनपद थे । निस्सन्देह रुप से यहाँ के निवासी वैदिक ब्राह्मणों से प्रथम वातरशना मुनि, अर्हत, व्रात्य, निर्ग्रन्थ और श्रमण तीर्थंकरों की परम्परा के उपासक थे । जहाँ तक हमारा इतिहास जाता है उससे पूर्व काल से इस प्राच्य भूमि में नाग, यक्ष, वज्जि, लिच्छवी, ज्ञात, मल्ल, मोर्य आदि अनार्य जातियों की सभ्यता सम्पोषित, और पल्लवित हुई थी। यहाँ की संस्कृति ज्ञान-विज्ञान, शिल्प, कला और कौशल आदि की दृष्टि से बहुत ही उच्चकोटि की थी। इस सांस्कृतिक परम्परा के प्रवर्तक और संवाहक तीर्थंकर रहे थे। __इस अवसर्पिणी काल में चौबीस तीर्थंकर हुए हैं इनमें प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव का निर्वाण अष्टापद पर्वत पर और बाईंसवें तीर्थंकर श्री नेमिनाथ जी का निर्वाण गुजरात भूमि के गिरनार पर्वत पर हुआ था । जबकि अन्य . बाईस तीर्थंकरों का निर्वाण प्राच्य भूमि के बिहार प्रान्त में हुआ था। कल्पसूत्र Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनत्व जागरण...... ११९ I के अनुसार बारहवें तीर्थंकर वासुपूज्य का निर्वाण चम्पापुर (अंग जनपद) में हुआ था अंतिम चौबीसवें तीर्थंकर वर्द्धमान महावीर का पावापुरी में और शेष बीस तीर्थंकरों का निर्वाण सम्मेत शिखर में हुआ जो मगध जनपद के हजारीबाग जिले में है । तेईसवें तीर्थंकर पार्श्वनाथ के नाम से सम्मेत शिखर को पार्श्वनाथ पर्वत भी कहा जाता है। रविवेषाणचार्य ने अपने पद्मपुराण में हनुमान जी का निर्वाण स्थान इसी पर्वत पर हुआ था उल्लेख किया है । वर्धमान कवि ने अपने दशभक्तवादि महाशास्त्र में रामचन्द्रजी का निर्वाण स्थान भी इसी पर्वत पर बतलाया है । बंगाल की सेंसस रिपोर्ट ४५७ पेज ११० में उल्लेख है कि प्राचीन काल में पारसनाथ हिल के समीप जैनों की बहुत बड़ी बस्ती थी । अतः यह निश्चित रूप से कह सकते हैं कि यहाँ पर श्रमण धर्म का उद्भव तथा विकास श्रेणिक बिम्बिसार के शासन काल से बहुत पहले हो चुका था । भगवान महावीर के उपरांत काल में भी श्रमण-श्रमणियों का इस प्रदेश में सतत विहार ( आवागमन) होते रहने से यह प्रदेश बिहार नाम से प्रसिद्ध हुआ । ई. पूर्व सातवीं शताब्दी में विहार में तीन प्रमुख जनपद थे १. मगध जिसकी राजधानी राजगृह, २. विदेह जिसकी राजधानी वैशाली और ३. अंग जनपद जिसकी राजधानी चंपा थी । मगध : प्रज्ञापनासूत्र, सूत्रकृतांगसूत्र और स्थानांगसूत्र में मगध को आर्य जनपद कहा गया है। ऋग्वेद संसार की सबसे प्राचीनतम साहित्यिक रचना माना जाता है । पूर्वी भारत के विषय में ऋग्वेद में स्पष्ट रूप से नाम का उल्लेख नहीं मिलता लेकिन वहाँ मगध को कीकटों का देश लिखा है जहाँ पर गायें पर्याप्त दूध नहीं देती न उनका दूध सोमरस के साथ मिलता है । 'हे भागव तू प्रमगन्ध के सोमलता वाले देश को भली-भाँति हमारे हुँकार से भर दो।' किं ते कृण्वन्ति कीकटेषु गावो नाशिरं दुहे न तपन्ति धर्मम् । आ नो भर प्रमगन्दस्य वेदो नैचाशाखं मधवन् रन्धया नः ऋग्वेद, ३।५३|१४ Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनत्व जागरण...... यास्क ने अपने निरुक्त ६ । ३२ में कीकट प्रदेश को अनार्यों का निवास स्थान बताया है (कीकटो नाम देशो अनार्य निवास) । १२० पुराणों के अनुसार जन्हु की पीढ़ी में कुश और उसका भाई अमूर्तया हुआ और अमूर्तया के पुत्र गय के नाम से गया नाम का राज्य हुआ जो आगे चलकर मगध कहलाया । इसके काफी समय बाद कुरु की पाँचवीं पीढ़ी में वसु नाम का प्रतापी राजा हुआ जिसने मगध से मत्स्य देश तक अपना राज्य स्थापित किया और उसको पाँच पुत्रों में बाँट दिया । उसका एक पुत्र बृहद्रथ मगध का राजा बना जिसके नाम से ही बार्हद्रथ वंश की नींव पड़ी । बार्हद्रथ वंश में ही जरासंघ नामक प्रतापी राजा हुआ जिसका उल्लेख महाभारत में तो है ही, जैन ग्रन्थों में भी हमें मिलता है । उसके समय गिरि ब्रज मगध की राजधानी थी । महाभारत के समय में श्री कृष्ण ने भीम और अर्जुन के साथ इसी गिरि ब्रज में प्रवेश किया था । कृष्ण ने अर्जुन को इस गिरिब्रज के वैभव के विषय में वर्णन करते हुए कहा कि- “हे पार्थ ! देखो, मगध राज्य का महानगर कैसा सुशोभित है । उत्तमउत्तम अट्टालिकाओं से सुशोभित यह महानगरी सुजला निरुपद्रवा और गवादि से पूर्ण है । वैभार, वराह, वृषभ, ऋषिगिरि तथा चैत्यक ये पांचों शैल सम्मिलित होकर गिरिब्रज नगर की रक्षा कर रहे है ।" ( महाभारत, सभा) कनिंघम के अनुसार Kusagrapur was the original capital of Magadha which was called Rajagriha of ‘Royal Residence.' It was also named Girivraja on hill surrounded which agrees with the 'Hiuen Tsang's description of it as a town surrounded by mountains. FaHien.... states that the five hills from a girdle like the walls of a town, which is an exact description of old Rajagriha or Purani Rajagir as is now called by the people. जरासंघ बड़ा प्रतापी राजा था उसने अंग, बंग, पुण्ड्र, करुस और चेदि देश को अपने प्रभावाधीन कर लिया था । आवश्यकचूर्णि में मगहसिरी गणिका का उल्लेख मिलता है जो जरासंघ की गणिका थी । बार्हद्रथ वंश के बाद मगध में हर्यक वंश का शासन स्थापित हुआ जो नागवंश की ही Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनत्व जागरण..... १२१ एक शाखा थी । इसी वंश में श्रेणिक बिम्बिसार, अजातशत्रु और उदायी प्रमुख राजा हुए । छठी शताब्दी ई. पूर्व में मगध उत्तर पूर्वी भारत का सर्वोच्च राज्य बन गया था । मगध की समृद्धि और विकास का स्रोत उसकी धातु सम्पदा थी जिसके विषय में श्री डी. डी. को का कथन है “Magadha had something for more important : the metals, and proximity to the river.......... Rajgir had the first immediate source of iron at its disposal. Secondly, it stradded (with Gaya to which the passage was through denser forest.) The main route to India's heaviest deposits of iron and copper to the south cast in the Dhalbhum and Singhbhum districts........thus Magadha had a near monopoly over the main source of state craft, __ यह एक महत्वपूर्ण तथ्य है कि तीर्थंकर जिस आर्य क्षेत्र में जन्म लेने वाले होते हैं उस क्षेत्र की समृद्धि और विकास पहले से ही आरम्भ हो जाता है। भगवान महावीर से पूर्व ही मगध की समृद्धि का प्रारम्भ हो चुका था और उनके समय में मगध एक महत्वपूर्ण साम्राज्य के रूप में केवल भारतीय इतिहास में ही नहीं बल्कि निर्ग्रन्थ धर्म और वैचारिक क्रान्ति का महत्वपूर्ण केन्द्रीय स्थल भी बन गया था जो अनेक उत्थान पतन के बाद भी डेढ़ हजार वर्षों तक कायम रहा । __मगध की राजधानी राजगृह के प्राचीन नाम ऋषभपुर क्षितिप्रतिष्ठ, चणकपुर, कुशाग्रपुर रहे थे । नौवें तीर्थंकर सुविधिनाथ के चार कल्याणक च्यवन, जन्म, दीक्षा और केवलज्ञान जमुई मंडल के काकन्दी में हुए थे। भगवती सूत्र के अनुसार काकन्दी में तैंतीस समणोवासग (श्रमणोपासक) को उल्लेख मिलता है जिससे पता चलता है कि कभी यहा तैंतीस श्रावक या जैन गृहस्थ निवास करते थे । चौबीसवें तीर्थंकर भगवान महावीर ने काकन्दी में विहार किया था। उनके कई शिष्य काकन्दी के निवासी थे। उन शिष्यों के नाम के साथ जनपद-बोधक नाम काकन्दक का उल्लेख मिलता है। काकन्दक का अर्थ है काकन्द के निवासी । जैन कल्पसूत्र की स्थविरावली Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनत्व जागरण....... १२२ में जैन श्रमणों के गण, शाखा और कुलों की एक सूची मिलती है । इससे ज्ञात होता है कि व्याघ्रापत्य गौत्र के सुप्रतिबुद्ध काकन्दक ने सुस्थित कोटिक के साथ कोटिक गण नामक जैन संघ की स्थापना की थी जिसकी चार शाखाएं थी । वशिष्ठ गोत्र के मुनि गुप्त काकन्दक ने मानव गण नामक एक दूसरे जैन संघ की स्थापना की थी । उसकी भी चार शाखाएं थी । भारद्वाज गोत्र के भद्रयशस् ने उडुवाटिक नामक गण की स्थापना की थी जिसकी चम्मिज्जिया (चम्पियिका), भद्दिज्जिया (भद्रियिक), काकन्दिया (काकन्दिका), और मेहलिज्जिया ( मेखलियाका ) नामक चार शाखाएं थी । इन शाखाओं के नाम जनपदों के नाम पर दिये गये है । मुंगेर के जैन तीर्थ रामरघुवीर । दसवें तीर्थंकर शीतलनाथ का जन्म हजारीबाग स्थित कलुहा पहाड़ी के पास हुआ । बीसवें तीर्थंकर मुनि सुव्रतस्वामी का जन्म स्थान राजगृह था । भगवती सूत्र तथा उत्तराध्ययन सूत्र से यह पता चलता है कि मगध में तेइसवें तीर्थंकर श्री पार्श्वनाथ का काफी प्रभाव था । भगवान महावीर के परिवारजन भी पार्श्वनाथ मत के अनुयायी थे । उनके पश्चात् महावीर के क्रियाकलापों का भी मुख्य केन्द्र मगध रहा । भगवान पार्श्वनाथ ने चातुर्याम धर्म का प्रतिपादन किया था । भगवान महावीर ने इसमें ब्रह्मचर्य को शामिल कर पंच महाव्रतों का प्रतिपादन किया था । साधना और तपस्या का यह प्रयोग इसी मगध की भूमि पर हुआ था । भगवान महावीर के उपदेश भगवान महावीर के उपदेश अर्द्धमागधी में हुए जो यहाँ की प्रमुख भाषा थी । ज्यादातर इतिहासविदों का मानना है कि महावीर का जन्म स्थान मगध के जमुई के लछवाड़ में हुआ था। वहाँ के गाँव के नाम जन संघ डिही (जैन संघ) आधारज डीही (आचार्य संघ ) आदि इसकी पुष्टि करते हैं । लछवाड़ के पास महादेव सिमरिया में पाँच जिनमंदिर थे जिनकी मूर्तियाँ तालाब में डाल दी गयी और उन्हें शैव मंदिरों में परिवर्तित किया गया । लछवाड़ के मंदिर में जो प्रतिमा प्रतिष्ठित है वह गुप्तकाल से भी प्राचीन प्रतीत होती है । श्री अगरचंद नाहटा ने इसे पन्द्रह सौ वर्ष प्राचीन बताया है । उन्होंने लिखा है- " चालीस वर्ष पूर्व जब हमने प्रथम बार क्षत्रिय कुंड की यात्रा की I Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनत्व जागरण..... १२३ थी तो वहाँ की धर्मशाला में भगवान महावीर की माता त्रिशला की मूर्ति, जिनके गोद में भगवान महावीर बालक रूप में दिखाये गये थे, उस पर प्राचीन लिपि का लेख लिखा हुआ था, हमने देखी थी । खेद है कि वह मूर्ति सुरक्षित नहीं रह सकी, पर उस पर खुदा हुआ लेख, जो हमने स्वयं देखा था, गुप्तकालीन लिपि का था।" उन्होंने वर्तमान जन्मस्थान के मंदिर से दो मील दूर लोधापानी में जंगल-झाड़ी के बीच प्राचीन खंडहर भी देखे थे। "लछवाड़ के श्री नरेन्द्रचंद मिश्र लिखते हैं- मैं क्षत्रियकुण्ड के सम्बन्ध में एक प्रामाणिक इतिहास ग्रन्थ प्रस्तुत करना चाहता हूँ। कल्पसूत्र में उल्लिखित क्षत्रियकुण्ड से सम्बन्धित स्थानों की प्रामाणिकता उनके शोधपूर्ण निरीक्षण से आंकी जा सकती है। वे सभी स्थल अपने उसी नाम पर तथा कतिपय यत्किचित अपभ्रंश के साथ अपने में तीन हजार वर्षों की गरिमा निहित किए है । क्षत्रियकुण्ड के विस्तृत भूभाग में यत्र-तत्र मिट्टी के बड़े-बड़े स्तूपों का अगर उत्खनन हो तो प्रामाणिक इतिहास लेखन की बहुत सामग्री मिल सकती है । उदाहरण स्वरूप एक स्तूप से अनायास भगवान महावीर की मिट्टी की मूर्ति मिली है जो मेरे पास सुरक्षित है जिस पर अस्पष्ट अज्ञात लिपि भी है।" (भगवान महावीर का जन्म स्थान क्षत्रियकुण्ड-भंवरलाल नाहटा) वर्तमान क्षत्रियकुण्ड अति प्राचीन स्थान है । कुण्डघाट पर नदी के दोनों तरफ दो प्राचीन मन्दिर है एवं पहाड़ी पार करने पर जन्मस्थान का मन्दिर है । जहाँ सिद्धार्थ राजा का महल था, प्राचीनकाल में क्षत्रियकुण्ड की यात्रा के लिए यात्री संघ समय-समय पर जाते रहते थे । इस प्रदेश में निवास करने वाली 'महत्तियाण' जैन जाति इन तीर्थों की देख-रेख करती थी। युगप्रधानाचार्य गुर्वावली एक प्राचीन और प्रामाणिक ग्रंथ है जिसमें चौदहवीं शताब्दी तक की घटनाएं लिखी हुई मिलती है, उसमें लिखा है कि सं. १३५२ में श्री जिनचन्द्रसूरिजी के उपदेश से वाचक राजशेखर, Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनत्व जागरण...... १२४ सुबुद्धिराज, हेमतिलकगणि, पुण्यकीर्तिगणि, रत्नमन्दिर मुनि सहित श्री बड़ागाँव (नालंदा) में विचरे थे । वहाँ के ठक्कर रत्नपाल सा. चाहड़ प्रधान श्रावक प्रेषित भाई हेमराज वांचू श्रावक युक्तं सपरिवार सा. बोहित्थ पुत्र मूलदेव श्रावक ने श्री कौशाम्बी, वाराणसी, काकन्दी, राजगृह, पावापुरी, नालंदा, क्षत्रियकुण्डग्राम, अयोध्या, रत्नपुरादि नगरों में जिन जन्मादि पवित्र तीर्थों की यात्रा की । सं. १४३१ में अयोध्या स्थित श्री लोकहिताचार्य के प्रति अणहिलपुर से श्री जिनोदयसूरि प्रेषित विज्ञप्ति महालेख से विदित होता है कि लोकहिताचार्यजी इत: पूर्व मंत्रिदिलीय वंशोद्भव ठ. चन्द्रागज सुश्रावक राजदेव आदि के निवेदन से विहार व राजगृह में विचरे थे उस समय वहाँ की नये जिन प्रासादों का निर्माण हुआ था । सूरि जी वहाँ से ब्राह्मणकुंड व क्षत्रियकुण्ड जाकर यात्रा कर आये और वापस राजगृह आकर विपुलाचल व वैभारगिरि पर बिम्बादि की प्रतिष्ठा करवाई थी । सं. १४८९ मं रचित श्री जिनवर्द्धनसूरि रास में उनके पाँच वर्ष पर्यन्त पूर्व देश में विचरण कर धर्म प्रभावना करने का उल्लेख है, जिसमें पावापुरी, नालन्दा, कुण्डग्राम, काकन्दी यात्रा का भी वर्णन है । श्री जिनवर्द्धनसूरिजी ने स्वयं सन् १४६७ में पूर्व देश चैत्यपरिपाटी की रचना की है जिसमें ब्राह्मणकुण्ड, क्षत्रियकुण्ड और काकन्दी की यात्रा करने का उल्लेख किया है पावापुरि नालिंदा गामि, कुंडगामि कायंदीठामि वीर जिणेसर नयर विहारि, जिणवर वंदइ सवि विस्तारि सन् १४६१-८६ के बीच श्री जिनवर्द्धनसूरि कृत पूरब देश चैत्य परिपाटी स्तवन में लिखा है "सिद्ध गुणराय सिद्धत्थ कुलमंडणं, रुद्ददालिद्द दोहग्गदुह खंडणं । बंभणकुंडपुरि थुणउ जण रंजणं, खित्तियाकुँड गांमंमि वीरंजिणं ॥२॥" सुप्रसिद्ध विद्वान जयसागरोपाध्याय ने सं. १५२४ में राजगृह में प्रतिष्ठादि कार्य कराये जिनके अभिलेख विद्यमान है उन्होंने वहाँ से जाकर क्षत्रियकुण्ड Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनत्व जागरण..... १२५ की भी यात्रा की थी जिसका उल्लेख सन् १५२५ फा. व. ५ जीनपुर में लिखित आवश्यक पुष्पिका व उसी संवत् में लिखित दशवैकालिक वृत्ति की प्रशस्ति में पाया जाता है । जिनप्रभसूरि ने अपनी तीर्थमाला में माहजखत्तिय कुण्डहगामिहि, राजगृहि पावापुर ठामहि लिखा है । कवि हंससोम ने १५६५ में, मुनि पुण्यसागर जी नेसन् १६०९ में, मुनि शील विजयजी ने १७१२ में, एवं मुनि सौभाग्य विजयजी ने सन् १७५० में अपनी तीर्थमाला में मगध के इन तीर्थों की यात्रा के उल्लेख किये है। (भगवान महावीर का जन्म स्थान क्षत्रियकुण्ड-भंवरलाल नाहटा) जैन साहित्य में उल्लेख है कि श्रेणिक राजा आने वाले उपसर्पिणी काल के प्रथम तीर्थंकर होगे । ___बौद्ध ग्रन्थ महावग्न में लिखा है कि गौतम बुद्ध जब राजगृह में आये थे तब वह सुपार्श्व की बस्ती में ठहरे थे । मज्झिम निकाय में भी वर्णन है कि बुद्ध ने कहा था कि एक बार जब वह राजगृह में थे उन्होंने निर्ग्रन्थों को ऋषिगिरि पर्वत पर साधना करते हुए देखा था । मगध में नाग क्षत्रियों की बस्ती थी और गिरि व्रज के बीच में मणिनाग नामक स्थान था जिसे मणियार मठ के नाम से आज भी जाना जाता है। विद्वानों का मानना है कि बिम्बसार ने अपनी राजधानी गिरिव्रज से हटाकर समीप ही राजगृह को राजधानी बनाया और मगध की सीमा का विस्तार किया जिसमें बंग, कलिंग इत्यादि भी शामिल थे। उसकी एक रानी चेलना लिच्छवी जनपद के प्रमुख चेटक की बहन थी और भगवान महावीर की अनुयायी । राजगृह को २०वें तीर्थंकर श्री मुनिसुव्रत स्वामीजी की जन्म नगरी होने का गौरव प्राप्त है। पाच पर्वतों में प्रथम ऋषिगिरि चतुष्कोण है और पूर्व दिशा में दूसरा वैभारगिरि जो त्रिकोणाकार है और दक्षिण दिशा में स्थित है। तीसरा विपुलाचल दक्षिण और पश्चिम दिशा के मध्य में स्थित त्रिकोण है, चौथा बलाहक पर्वत है । पाँचवें पर्वत का नाम पाण्डुक है यह गोलाकार पूर्व दिशा में स्थित है । राजगृह का वर्णन धवलाटीका, जयधवलाटीका, Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनत्व जागरण....... तिलोयपण्यति, रत्नकरण्ड श्रावकाचार, पद्मपुराण, महापुराण, जम्बू स्वामी चरित्र, गौतम स्वामी चरित्र, भद्रबाहुचरित्र, श्रेणिक चरित्र, उत्तर पुराण, हरिवंश पुराण, आराधना कथाकोष, पुण्यास्रवकथाकोषं मुनिसुव्रतकाव्य, धर्मामृत, अणुत्तरोबाई, आचारांग, अंतगडदशांग, भगवती सूत्र, सूत्रकृतांग, उत्तराध्ययन, ज्ञाताधर्म कथांग, और विविध तीर्थकल्प आदि ग्रन्थों में मिलता है । १२६ I श्रेणिक चरित्र में इस नगरका वर्णन करते हुए लिखा है- "यहाँ न अज्ञानी मनुष्य हैं और न शील रहित स्त्रियाँ । निर्धन और दुःखी व्यक्ति ढूँढ़न पर भी नही मिलेगी । यहाँ के पुरुष कुबेर के समान वैभववाले और स्त्रियाँ देवांगनाओं के समान दिव्य है । यहाँ कल्पवृक्ष के समान वैभववाले वृक्ष हैं । स्वर्गों के समान स्वर्णगृह शोभित है । इस नगर में धान्य भी श्रेष्ठ जाति के उत्पन्न होते हैं । यहाँ के नरनारी व्रतशीलों से युक्त हैं । यहाँ कितने ही जीव भव्य उत्तम, मध्यम और जघन्य पात्रों को दान देकर भोगभूमि के पुण्य का अर्जन करते हैं । यहाँ के मनुष्य ज्ञानी और विवेकी हैं। पूजा और दान में निरन्तर तत्पर है । कला, कौशल, शिल्प में यहाँ के व्यक्ति अतुलनीय है । जिन-मंदिर और राजप्रासाद में सर्वत्र जय-जयकी ध्वनि कर्ण - गोचर होती है । " I भगवान महावीर के समय श्रेणिक बिम्बिसार मगध के सम्राट थे । बौद्ध ग्रन्थों के अनुसार राजा श्रेणिक के समय उसका साम्राज्य अनेक तत्त्व चिंतकों का केन्द्र था । I मगध जनपद की आर्थिक समृद्धि का वर्णन पद्म चरित्र, कुवलयमाला, हरिवंश चरित्र, अभयकुमार चरित्र, श्रेणिक चरित्र, चउप्पन महापुरिस चरिअ, वसुदेव हिंडी और त्रिषष्टिशलाकापुरुष आदि ग्रन्थों में मिलता है । ये जनपद व्यापार का केन्द्र स्थल था । यहाँ कस्तूरी, सुगन्धित द्रव्य, गज, अश्व, वस्त्र आदि का व्यापार होता था । कथा कोष में शालिभद्र की कथा में उस समय की भोजन विधि का वर्णन विस्तृत रूप से मिलता है जब राजा श्रेणिक अपनी रानी चेलना के साथ सुभद्रा सेठानी के यहाँ जाते हैं । इसी प्रकार जम्बुस्वामी चरित्र में भी पारंपरिक रीति-रिवाजों का उल्लेख दिया हुआ है । Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनत्व जागरण..... १२७ जैनों और बौद्धों के कारण ही मगध की राजधानी राजगृह तीर्थस्थान बन गयी थी । तीर्थंकर महावीर ने विपुलाचल पर्वत पर निवास किया था और यहीं श्रेणिक बिम्बिसार को उपदेश दिया था । स्वर्णांचल (सोनगिरि), रत्नाचल, वैभारगिरि और उदयगिरि में भी भी जैन धर्म की प्राचीन कीर्तियों के अनेक निदर्शन भरे पड़े हैं। महावीर ने राजगृह में अनेक वर्षावास किये थे। राजगृह से कुछ हटकर नालन्दा नामक स्थान है। यहाँ भी श्रमण महावीर ने दो वर्षावास किये थे । बुद्ध के भी यहाँ अनेक संस्मरण हैं । बाद में आगे चलकर इसी नालन्दा में जगत् प्रसिद्ध विश्वविद्यालय स्थापित हुआ। इस विश्वविद्यालय के खण्डहर मीलों तक पाये जाते हैं.। नालन्दा के पास ही पावापुरी है, जहाँ महावीर का निर्वाण हुआ था यह जैन परम्परा के लिए श्रद्धा का विशेष केन्द्र है। का तीर्थस्थान है। यहाँ एक विशाल और सुन्दर तालाब के बीच में उक सुन्दर मन्दिर है, जिसमें भगवान महावीर के चरण प्रतिष्ठित हैं । अन्तिम कवली जम्बूस्वामी का भी जन्म राजगृह में हुआ था। ___फाहयान ने राजगृह का वर्णन करते हुए लिखा है कि नगर से दक्षिण दिशा में चार मील चलने पर वह उपत्यका मिलती है जो पाँचों पर्वतों के बीच में स्थित है। यहाँ पर प्राचीनकाल में सम्राट बिम्बसार का महल विद्यमान था । आज यह नगरी नष्ट-भ्रष्ट है । - मनियार मठ के पास एक पुराने कुएं में से कनिंगम को तीन मूर्तियाँ प्राप्त हुई थी। जिनमें एक भगवान पार्श्वनाथ की थी। काशीप्रसाद जायसवाल ने इस मूर्ति का लेख पढ़कर बताया कि यह लेख पहली शताब्दी का है और उसमें सम्राट श्रेणिक और विपुलाचल का उल्लेख है । इतिहासकारों के अनुसार वैभारगिरि पर्वत पर सातवीं शताब्दी तक जैन स्तूप विद्यमान था और गुप्तकाल की अनेकों मूर्तियाँ थी । लेकिन आज जो जैन मंदिर वहाँ है उनके ऊपर का हिस्सा तो आधुनिक है किन्तु उनकी वेदी प्राचीन है। सोनभद्र गुफा का निर्माण मौर्य काल के राजाओं ने किया था । यहाँ प्रथम या द्वितीय शताब्दी का एक लेख है जिसमें उल्लेख हैं कि यहाँ पर वैरदेव ने गुफाएं निर्मित कराई थी जैन मुनियों के रहने के लिये और उनमें अर्हत की मूर्तियाँ स्थापित की थी। विपुलाचल, रत्नगिरि, उदयगिरि और Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२८ जैनत्व जागरण..... स्वर्णगिरि पर जमे प्रतिमाएं है उनमें कुछ गुप्तकालीन और कुछ उससे पूर्व की है। विविध तीर्थ कल्प में राजगृह में छत्तीस हजार घरों के होने का उल्लेख है। राजगृही के इतिहास में गुणशील चैत्य का वर्णन आता है । यहाँ पर भगवान महावीर के कई बार आने का उल्लेख जैन साहित्य में मिलता है। गुणशील चैत्य का अपभ्रंश आज का गुणायाजी माना जाता है । इसे गौतम स्वामी का केवलज्ञान स्थान मानते हैं । यहाँ भी सरोवर के मध्य बना मंदिर पावापुरी के जलमंदिर का स्मरण कराता है। पावापुरी से यह स्थान २३ किलोमीटर दूर पर स्थित है। . . गया से उणतीस किलोमीटर दूर हजारी बाग जिले में कुलुआ पहाड़ है यहाँ सैकड़ों जैन मंदिरों के भग्नावेश पड़े हुए है। यह तीर्थंकर शीतलनाथ का जन्म स्थान है । डॉ. स्टेन के अनुसार इस पर्वत के प्राचीन अवशेष जैन है । उन्होंने लिखा है कि गुफा के भीतर पार्श्वनाथ की भव्य मूर्ति सुव्यवस्थित ढंग से निर्मित है और उसके सिर पर सर्प फण है । इससे सटे हुए पश्चिम दिशा में एक छोटी गुफा में जिन मूर्ति स्थापित है जिसके नीचे सिंह प्रतीक के रूप में है। अजातशत्रु कोणिक के समय मगध की राजधानी राजगृही से चम्पा में स्थित हो गई। यह बारहवें तीर्थंकर वासुपूज्य स्वामी की पंचकल्याणक भूमि है। जैन ग्रन्थों में यहाँ स्थित पूर्णभद्र चैत्य का वर्णन मिलता है । From the Uvasagadasao and the Antagadadasao we learn that there was a temple called Punnabhadda (which we have dealt with in the following lines) at Campa in the time of Sudharman, one of the eleven disciples of Mahavira, who succeeded him as the head of the Jaina sect after his death. It is said that the town was visited by Sudharman, at the time of Konika Ajatasatru who went there bare-footed to see the Ganadhara outside the city which was again visited by Sudharman's successors. उत्तराध्ययन में वर्णन है कि चम्पा नगरी में पालित नाम का वैश्य Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनत्व जागरण..... १२९ श्रावक रहता था जो भगवान महावीर का अनुयायी था । वह जहजा से व्यापार करता हुआ पिहुड नगर में गया । वहाँ विवाह के बाद अपनी स्त्री को लेकर वापस आते समय उसके पुत्र हुआ जिसका नाम समुद्र में को लेकर वापस आते समय उसके पुत्र हुआ जिसका नाम समुद्र जन्म होने के कारण उसका नाम समुद्रपाल रखा । युवावस्था प्राप्त होने पर एक बार भवन की खिड़की पर बैठे समुद्रपाल ने एक अपराधी को मृत्यु चिन्हों से युक्त वध स्थान पर ले जाते हुए देखा । उसे देखकर उन्हें बोध हुआ कि अशुभ कर्मों का अन्तिम फल पापरूप यह दिखाई दे रहा है और वह माता पिता से पूछकर प्रव्रज्या लेकर मुनि बन गये और अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह इन पांच महाव्रतों को स्वीकार कर इनका पालन करने लगे । अनेक परिषहों को जीतकर उन्होंने केवलज्ञान प्राप्त किया और मोक्ष को प्राप्त हुए । बारहवें तीर्थंकर वासुपूज्य स्वामी की पंच कल्याणक भूमि चम्पापुरी में सुभद्रा सती ने तीन पाषाणमय कपाट को अपने शील द्वारा कच्चे सूततन्तु-वेष्टित चलनी से कुए का जल निकालकर उससे सिंचित कर उद्घाटित किया था । यहाँ के दधिवाहन राजा अपनी रानी पद्मावती के साथ उसका दोहद पूर्ण करने के लिए हाथी पर आरूढ़ होकर अरण्य-विहार करने गये । हाथी के न रुकने पर अरण्य में राजा वृक्ष की शाखा पकड़कर उतर गया। हाथी आगे चला गया और राजा अपने नगर में आ गया। रानी पद्मावती असमर्थता से उतर न सकी और उस पर चढ़ी हुई अरण्य में रह गई । हथिनी से उतर कर अरण्य में ही पुत्र-प्रसव किया, वह पुत्र करकण्डु नामक राजा बन प्रत्येक बुद्ध हुआ । उधर दधिवाहन राजा की पुत्री वसुमती (चंदनबाला) ने जन्म लिया, जिसने भगवान महावीर स्वामी को कौशाम्बी में सूप के कोने में रहे हुए उड़द के बाकुले देकर पाँच दिन कम छ: मासोपवास का पारणा द्रव्य क्षेत्र काल भाव अभिग्रह पूर्ण होने पर कराया । चम्पा एवं पृष्ठचम्पा में प्रभु महावीर ने तीन वर्षाकाल विताए, उनके Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३० जैनत्व जागरण....... समवशरण हुए । यहीं सुदर्शन सेठ पर उपसर्ग हुआ । यहीं विचरते हुए चौदह पूर्वधर श्री शय्यंभव सूरि ने अपने मनक नामक पुत्र को दीक्षित करके उसके अध्ययनार्थ दशवैकालिक सूत्र की रचना की । 1 यहीं के पूर्णभद्र चैत्य में भगवान महावीर ने कहा था कि जो अष्टापद पर आरोहण करता है वह उसी भव में मोक्षगामी होगा । भगवान महावीर ने भगवती सूत्र के पंचम शतक का दशम उपदेश यहाँ पर दिया था । औपपातिक सूत्र में चंपापुरी का बहुत ही विस्तार से वर्णन मिलता है । उसमें लिखा है I भगवान महावीर के समय में चम्पापुरी अंग देश की राजधानी थी । इसके स्वामी दधिवाहन को शतानीक को 'शाम्बीपति ने हराकर पदच्युत कर दिया था और बाद में कोणिक ने इसे मगध में मिला लिया और पितृत शोक से राजगृह से राजधानी हटाकर चम्पानगरी को विकसित कर राजधानी बना ली थी । औपपातिक सूत्र ( उववाई उपांग) में चम्पानगर का बड़ा ही विशद वर्णन है । यह आचारांग का उपांग है अतः यह सूत्र अति प्राचीन और प्रामाणिक है । तत्कालीन भारतीय संस्कृति के इतिहास में इन वर्णनों का बड़ा भारी महत्व है । नगर के बाहर और भीतर बड़े - बड़े उद्यान, तालाब, बगीचे, कुए, बावड़ी आदि थे । शालीनता सभ्यता एवं सौन्दर्य युक्त सुरक्षित नगर ऋद्धि, समृद्धि से परिपूर्ण था । यहाँ बहुत से अर्हतचैत्य जिनालय थे । इसका उद्यान बडा ही विशाल और मनोहर था, जहाँ भगवान महावीर का समवसरण होता था । भगवान महावीर के चातुर्मास वर्णन में चम्पा और पृष्टचम्पा में चातुर्मास करने का उल्लेख मिलता " चंपंचपिट्टिचंपंच नीसाए तओ अन्तरावासे वासा वासं उवागए" (कल्पसूत्र) यहाँ के महाराजा कोणिक और धारिणी रानी श्रमण भगवान महावीर के परम भक्त थे जिनका भी उववाई सूत्र में वर्णन है । श्री जिनप्रभसूरिजी ने कलिकुण्ड कुर्कटेश्वर कल्प में लिखा है कि अंग जनपद में करकण्डु राजा के राज्य में चम्पानगरी से निकटवर्ती कादम्बरी Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनत्व जागरण..... अटवी थी जिसमें कलि नामक पर्वत था और उसके नीचे कुण्ड नामक सरोवर था इस वन में भगवान पार्श्वनाथ छद्मस्थ अवस्था में विचरे थे और कलिकुण्ड तीर्थ की स्थापना हुई थी । चतरशीति महातीर्थ नाम संग्रह कल्प में श्री जिनप्रभसरि जी ने 'चम्पायां विश्वतिलकः श्री वासुपूज्य' लिखकर भगवान वासुपूज्य को विश्वतिलक नाम से संबोधित किया है एवं पार्श्वनाथ स्वामी के तीर्थों में 'चम्पायामशोक' लिखा है । __यतिवृषभ ने चंपा का नामोल्लेख 'तिलोयपण्णति' में किया है। छठी शताब्दी में पूज्यपाद ने 'निर्वाणभक्ति' में 'चम्पापुरे च वसुपूज्य सुतः सुधीमान् सिद्धि परामुपगतो गतराग बन्ध' लिखकर चम्पापुरी में प्रभुका निर्वाण बतलाया है । रविषेण के पद्मपुराण में 'श्रावस्त्यां संभव शुभं चम्पायां वासुपूज्यकं' लिखकर वासुपूज्य स्वामी का जन्म कल्याणक माना है। जिनसेन ने हरिवंशपुराण (सर्ग १९) में चम्पापुरी का वर्णन किया है___ इसी हरिवंश पुराण में आगे चलकर लिखा है कि वसुदेव ने चम्पापुर में वासुपूज्य जिनालय को वन्दन किया यहाँ बड़ा मानस्तंभ था, अष्टान्हिक उत्सव में चम्पा निवासी लोग वासुपूज्य प्रतिमा की पूजा करते थे । यतः चम्पायां रममाणस्य सहगन्धर्वसेनया ।। वसुदेवस्य संप्राप्तः फाल्गुनाष्टदिनोत्सव ॥१ जन्म निष्क्रमण ज्ञान निर्वाण प्राप्तितोऽर्हतः वासुपूज्यस्य पूज्यां तां चम्पा प्रापुः स्फुरद् गृहाम् ॥३ चम्पावासी जनः सर्वो निश्चक्राम सराजकः प्रतिमां वासुपूज्यस्य पूज्यां पूजयितुं बहिः ॥५ अजातशत्रु कोणिकं पुत्र उदायी के समय मगध का केन्द्र स्थल चम्पा से पाटलीपुत्र में स्थित हो गया । कलिकाल सर्वज्ञ हेमचन्द्राचार्य ने परिशिष्ट पर्व ६.३४ में लिखा है कि उदायी ने पाटलीपुत्र के केन्द्र में एक जिन मंदिर का निर्माण किया । उदायी के बाद हर्यकवंश का अन्त हो गया और शिशुनाग Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनत्व जागरण..... वंश का प्रारम्भ हुआ। उसके बाद नंदवंश का राज्य स्थापित हुआ । नंदवंश के सम्राट नंदीवर्धन ने कलिंग देश को जीतकर वहाँ से जिन प्रतिमा को लाकर पाटलीपुत्र में प्रतिष्ठित की । इस वंश का अन्त मौर्य सम्राट चंद्रगुप्त ने किया। लगभग इसी समय भगवान महावीर के छठे पटधर भद्रबाहु स्वामी हुए । ऐसा माना जाता है कि सम्राट चन्द्रगुप्त मौर्य ने अपने अंतिम समय इन्हीं भद्रबाहु स्वामी से दीक्षा लेकर दक्षिण में चले गये । भद्रबाहु स्वामी के बाद उनके पट्टधर स्थूलिभद्र स्वामी हुए जिनके समय में जैन सूत्रों की प्रथम वाचना पाटलीपुत्र में हुई। पटना के लोहानीपुर से मौर्य कालीन निर्ग्रन्थ मूर्ति मिली है । यह भी कहा जाता है कि पाटलीपुत्र के गुलजार बाग में . स्थलिभद्र स्वामी का मंदिर था । It is quite in keeping with the tradition that there should be a temple of Sthulibhadxa in the city which is located in Gulzarbagh ward. (Alltekar and Mishra Report Kum. Exca. 1951-55 p.10) ऐसी मान्यता है कि स्थूलिभद्र स्वामी का निर्वाण उसी स्थान पर हुआ था । दूसरा महत्त्वपूर्ण स्थान पटना में आगमकुआं है । यूवानचंग ने इस कुएँ को अशोक का नरक कहा है जो गर्मजल का कडाहा (हंडा) हुआ करता था । एक बार पाटलिपुत्र के राजा के आदेशानुसार एक जैन श्रेष्ठी सुदर्शन भट्ठी में कूद गये किन्तु शासन देवी की सहायता से वे सुरक्षित बच गये । जब राजा को उनकी आध्यात्मिक शक्ति के बारे में ज्ञान हुआ तो उसने उन्हें मुक्त कर दिया। सुदर्शन का निर्वाण मंदिर आगम कुएँ के बगल में है। __३२६ ई. पूर्व भारत में सिकन्दर के आक्रमण की चर्चा यूनानी इतिहासकारों ने विस्तृत रूप में की है। जिसके परिणाम बहुत ही दूरगामी हुए । भारतीय दृष्टिकोण से इसका महत्त्व इस बात में है कि उसने भारत और पश्चिमी देशों के बीच आवागमन का मार्ग खोल दिया, अन्यथा भारतीय इतिहास में उसके आक्रमण का कोई विशेष स्थान नहीं है । उसे महान् सैनिक सफलता भी नहीं कह सकते । जो कुछ भी सफलता उसके हाथ लगी वह छोटी-छोटी जातियों और राज्यों पर धीरे-धीरे प्राप्त मात्र थी। Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनत्व जागरण..... भारतीय सैनिक शक्ति का दुर्ग समझे जाने वाले मगध साम्राज्य के निकट बढ़ने का साहस वह न कर सका । उसे झेलम और चेनाब के नीचे के छोटे से प्रदेश के शासक पोरस के विरुद्ध जिस प्रकार लोहा लेना पड़ा और उसके लिए जो प्रयत्न करने पड़े, उसको देखते हुए इस बात की सम्भावना नहीं जान पड़ती कि शक्तिशाली नन्द साम्राज्य को पराजित करना उसके लिए सरल होता। इन सभी बातों को देखते हुए यवन सभ्यता की चकाचौंध से चकित न होनेवाला कोई भी आधुनिक इतिहासकार इस बात के लिए दोषी नहीं ठहराया जा सकता यदि वह यह समझे कि यवन लेखकों में से अधिकांश ने जो सिकन्दर की वापसी का कारण उसके सैनिकों के आगे बढ़ने की अनिच्छा को ही माना है वह एकमात्र कारण न था और न वह उन प्राचीन यवन लेखकों के इस कथन की ही मनगढन्त कहकर उपेक्षा कर सकता है कि सिकन्दर के लौटने का कारण नन्दों की अपरिमित शक्ति का आतंक था । (हीरालाल दूगड़) इस समय तक पूर्वी राज्यों की शक्ति और गौरव का प्रभाव पूरे भारत में स्थापित हो चुका था। चंद्रगुप्त : यवनों की पराधीनता से देश को मुक्त करने का श्रेय एक स्वर से हम चंद्रगुप्त मौर्य को दे सकते हैं । इस वीर का आरम्भिक जीवन प्राय: पूर्णतः अज्ञात है, परन्तु उसने अपने परवर्ती जीवन में जो महान् सफलताएँ प्राप्त की, उसके कारण उसकी स्मृति असंख्य दंतकथाओं में सुरक्षित है। बाद के ब्राह्मण-ग्रन्थों में जो संकलित वेदों से प्रभावित ब्राह्मणों के मस्तिष्क की उपज लगते हैं, उसमें उसे मगध के नन्द शासक की एक नीचकुलोत्पन्न मुरा नामक स्त्री से उत्पन्न कहा गया है और यह माना गया है कि उस मुरा के नाम पर ही वंश का नाम मौर्य पड़ा । तिथि की दृष्टि से इससे पूर्व के बौद्ध इतिवृत्तों में उसे क्षत्रिय माना गया है। महापरिनिब्वान सुत्त में उल्लेख है कि चन्द्रगुप्त पिप्पलीवन के मोरिय नामक क्षत्रिय-कुल में जन्मा था और मोरिय गणतंत्र का रहने वाला था। यह गणतंत्र गोरखपुर जिले में पड़ता है । महावीर के गणधरों में एक मौर्य पुत्र भी थे । मोरिय जाति में विद्या और वीरता दोनों ही विद्यमान थे । Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३४ जैनत्व जागरण..... चन्द्रगुप्त का कर्म क्षेत्र व्रात्य भूमि मगध था जहाँ उसने एक बड़ा साम्राज्य स्थापित किया । चंद्रगुप्त की सैनिक शक्ति भारतीय प्राच्चभूमि के दक्षिण छोर तक फैल चुकी थी। इस प्रकार प्राच्यभूमि में प्रथम ऐतिहासिक साम्राज्य की स्थापना चंद्रगुप्त मौर्य द्वारा हुई। Chandragupta Maurya was a powerful and glorious monarch of the Prachya people. This Prachya kingdom did not extend only upto the Indus river but much beyond, upto the Kaukasos region in the north and Arachosia and parts of Gedrosia in the far west. He had a very large military force, and vast financial resources. Chandragupta's rise to greatness is indeed a romance of history. महान पराक्रमी चन्द्रगुप्त, जिसके जीवन का प्रारम्भ एक सैनिक के रुप में हुआ और जिसने एक बहुत बड़े साम्राज्य को धराशायी किया तथा जिसने स्वयं एक बहुत बड़े साम्राज्य का निर्माण किया; जिसका बाह्य जीवन बहुत ही व्यस्त और सख्त था; पर उसका अन्तर कुछ और था । जीवन के अन्तिम प्रहर में वह अन्तर्मुख हो गया । जिसने तलवार से भारत वर्ष की सीमा खींची थी, जो खून की नदी में तैरता था, जिसने जीवन में सभी सुख-ऐश्वर्य का भोग किया, कहा जाता है कि उसके राज्यकाल में मगध में घोर अकाल पड़ा- इसके बाद वह मैसूर की ओर चला गया, जहाँ उन्होंने सल्लेखना द्वारा शरीर का त्याग किया । चन्द्रगुप्त के विषय में Ancient India में लिखा है Chandragupta in his last days, renounced the world and followed the Jaina migration leb by Bhadrabahu to place in Mysore known as Shravana Belgola, where some local inscriptions still perpetuate memory of Chandragupta and Bhadrabahu living together as saints. The hill where he lived is still known as Chandragiri, and a temple erected by him as Chandraguptabasti. Chandragupta, in the true Jaina Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनत्व जागरण..... १३५ fashion, fasted unto death (Samlekhana Samthara) in this place. As he belonged to the Shramanic way, the chroniclers of the Brahmanic way gave him a degraded descent. He was called base-born, a Shudra,an outcaste and of low birth. He is said to have blood relationship with the Nandas who are said to have low and immoral origin. The Brahmana puranas and other literature speak despisingly of (the Nandas and) Chandragupta. Why ? The answer is that he was a Prachya hero. ब्राह्मणों द्वारा चन्द्रगुप्त को नीची जाति का बताने के पीछे जो कारण था वह उसका जैन होना, प्राच्य देश का सम्राट होना था । Chandragupta is called a Prachya because he was the ruler of the Prachya territory and the non-Aryan Asura Prachya people. Chandragupta, the Prachya, was a great Jaine hero following the Shramanic way of life. गांगणि में चन्द्रगुप्त द्वारा निर्मित मूर्ति का उल्लेख हमें मिलता है । राजस्थान में गांगण नाम का गाँव जोधपुर से अठारह किलोमीटर पर है वहाँ अत्यन्त प्राचीन पार्श्वनाथ का मंदिर है जो मौर्य कालीन है । ई. सन् १६६२ ई. में वहाँ तालाब के पास भूगर्भ में कई मूर्तियाँ मिली थी । उस समय कवि समयसुन्दर गणि यात्रार्थ गांगणि गये थे तथा उन्होंने उन मूर्तियों का दर्शन व निरीक्षण किया तथा उनका वर्णन एक स्तवन में लिखा है प्रतिमा श्वेत सोनातणी, मोटो अचरज ये होजी । चन्द्रगुप्त राजा भये, चाणक्य दिरायों राजोजी । तिण यह बिंब भरबियो, साध्या आत्म काजो जी ॥ इसके अलावा कौटिल्य के अर्थशास्त्र में लिखा है कि सम्राट ने देवस्थानों के लिये आज्ञा दी थी कि जो कोई देव मंदिर का अनादर करेगा वह दण्ड का भागी होगी । (आक्रोशाद्वेव चैत्याना मुत्तमं दंड मर्हति) चन्द्रगिरि पर्वत पर चन्द्रगुप्त के पुत्र बिन्दुसार द्वारा पिता की स्मृति Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३६ जैनत्व जागरण..... में बनाया गया मंदिर है ऐसा भारतीय सरकार के पुरातत्वविदों द्वारा उल्लेख किया गया है। अशोक : अशोक के शासनकाल की जिस पहली घटना की प्रामाणिक जानकारी हमें है वह राज्याभिषेक के नौ वर्ष बाद होनेवाली कलिंग विजय है । सुवर्णरेखा और गोदावरी नदियों के बीच भारत के पूर्वी तट की लम्बी पट्टी को प्रायः कलिंग कहा जाता है । यद्यपि उसकी अशोककालीन निश्चित सीमा नहीं बतायी जा सकती, तथापि निस्संदेह ही वह एक बहुत और शक्तिशाली राज्य था । अशोक के तेरहवें शिलालेख में एक भीषण युद्ध के पश्चात् कलिंग की विजय का विस्तृत वर्णन किया गया है । इस युद्ध में डेढ़ लाख आदमी पकड़े गये । एक लाख मारे गये थे । उस समय कलिंग का राजा क्षेमराज था जो वैशाली के गण प्रमुख चेटक का वंशज था और जैन धर्मी था । सम्भवतः अशोक ने स्वयं इस युद्ध का संचालन किया था तथा उसकी विभीषिका और उनके परिणामस्वरूप कष्ट और रक्तपात से उसका हृदय विचलित हो उठा । उसके कारण उसके हृदय में जो भावनाएं उठी उनका उसने अपने शिलालेख में उसने इस प्रकार वर्णन किया है । "इस प्रकार कलिंग जीतनेवाले देवानुप्रिय को बड़ा खेद हैं, क्योंकि किसी अविजित देश की विजय में वध, मरण और लोगों का बंदीकरण होता है । यह देवानुप्रिय को अत्यन्त दुःखद और खेदजनक समझता है कि वहां ब्राह्मण, श्रमण तथा दूसरे धर्म वाले और गृहस्थ रहते हैं । ऐसे देश में ऐसे लोगों की हत्या, हिंसा और उनका प्रियजनों से वियोग होता है, अथवा मित्रों, परिचितों, सहायकों और कुटुम्बियों को जो स्वयं तो सुरक्षित हैं और जिनका स्नेह अबाध है, कष्ट होता है। इस प्रकार उनका भी एक प्रकार से उपघात होता है ।" अशोक ने दूर के देशों में धर्म प्रचार के लिए धर्म प्रचारकों का दल भेजा था । उसके धर्म प्रचारकों ने भारत के विभिन्न भागों और लंका का ही भ्रमण नहीं किया, वरन् वे पश्चिमी एशिया, मिस्त्र और पूर्वी यूरोप भी गये । सिर्फ उसके समय मगध में अहिंसा का संदेश जिन विदेशी राज्यों Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनत्व जागरण...... १३७ में पहुँचा उनमें से इन पाँच का उल्लेख अशोक के लेखों में मिलता हैसीरिया और पश्चिमी एशिया का राजा अन्तियोक थियोस मिस्त्र का राजा तुरमय द्वितीय (फिलोडेल्फस), मकदुनिया का राजा अन्तिकिन, साइरीन का राजा मग और एपिरस का राजा सिकन्दर । धर्म के मूल तत्त्वों को बताकर जनता के चरित्र को उठाना उसका प्रधान लक्ष्य और चिन्ता थी । इसलिए उसने चट्टानों पर लेखों को अंकित कराया जो लगभग २३०० वर्ष बीत जाने पर भी उसके जीवन की पवित्रता और विचारों की उच्चता के अमर स्मारक हैं । धर्म के जिस स्वरूप पर उसने जोर दिया, वह किसी धार्मिक सिद्धान्त की अपेक्षा सदाचार के नियमों का एक संग्रह है । उसने न तो कभी तत्त्वविज्ञान की चर्चा की और न ईश्वर और आत्मा का उल्लेख किया । उसने केवल जनता से अपनी वासनाओं को नियन्त्रित करने, अपने आंतरिक विचारों में जीवन और आचरण को पवित्र बनाने, अन्य धर्मों के प्रति सहिष्णु होने, जानवरों को न सताने और न मारने, उनकी चिन्ता रखने, सबके प्रति उदार होने, माता, पिता, गुरु, सम्बन्धियों, मित्रों और साधुओं के प्रति उचित सम्मान प्रकट करने, नौकरों और दासों के प्रति उदारता तथा दया का भाव रखने और सर्वोपरि सत्य बोलने को कहा । ये ही श्रमण संस्कृति के आधारभूत तत्त्व है जो इसी प्राच्य भूमि से दुनिया के दूसरे देशों में फैले । सम्राट ने इन सत्यों का न केवल प्रचार किया यवन् स्वयं भी उन पर आचरण किया । उसने आखेट और माँस- भक्षण आदि त्याग दिया । उसने मनुष्य और पशुओं के लिए न केवल अपने साम्राज्य में वरन् पड़ोसी राज्यों में भी चिकित्सालय स्थापित किए । उसने ब्राह्मणों और अन्य धर्मावलंबियों को मुक्त - हस्त दान दिया । उसके लेखों से यह भी ज्ञात होता है कि उसने मनुष्यों और पशुओं के उपयोग के लिए सड़कों के किनारे पाठशालाएँ बनवाई, कुएं खुदवाये और पेड़ लगवाये । पशु वध रोकने के लिए उसने अनेक नियम जारी किये । अशोक की माता धर्मा के गुरु आजीवक सम्प्रदाय के थे । गया के पास बराबर की पहाड़ी में गुफाओं की श्रृंखला है जिन्हें अशोक और दशरथ Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३८ जैनत्व जागरण..... ने आजीवक संघ को दान की थी । Other Jain relice of Mauryan Bihar are a number of caves in the Barabarand Nagarjun Hills, dedicated by Ashoka and Dasaratha to the Ajivika sect. उत्तराध्ययन सूत्र के दसवें अध्ययन में भगवान महावीर स्वामी ने गौतम स्वामी को पल भर भी प्रमाद न करके धर्म का आचरण करने का उपदेश दिया है। धम्मं पि हुसद्दहंतया, दुल्लहया काएण फासया । इह कामगुणेहिं मुच्छिया, समयं गोयम मा पमायए ॥२० "धर्म पर श्रद्धा होने पर भी उनका काया से आचरण करना अत्यन्त दुर्लभ है, इसीलिए हे गौतम, क्षणभर भी प्रमाद मत करो ।" इसी की अभिव्यक्ति हमें अशोक के शिलालेख के इस उल्लेख से होती है जिसमें लिखा है कि- "बहुत दिनों से हर घड़ी काम करने और समाचार प्राप्त करने की प्रथा नहीं रही, अतः अब मैं यह व्यवस्था करता हु कि सब समय और सब जगह चाहे मैं भोजन करता रहूँ, चाहे अन्तःपुर में रहूँ, अथवा शयनागार में, अथवा गोपनागार में, या अपने यान में अथवा राजोद्यान में, लोक-कार्य की सूचना प्रतिवेदकों द्वारा मुझे दी जाए, मैं प्रजा का कार्य हर जगह करने को प्रस्तुत हूँ.... मैंने आदेश दे रखा है कि प्रत्येक समय और प्रत्येक स्थान में मुझे तुरन्त सूचना मिलनी चाहिए क्योंकि अपने कार्यों और प्रयत्नों से मुझे कभी पूर्ण सन्तोष नहीं होता, क्योंकि जनता के हित के लिए ही मुझे सतत प्रयत्न करना चाहिए और उसका मूल कार्यों के संचालन और प्रयत्न में है । जो कुछ मैं प्रयत्न करता हूँ उसका उद्देश्य यही है कि मैं प्राणीमात्र के प्रति अपने ऋण से उऋण हो सकूँ और मैं उन्हें यहाँ प्रसन्न रख सकू तथा परलोक में वे स्वर्ग प्राप्त कर सकें।" अशोक की अहिंसा मनुष्यों तक सीमित नहीं थी बल्कि उसकी परिधि में क्षुद्र, मूक पशु-पक्षी भी आ गये थे। कुछ पर्वो अष्टमी, चतुर्दशी आदि के दिनों में जानवरों को दागने बधिया करने पर भी प्रतिबन्ध था । जनता Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनत्व जागरण...... १९३९ की धार्मिक परम्पराओं को और भी सुदढ़ करने के लिये उसने तरह-तरह के दृश्यों के प्रदर्शन के आयोजन किये जैसे हाथी, अग्नि ज्वाला और दीपमालिका आदि के जूलुस निकाले । इन जुलूसों में देव प्रतिमाओं का प्रदर्शन होता था । यह विचारणीय है कि ये प्रतिमाएं किनकी थी क्योंकि बौद्धों की मूर्तियाँ सर्वप्रथम कुषाण काल में बनी थी । अतः निश्चित तौर पर ये जिन तीर्थंकरों की मूर्तियां होनी चाहिये । क्योंकि इस प्रकार की परम्परा आज भी जैन धर्म में प्रचलित है । T अशोक ने अपनी प्रजा पर किसी भी धर्म को थोपने की कोशिश नहीं की । सभी धर्मों को राजकीय आश्रय दिया । उसके द्वारा नियुक्त धर्म महामात्य राज्य के धन से ब्राह्मणों, आजीविकों, निग्रन्थों सभी का हित चिंतन करते थे । चट्टान लेख १२ में लिखा है 'सभी सम्प्रदायों के सारी की वृद्धि हो ।' स्तम्भ लेख छः में उसने लिखवाया है- " मैं सभी समाजों को ध्यान में रखता हूँ क्योंकि मैंने सभी सम्प्रदायों के अनुयायिों की विविध प्रकार से पूजा की किन्तु अपने आप स्वयं इन सबके पास जाना मैं मुख्य कार्य समझता हूँ ।" हम कह सकते हैं कि अशोक के लेखों में जिस धर्म के तत्व है वह कोई धर्म विशेष नहीं है वह एक आचरण संहिता है जिसमें सभी धर्मों का सार है । डॉ. राधाकुमुद मुखर्जी ने लिखा है कि अशोक ने आसवों के संबंध में बौद्धों के स्थान पर जैनों का मत माना है । डॉ. भंडारकर (अशोक, पृ. १२९-३०) के मतानुसार अशोक के अन्य लेखों पर भी जैन प्रभाव दिखाई पड़ता है। उसके लेखों में जीव, प्राण, भूत और जात शब्द आचारांग सूत्र के पाणा - भूया - जीवा - सत्ता के ही पर्याय है । इस प्रकार अशोक ने अपने उस वचन का पालन ही किया है जिसमें उसने यह कहा है कि उसने अपने धर्म में ब्राह्मण, बौद्ध और जैन - सभी धर्मों का सार ग्रहण किया है। जैन और बौद्ध ग्रन्थों के अनुसार अशोक के बाद उसका पौत्र सम्प्रति राजगद्दी पर आसीन हुआ । विविध तीर्थकल्प में लिखा है कि "मौर्य वंशी Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनत्व जागरण...... चन्द्रगुप्त के वंश में बिन्दुसार, अशोक श्री, कुणाल और उसका पुत्र त्रिखंड भर्ताधिप परमार्हत्, अनार्य देशों में भी श्रमण विहार प्रवर्तन करने वाला महाराज सम्प्रति हुआ ।" " तद्वंशे तु बिन्दुसारोऽशोकश्रीकुणालसूनुस्त्रिखण्ड भरताधिपः परमार्हतो अनार्यदेशेष्वपि प्रवर्तित श्रमणविहारः सम्प्रतिमहाराजश्चाभवत् ।" - विविधतीर्थकल्पे पाटलीपुत्रनगरकल्पः पृ. ६९ । सम्राट सम्प्रति ने आचार्य सुहस्ति सूरि जी से जैन धर्म स्वीकार किया और जैन धर्म का देश और विदेश में प्रचार किया । कई इतिहासविदों का यह मानना है कि जिन शिलालेखों पर 'देवानाम् प्रियदर्शिन' लिखा है वे सब सम्प्रति के शिलालेख है और जिन पर सिर्फ देवानाम् प्रिय या देवानाम् प्रिय अशोकस्स लिखा है वे अशोक के है क्योंकि इन शिलालेखों में जैन तत्त्व दर्शन तथा जैन पारिभाषित शब्दों का प्रयोग इतना अधिक है कि इन्हें बौद्ध नहीं माना जा सकता है । सम्प्रति के शिलालेखों में स्थावर जीवों का वर्णन, समाचरण और संयम, अष्टमी, चतुर्दशी और पर्युषण पर्व की पुण्य तिथियों में पक्षियों के वध शिकार का निषेध, संयम, भावशुद्धि, आश्रव का उल्लेख तथा स्वधर्मी (साधर्मिक) वात्सल्य का प्रयोग जो आज भी जैन परम्परा में दिखाई देता है, स्तम्भ के ऊपर सिंह की मूर्तियां एवं चक्र ये सब इस बात की पुष्टि करते हैं कि जिन्हें हम अशोक के शिलालेख मानते हैं उनमें से अधिकांश सम्प्रति के है | An epitome of Jainism में सम्प्रति के लिये लिखा है कि Samprati was a great Jain monarch and a staunch supporter of the faith. He erected thousands of temples throughout the length and breadth of his vast empire and consecreted large number of images. He is stated further to have sent Jain missionaries and ascetics abroad to preach Jainism in the distant countries and spread the faith amongst the people there. १४० -An Epitome of Jainism Appendix. A. p.v. सम्प्रति के बनाये हुए मंदिरों के अवशेष गिरनार में तथा कुम्भलगढ़ Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनत्व जागरण..... १४१ के किले में आज भी दृष्टिगोचर है। 'कुम्भलगढ़ अजेयदुर्ग' पुस्तक में लेखक डॉ. गौरीशंकर अशावा ने लिखा है कि इस दुर्ग को सबसे प्रथम सम्प्रति ने निर्मित कराया था। आज भी वहाँ अनेकों जैन मंदिर है। यहाँ मामादेव मंदिर की खुदाई के दौरान २६८ छोटी-बड़ी सफेद व काले पत्थर की जैन मूर्तियाँ प्राप्त हुई है। कहा जाता है कि महाराणा कुम्भा के समय में यहाँ ७०० जैन मंदिर थे तथा संध्या की पूजा के समय ७०० घंटियां बजते हुए मनुष्य मात्र को अपने जीवन के परम लक्ष्य का ध्यान दिलाती थी। कर्नल टॉड ने लिखा है कि कमलमेर का शेष शिखर समुद्रतल से ३३५३ फीट ऊँचा है । यहाँ ऐसे कितने ही दृश्य विद्यमान है, जिनका समय अंकित करने में लगभग एक मास का समय लगने की सम्भावना है। किन्तु हमने केवल उक्त दुर्ग और एक बहुत पुराने जैन मन्दिर का चित्रांक समाप्त करने का समय पाया था । इस मंदिर की गठन प्रणाली बहुत प्राचीन काल के समान है । कर्नल टॉड ने यह मंदिर राजा सम्प्रति का बनाया हुआ लिखा है। विविध तीर्थ कल्प के अनुसार तत्वार्थसूत्रकी रचना आचार्य उमास्वाति ने पाटलीपुत्र में की थी। उस समय पाटलीपुत्र में मुरुण्ड राजाओं का राज्य था । बृहत् कल्पवृत्ति से पता चलता है कि पाटलीपुत्र के मुरुण्ड राजा जैन धर्मी थे। पादलिप्त प्रबन्ध और प्रभावक चरित्र से स्पष्ट होता है कि पादलिप्त सूरिजी ने पाटलीपुत्र के मुरुण्ड राजा को मस्तिष्क पीड़ा से मुक्त किया था। The continuity of Jainism at Pataliputra in the 1st-2nd centur A. D. is proved by the Tattvathasutra of Umasvati, which is held in esteem by both the Svetambara and Digambara Jains and was composed in the city towards the begining of the Murudas of Patna. The Brhatkalpavrti refers to a Murundas king of Pataliputra, who was a pious Jain and whose widowed sister had also embraced the same faith. The Padalipta-prabandha of the Prabhavakacarita relates the story how Padalipta cured king Murunda of Pataliputra of his terrible headache. Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४२ जैनत्व जागरण..... ___-Jainism and Jain relics in Bihar, S.P. Singh. मुरुण्ड राजाओं का वर्णन समुद्रगुप्त के इलाहाबाद स्तम्भ लेख में मिलता है जिसमें मुरुण्ड राजाओं के लिये देव पुत्र लिखा गया है । टोलमी ने मुरुण्डों को Moroundai कहा हैं । इनका राज्य गंगरादी की पश्चिमी सीमा पर बताया है । ऐसा प्रतीत होता है कि इनके अधीन उत्तर बिहार से लेकर पूरा गंगरादी क्षेत्र था । लगभग दूसरी शताब्दी में आचार्य पादलिप्त सूरिजी आकाशगामिनी विद्या द्वारा सम्मेत शिखर की तीर्थ यात्रा करने आते थे। आचार्य श्री बप्प भट्ट सरि जी ने भी यहाँ की यात्रा की थी। तेरहवीं सदी के आचार्य देवेन्द्र सूरिजी द्वारा रचित बन्दास्मृति में यहाँ के जिनालयों और प्रतिमाओं का उल्लेख मिलता है । कुम्भारिया तीर्थ से प्राप्त एक शिलालेख में शरण देव के पुत्र वीरचरण द्वारा आचार्य परमानन्दसूरिजी के हाथों के द्वारा सम्भवत् १३४५ में सम्मेत शिखर पर प्रतिष्ठा करवाने का उल्लेख मिलता है। सन् १६४९ में अकबर बादशाह ने जगत् गुरु हीर विजयसूरिजी को सम्मेत शिखर क्षेत्र भेंट कर विज्ञप्ति दी थी । सन् १८०९ ई. में मुर्शिदाबाद के जगत सेठ महताबराय को दिल्ली के बादशाह अहमदबाद ने उनके कार्यों से प्रसन्न होकर उन्हें मधुबन कोठी तथा पार्श्वनाथ पहाड़ का मालिकाना दिया था । 'भगवान पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास' में उल्लेख है कि विक्रम संवत् २५० के लगभग आचार्य कक्कसूरि जी चतुर्थ के सानिध्य में संघपति श्रेष्ठीवर्य महादेव ने सम्मेत शिखर के लिये संघ निकाला । सम्मेत शिखर पहुँचकर सूरिजी ने पूर्वी भारत में विहार करने का निश्चय किया और पाँच सौ साधुओं को अपने पास रखकर बाकी साधुओं को संघ के साथ वापस भेज दिया । सूरिजी ने तीन सौ साधुओं में से पचास-पचास साधुओं की छः वर्ग बनाये और पूर्व धरा के प्रत्येक नगर में विहार करने का आदेश दिया और दो सौ साधुओं को अपने पास रखा । इन लोगों ने राजगृह, चम्पा, वैशाली, बंगदेश, कलिंग तक विहार किया तथा जैन धर्म का प्रचार किया । अपना अन्तिम समय निकट जानकर वे सम्मेत शिखर पर सत्ताईस दिन के अनशन पूर्वक समाधि के साथ प्रयाण कर गये । Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनत्व जागरण..... १४३ आचार्य कक्कसूरि जी के शिष्य आचार्य देवगुप्त सूरि जी चतुर्थ ने भी पूर्व भारत की ओर विहार किया । अंग, बंग, कलिंग की भूमि में विहार करते हुए सम्मेत शिखर पर जाकर बीस तीर्थंकरों की तथा अपने गुरुवर्य आचार्य कक्कसूरि की निर्वाण भूमि की यात्रा की थी । इनके समय में मथुरा के श्रेष्ठी गौत्रीय शाहशाखला ने श्री सम्मेत शिखर जी का संघ निकाला था। जैन परम्परा के इतिहास के पृष्ठ ५०२-३ तथा पंन्यास श्री कल्याण विजय द्वारा सम्पादित तपागच्छ पट्टावली के प्रथम भाग के पृष्ठ १०४ में प्राचीन ग्रंथों के आधार पर उन्होंने - लिखा है कि नौवीं शताब्दी में श्री प्रद्युम्न सूरि ने सम्मेत शिखर की कई बार यात्रा की थी उन्होंने मगध देश में विचरण किया था और नये मंदिर बनवाने और पुराने मंदिरों का जीर्णोद्धार कराया था । अतः इससे स्पष्ट होता है कि नौवी शताब्दी के पूर्व भी यहाँ पर जैन जातियाँ थी। बड़गाँव, नालन्दा और बिहार शरीफ में जैनों की एक महत्तियाण जाति यहाँ प्राचीन काल से रहती थी । जिसे मणिधारी श्री जिनचंद्र सूरि जी ने प्रतिबोधित किया था। इस जाति में कई गोत्र थे और इन लोगों ने ही पूर्व के जैन मंदिरों और तीर्थों की देख-रेख की थी । विक्रम संवत् १४१२ की राजगृह-विपुलाचल प्रशस्ति तथा संवत् १६९८ की पावापुर गाँव की मंदिर की प्रशस्ति में इस जाति को भरत चक्रवर्ती के मंत्री श्रीदल के संतानीय बताया गया है । नालंदा में पन्द्रह सौ वर्ष प्राचीन और राजगृह में दो हजार वर्ष प्राचीन प्रतिमाएं मिली है। पावापुरी में पहले प्राचीन ईंटों का बनाया हुआ मंदिर था जो दो से अढ़ाई हजार वर्ष पूर्व का था । इसकी ईंट को ले जाकर परीक्षा करके यह प्रामाणित किया गया है। पावापुरी के निकट अनेक छोटे-छोटे गाँवों में जैन प्रतिमाएं यत्र-तत्र बिखरी हुई पड़ी है। महत्तियामों के अतिरिक्त यहाँ सराक जाति के प्राचीन श्रावक भी रहते थे । पावा और पुरी दो छोटे गाँव थे। पुरी में गाँव मंदिर है तथा बाहर जल मंदिर है और पावा के सामने ही प्राचीन समवसरण है। उस स्थान पर एक प्राचीन स्तूप और कुंआ आज भी देखा जा सकता है । जिनप्रभ सूरि जी ने विविध तीर्थ कल्प में पावापुरी के विषय में लिखा है- “यहाँ Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनत्व जागरण..... १४४ आज भी नागकुमार साँप के रूप में प्रभाव दिखाते हैं । जहाँ अमावस्या की रात्रि को तेल रहित जल से भरे हुए दीपक जलते हैं। आगे लिखते हैं कि इस नगरी में कार्तिक अमावस्या की रात्रि में भगवान के निर्वाण स्थान पर मिथ्यादृष्टि लोग भी वीर स्तूप स्थान पर स्थापित नागमण्डप में आज भी चातुर्वाणिक लोग यात्रा महोत्सव करते हैं उसी एक रात्रि में देवानुभाव से कुएँ से लाए हुए जल से पूर्ण सराव में तेल बिना दीपक प्रज्वलित होता है । " I पावापुरी का गाँव मंदिर भगवान का निर्वाण स्थान है । यहाँ के मंदिर को देखने से स्पष्ट परिलक्षित होता है कि प्राचीन मंदिर के ऊपर ही नये मंदिर का निर्माण हुआ है । कवि विवेकहंस रचित श्री जिनवर्द्धन सूरि चौपाई की रचना जो संवत् १४८९ में लिखी गई है उसमें जैनपुर के ठाकुर जिनदास (महत्तियाण) द्वारा श्री जिनवर्द्धनसूरिजी को गुजरात से बुलाकर पाँच वर्ष पर्यन्त पूर्व देश में विहार कराने का विवरण मिलता है । इस अरसे में उपधान, प्रतिष्ठा, आदि अनेकों धर्मकृत्य हुए । सम्वत् १४६७ में राजगृहादि यात्रार्थ विशाल संघ निकला जिसमें ५२ संघपति थे । चार हजार पालकियाँ और घोड़े, बेलों की संख्या अपार थी । निम्नोक्त गाथा में पावापुरी यात्रा का उल्लेख द्रष्टव्य है पावापुर नालिंदा गामि, कुंडगामि कायंदी ठामि । वीर जिणेसर नयर विहारि, जिणवर वन्द सवि विस्तारि ॥ सन् १५६५ ई. में कमल ग्रन्थ कृत चतुर्विशन्ति जिन तीर्थमाला में नालन्दा बड़गांव में १६ जिनमंदिरों के होने का उल्लेख मिलता है । सन् १६०९ ई. में पुण्यसागर लिखित सम्मेद शिखर तीर्थमाला में राजगृह, पावापुरी तथा नालन्दा के वर्णन के बाद बिहार शरीफ में ५८ प्रतिमाओं का उल्लेख किया गया है तथा यहाँ पर महत्तियाण वंशी श्रावकों की एक बड़ी बस्ती थी इसका भी प्रमाण मिलता है । सन् १६६१ में आगरा के हीरानंद मुकीम ने सम्मेतशिखर का संघ निकाला था जिसका वर्णन वीर विजय कृत चैत्य परिपाटी में मिलता है। इस संघ के साथ प्रसिद्ध कवि बनारसी दास जी भी थे, जिसका उल्लेख Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनत्व जागरण....... उन्होंने अपने अर्ध कथानक में किया है । संघदास रचित वसुदेव हिंडी नामक ग्रन्थ प्राचीन इतिहास के कुछ महत्वपूर्ण तथ्यों को परिलक्षित करता है। कृष्ण के पिता वसुदेव अपूर्व सुन्दर थे उनके रूप पर स्त्रियां मुग्ध हो जाती थी अत: उन्हें स्वास्थ्य लाभ के लिये गृह बंदी बना लिया गया । वसुदेव बंदी गृह से निकल गये और विभिन्न देशों में भ्रमण करते हुए वहाँ की श्रेष्ठ सुन्दरियों और राज्य कन्याओं से विवाह किया । एक बार राजा कपिल के पुत्र अंशुमन जो उनका साला भी था वह उनको मलयदेश ले जाना चाहा लेकिन रास्ता भूल जाने के कारण वे विपरीत दिशा में चले गये और पुण्ड्र राजा की राजधानी में पहुँच गये। राजा पुण्ड्र के पिता का नाम सुसेन था जिन्होंने पुण्ड्र को सिंहासन देकर सत्य रक्षित नामक मुनि से निर्ग्रन्थ धर्म में दीक्षा ली। रानी वसुमति ने भी प्रव्रज्या ग्रहण की और आर्या संघ की नेतृ बन गयी । राजा पुण्ड्र के पहले कोई सन्तान नहीं थी परन्तु बाद में एक कन्या का जन्म हुआ जिसे पुत्र बताकर प्रचार किया । एक उत्सव में वसुदेव का उससे परिचय हुआ जो आगे चलकर विवाह बन्धन में परिणित हो गया और इन्हीं की सन्तान महापुण्ड्र के नाम से प्रसिद्ध हुई । यहाँ के लोगों के विषय में कथानक में लिखा है कि यहाँ के श्रेष्ठीगण व्यापार के लिये सुदूर विदेशों में जाते थे । स्थलपथ से ताम्रलिप्त जाते और वहाँ से समुद्री यात्रा करते थे । लेखक के वर्णन से इस शहर के विषय में काफी जानकारी मिलती है । जिसके अनुसार यह शहर मगध के दक्षिण में तथा गया के विपरीत दिशा में था और ताम्रलिप्त और मगध दोनों स्थानों से स्थल पथ द्वारा युक्त अर्थात् राजगृह और ताम्रलिप्त को मिलाने वाले वाणिज्य पथ पर अवस्थित एक महत्वपूर्ण वाणिज्य केन्द्र था । 1 १४५ राजा पुण्ड्र के पिता सुसेन और माँ वसुमती का निर्ग्रन्थ धर्म दीक्षा लेना यह प्रमाणित करता है कि यह श्रमण संस्कृति का प्रभावित अंचल था । इस राज्य से सम्मेत शिखर अधिक दूर नहीं था । राजा पुण्डु के बाद उनका दोहित्र यहाँ का राजा बना और वह भी वासुदेव के नाम से प्रसिद्ध हुआ । पाण्ड्रा गाँव में इस वासुदेव के स्मारक Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनत्व जागरण...... १४६ चिन्ह आज भी वर्तमान है । यहाँ एक ध्वन्सावशेष है जो वसुदेव के स्थान के नाम से जाना जाता है । इस सन्दर्भ में श्री हरिप्रसाद तिवारी और नृसिंह प्रसाद तिवारी की गवेषणा महत्वपूर्ण है जिसके अनुसार I I आर्कियोलॉजिकल सर्वे के अनुसंधान से यह स्पष्ट होता है कि ताम्रलिप्त से पाटलीपुत्र के पथ पर एक प्राचीन वाणिज्य केन्द्र जिसका नाम पाण्ड्रा (जिला धनवाद) है । प्राचीन पुण्ड्र राजा और उनके दौहित्र महापुण्ड्र की स्मृति से जुड़े प्राचीन नगर का ही अवशेष है यह पाण्ड्रा । पाण्ड्रा बराकर शहर से प्रायः ७ मील पश्चिम में स्वनाम से आज भी विख्यात है । पाण्ड्रा केवल एक बड़ा (धनबाद जिले का सबसे बड़ा ) ग्राम ही नहीं यह एक परगने का सदर भी है । वर्तमान काल की दलीलों में भी परगना के रूप में पाण्ड्रा का उल्लेख किया जाता है । बराकर से धनबाद तक बराकर और दामोदर नदी का मध्यवर्ती भू-भाग पाण्ड्रा परगना के अन्तर्गत है । अंग्रेज शासनकाल के प्रारम्भ में यहाँ के प्राचीन मल्लराज वंश को खदेड़कर घाटवाल राजवंशियों ने यहाँ अंग्रेजों के करद राजवंशों की स्थापना की । इन घाटवाल राजवंशियों को आज भी राजा कहा जाता है एव इनके बहुत से परिवार इस अंचल में निवास करते हैं। घाटवाल का अर्थ है - घाट अर्थात् पार्वत्य पथ रक्षाकारी । इस सम्प्रदाय पर बहुत प्राचीनकाल से ही इस ताम्रलिप्त मगध की संयोगकारी वाणिज्य - पथ की सुरक्षा का दायित्व था । इस अंचल के बंगाली वाणिकों की एक पदवी घाँटी या घाटी है जो इस पार्वत्य वाणिज्य पथ के वाणिज्य केन्द्र से उद्भुत है । पाण्ड्रा गाँव लोक संख्या एवं आयतन दोनों ही दृष्टि से इस अंचल का सबसे बड़ा गाँव है और अकेला ही एक पंचायत है । गाँव का रास्ता आधुनिक नगरों की तरह परिकल्पित है । वसुदेव हिण्डी में राजा पुण्ड्र और समग्र राज परिवार को जैन धर्म के पृष्ठपोषक रूप में वर्णन करने से स्वभावतः ही लगता है कि पुण्ड्र राजा की यह राजधानी प्राचीन जैन अध्युषित अंचल में थी । इसी प्रसंग में यह भी उल्लेखनीय है कि पुण्ड्रा का अवस्थान ताम्रलिप्त से १०० मील उत्तर - पश्चिम में (४५°) है, हवेनसांग ताम्रलिप्त से छः सौ ली अर्थात् एक सौ मील उत्तर-पश्चिम में किलिना-सुफलाना या कर्ण Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनत्व जागरण..... १४७ सुवर्ण गए थे। आराय मंजुश्री मूलकल्प के मत से पुण्ड्रवर्धन में शशांक की राजधानी थी । यही पाण्ड्रा मंजुश्री मूलकल्प वर्णित पुण्ड्रा नगरी है। कृष्ण मिश्र के प्रबोध चन्द्रोदय नाटक में जो राढ़ देश की अपरूपा रढ़ापुरी की बात आती है वह भी सम्भवतया यहीं पाण्ड्रा या पॉरड़ा (पाँड़रा) कोही निर्देश करती है । इसी पाण्ड्रा परगना से वर्द्धमान पर्यन्त अंचल को शायद पुण्ड्र वर्द्धमान अंचल कहा जाता था । यहाँ चारों ओर प्राचीन स्तूप, मूर्ति, मन्दिर के भग्नावशेष और ध्वंस स्तूपों का समाहार है । वासुदेव स्थान और कपिलेश्वर मन्दिर का विशालत्व दर्शनीय है । मन्दिर का प्रांगण समतल से प्रायः बीस. फुट ऊँचा है। चारों पार्श्व प्राचीरों से घिरे हुए है। विशाल प्रांगण में छ: विशाल प्रस्तर निर्मित मन्दिर वर्तमान है। इस पाण्ड्रा परगना की पूर्वी सीमा में है पश्चिम बंग की श्रेष्ठ पुराकीर्ति बराकर के सिद्धेश्वरी के मन्दिर आदि । पूर्वोत्तर कोण में कल्याणेश्वरी का प्रसिद्ध (माँ का स्थान) माइथन, दक्षिण में है तेलकूम्प के प्रसिद्ध मन्दिर । प्राग ऐतिहासिक काल से मगध श्रमण संस्कृति का प्रधान केन्द्र था। यहाँ का कण-कण तीर्थंकरों के श्रमणों के चरणों से पवित्र था । यहीं पर तीर्थंकरों तथा मुनियों ने प्रवज्या ग्रहण की, केवलज्ञान और निर्वाण प्राप्त किया था। श्री हीरालालजी दूगड़ ने लिखा है- “मगधदेश का जैनधर्म और जैनसंस्कृति के साथ अत्यन्त प्राचीन काल से ही अटूट घनिष्ठ संबंध है। मगध का अस्तित्व और उसका इतिहास, उसकी संस्कृति, श्रमणपरंपरा, अर्धमागधी प्राकृत आगम साहित्य, पंचागी, जैनधर्म के स्थापत्य और इतिहास के अभिन्न अंग हैं । अतः यह कहा जा सकता है कि मगध ने यदि जैनधर्म को पोषण दिया है और उसका वर्तमान इतिहास दिया है तो जैनधर्म ने भी मगध को सर्वतोमुखी उत्कर्ष साधन दिया है और उसे विश्वविश्रुत बना दिया है।" - ~ Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४८ जैनत्व जागरण....... १०. उत्तर - पूर्व में जैन धर्म ईसा की सातवीं शताब्दी के द्वितीय चरण के प्रारम्भ में बौद्ध चीनी यात्री ह्युंसांग ने भारतवर्ष में आकर इस के भिन्न भिन्न प्रदेशो में चौदह वर्ष (ई.स. ६३० से ६४४) तक परिभ्रमण किया था । उस के द्वारा लिखित विवरण से उस समय के भारत वर्ष के धर्म-संप्रदायो के विषय में अनेक बातें जानी जा सकती है । पूर्व भारतवर्ष के धर्म सम्प्रदायों की अवस्था सम्बन्धी उसने जो कुछ लिखा है यहां उस के प्रधान विवरण को हम संक्षेप से लिखते है | १. वैशाली यह राज्य वर्तमान बिहार के उत्तर प्रदेश में तिरहुत विभाग में अवस्थित था । मुज़फ्फरपुर जिल्ले के हाजीपुर महकमे के अन्तर्गत वर्तमान बेसार नामक गांव में प्राचीन वैशाली नगरी के ध्वंसावशेष मौजूद है । ह्यूसांग के विवरण से ज्ञात होता है कि ईसा की सातवीं शताब्दी में यहां के वासी विशेष धर्म-परायण थे तथा बौद्ध और अबौद्ध सब एक साथ मिलजुल कर वास करते थे । यहा पर बौद्धों की संस्थाए (संघाराम मन्दिर आदि) कई सो की संख्या में थी । परन्तु उस समय तीन चार संस्थाओ के अतिरिक्त बाकी सब ध्वंस हो चुकी थी । तथा बौद्ध भिक्षुओ की संख्या भी एकदम कम थी । . किन्तु देवमन्दिरों की अवस्था इन की अपेक्षा अच्छी थी । और इन की संख्या भी कम न थी ( there are some tens of Deva temples) पौराणिक ब्राह्मणधर्म के बहुत संप्रदाय थे किन्तु निर्ग्रथों (अर्थात् जैनों) की संख्या ही सब से अधिक थी । २. मगध (वर्तमान पटना और गया जिला) यहां के वासी बौद्धधर्म को मानने वाले थे । यहां पर बौद्धों के पचास संघाराम ( बौद्ध भिक्षु के रहने के स्थान) थे, एवं उनमें दस हजार बौद्ध भिक्षु वास करते थे । वे भिक्षु अधिकतर महायानपंथी (बौद्धों के एक संप्रदाय को मानने वाले ) थे । देवमन्दिरों तथा पौराणिक ब्राह्मण धर्मावलम्बियों की संख्या कम थी । मगध में जैन संप्रदाय के सम्बन्ध में ह्यूसांग ने स्पष्टतया कुछ भी उल्लेख नहीं किया। किन्तु उस के विवरण से ही ज्ञात होता है कि प्राचीन राजगृह तता Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनत्व जागरण....... १४९ गिरिब्रज (पटना जिला अन्तर्गत आधुनिक राजगिरि) नगर के समीप विपुल नामक पर्वत पर एक स्तूप था एवं यहां पर बहुत निर्ग्रथ (जैन साधु) वास करते थे तथा तपस्यादि करते थे । वे लोग सूर्योदय से लेकर सूर्यास्त तक सूर्याभिमुख होकर धर्म साधना करते थे । (Beal II 158 Walters II 154, 155) इस के अतिरिक्त नालंदा में भी ( पटना जिले में बिहार महकमे के अन्तर्गत बड़गांव नामक स्थान) निर्ग्रथो का आवागमन था । ऐसा अनुमान किया जा सकता है । (Beal II 168) ३. ईरण पर्वत-(मुंगेर जिला) मगध से पूर्व दिशा की तरफ़ एक बड़े भारी आरण्य को पार कर ह्यूसांग ने लगभग ई. स. ६३८ को ईरण पर्वत नामक देश में प्रवेश किया (Walter II, 178 and 335) यहां पर इस ने दस बारह बौद्ध संघाराम तथा चार हज़ार से अधिक बौद्ध भिक्षु देखे । इन में अधिकांश हीनयान संप्रदाय के समिति शाखा के अनुयायी थे । पौराणिक ब्राह्मण धर्म के विभिन्न संप्रदायो के बारह देवमन्दिर भी उसने देखे थे । यहाँ पर ह्युंसांग ने एक वर्ष तक वास किया था । 1 ४. चम्पा (भागलपुर जिला ) ईरण पर्वत से यह चम्पारण देश में परमात्मा की मूर्ति निर्माण कर प्रतिष्ठा की तत्पश्चात् इस मूर्ति को कल्पवृक्ष की पुष्पमालाओं से पूजन कर चन्दन की पेटी में बन्द कर दिया । और समुद्र में जाते हुए एक जहाज में (आकाश मण्डल से) डाल दिया । जब यह जहाज सिधु सौवीर देश के वीतभयपट्टन नामक नगर में पहुंचा तब वहां के राजा उदायी की रानी प्रभावती ( राजा चेटक की पुत्री तथा भगवान् महावीर की मौसी जो कि जैनधर्म की दृढ उपासिका - श्राविका थी) ने बड़े भावभक्ति से अर्हन् प्रभु की पूजा-अर्चा आदि करके उस पेटी को खोला । विद्युन्माली देव द्वारा निर्मित और कल्पवृक्ष की फूलमालाओं से पूजित इस जीवितस्वामी की मूर्ति को नया जैनमंदिर बनवाकर उस मे स्थापित किया और उस मूर्ति की स्वयं निरंतर तीनों समय (प्रात:, मध्याह्न तथा सायं) पूजन करने लगी । ऐसी अनेक जैन तीर्थंकरो की "जीवित स्वामी" अवस्था की अनेक Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनत्व जागरण....... १५० I प्राचीन मूर्तियां सरकारी पुरातत्व अन्वेषकों को खुदाई करते हुए प्राप्त हुई हैं । जो कि पद्मासन और खड़ी कार्योत्सर्ग अवस्था (दोनों अवस्थाओं) में ध्यानस्थ हैं। उन के शरीर पर मुकुट, कुंडल, मालाएं, कंकन इत्यादि अलंकार खुदे हुए हैं । तथा अनेक स्थानों में ऐसी मूर्तियां इधर उधर पड़ी हुई भी मिलती है। ई. सन १९३० में एक ऐसी ही जीवतस्वामी की प्रथम तीर्थंकर श्री ऋषभदेव की पद्मासनासीन पाषाण प्रतिमा को अजमेर नगर के इन्द्रकोट में मुसलमानों की ‘“ढाई दिन का झोपड़ा' नामक मस्जिद में एक वृक्ष के नीचे रखा देखा गया था । ई. सन् १९३४ - ३५ में बिहार के राजग्रह नगर के एक पर्वत पर भी ऐसी ही मूर्ति देखी गई थी । जो कि सरकार पुरातत्व विभाग ने एक प्राचीन जैनमन्दिर के ध्वंसावशेष को खुदवाने से अनेक अन्य जैनमूर्तियां के साथ प्राप्त की थी। यहां भी अनेक बौद्ध संघाराम थे किन्तु अधिकांश ध्वंस दशा प्राप्त कर चुके थे । तथा इन में रहने वाले भिक्षु सभी हीनयान पंथी थे । संख्या भी दो सौ से कुछ अधिक थी । देवमन्दिर प्रायः बीस थे । जैनों के सम्बन्ध में इस ने कुछ नहीं लिखा । किन्तु उस समय चम्पा में जैन धर्मावलम्बी नहीं थे : ऐसा मानना ठीक नहीं है। क्योंकि ह्यूसांग बौद्ध था, इस लिये उस ने बौद्धधर्म का ही विशेषतया वर्णन कर अन्य संप्रदायो के सम्बन्ध में संक्षिप्त उल्लेख मात्र किया है । ऐसी अवस्था में उस की मौनता से ऐसा निश्चित करना उचित नहीं है । यह बात ध्यान में रखने योग्य है कि आधुनिक काल में भी भागलपुर शहर में एक प्रसिद्ध जैन* मन्दिर है । ५. कजंगल - (आधुनिक राजमहल) घुंसांग चम्पा से कजंगल में आया। यहां पर उसने छः सात संघाराम तथा तीन सौ से अधिक (बौद्ध) भिक्षु एवं दस देवमंदिर देखे थे । जैन संप्रदाय सम्बन्धी उसने कुछ भी उल्लेख नहीं किया । ६. पौंड्रवर्धन- (उत्तर बंगाल) ह्युंसांग कजंगल से पौंड्रवर्धन में आया । यहां पर इसने बीस संघाराम तथा तीन हजार से अधिक बौद्ध भिक्षु देखे । इनमें से अधिकतर हीनयान पंथी थे । शेष महायान पंथी थे । प्रायः एक सौ देवमंदिर थे एवं ब्राह्मण धर्मावलंबी भिन्न भिन्न संप्रदायों में विभक्त थे 1 Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनत्व जागरण..... १५१ परन्तु निग्रंथो* (अर्थात् जैन धर्मावलम्बियों) की संख्या ही सब से अधिक थी। पौड्रवर्धन नगर से कुछ दूर पर एक स्तूप था गुंसांग ने लिखा है कि यह स्तूप अशोक ने निर्माण करवाया था एवं भगवान तथागत बुद्ध ने इस स्थान पर तीन मास निवास कर धर्म प्रचार किया था । ७. कामरूप - (आसाम के अन्तर्गत गुवाहाटी प्रदेश) चीनी यात्री पौंड्रवर्धन से पूर्व की यात्रा कर एक बड़ी नदी (करतोया) को पार कर कामरूप राज्य में पहुँचा । उस ने लिखा है कि "कामरूप के निवासी सभी देवोपासक हैं । कामरूप में बौद्धधर्म का प्रचार कभी भी न हो सका तथा कामरूप में एक भी बौद्ध संघाराम नहीं बना । जो बौद्धलोग कामरूप में निवास करते थे वे लोग गुप्त रीति से धर्मोपासना करते थे।" किन्तु ब्राह्मण धर्म के प्रत्येक संप्रदाय के अनुयायियों की संख्या अत्यधिक थी और देवमंदिर भी सैंकड़ों की संख्या में थे । जैनधर्म सम्बंधी इस ने कुछ भी उल्लेख नहीं किया। संभवतः बौद्धधर्म के समान जैनधर्म का भी उस समय तक कामरूप में प्रचार न हुआ हो । ८. समतट - (श्रीहट्ट-आधुनिक सिलहेट-त्रिपुरा आदि प्रदेश) कामरूप से दक्षिण दिशा की यात्रा करने के बाद गुंसांग समतट में आया । यहां पर बौद्ध तथा अंबौद्ध उभय संप्रदायों को मानने वाले लोग वास करते थे। तीस से अधिक बौद्ध संघाराम थे एवं उन में प्रायः दो हजार भिक्षु वास करते थे। ये सब भिक्षु स्थविर संप्रदाय के अनुयायी थे। भिन्न भिन्न संप्रदायों के प्रायः एक सौ देवमंदिर थे किन्तु निग्रंथों की संख्या ही सब से अधिक थी। समतट की राजधानी (कर्मांत, कुमिला के निकटवर्ती वड़कामता) के समीप एक स्तूप था । गुंसांग के मतानुसार उसके सम्राट श्वेतांबर जैन तीर्थंकरों की पंचकल्याणक वाली मूर्तियाँ भी मानते हैं । इन मूर्तियों में तीर्थंकर के १. च्यवन (गर्भ) कल्याणक के चिह्न रूप गर्भ अवस्था में इन की माता को आने वाले स्वप्न अंकित होते हैं । २. जन्म कल्याणक रूप अभिषेक कराने के चिह्न अंकित होते हैं । ३. दीक्षा कल्याणक रूप मूर्ति में केश लुंचन वाली तीर्थंकर की मुद्रा होती है । ४. केवलज्ञान Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनत्व जागरण..... १५२ I कल्याणक रूप आठ प्रतिहार्यों के चिह्न अंकित होते हैं । ५. निर्वाण कल्याणक रूप तीर्थंकर की ध्यानस्था शैलेशीकरणमय मुद्रा होती है । किसी किसी तीर्थंकर प्रतिमा में प्रभु के सिर पर मुकुट कुंडल, अलंकारों के चिह्न भी होते हैं वे सब जन्म कल्याणक के समय इन्द्र द्वारा तीर्थंकर प्रभु को पहनाये हुए अलंकारों अथवा जब प्रभु दीक्षा लेने के लिये शिविका में बिराजमान होते हैं उस समय सुसज्जित अलंकारों के चिह्न अंकित होते है, ऐसी प्राचीन मूर्तियाँ भी अनेक स्थानों से मिली हैं । तीर्थंकरों की जीवतस्वामी की मूर्तियाँ भी श्वेताबरों ने पूजा अर्चना के लिये स्थापित की हैं। ऐसी प्राचीन कालीन प्रतिमायें भी पुरातत्व विभाग को मिली हैं। यहां पर एक ऐसी प्राचीन प्रतिमा का परिचय देना उपयुक्त है । श्वेताम्बर जैनों के मान्य आवश्यक चूर्णि तथा निशीथ चूर्णि एवं वसुदेव हिंडी नामक शास्त्रों में जीवतस्वामी की मूर्ति निर्माण तथा उस की पूजा अर्चा का वर्णन भी पाया जाता है । इस का संक्षिप्त वर्णन इस प्रकार है : विद्युन्माली देव ने सम्यग्दर्शन की प्राप्ति के लिए महाहिमवान् नामक पर्वत से अत्युत्तम जाति का चन्दन लाकर, उस चन्दन की गृहस्थावस्था में कायोत्सर्ग ध्यान में स्थित भाव साधु की भगवान् महावीर अशोक ने निर्माण करवाया था । एवं इसी स्थान पर बुद्ध देव ने सात दिन धर्म प्रचार किया था । - ९. ताम्रलिप्ति – (मेदिनपुर अंतर्गत आधुनिक तमलूक ) समतट से पश्चिम दिशा में यात्रा का ह्यूसांग ताम्रलिप्ति में आया । यहां पर दस बौद्ध संघाराम थे तथा उनमें प्राय: एक हजार बौद्ध भिक्षु वास करते थे । देवमंदिर पचास से अधिक थे । ताम्रलिप्ति नगरी के समीप एक स्तूप था । तथा ह्यूसांग के मतानुसार इसे भी सम्राट अशोक ने बनवाया था । १०. कर्ण सुवर्ण- (मुर्शिदाबाद जिला ) समतट से उत्तर दिशा की यात्रा कर वह कर्ण सुवर्णमें आया । यहां पर दस बौद्ध संघाराम थे और उनमें दो हजार से अधिक बौद्ध भिक्षु निवास करते थे । ये सभी हीनयान संप्रदाय Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनत्व जागरण..... १५३ के सम्मति शाखा के अनुयायी थे। भिन्न भिन्न देवोपासक संप्रदायों के मंदिर प्रायः पचास की संख्या में थे । कर्ण सुवर्ण नगर के निकट में ही "रक्तमृतिका" नामक एक बहुत बड़ा और प्रसिद्ध बौद्ध संघाराम था तथा इसी संघाराम के निकट कई स्तूप थे । चीनी यात्री के मतानुसार इन सब स्थानों में बुद्धदेव ने धर्म प्रचार किया था । एवं उसके बाद सम्राट अशोक ने प्रत्येक स्थान पर एक एक करके स्तूप निर्माण करवाये थे । ११. ओड्र - (उड़ीसा) कर्ण सुवर्ण से यात्री ओड्र देश में गया वहां पर एक सौ से अधिक बौद्ध संघाराम थे एवं दस हजार महायान पंथी. भिक्षु थे । मन्दिरों की संख्या उसने पचास लिखी है । इस के सिवाए जिसजिस स्थान पर बुद्ध देव ने धर्मप्रचार किया था उन सब स्थानों पर दस अशोक स्तूप भी अवस्थित थे । १२. कंगोद (गंजाम जिल्ला) वहां के सभी निवासी देवोपासक थे । इस देश में बौद्ध एवं बौद्ध संघाराम नहीं थे। देवमंदिर एक सौ से अधिक थे। . १३. कलिंग - (उड़ीसा के दक्षिण) यहां बौद्धों की संख्या बहुत ही कम थी । यहां पर यात्री ने केवल इस संघाराम और पांच सौ महायान पंथी भिक्षु देखे थे। अबौद्ध ही अत्यधिक संख्या में थे । इन में भी निग्रंथों की संख्या ही सब से अधिक थी । देवमंदिरों एक सौ की संख्या में थे। धर्म संप्रदायों के इस संक्षिप्त विवरण से स्पष्टतया ज्ञात होता है कि ईसा की सातवीं शताब्दी के प्रथम भाग में पूर्व भारतवर्ष (तथा बंगाल) में पौराणिक हिन्दू, बौद्ध और जैन तीनों संप्रदायों का एक समान प्रचार था । उस समय बंगाल प्रांत या बंगदेश में बौद्धधर्म की केवल दो शाखाएं अर्थात् हीनयान एवं महायान विद्यमान थी। यह बात चीनी यात्री के विवरण से स्पष्ट ज्ञात होती है। किन्तु ऐसा अनुमान होता है कि उस समय बंगाल देश में बौद्धधर्म धीरे-धीरे क्षीण अवस्था को प्राप्त होता जा रहा था। क्योंकि डूंसांग ने स्वयं ही लिखा है कि किसी किसी स्थान पर (यथा वैशाली Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५४ जैनत्व जागरण..... और चम्पा में) बौद्ध संघाराम अधिकांश ध्वंस दशा प्राप्त कर चुके थे । घुसांग के पूर्ववर्ती चीनी यात्री फाहियान ने ताम्रलिप्ति नगरी में दो वर्ष तक (ई.स. ४०९ से ४११) वास किया था । उस ने लिखा है कि उस समय ताम्रलिप्ति नगर में बौद्ध धर्म का यथेष्ट प्रभाव था । एवं उस नगरी में बौद्ध संघाराम बाईस की संख्या मे थे। परन्तु ह्यूसांग के समय में मात्र दस संघारामों की ही संख्या थी । अतएव यह बात स्पष्ट है कि दो सौ तीस वर्षों (ई.स. ४०६ से ६३६) के अंदर ताम्रलिप्ति में बौद्ध धर्म की बहुत कुछ अवनति हो चुकी थी । डूंसाग के विवरण से एक बात और ध्यान देने योग्य है कि ईसा की सातवीं शताब्दी में कामरूप, कंगोद तथा कलिंग इन तीन प्रदेशों में बौद्धधर्म का विशेष प्रचार न हो पाया था । पूर्व-भारतवर्ष में ब्राह्मणधर्म, बौद्धधर्म तथा जैनधर्म में परस्पर बहुत शताब्दियों तक प्रबल प्रतियोगिता (संघर्ष) चलती रही थी। इसी कारणवश उक्त तीनों प्रदेशों में बौद्धधर्म प्रधान स्थान प्राप्त नहीं कर सका था । एवं इस प्रतियोगिता के फलस्वरूप ताम्रलिप्ति में फाहियान के समय से लेकर गुंसांग के समय तक प्रायः अढ़ाई सौ वर्षों के अन्दर बौद्ध संप्रदाय इतना दुर्बल हो गया था । गुंसांग के विवरण से जाना जाता है कि ईसा की सातवीं शताब्दी में पूर्व-भारतवर्ष में जैनधर्म यथेष्ठ प्रबल था । उक्त चीनी यात्री बौद्ध था, इस लिये उस ने बौद्धधर्म का ही विस्तृत विवरण दिया है। जैन व ब्राह्मणधर्म सम्बन्धी संक्षिप्त विवरण दे कर ही कार्य निपटाया है तथापि देखा जाता है कि वैशाली, पौंड्रवर्धन, समतट एवं कलिंग इन चार प्रदेशों में जैन संप्रदाय की संख्या ही सब से अधिक थी । मगध में भी बहुत जैन थे इस के अतिरिक्त (बंगाल) अन्यान्य प्रदेशों में यथेष्ट संख्या में जैन नहीं थे ऐसा मानना यथार्थ मालूम नहीं होता* | इन सब प्रदेशों में (उपरोक्त चार प्रदेशों की अपेक्षा) जैनों की संख्या कम होने के कारण ह्यूसांग मौन रहा हो ऐसा ज्ञात होता है। ब्राह्मणधर्म संप्रदायों के सम्बन्ध में भी वह मौन सा ही है, क्योंकि किस प्रदेश में कितने देवमन्दिर थे इतना ही केवल उल्लेख किया है । किस संप्रदाय की कितनी जनसंख्या एवं किस संप्रदाय के कितने मंदिर Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनत्व जागरण....... १५५ थे, इस विषय में वह सर्वथा मौन है । तथापि उस समय बंगालदेश में ब्राह्मणधर्म के कौन कौन से संप्रदाय विद्यमान थे, इस विषय की थोड़ी बहुत सामग्री तो अवश्य ही हमारे पास है । इस लेख में इस विषय पर विस्तृत आलोचना करने को हमारे पास स्थान नहीं है । तथापि संक्षेप से दो चार प्रमाण देकर ही बस करेंगे। हम जानते हैं कि कर्णसुवर्ण का अधिपति शशांक शैव धर्मानुयायी था, तथा उस का परमशत्रु एवं कर्णसुवर्ण विजेता कामरूप राजा भास्कर वर्मन भी शिवोपासक था । किन्तु कर्णसुवर्णपति जयनाग परम भागवत अर्थात् वैष्णव था (E.P. Ind. XVII. P. 63) बंगाल में जिन गुप्तसम्राटों ने राज्य किया है वे वैष्णव थे । उन के शासनकाल में ब्राह्मण धर्म का बंगाल में खूब प्रचार हुआ था । इस बात की सत्यता का यथेष्ट प्रमाण उस समय के ताम्रपत्र आदि ऐतिहासिक सामग्री है । उन लोगों के शासन काल में बंगालदेश में बहुत देवमन्दिर प्रतिष्ठित हुए थे । इस बात की पुष्टि के लिये अनेक प्रमाण उपलब्ध है । दामोदर पुर से प्राप्त ताम्रपत्रों (चौथे और पांचवें) से जाना जाता है कि सम्राट बुद्धगुप्त (ई. स. ४७७, से ४९६) एवं तृतीय कुमारगुप्त (ई. सं. ५४३) के राज्यकाल में पौंड्रवर्धन- भक्ति में कोकामुख स्वामी के लिये एक तथा श्वेतवराह स्वामी के लिये दो मन्दिर निर्माण किए गये थे । शुशुनिया पर्वत लिपि (E.P. Ind. XIII) है । इससे बंगाल, बिहार, उड़ीसा से पाये जाने वाले जैन स्मारक तथा मूर्तियाँ ईस्वी पूर्व तीसरी शताब्दी मौर्य काल से लेकर कुषाण काल, गुप्त काल इत्यादि को व्यतीत करते हुए ईसा की तेरहवीं शताब्दी तक की है । जिस में जैन तीर्थकरों की मूर्तियाँ नग्न और अनग्न दोनों तरह की हैं। तथा ऐसा भी ज्ञात होता है कि कलिंगदेशाधिपति चक्रवर्ती खारवेल द्वारा निर्मित हाथीगुफा आदि जैन गुफाएं भी इन्हीं 'निग्रंथों' के उपदेश से ही तैयार कराई गयी होंगी। क्योंकि खारवेल के हाथीगुफा के शिलालेख से ज्ञात होता है किउसने जैन मुनियों को वस्त्रदान भी दिये थे। जिन मुनियों को चक्रवर्ती खारवेल ने वस्त्र दान दिये थे, वे जैन श्वेताम्बरमुनि इन उपयुक्त चारों शाखाओं में से होने चाहिये । खारवेल का समय ईसा पूर्व पहली Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५६ जैनत्व जागरण..... अथवा दूसरी शताब्दी है और इन शाखाओं की स्थापना ईसा पूर्व चौथी शताब्दी में हो चुकी थी। खेद का विषय है कि बंगाल देश से प्राप्त प्राचीन जैन मूर्तियों के सिंहासनों पर खुदे हुए लेखों को अभी तक पुरातत्ववेत्ताओं ने पढ़ने का कष्ट नहीं उठाया । उनकी ऐसी उपेक्षावृत्ति से अभी तक बंगाल का जैनधर्म संबंधी प्राचीन इतिहास प्रकाश में नहीं आ सका । हमारी यह धारणा है कि जब ये लेख पढ़े जायेंगे तब जैन इतिहास पर बहुत सुन्दर प्रकाश पड़ेगा। पी.सी. चौधरी Jaina-Antiquities in Manbhum में लिखते हैं कि “A number of inscriptions on the pedestals of some of the images have been found. They have not yet been properly deciphered or Studied. A proper study of the inscription and the images supported by some excavations in well identified area of jaina culture will not doubt throw a good deal of light on the history of culture in this part of the county extending over two. महाराज खारवेल द्वारा निर्मित जैन गुफाएं तथा बंगाल, बिहार और उड़ीसा से प्राप्त जैन तीर्थंकरों के मन्दिर और मूर्तियां प्रायः उन जैन श्वेताम्बर आचार्यों द्वारा स्थापित किये गये होने चाहियें जिन के गणों, कुलों और शाखाओं का "कल्पसूत्र" में वर्णन आता है। "बंगाल का आदि धर्म" नामक लेख में हम देख चुके हैं कि बंगाल देश में निग्रंथों की चार शाखायें१-ताम्रलिप्तिका, २-कोटिवर्षिया, ३-पौंड्रवर्द्धनिया, ४-दासी खटिया थी। श्री कल्पसूत्र में इन का उल्लेख इस प्रकार है : "थेरस्स णं अज्जभद्दबाहरस पाईणसगोत्तस्स इमे चतारि थेरा अंतेवासी, अहावच्चा अभिण्णाया होत्था, तंजहा-१-थेरे गोदासे, २-थेरे अग्निदत्ते, ३थेरे जण्णदत्ते ४-थेरे सोमदत्ते कासवगुत्तेमं । थेरेहितो गोदासेहितो कासव गुत्तेहिंतो इत्थणं गोदासगणे नामं गणे निग्गए, तस्सणं इमाओ चतारि साहाओ एवमाहिज्जंति, तंजहा तामलित्तिआ, कोडिवरिसिया, पोंडवद्धणिया, दासीखव्वडिया ।" Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनत्व जागरण ...... १५७ (कल्पसूत्र व्या० ८ पन्ना २५५-५६ आत्मानंद जैन सभा भावनगर) अर्थात्-जैनाचार्य भद्रबाहु स्वामी के चार शिष्य थे । गोदास, अग्निदत्त, जिनदत्त, सोमदत्त । स्थविर गोदास से गोदास नाम का गण निकला तथा इस गण में से ताम्रलिप्तिका, कोटिवर्षिया, पौंड्रवर्धनिया और दासी खर्व्वटिया ये चार शाखायें निकली । भद्रबाहु स्वामी सम्राट चन्द्रगुप्त मौर्य के समकालीन थे । उन के शिष्य गोदास के नाम से गोदास गण की स्थापना हो कर उस से जो उपर्युक्त चार शाखाएं निकली इन का समय ईसा पूर्व तीसरी चौथी शताब्दी ठहरता (१३३) से ज्ञात होता है कि ईसा की चतुर्थ शताब्दी से पुष्करणा (बांकुड़ा जिल्ला अन्तर्गत वर्तमान पोखरण नामक ग्राम का अधिपति चन्द्रवम्मन चक्रस्वामी (अर्थात् विष्णु) का उपासक था । गुप्तयुग में (ई. स. ३१९ से ५५ ) इस देश में ब्राह्मणधर्म की अवस्था कैसी थी । अर्थात् किस किस देवता के लिये मंदिर - निर्माण और उपासना होती थी; इस विषय की संक्षिप्त आलोचना की है । फाहियान के विवरण से यही अनुमान होता है कि उस समय इस देश में बौद्धधर्म भी यथेष्ट प्रबल था तथा संभवत: सातवीं शताब्दी की अपेक्षा प्रबलतर ही था । दुःख का विषय है कि फाहियान ने (ई.स. ४०५ स ४११) इस देश के धर्म संप्रदायों के विषय में विस्तृत उल्लेख नहीं किया । उस ने मात्र चम्पा (भागलपुर) और ताम्रलिप्त का सामान्य विवरण ही लिखा है । (Legge. P. 100) गुप्तयुगं में इस में जैन संप्रदाय की अवस्था कैसी थी, इस विषय का कोई विशेष विवरण नही पाया जाता । किन्तु उस समय भी निश्चय ही जैनधर्म का खूब अधिक प्रभाव था । नहीं तो ह्यूसांग के समय बंगाल में जैन धर्म का इतना प्रभाव होना संभव न था । पहाड़पुर में ( राजशाही जिले से ) प्राप्त हुए ताम्रपत्र से मालूम होता है कि ई.स. ४७९ में नाथशर्मा एवं रामी नामक ब्राह्मण दंपत्ति ने पौंड्रवर्धन (बगुड़ा जिलांतर्गत वर्तमान महास्थानगढ़ निकटवर्ती "बटगोहाली" (आधुनिक गोमालभिटा पहाड़पुर के समीप) नामक स्थान में जैनविहार की पूजा अर्चनार्थ सहायता करने के उद्देश Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५८ जैनत्व जागरण..... से कुछ भूमि दान दी थी। उस समय उस विहार में श्रमणाचार्य निग्रंथ गुहनन्दी के शिष्य प्रशिष्य मौजूद थे। (E.P. Ind. XX.P.P. 61.63) इस से ज्ञात होता है कि गुप्तयुग में जैनधर्म मात्र सुप्रतिष्ठित ही नहीं था किन्तु धनवान ब्राह्मण भी जैनधर्म और जैनाचार्यों के प्रति अनुराग प्रगट करते थे एवं आवश्यकता के लिए भूमिदान कर सहायता करते थे। इस का विशेष उल्लेख करने का प्रयोजन यह है कि बटगोहाली का यही जैन विहार ईसा की पांचवी शताब्दी के अन्तिम भाग में पौंड्रवर्धन नगर के समीप अवस्थित था तथा सातवीं शताब्दी के प्रथम चरण में भी घूसांग ने पौंड्रवर्धन प्रदेश में बहुत निग्रंथ देखे थे। संभवतः ईसा पूर्व ३०० वर्ष में पाटलीपुत्र नगर में जैन संप्रदाय की एक सभा निमंत्रित की गयी थी, एवं इस सभा में जैनों के धर्मशास्त्र समूह को भलीभांति वर्गीकरण तथा सुरक्षित किया गया और उस के उत्तरकाल में इन शास्त्रों के लुप्त होने का प्रसंग आने पर भी ये लुप्त होने से बचा लिये गये क्योंकि गुप्त सम्राट के अभ्युदय के चरम समय ई.स. ४५८ गुजरात के अन्तगर्त वल्लभी नगरी में एक और सभा निमंत्रित की गयी । जिसमें जैनधर्म शास्त्रों को फिर से सुरक्षित व लिपिबद्ध किया गया । यही आगम शास्त्र समूह वर्तमान जैनधर्म का इतिहास रचने के लिए इतिहासकारों के लिये प्रधान साधन है। पांचवी शताब्दी में इस शास्त्र समूह की कोई नवीन रचना नहीं की गयी थीं किन्तु प्राचीन आगम साहित्य समूह को ही मात्र लिपिबद्ध किया गया था । वही कारण है कि इस शास्त्रसमूह से ही बहुत प्राचीन इतिहास जाना जा सकता है। किन्तु स्थान स्थान पर इन ग्रंथों में उत्तरकालीन प्रभाव भी दिख पड़ता हैं। इसी शास्त्र समूह में जैन इतिहास का एक प्राचीन प्रामाणिक ग्रंथ कल्पसूत्र है। इसी ग्रंथ में जैनधर्म की भिन्न भिन्न शाखा प्रशाखाओं का नाम जाने जा सकते हैं । उन्हीं शाखाओं में से यहां पर ताम्रलिप्तिका कोटिवर्षिया, पौंड्रवर्धनिया एवं दासी खर्व्वटिया का विचरण हुआ । __ हमारी यह भी धारणा है कि कलिंगदेश में खंडगिरि, उदयगिरि में (दासी) कळटिक-खर्चटिका विशेषतया उल्लेखनीय है १. ताम्रलिप्ति Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनत्व जागरण..... १५९ मेदिनीपुर जिलांतर्गत तमलूक का प्राचीन नाम है। २. प्राचीन कोटिवर्ष नगर दिनाजपुर जिले में अवस्थित था । ३. पौंड्रवर्धन नगर बगुड़ा जिला अन्तर्गत महास्थानगढ़ नामक स्थान पर अवस्थित था । ऐसी विद्वानों की धारणा है। ४. कर्व्वट नगर का उल्लेख महाभारत में भीम की दिग्विजय के प्रसंग पर मिलता है। वराहमिहिर के "बृहत्संहिता" नामक ग्रन्थ में भी कर्व्वट जनपद का उल्लेख है । यह जनपद "राढ़" अर्थात् पश्चिम बंगाल में ताम्रलिप्ति के समीप ही अवस्थित था । ताम्रलिप्ति, कवट, कोटिवर्ष एवं पौंड्रवर्धन ये चारों स्थान गुप्तयुग में विशेष प्रसिद्ध थे । इस की पुष्टि के लिये प्रचुर प्रमाण उपलब्ध हैं। पूर्वोक्त जैन "कल्पसूत्र ग्रंथ" ई. स. ४५८ में सम्राट, कुमारगुप्त के शासन काल में (ई.स. ४१५ से ४५५) लिपिबद्ध हुआ था। इस लिए ऐसा अनुमान करना अनुचित नहीं है कि गुप्तसम्राट के शासन काल में बंगालदेश में ताम्रलिप्ति, कोटिवर्ष आदि चारों स्थानों में जैनधर्म विशेष प्रबल था । पूर्वोक्त पहाड़पुर के ताम्रपत्र से वह पौंड्रवर्धन नगर से अधिक दूर नहीं था। अतएव इस बात को माना जा सकता है कि बटगोहाली बिहार के निपँथ जैन पौंड्रवर्धनिया शाखा के अनुयायी थे । एवं इस समय से कुछ उत्तरवर्ती काल में यूंसांग ने पौंड्रवर्धन में जिन समस्त निग्रंथों को देखा था, वे भी इसी शाखा के अनुयायी थे । फाहियान एवं हूंसांग दोनों . ने ही ताम्रलिप्ति नगर में निवास किया था । और उन में से किसी ने भी जैन संप्रदाय के सम्बन्ध में कुछ नहीं लिखा । किन्तु आप को ज्ञात हो गया है कि ताम्रलिप्ति जैनों का एक बड़ा केन्द्र था । इसी लिये हम पहले कह आये हैं कि यूंसांग की मौनता से कोई सिद्धांत निश्चित करना उचित नहीं है। एवं जिन सब स्थानों का वर्णन करते समय उस ने जैनों के सम्बन्ध में कुछ भी उल्लेख नहीं किया उन सब स्थानों में भी थोड़े बहुत जैन अवश्य ही थे, ऐसा माना जा सकता है। हम देखते हैं कि गुप्तयुग में इस देश में जैन, बौद्ध, वैष्णव तथा शैव ये चारों धर्म संप्रदाय ही अधिक प्रतिष्ठा सहित विद्यमान थे । यहां पर एक प्रश्न उपस्थित होता है किये धर्म-संप्रदाय किस प्रकार और किस समय बंगालदेश में विस्तार पाये, और किस धर्म ने सर्व प्रथम इस देश Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६० जैनत्व जागरण..... में प्रधानता प्राप्त की ? दुःख का विषय है कि बंगाल देश का गुप्तयुग से पहले का इतिहास बड़े ही अन्धकार में है। इस समय जो कुछ भी इतिहास तैयार करने की सामग्री हमारे सामने मौजूद है यदि इधर उधर से संग्रह करके उस समय के इतिहास की रचना की जाए तो भी धर्म सम्बन्धी इतिहास की सामग्री का तो हमारे पास अभाव सा ही है। इस लिये गुप्तकाल के पर्ववर्ती कई शताब्दियों का धर्म विषयक इतिहास रचने का प्रयास करना कठिन अवश्य है । तथापि उस समय पूर्वोक्त धर्म संप्रदाय अविराम प्रचार पा रहे थे इस विषय में किंचितमात्र भी संदेह नहीं है। वैष्णव धर्म का प्राचीन नाम भागवत धर्म था । इस धर्म की उत्पत्ति प्राचीन काल में हुई थी। ईसा से पूर्व चौथी शताब्दी में ग्रीक दूत मेगास्थनीज ने मथुरा के प्रदेश में इसी धर्म का विशेष प्रभाव पाया था । ईसा के पूर्व दूसरी शताब्दी में तक्षशिला के ग्रीक राजा (Antialcidas) पंचम शुकराज ने भागभद्र की विदिशा स्थित राज सभा में हेल्युडोरास नामक दूत को भेजा था । इसी यवन (अर्थात् ग्रीक) दूत ने भागवत धर्म ग्रहण किया था । इस परम भागवत यवन हेल्युडोरास के प्रसंग से उत्तरवर्ती काल में परम वैष्णव यवन हरिदास की कथा भी स्वतः स्मरण हो जाती है। हम पहले लिख चुके हैं कि मगध के गुप्तसम्राट सभी भागवत धर्मानुयायी थे। ईसा पूर्व चतुर्थ शताब्दी से ईसा की चतुर्थ शताब्दी तक पुष्करणाधिपति चद्रवर्मन चक्रस्वामी का उपासक था । बंगाल में भागवत अथवा वैष्णव धर्म का यही प्रथम प्रमाण है। हम पहले कह आये हैं कि ईसा की पांचवीं शताब्दी में उत्तरबंगाल में कोकामुख देवता के लिये एक मंदिर निर्माण किया गया था। यह कोकामुख संभवतः शिव का एक रूप ही था यदि ऐसा ही हो तो इसी को बंगाल में शिवधर्म का प्रथम ऐतिहासिक प्रमाण समझ कर ग्रहण करना चाहिए। इस से उत्तर काल में कर्णसुवर्ण से राजा शशांक एवं कर्णसुवर्ण विजेता भास्करवर्मन ये दोनों शैव थे । वर्तमान में यह कहना कठिन है कि बंगालदेश में शैवधर्म ने अपना प्रभाव कैसे फैलाया था । यह धर्म भारतवर्ष का एक Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनत्व जागरण..... १६१ प्राचीन धर्म है । सिंधु देशान्तर्गत मोहनजोदडो नामक स्थान से शिवलिंग, शिवमूर्ति आदि ऐतिहासिक युग से भी पहले के अनेक शैवधर्म के प्रमाण पाये गये हैं। ऋग्वेद के देवता रुद्र को कई लोग शिव ही स्वीकार करते हैं। किसी किसी विद्वान् का यह मत है कि बंगाल के प्राचीनतम अदिवासी अंग, बंग पौंड्र आदि tribe के जन समाज में तांत्रिक लिंगपूजा प्रचलित थी । इसी लिंग पूजा के साथ प्रागैतिहासिक शैवधर्म का योग होना कोई विचित्र बात नहीं है । यदि ऐसा हो, तब कहना होगा कि शैवधर्म बंगाल का आदि धर्म था । किन्तु ऐतिहासिक-युग के जिस शैवधर्म का भारतवर्ष में प्रचलन पाया जाता है वह अनेक अंशों में प्राचीन शैवधर्म से स्वतंत्र था । इसी उत्तरवर्ती शैवधर्म को नवशैव नाम दिया जा सकता है । इस नव शैवधर्म का सुस्पष्ट प्रमाण ईसा की प्रथम शताब्दी के कुषाण राजा के सिक्के में पाया जाता है। पातंजल महाभाष्य में शिवोपासना का उल्लेख है। इस उल्लेख के समय से कितना पहले अथवा कितना बाद में इस धर्म ने बंगाल में प्रवेश किया था इस के विषय में कुछ नहीं कहा जा सकता। इसी कुषाणयुग में ही महायान एवं हीनयान इन दोनों बौद्ध संप्रदायों की उत्पत्ति हुई थी। हम लोग इस बात को जान चुके हैं कि हूंसांग के समय में बंगालदेश में हीनयान और महायान इन दोनों संप्रदायों के ही बौद्ध थे। कुषाणयुग में बौद्धों के जिस नवीन संप्रदाय का उत्पत्ति हुई थी उसी का नाम महायान था । इन्हीं महायान बौद्धों ने प्राचीनपंथक बौद्धों को हीनयान नाम दिया । अतएव यह बात मान सकते है कि हूंसांग के समय बंगाल में जो हीनयान संप्रदाय था वही बंगाल का प्राचीनतम बौद्ध संप्रदाय था। महायान संप्रदाय ने अवश्य ही कुषाण युग के बाद बंगाल में प्रचार पाया था । किन्तु महायान बौद्धधर्म ने बंगाल में कैसे प्रवेश किया इस विषय को विशेष रूप से जानने के लिये हमारे पास कोई साधन नहीं है। गुप्तयुग में बंगालदेश में शैव, वैष्णव आदि पौराणिक धर्मो के सिवाय वैदिक ब्राह्मण धर्म भी प्रचलित था । सम्राट प्रथम कुमारगुप्त के (ई.स. ४१५ से ४५५) समय के दो ताम्रपत्रों द्वारा (ई.स. ४४३ और ४४८) हम Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६२ जैनत्व जागरण..... जान सकते हैं कि उस समय पौंड्रवर्धन-भक्ति में (अर्थात् उत्तर बंगाल में) ब्राह्मण लोग अग्निहोत्र पंचमहायज्ञ-प्रभृति वैदिक क्रिया कर्म करते थे। इस वैदिक ब्राह्मण धर्म ने बंगाल में किस समय प्रवेश किया इस विषय की आलोचना करने की आवश्यकता है । हम भागवत, शैव आदि पौराणिक धर्मो की संक्षिप्त आलोचना कर चुके हैं। अब आगे चले । ईसा की पूर्ववर्ती कई शताब्दियों से ही बंगाल वाले छोड़े हुए बालों का आकार है । परन्तु दिगम्बरों की मान्यता ऐसी नहीं है । उनका कहना है कि ऋषभनाथ से लेकर महावीर पर्यन्त सब तीर्थंकरो ने पंचमुष्टि लोच की थी। किसी भी तीर्थंकर के सिर पर बिलकुल बाल नहीं थे । उसका वर्णन इस प्रकार है : ततः पूर्वमुखं स्थित्वा कृतसिद्ध नमस्क्रियः । केशानहुँचदाबद्ध पल्यङ्कः पंचमुष्टिकम् ॥ निलुच्य बहुमोहाग्रवल्लरी: केशवल्लरी: । जातरू पधरो धीरो जैनी दीक्षामनुषाददे । (दिगम्बर जिनसेनाचार्य कृत महापुराणं-पर्व १७ श्लोक २००-२०१) अर्थात् - "तदनन्तर भगवान् (ऋषभदेव) पूर्व दिशा की ओर मुंह कर पद्मासन से विराजमान हए और उन्होंने पंचमष्टि केशलोच किया । धीर भगवान् ने मोहनीय कर्म की मुख्यलताओं के समान बहुत सी केश रूपी लताओं को लोचकर यथाजात अवस्था को धारण कर जिन दीक्षा ग्रहण की।" हम लिख चुके हैं कि श्वेतांबर जैनों को तीर्थंकरों की नग्न मूर्तियां वैसे ही मान्य है जैसे के कि अनग्न मूर्तियां इस की पुष्टि के लिए एक प्रमाण ओर देते हैं। श्री कल्पसूत्र में वर्णन है कि :___"प्रथमांतिम जिनयोः शक्रोपनीतं देवदूष्यापगमे सर्वदा अचेलकतवम्।" (कल्पसूत्र सुबोधिका व्या. १ पृ. १) चतुविंशतेरपि तेषां (जिनानां) देवेन्द्रोपनीतं देवदूष्यापगमे तदभावादेव अचेलतत्वम् ।" (कल्पसूत्र किरणावली व्या० १ पृ. १) Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनत्व जागरण....... १६३ अर्थात् - तीर्थंकर प्रभु जब दीक्षा ग्रहण करते हैं जब शक्रेन्द्र उनको देवदूष्य वस्त्र देता है । " वह देवदूष्य वस्त्र प्रथम और अंतिम जिनेश्वर का गिर जाने से वे सर्वदा नग्न रहे । तथा "चौबीस तीर्थंकरों को इन्द्र द्वारा दिया हुआ देवदूष्य वस्त्र गिर जाने से वस्त्र के अभाव से नग्न रहे ।" इन उपर्युक्त प्रमाणों से भी यह स्पष्ट है कि श्वेतांबरों को तीर्थंकर की नग्न अवस्था की मूर्ति भी वैसे ही मान्य है जैसे कि अनग्न इसी लिये वे तीर्थंकर की अनग्न तथा नग्न दोनों प्रकार की मूर्तियां की प्रतिष्ठा कराकर उन की पूजा अर्चा करते हैं. 1 एवं इन “सभानाथ” की मूर्ति के इर्द-गिर्द जो गोलाकार प्रभामंडल, विद्याधरों, द्वारा फूलमालाए तथा पुष्प, साजबाज तथा चार जुड़े हाथों के बीच में तीन छत्र इत्यादि चिह्न अंकित है वे तीर्थंकर के आठ प्रातिहार्यों चिह्न हैं । तीर्थंकर को ये प्रातिहार्य केवलज्ञान होने के बाद होते हैं । उनके नाम ये हैं : "अशोकवृक्षः सुरपुष्पवृष्टिर्दिव्यध्वनिश्चामरमासनं च । भामंडलं दुन्दुभिरातपत्रं, सत्प्रातिहार्याणि जिनेश्वराणाम् ॥१॥ अर्थ :तीर्थंकरो के १. अशोकवृक्ष, २. देवताओं द्वारा पुष्पवृष्टि ३. दिव्य ध्वनि ४. चामर ५. सिंहासन ६. भामंडल ७. दुन्दुभि ८. छत्र ये आठ 'वस्तुएं (तीर्थंकर के साथ प्रतिहारी के समान होने से ) प्रातिहार्य हैं । अत: इस उपर्युक्त मूर्ति में जो १. गोलाकार प्रभामंडल (भामंडल), २. विद्याधरों द्वारा पुष्पमालायें तथा पुष्प (पुष्पवृष्टि), ३. साज बाज (दुन्दुभि) ४. चार जुड़े हुए हाथों के बीच में छत्र ५. दो इन्द्र चामर लेकर खड़े हैं (चार), ६. बैठने का स्थान (सिंहासन) इत्यादि चिह्न अंकित हैं । जैन मूर्तियों के विषय में कुछ आलोचना करेंगे । बंगालदेशके दीनाजपुर जिलांतर्गत सुरोहोर से प्राप्त 'सभानाथ' की जिस चित्तरंजक नग्न मूर्ति का वर्णन हम पहले कर आये हैं वह मूर्ति भी श्वेताम्बर जैनों की मान्यता के अनुकूल है । किन्तु दिगम्बरों की मान्यता प्रतिकूल है। क्योंकि दिगम्बरों को तीर्थंकर के सिर पर बाल होना सर्वथा Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६४ जैनत्व जागरण...... अमान्य है। यह "सभानाथ" की नग्न मूर्ति प्रथम तीर्थंकर श्री ऋषभनाथ की है। "कल्पसूत्र" में श्री ऋषभनाथ ने जब दीक्षा ग्रहण की थी उस समय का वर्णन इस प्रकार है : "यावत् आत्मनैव चतुर्माष्टिकं लोचं करोति, चतुष्टभिर्मुष्टिभिलोंचे कृते सति अविशिष्टां एकां मुष्टिं सुवर्णवर्णयोः स्कन्धयोरुपरि लुठंति कनकलशोपरि विराजमानानां नीलकमलमिव विलोक्य हृष्टचित्तस्य शक्रस्य आग्रहेण रक्षत्वान् ।" (कल्पसूत्र व्या. ७ पृ. १५१ देवचन्द्र लालभाई ग्रंथांक ६१) अर्थात् "श्री ऋषभनाथ प्रभु ने गृहत्याग कर दीक्षा ग्रहण करते समय अपने आप चार-मुष्टि लोच की । चार-मुष्टि लोच कर लेने पर सोने के कलश पर विराजमान नीलकमल-मालाके समान बाकी रहे हुए मुष्टि प्रमाण सुनहरी बालों को प्रभु के कंधों पर गिरते हुए देख कर प्रसन्न चित्त वाले इन्द्र के आग्रह करने से प्रभु ने (अपने सिर पर) रहने दिये ।" इस से यह बात भी स्पष्ट हो जाती है कि यह मूर्ति जिसे "सभानाथ" की मूर्ति के नाम से उल्लेख किया गया है, वह प्रथम तीर्थंकर श्री ऋषभनाथ की ही है और उनके मस्तक पर जो जटाएं हैं वे पांचवी मुष्टि में जैन, बौद्ध और वैदिक धर्म थी प्रचलित थे । ऐसी मान्यता की पुष्टि के लिये कई कारण उपलब्ध हैं । ईसा पूर्व प्रथम (दूसरे मतानुसार द्वितीय) शताब्दी में कलिंगाधिपति खारवेल ने उत्तर एवं दक्षिण भारत में एक विस्तृत साम्राज्य स्थापित किया था । उस की हाथीगुफा लिपि (शिलालेख) से ज्ञात होता है कि वह जैनधर्मावलंबी था एवं जैनधर्म की उन्नति के लिये वह विशेष प्रयत्नशील था । अपने राज्य के तेरहवें वर्ष में उस ने कलिंग नगर में जैन संप्रदाय की एक सभा निमंत्रित की थी तथा इस सभा में जैनशास्त्र समह की आलोचना की गयी थी। इसी वर्ष उसने जैन मुनियों का श्वेतावस्त्र भेंट किये थे । इस से एक वर्ष पहले नन्दराजा द्वारा कलिंग से ले जायी गयी हुई एक जैनमूर्ति को यह मगध से पुनरुद्धार कर वापिस कलिंग में लाया था । इन सर्व प्रमाणों से स्पष्ट ज्ञात होता है कि उस समय कलिंग राज्य Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनत्व जागरण..... १६५ जैनधर्म का एक प्रधान-केन्द्र था । अतएव जिस समय कलिंग में जैनधर्म का इतना प्राधान्य था । उस समय बंगालदेश में भी जैनधर्म का बहुत प्रभाव था ऐसा स्वीकार करना अनुचित न होगा । यहां इस बात को भी ध्यान में रखना होगा कि मुसांग ने भी कलिंगदेश में जैन-संप्रदाय का ही प्रभाव सब से अधिक देखा था, ऐसा उल्लेख किया है । तथा उस समय बंगालदेश के नाना स्थानों में भी जैनों का प्रभाव खूब ही अधिक था । उपयुक्त हाथीगुफा के लेख से यह बात भी जानी जाती है कि सम्राट खारवेल के शासनकाल में कलिंग में ब्राह्मणों का अभाव नहीं था । तथा सम्राट स्वयं जैनधर्मानुयायी होते हुए भी उसने ब्राह्मणों के प्रति यथेष्ट दाक्षिण्यता बतलाई थी। हाथीगुफा के लेख में बौद्धों का कुछ भी उल्लेख नहीं है। । ..... Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६६ जैनत्व जागरण..... ११. सराक जाति का रहस्य इतिहासकी आलोचना करने पर समझमें आया है कि तीर्थंकरके परम्परागत श्रावक आज भी मौजूद है। जो सराक जाति के नामसे पहचाने जाते है। यह जाति पुरूलिया जिले (बंगाल) के उत्तर-पश्चिम क्षेत्र में लाखों की संख्या में वास करते है...। सराक जाति के विषय में अभी तक कोई भी ग्रन्थ सुशृंखल पद्धति से प्रगट नहीं किया गया है। आज भी बहुतों को पता नही है कि मानभूम इलाकेमें एक दिन जिन लोगों ने आर्यसभ्यता की आलोक-वर्तिका को वहन . कर लाई थी वह यह “सराक" सम्प्रदाय है । प्रसंगत : उल्लेखनीय है E.T. Dalton ने भी अपनी स्मरणिका में सराक समाज के प्राचीन अस्तित्व की बात की है । Dalton की भाषामें ये लोग मानभूम जिले के प्रथम आर्य वंश के आदि पुरस्कर्ता हैं । ".....and another held by the people who have left many monuments of their ingenuity and piety in the adjoining district of Manbhum and who were certainly the earliest Aryan settlers in This Part of India Sarawaks of Jains...” तथ्य-(Dalton, Edward Tuite :- Descriptive Ethnology of Bengal Cal. 1872 P.P. 416-417) ___ सराक जाति के लोग एक जैन धर्मावलम्बी जरूर थे, मगर वर्तमान में वे अपने आपको हिन्दु कहकर परिचय देते है। हिन्दुस्थान की मूल प्रजा सब हिन्दू है, भले वे वैष्णव सम्प्रदाय भक्त है या जैन, सिक्ख, बुद्ध या ओर कोई भी सम्प्रदाय पालक हो । धार्मिक भावना सबकी अलग-अलग होने से संस्कृति और आचार संहिता सबकी अलग अलग सी नजर आती है आखिर तो सभी हिन्दू ही है, क्योंकि हिन्दुत्व धर्म नहीं हैं, सभ्यता है। जाति प्रथा के कारण खानपान एवं परिवेशमें भिन्नता दिखाई पडती है । मगर राष्ट्रीय भावना सबकी एक है, और वह है हिन्दुत्व की भावना वर्तमान सराकों के पास जो संस्कृति टिकी हुई है, वह संस्कृति मिश्र संस्कृति है। Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनत्व जागरण...... १६७ उसमे वैष्णव और जैन की संमिश्रमण संस्कृति है । आज इनके पास न सदृढ धर्मवृत्ति है और न कोई अपनी स्वकीय संस्कृति है । सराक जाति मूलत : जैन ही है इनका परिचय उनके गौत्र द्वारा मिलता है उनकी गौत्र प्रथा में ओत-प्रोत होकर जुडे है जैन तीर्थंकरोके नाम । सराकगण मूलत : जैन धर्मावलम्बी है यह बात इ. टि. डलटन, गेटे, सर हरबर्ट रिसले, कुपलेंड, W. W. Hunter आदि अनेक अंग्रेज़ो ने अपने ग्रन्थमें उल्लेख किया है । " सरांक" यह शब्द निःसंदेह श्रावक शब्द का अपभ्रंश शब्द है । प्राचीन काल में सराकों के बुजुर्ग व्यक्तिओं ने अपने सरनेमकी जगह श्रावकके बदलेमें "सरावक" ऐसा शब्द लिखते थे, पश्चात् सरावरक ( Surname) में से धीरे धीरे कालान्तरमें "व" का लोप हो जाने से "सराक" शब्द ना है । यह " श्रावक" का अर्थवाची रूढ शब्द " सराक" शब्द बन गया है । एक समय वृन्दावन सराक नाम के एक सज्जन सराकसमाजके अधिपति हुए थे (सराकसमाज पति) उनके पास समाज की पूर्ण सत्ता थी, वे जैन सम्प्रदायके साथ पूर्ण रूपेन सम्पर्क रखते थे । जैन की आचार संहिताको भली भांति जानते भी थे । उनके द्वारा लिखी गई " सरावक " व्याख्या निम्नरूप है सरावक स वचन, क - क्रिया जिसमें वे सरावक | सम्यग् रूपसे शोभती है वचन क्रिया जिसकी अथवा सभ्यता है जिसकी वचन क्रिया में, वह सरावक है । 1 'श्रावक" शब्द के व्युत्पतिगत अर्थ - 44 - श्रा श्रद्धा व विवेक - व सम्यग, रा - राजते, - Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६८ जैनत्व जागरण.... क - क्रिया अर्थात् - श्रद्धा पूर्वक विवेकवान् बनकर जो क्रिया (कर्म) करते है, वे श्रावक है। धर्मश्रवण करके जो अपने गुणधर्मको टिकाये रखता है। शृणोति इति श्रावकः जो सुनता है वह श्रावक है । जैन दर्शन में कान (कर्ण) को / श्रवणेन्द्रियको (शब्द ग्राह्य इन्द्रयको) सर्वापेक्षा महत्वपूर्ण प्रगटेन्द्रिय माना है । मानव समाज में जो जितना ज्यादा श्रवणेन्द्रिय को प्रगट कर पाता है वह उतना महत् तत्व का अधिकारी बनता है। श्रवणेन्द्रिय को शास्त्रानुसार उर्ध्वमुखी करने में जो समर्थ होते है, वह श्रवण के अधिकारी बनते है। वही जिनेन्द्र या तीर्थकर के उपासक यानि श्रमणोपासक बन सके है । The name Sauvak, Serak, of Saraks Clearly a Corruption of Sravak the Sanskrit waud for a 'Hearer' Which was used by The Jains for lay brethern, i.e. Jains engaged in secular pursuits as distinguished from yati, i.e. Priests or ascetics (O'malley, L.S.S.Bangal District gazetteers, Vol-xx, Singbhum Etc-cal-1919, P.P.-25-26) उल्लेखनीय है कि ओमेली की किताब मे भी इस बात का स्पष्टीकरण है । वेभारिज हेनरी अनुदित आबुल फसल के अकबर नामा की पाद टीका में इस विषय का उल्लेख है । In Hindustan the Jain are usually called Syauras but distinguished themselves into Sraavakas and yatis, the Name does not seen to be in use now, I do not know its origin unless it be a corruption of cretambar. तथ्य (Beveridge, Henry- “Akbarnama" (Eng. TR. of Abul Fazle) Vol-I P.-147 (F.N.-2) see also cole brooke Ref. IX. P-291 समग्र जैन सम्प्रदाय दो भाग में बटे हुए थे, याजक एवं प्रयाजक Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनत्व जागरण..... १६९ डलटन के ग्रन्थ में इसका उल्लेख है । अग्रवाल व ओसवाल इन दोनो उपाधि के द्वारा यह प्रस्फुट हुआ है । The Whole of The Jains are divided into yati's and Saravaka Clericaland lay and as There Goches or family division in clude Aguawal and oswal's (E.T.I. Dalton... J.A.S. of Bengal Vol-35 Part - I (cal. 1866) मुकुन्दराम चक्रवर्ती ने अपने चण्डिमंगल काव्य में लिखा है । “सराक वसे, गुजराते, जीवजन्तु नही कांटे" अधिक सराक (श्रावक) गुजरातमें रहते है, जो जीवजन्तु की हिंसा नही करते है, वे संपूर्ण निरामिष है । इस कथन से स्पष्ट समझा जा सकता है कि सराकों का वंशविस्तार गुजरात में भी हुआ था । बंगाल प्रान्त में जहाँ प्रायः सभी मत पंथ के लोग मांसाहार करते है वहां एक मात्र सराक जाति ही मांसाहार नही करती है। वही वस्तुतः जैन की जाति है। सराक जातिने आज भी अपने अहिंसा प्रधान धर्म को अव्याहत रखा है। दीर्घकालके बाद भी वे अपनी विशिष्टता अक्षुण्ण रख पाये है, यानि कि वे आज भी मांसाहार नहीं करते है । “On The ancient copper Mines of Singbhoom” 1457 ग्रन्थ में ई.टी. डलटन साहेब ने लिखा है। - सराक जाति के लोग स्मरणातीत काल से ताम्र शिल्प में नियुक्त थे। सिंहभूम एवं धलभूम इलाकों में सराको के प्रभाव से एक समृद्ध ताम्र युग का आविष्कार हुआ था । पश्चात् "हो" जातिके लोगों के साथ सराकोंका शिल्प संबन्धी विवाद हुआ था । एशियाटिक सोसाइटी ऑफ बंगाल प्रेसिडिंग से भी जाना जाता है कि, सराक लोगो ने ही ताम्र खानों का आविष्कार किया था, कालान्तर में "हो" सम्प्रदाय के लोग इनको (सराकों को) उस क्षेत्र से विताडित करके उनके चिन्ह को सम्पूर्णतः विलुप्त न कर पाये थे मकान आदि में सराकों का अस्तित्व रह गया था । सराकगण सिर्फ ताम्र युग के ही प्रवर्तक नही थे बल्कि लौह युग Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७० जैनत्व जागरण..... के भी संस्थापक थे । “अजय" नदी के दोनों किनारो पर रूपनारायणपुर से पांडवेश्वर तक ९० मील की दूरी अवधि पर्वत समान लोह सूप एवं लोह चुल्लि थे, उसके साथ भी सराक संम्प्रदाय के लोग युक्त थे । जैन साहित्य में इसका उल्लेख मिलता है । जैन साहित्य में यह भी उल्लेख मिलता है कि प्रथम लोहाचार्य थे, सुधर्मास्वामी, वे बंगाल के वासिन्द थे । जैन धर्म के पंडितवर्ग इनको लौह शिल्पियों के गुरु कहते थे । द्वितीय लोहाचार्य थे कल्प सूत्र कार भद्रबाह स्वामी । डॉ. रमेशचन्द्र मजुमदार ने (History of bengal Vol. P.P. 40910) भद्रबाहु कोढ़ देश के वासी बताकर उनका वर्णन किया है । भद्रबाहु स्वामी आदि अनेक मुनिगण सराक परिवार की सन्तानें थी । इनके प्रयत्न से भारत वर्ष के पूर्वांचल मे लोहशिल्प का "सुवर्णयुग" आया था । सर्वोपरि कहा जा सकता है, कि सराक जाति पुरूलिया जिले के (पूर्व के मानभूम) वासिन्दा थी। एवदंचल के सराकों का उल्लेख ग्रन्थ में आलेखित है। “The early Medieval Jain merchants of Purulia have left behind a community called "Sravak" meaning Jain laity. The Saraks of Purulia are Jain in their faith and practice, and most of them are in trade, commerce and business, The Majority of them Unlike the immigrant Jains of modern times, live in rural areas and survive as Money - lenders and small traders 792 (West-Bengal District Gazetteers' Purulia Cal1985, P.P. 83-84) प्राक्मध्ययुगीय जैन वणिकों ने फैसला करके पुरूलिया में कुछ श्रावकों को रखकर सारे देश छोडकर अन्यत्र चले गये थे । पुरुलिया के सराको में आज भी वणिकत्व परिलक्षित होता है, मगर अति सामान्य । अधिकतर श्रावक (सराक) वर्तमान में ग्राम्य जीवन व्यतीत कर खेतीबाड़ी से अपनी आजीविका करते है। Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनत्व जागरण....... सराकों की आदिवासी भूमि व वासभूमिका परिवर्तन जैन इतिहास के अनुसार सराकों में जिनका आदिदेव गौत्र है, वे श्री आदिदेव के उत्तर सूरी है । जिनका अनंतनाथ गौत्र है, वे श्री अनंतनाथ के उत्तर सूरि है जिनका धर्मदेव गौत्र है, वे श्री धर्मनाथके उत्तर सूरि है जिनका शंडिल गौत्र है, वे श्री शांतिनाथके उत्तर सूरि है जिनका काश्यप गौत्र है, वे श्री पार्श्वनाथ के उत्तर सूरि है । १७१ भगवान श्री आदिनाथ, भगवान श्री धर्मनाथ, भगवान श्री अनंतनाथ एवं भगवान श्री शांतिनाथ का जन्म सरयु नदी के तटभूमि अयोध्या व रत्नपुर तथा पार्श्वनाथ भगवान का जन्म स्थान गंगानदी के तीरवर्ती वाराणसी है, इसलिए कहा जा सकता है कि सराक जाति के आदिवास स्थान भारत के उत्तर पश्चिम प्रांत में था । परवर्तीकाल में जैनधर्म के प्रचार एवं व्यवसायवाणिज्य आदि नानाविध कारणों के माध्यमसे श्रावकों को छोटा नागपुर के मानभूम प्रांत में आकर बसना पड़ा था । सम्मेतशिखर, (शिखरभूम), राजगृही, पावापुरी, चंपापुरी आदि से लेकर रांची, मानभूम तक डेढ़ सौ माईल व्यास के अर्धवृत्त ग्राम्यभित्तिक अर्थनैतिक व्यवसाय में सराक गणने अपना नवीन जीवन प्रारंभ किया था । चौबीस तीर्थंकरों में से बीस तीर्थंकर तो सम्मेतशिखरजी (शिखरभूम) पर निर्वाण हु थे । इस विषयमें सर हरबर्ट रिसले साहेब ने लिखा है पारसनाथ (पार्श्वनाथ) को ही “सराक" संम्प्रदायने अपने आराध्य देव के रूप में ग्रहण किया था । “On the other hand, Parswanath, the Twenty third Tirthankar who is belived to have attained Nirvana on Parswanath hill in Hazaribagh is still recognized by the sarak as their Chief deity...” (Risley Herbert Hope. The Tribes and castes of Bengal, Vol-II, Cal-1981, P. P. 237) भगवान श्री महावीर स्वामी जी के पिता सिद्धार्थ राजा जैसे भगवान Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७२ जैनत्व जागरण... श्री पार्श्वनाथ प्रभुजी के उपासक थे । संभवतः वैसे ही आनन्द श्रावक आदि के पिता भी श्री पार्श्वनाथ प्रभु के उपासक थे। सराकों की परम्परा आनन्द श्रावक, कामदेव श्रावक, सुरादेव आदि श्रावकों की है। सराकों को मूलतः पार्श्वनाथ संतानीय श्रावक कहा जाता है । वर्तमान समय में सराकोंळा वसवास पुरूलिया (W.B.) (मानभूम) के पश्चिम प्रांत में अत्यधिक संख्या में सराकों का वास है । रांची (बिहार), वर्धमान (W.B.) उडीसा, सांतालपरगणा, धनबाद, बाँकुड़ा आदि प्रांत मे सराकजातिके लोग रहते है, इससे पहले "इनकी वासभूमि कंसावती नदीके तीरवर्ती मानबजार अंचल में थी । जैसे बोदाम, बुधपुर पाकबिड़रा, रांची आदि प्रांतोमें सराकों की वस्ती थी. मगर कब से वे वहा वास करते थे, कहना मुश्किल है। कहीं से उसका उल्लेख प्राप्त नहीं है। फिर भी दसवी शताब्दी से लेकर सोलहवी शताब्दी तक के काल में वे लोग (सराकजाति) वहां ही वास करते थे, ऐसा उल्लेख मिलता है।" कांसाइ नदी की तटभूमि के पुरातात्विक जैन निदर्शनों से अनुमान लगाया गया है, कि वहाँ की पत्थरकी मूर्ति आदि निदर्शन दसवीं शताब्दी से लेकर तेरहवीं शताब्दी के समयकाल में बनाई गई थी । “This is borne out by fact that from all along the banks of the kansai (Kansavati) river, Numerous stone images of jain Toithankar have been found. Which are datable to the 10th, 11 th or 12th centuries on stylistic consideration. Besides these, their are remmants in the above places of Jain temples built between the 10th and 13th centuries in variation of the North Indian and Orissan and Nagaresikara style. These can be seen at Boram, Budhpur, Charrach, Palma Pakbirrah.....” (West Bengal District gazetters Op. Cit. P. 139) कांसाई नदीके तटमें जो भी पुरातात्त्विक निदर्शन मिला है, इसके Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनत्व जागरण..... १७३ विषयमें "ई.टी. डलटन' साहेब ने लिखा है, वहाँ के ध्वंसावशेष में रहे जैन मन्दिर एवं अवशेष ही प्रमाण करते है, कि उस नदी की तटवर्ती भूमि जैनों (सराको) के हाथमें थी । ..."the saraks appear to have colorized along the banks of the rivers and we find their temples ruins on the banks of the Damadar, the kansai is rich in architectural remain..." उल्लेखनीय है कि अतीत के बुधपुर व पाकविडरा (जो वर्तमानपुरूलिया से ३० कि.मी. दूर पर है) के ऊपर होकर बनारस से लेकर ताम्रलिपि बन्दर पर्यन्त एक वाणिज्यिक मार्ग का अस्तित्व था । यह बन्दर मुख्यतः ताम्रप्तानि के काम में लिप्त था, अतः उसका नाम पडा था "ताम्रलिप्त"। उस रास्ते को केन्द्र कर जैन धर्मावलम्बी सराक सम्प्रदाय की सभ्यता और संस्कृतिका प्रादुर्भाव हुआ था । "...Another route from Tamluk direct to Banaras on Probably passed through pakbirra and Budhpur on the benks of the kansai near Manbazar,.........the fact that in those ancient times, the merchants who are credited with having built these old temples..." (west-bengal Districts gazetteers op. cit.P. 235 प्रसंगतः कहना ठीक है कि मानबजारके पार्श्ववर्ती इलाके में अभी इसी (सराक) सम्प्रदायके लोग नही रहते है । लुप्त सभ्यताकी स्मृति चिन्ह रूप वहाँ विद्यमान है, मात्र सराकों के पूर्व पुरूष के अतीत मन्दिर स्थापत्य भाष्कर्यके ध्वंसावशेष एवं ध्वंसस्तूप । सराकों की जाति मर्यादा पाने का रहस्य बंगभूमि पर जब वर्गी का आक्रमण हुआ था, उस समय पंचकोट पर भी आक्रमण हुआ था । राजपरिवार के सारे राजपुरूषों को वर्गीयों के द्वारा हत्या कर दी गई थी। उस समय मात्र एक शिशु राजपुत्र रह गया था । Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनत्व जागरण...... उस आक्रमण के समय भीखम सिंह राजाके शिशुपुत्र "मणि" को चतुर श्रावक (सराक) अपने घर पर ले गया, और छिपा दिया था । वर्गीगण जब तक वहां रहे तब तक उस बालक को श्रावक ने अपने ही घर में छिपा रखा था । सम्बलहीन अस्पृश्य श्रावकने एक दिन सोचा यदि मै इस राजकुमार को रखता हूँ तो राजमर्यादाका उलंघन करता हूँ, अत: उसने उस " मणिलाल कुमार को मणिहारा " गांव के संभ्रान्त ब्राह्मण के घर पर छोड दिया है। शिशु थोड़े दिनों में युवावस्था को प्राप्त किया । ई.स. १६७४ की साल में जब शिशु (मणि) द्वितीय रघुनाथ सिंहदेव के रूपमें राजा बना तब अपने पालक पिता स्वरूप उन श्रावकको उचित मर्यादा देकर सम्मानित किया था। उस दिन से सराकों को पुरोहितपद आदि सब कुछ मिले थे । संभवतः उस दिन से सराको की रीत रस्में हिन्दुओंकी तरह होने लगी थी । १७४ समालोचना को और भी आगे ले जाये । वितर्कित विषय को पूर्ण कर देना ही युक्ति युक्त है । इतिपूर्व ११वीं शताब्दी में सराकोंके जैनत्वका विलोप हुआ था और हिन्दुत्व में उतरण घटा था, फिर भी ई.स. १८६३ की साल में ई. टी. डलटन द्वारा रचित एक मूल्यवान लेखसे जानकारी मिली है, कि मानभूम जिले के अन्तर्गत (वर्तमान का पुरुलिया) झाँपडा गांव के सराकगण (श्रावकगण ) जैन धर्म के प्रति श्रद्धा रखते है एवं पारसनाथ (पार्श्वनाथ) भगवान को अपना आराध्यदेव मानते है । उनके लेख से यह भी पता चलता है कि झाँपडा पुरूलिया से १२ मील दूरी पर है । परिभ्रमणके समय ई.टी. डलटन को जितने भी सराक मिले है, वे सारे बुद्धिदीप्त एवं आत्ममर्यादा से संपन्न थे । ऐसे ही नहीं ई. टी. डलटन साहब ने उन सराकों को पार्श्वनाथ भगवानके उपासक कहकर वर्णन किया है । उन्होंने यह भी कहा है, सराकभाई सूर्य देखे बिना कभी आहार नही करते...। 1 "In 1863 I halted at a place called Jhapra, 12 miles from purulia and was visited by some villagers, who struck me as having a very respectable and intelligent appearance. They called themselves srawaks and they prided themselves on the fact that under our Government not one of their Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनत्व जागरण....... १७५ community had ever been convicted of a heinous crime. They are represented as having great scruples against taking life. Thay must not eat till thay have seen the sun, and they venerate parswnath. There are serveral colonies of the same people in chotanagpore proper, but they have not been there for more than seven generations, and they all say they originally came from panchete. Contrasted with the Moondah or cole race, they are distinguished by their fairer complexions, regular features and a peculiarity of wearing the hair in Knob rather high on the back of the head, They are enterprising, and generally manage to combine trade, They are enterprising and generally manage to combine trade with agricultural pursuits, doing business both as farmers and money lenders "(E.T. Dalton Notes on a Tour in Manbhum in 1864-65" Op. Cit. P. 186) आज से प्रायः १३३ वर्ष पूर्व "ई.टी. डलटन साहेबने सराकों की रीति रिवाज देखकर उनके विषयमें जो भी कुछ कहा है, वह निम्न रूप है । (१) सराक इस क्षेत्र की पुरातन - जाति है, पर आदिवासी (हरिजनों) में से नही है । आर्यवंशोद्भूत - जाति है । (२) ब्रिटिश के युगमें किसी भी अपराधसे दंडित नही । (३) जीव हिंसा कभी नहीं करते...। (४) सूर्योदय के पहले कभी आहार नही करते थे, और ना ही कभी सूर्यास्त के बाद आहार करते थे...। (५) छोटा नागपुर में भरपूर सराक है । वे कई सदियों से हैं । (६) वर्तमान में सराकों की मान्यता है, वे पंचकोट के ही हैं । (७) सराक जाति के लोग खेतीबाड़ी, व्यवसाय तथा महाजनी के काममें दक्ष हैं । Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७६ जैनत्व जागरण..... जैनपाडा से झाँपड़ा झाँपड़ा शब्द संभवतः " जैनपाड़ा" शब्द का विकृत रुप है । पाड़ा यानि-गली वहाँ ९० प्रतिशत सराकों का वास होने से गांवका नाम “जैनपाड़ा” रखा गया था । अंग्रेज लोग उसे जैनपाडाको झैनपाडा कहते, या झाँनपाडा कहते थे । भारत की आजादी के बाद से उस गांवका नाम झाँपड़ा ऐसा रूढ शब्द बन गया है । जैनपाड़ा नामको चरितार्थ करने के लिए झाँपड़ा ‘केशरिया आदीश्वर' जैन देरासर का निर्माण हुआ है । जो पुरुलिया जिले का सर्वप्रथम एवं भव्य श्वेताम्बर जैन मन्दिर है । जिसकी प्रतिष्ठा २८-२-९४ ई.स. को की गई थी । इस भव्य जिनालय का निर्माण प. पू. मुक्तिप्रभ मुनि एवं विनीतप्रभ मुनि की प्रेरणा से हुआ था । जिसमें (२००००) बीस हजार सराक भाई सम्मिलित हुए थे । सराक समाज के बीच जैन मुनि दीक्षा सर्व प्रथम इसी झाँपड़ा में हुई थी । ता. २७-२ - ९४ ई.स.) सराक समाज के बीच मुनि महात्मा का प्रथम चातुर्मास इसी गांव में हुआ था । (ई.स. १९९४ वि. सा. - २०५०) चैत्री ओली एवं अष्टान्हिका महोत्सव भी सर्वप्रथम बार हुआ था । उन्मार्ग से मार्ग की ओर ई. टी. डलटन साहेबके अनुसार ई. स. १८६३ खीष्टाब्द में सराकों ने अपने आपको जैन बताया है । पर उस समय जैन धर्म के अन्दर ( श्रावकों में) हिन्दुओं के आचार-आचरण कतई प्रवेश हो चुके थे । ऐसा होना स्वाभाविक है, तैंतीस करोड़ देवी-देवताओं को जैनलोग कहाँ अस्वीकार करते है ! बंगालमें काली, महाकाली, दुर्गा, लक्ष्मी, सरस्वती, मनसा आदि देवीओंकी हिन्दुलोग पूजा करते है । जैनो में भी इन देवियों की पूजी की जाती है । पूजापार्वणकी दृष्टि से विधि विधानमें भिन्नता नजर आ सकती है, मगर देव - देवीके स्वरूप तो लगभग वैसे ही है । I जैन और हिन्दु देव देवीओंकी एक रूपता बंगदेश में महाकाली और कालिदेवीकी पूजा धूम धामपूर्वक विशेष Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनत्व जागरण..... १७७ तोर पर मनाई जाती है । वह दीपावलीकी रात्रिको ही मनाई जाती है । जैनकी १६ विद्यादेवीओमें काली, महाकाली का स्थान है । बंगालमें वैष्णव सम्प्रदाय के लोग दूर्गापूजाको अपनी श्रेष्ठ पूजा मानकर महोत्सव मनाते है । जैनोमें उस दुर्गा माताको अंबा (अंबीका) माता कहते है, जो बावीशतम तीर्थंकरकी शासनदेवी कही जाती है। दोनो देवीमें एक रूपता है। सिंहवाहिणी, वर्षाधारिणी दुर्गा देवीको जैसे वैष्णव मानते है, जैन लोग भी इस मुद्राको मानते है । वैष्णव सम्प्रदायमें सर्पकी देवीको मनसा माता कहते है, जैनोमे सर्पदेवीको पद्मावती देवी कहते है । लक्ष्मी और सरस्वतीकी पूजाकी मान्यता जैन और हिन्दुधर्ममें पूर्ण रूप से प्रचलित है। सप्तदश शताब्दी पर्यन्त सराकगण जैनधर्मकी उपासना करते थे, किन्तु पंचकोटमें आनेके पश्चात् उनकी श्रद्धा-हिन्दुत्व भावापन्न हो गई थी । पंचकोटके अन्तर्गत एक-एक ग्रामोमे जैन-दर्शनके निदर्शन मिले है। इससे प्रमाणित होता है कि सराकोंकी हिन्दुत्वकी भावना १००-१५० वर्षके अन्दर पैदा हुई है। दयानंद सरस्वतीके "लोक प्रकाश" ग्रन्थसे प्राप्त जानकारीके अनुसार वैष्णव सम्प्रदायमें मूर्ति पूजाकी परम्परा ज्यादा दिनकी नही है । प्राचीन कालमें "शिवमन्दिर" हिन्दुओंने बनवाये थे, और उसमें मात्र शिवलिंगकी स्थापना की थी । दुसरे देव-देवीका मंदिर नही बनवाते थे, जब जिन जिन देवी देवताकी पूजाका समय आता है, तब उनकी मूर्ति बनाकर पूजा करते है। हिन्दु धर्ममें मूर्तिपूजाकी परम्परा जैन-धर्मसे आई है । आज भी पुरूलिया तथा धनबाद जिलेके क्षेत्रमें जो भी मूर्तियाँ मिलती है, वे सारी जैन मूर्तियाँ-या जैन-धर्म के शिल्पगत देव-देवीओंकी मूर्तियाँ मिली है। प्रायः पुरुलियाके प्रत्येक ग्रामोमें जैन-धर्मके निदर्शन मिलते है। जिन-जिन ग्रामोमें श्रावक/सराकलोगोका वसवाट था, वहां ग्रामस्थान (गरमस्थान) एक जैन-मन्दिर होता था। पूरे गांवके जैन-अजैन सभी वहां दर्शनार्थ जाया करते थे । और उस मन्दिरको ग्रामथान (गरमथान) कहते थे। हमारी मान्यता है, कि गांवके अमुकक्षेत्रको गांवके लोग ग्रामधान कहते होंगे, जहा जैन एवं इतर मंदिर होता था, क्योंकि हम जहांभी गये है, वहां Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनत्व जागरण...... जैन-धर्मके कुछ न कुछ ध्वंसावशेष मिले है । कहीं कहीं जैन मन्दिरके अस्तित्वके पास ही शिवमन्दिरके नमुने मिले है, अन्य किसी हिन्दु मन्दिरके अस्तित्व नही मिले है । १७८ जैसे पाडा शहरमे एक उत्तुंग जैन मन्दिर है, उसके बगल में एक उत्तुंग हिन्दुमन्दिर भी है । तेतुलहीटी (थानापाडा ) के पास खंडहर है, जिसे देलभिटा कहते है । (देल-यांनेदेवल, भिटा यानी खंडहर ) वहाँ जैन - मूर्ति और शिवलिंग के अस्तित्व आज भी पडे है । केलाही (पाडा) गांवके नदीके तट पर एक जैन मन्दिर एवं एक हिन्दुमन्दिर (शिवमन्दिर) के अवशेष मिले है । उन अवशेषोमें से एक शिलालेख है । उस क्षेत्रके लोग या वहां जोभी देखने आये थे, उस शिलालेख को पढ़ नही पाये । वहाँ के लोगोंकी मान्यता है, कि उस शिलालेख को जो भी पढ़ लेगा उसके सामने पत्थर फट जायेगा और उसे गुप्त धन मिल जायेगा । हम ई.स. १९९३ - १९९४ की सालमें जंब बंगाल देशमें परिभ्रमण किये, तब उस गांवमें भी हमारे उपर गांवके लोगोको काफी आस्था है । गांववालेने हमे पत्थरकी महिमा शुनाकर शिलालेखका दर्शन करवाया मागधी, बंगला, समिश्रित उस शिलालेख हमने पढ़ा उसमे लिखा है, "बालुराम व्रजराज सराक देव कुलिका" । इस लेखसे अनुमान किया जा सकता है, कि प्राचीन कालमें बालुराम व्रजराज सराकके द्वारा जैन-देवकुलिका बनाई गई थी, और वह देवकुलिका किसी शासनदेवीकी थी । हमारे परिभ्रमणके समय हम जिन-जिन गावोंमें गये, वहां कुछ न कुछ जैन-धर्मके नमूने मिले है | कही मन्दिर का अवशेष, तो कही खंडित मूर्ति, कही कलश तो, कहीं कहीं स्थान आदिके अवशेष मिले है । Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनत्व जागरण..... १७९ विशेष ग्राम ___ शांका साँकड़ा आसनवनि केलाही तदशाम यहाँ पर जैन-मन्दिरोंके ध्वंसावशेष सराको के घर मंदिर-मूर्ति नही जिनमूर्ति (पूर्ण) आदीश्वर भगवान की काले पत्थर । की चोबीसी ६० घर है धर्मनाथ तथा झापडा से ३ कि.मी. दूर बुद्ध की मूर्ति चन्द्रप्रभ स्वामी की मानकर बुद्ध पूर्णिमा के दिन गांव पूर्ण मूर्ति के लोग अनुष्ठान करते है। २० घर है ध्वंसावशेष-मंदिर झांपडा से २ कि.मी. दूर गांव १ कि.मी. दूर ८० से ज्यादा है ध्वंसावशेष मंदिर गांवमें एक पाषाणकी देवमूर्ति नदी के किनारे मंदिरका ध्वंसावशेष है। ६० घर है भग्नमूर्ति, मंदिर यह गांव में जैन तीर्थंकरों की भग्न का अवशेष मूर्ति, बौंच धातु की अखंड मूर्ति (देव-देवियोंकी) एक विशाल मंदिर का अवशेष । १०० घर है महावीर स्वामी श्यामपद के घर निर्माण के समय ' की मूर्ति मिली । ५० घर है, गरम थान में गांव के बाहर पार्श्वनाथ की मूर्ति घर नहीं है सम्पूर्ण तीर्थ ७ फूट की बडी बडी मूर्तिया एवं तीर्थ स्वरूप मंदिरका ध्वंसाविशेष घर नहीं है। खंडित जिन चेलियामा और गोवराधा के पास मूर्तियाँ ध्वसं जिन मूर्तियाँ है । नहीं है। मंदिर है, मूर्ति के वर्तमान में D.V.C.S. में डूब अवशेष । चुका है। घर नहीं हैं भग्न जैन एक समय जो राजा का गढ़ था मूर्तियाँ उसमें । नंदुयारा बाधानवाडी पाकविडरा गोवरांधा तेलकुपी पंचात पर्वत Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८० जैनत्व जागरण..... उपरडोह ८० घर है भोजुडीह ४ घर है सेनेडा ७० घर है बडदा ३० घर है बालवासा ४ घर है ग्रामस्थानमें साउतालडोह से ५ कि.मी. दूर खंडित जैन मूर्तियां गांव बाहर जिनमूर्ति गांव से २ कि.मी. दूर जो आज भैरवनाथ के नाम से पूजी जाती है । शांतिनाथ भ.की. रघुनाथपुर से १० की.मी. है ___ मूर्ति अन्यमूर्ति पार्श्वनाथ भ. की इस गांव के एक मैदान में ___ मूर्ति है पद्मावती की मूर्ति ग्राम देवी के नाम से पूजी जाती है। ग्रामस्थान में मैदानमें एक जिन मूर्ति है । मूर्ति के अवशेष है धर्मनाथ भ.की मूर्ति है जैन मन्दिरके अवशेष है। धर्मनाथ भ. की धर्मदेव के नाम से पूजी मूर्ति जाती है । जैन मंदिर ध्वसावशेष जिन मूर्ति के जंगल में अवशेष है। अनेकमूर्ति ध्वंसावशेष कंसावती नदी के तट पर है ध्वंस जिनमूर्ति कही कही मूर्ति के अवशेष मिलते है। छडरा टुमुंठ नही है ५० घर है चांचका नहीं है मानबजार नहीं है घर है पात कुंभ Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनत्व जागरण..... १८१ करीब जिला भित्तिक सराक गांवो की परिसंख्या राज्य जिला ग्राम संख्या सराक संख्या पुरुलिया पश्चिम बंगाल वर्धमान ३ लाख के बाकुडा मेदिनीपुर रांची बोकारो ७ लाख के . बिहार धनबाद करीब सिंहभूम . करीब सांवताल परगना २६ उडीसा ३६ ३ लाख के करीब नागालैण्ड २५ १ लाख मीझोरम ५० हजार . ५० हज़ार मिजोरम ५ हज़ार अरुणाचल प्रदेश ३ लाख तिब्बत ५ लाख बांगलादेश ५० हज़ार म्यानमार (बर्मा) ६ लाख भूटान ५० हजार सिक्किम ५० हजार वियटनाम थाईलेन्ड Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८२ जैनत्व जागरण....... सराकों के लौकिक आचार अनुष्ठान स्त्री जाति की विशिष्टता सराक परिवार की महिलाएँ विवाह के बाद हमेशा साडी पहनती है। जब तक शादी नही होती है तब तक सलवार कमीज, स्कर्ट फ्रॉक एवं कोई कोई साडी भी पहनती है । विवाह के बाद साडी पहनने का आशय यह भी है, कि मातृ एवं पितृ पक्ष के कुटुम्बी सिवा दूसरों के सामने माथा पर घुघंट रखने का सौभाग्य के साक्षीरुप पति के आमरण पर्यन्त सराक स्त्रियाँ माथे पर सिंदूर लगाती है। वे चप्पल जूते शादी होनेके बांद कभी. नही पहनती। संभवतः सराकसमाज में स्त्रियों को जूता-चप्पल पहननेका रिवाज नहीं था। आज कुछ शिक्षित महिलाएँ बाहर गांव या मेले, बाज़ार में जाते समय जूता-चप्पल पहनने लगी है, मगर अति सामान्य । कुमारिकाएँ शादी के पहले मांग नही सजाती यानि मांथे के बीज सीती नही काटती, बाए या दांए सीती काटकर अपनी कुमारिका की पहचान करवाती है । सराक समाज में विधवा विवाह का प्रचलन नही है आज भी M.C. (मासिक) धर्मका पालने की प्रथा सराकों के घर में पाई जाती है । पुरुष जाति का वैशिष्ट्यता : धोती-पायजा मा-पेन्ट - कमीज वर्तमान के परिधानीय वस्त्र है । ५० वर्ष पीछे जायेंगे तो कहना पडेगा कि परिधानीयं वस्त्र रुपे पुरुषो के परिधानीय वस्त्र धोती, जामा और सलवार कमीज थे, माथे टोपी पघडी पहनना पडत है । प्रायः गुजरातीओं की तरह वेशभूषा है । विवाह बंधनका नीति नियम विवाहका संबंध तय करते पहले वर एवं कन्या उभय पक्ष के वंश का विचार करते है । उभय पक्ष का गौत्र सम हो जो तो शादी नही होती है । सराक समाज के अन्दर गोष्ठी प्रथा भी है । पूर्व के बुजुर्गों ने अमुक वंशके लोगों की अमुक गोष्ठीकी आख्या देकर गौष्ठी निर्माण किया था 1 गौष्ठी प्रथामें उच्चनीच और सम का विचार करके शादी का अनुष्ठान रचाते I Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनत्व जागरण...... है । जो आज के समयमें महत्वपूर्ण विषय नहीं रहा । I सराकों की शादीके सारे नियम बंगवासी हिन्दुओं के जैसे होने पर भी कुछ भिन्नता परिलक्षित होती है । हिन्दुओं की तरह सराकों की सगाई होती है। आईबुडो भात ( कौमार्य भात) दधिमंगल, नान्दीमुख, हलदी छांट, अनुष्ठान शरीर पर हलदी लगाई जाती है । वर वांदना पोखनें की क्रिया (सिर्फ सराकों मे है) छादनतला - विवाह के मण्डपमें वर- -वधुको पाटन पर बिठाया जाता है है 1 - १८३ शुभदृष्टि - वर-वधु परस्पर दृष्टि मिलाते है । मालाबदल वर-वधु एक दूसरे के परस्पर गले में मालारोपन करते सिन्दूरदान श्रावकों के मत मे 'सिन्दूरदान' सूर्य के साक्षीमें होता है, यानि कि सूर्योदय के एक प्रहरके बाद वर कन्याके माथे पर सिंदूर पहनाते है । हिन्दु धर्म मे रात को सिंदूर दान हो जाता है । (संभवत: जैन की परंपरामे यह रातको करना निषिध्द है) कुसुमटीका - सिंदूर दानके पश्चात होम करने की क्रिया होती है, और होम की राख और घी मिलाकर वर-वधु को तिलक किया जाता है, पश्चात् उपस्थित सभी को तिलक किया जाता है (यह क्रिया हिन्दुधर्म से भिन्न है, हो सकती है, जैनों की ही परम्परा हो ) - - - वधुभात - दूल्हा जब दुल्हनको लेकर अपने घर जाता है तो आत्मीय जनको वधुभात (भोजन) का अनुष्ठान कराते है । अष्टमंगल - शादी के आठ दिनके बाद जब जमाई पुनःश्वसुर (ससुर) घरमे आता है, तब अष्टमंगलका अनुष्ठान किया जाता है । द्विरागमन - वर दूंसरीबार ससुराल आता है, तब भी अनुष्ठान किया जाता है । सराकसमाजमें बाल विवाह की प्रथा थी, वर्तमान में नहीं है । विधवा विवाह नहीं होता है । छुटा छेड़ा की प्रथा नहीं है । Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८४ जैनत्व जागरण ....... → सराकों मे सतीदाह प्रथा नहीं है । फूलशय्याकी प्रथा सराकोंमें नही है । पुरूषों का भी पुनः विवाह नहीं होता है, और कभी होता है तो प्रथम स्त्री से सन्तान न होने से प्रथम स्त्री के मतानुसार पुनर्लग्न होता है । ↑ ↑ ↑ सराक आहार विज्ञान सूर्योदय के पहले एवं सूर्यास्त के बाद सराकगण आहारादि नहीं करते है, जो ई. टी. डलटन ने अपने एक ग्रन्थ में कहा है । आखिर सराक तो जैन धर्मावलम्बी है। जैन धर्म में अभक्ष्य अनन्तकाय भक्षण एवं रात्रिभोजन निषेध है । वर्तमान कालमें न्यूनाधिक इन आचारोंका ह्रास होता जा रहा है । बंगाल की सारी प्रजा जहाँ आमिषभोजी (मांसाहारी) है वहां मात्र सराक ही ऐसी एक जाति है जो निरामिषभोजी ( शाकाहारी ) है । वनस्पतिमें से अनन्तकाय "बहुबीज" बिलाडी की टोप एवं क्षुद्र फल वे (सराक) नहीं खाते है, वर्षो से यह प्रथा चालू है । वैष्णव सम्प्रदाय के संस्पर्श में रहकर सराकगण वर्तमान मे मूली, गाजर, आलु, सकरिया, रिंगना, अद्रक खानां प्रारंभ किया है, फिर भी सामाजिक अनुष्ठानमें इन चीज़ों का प्रवेश निषेध है । जामफल एवं टमाटर के बीज निकाल कर ही सराक महिलाए सब्ज़ी बनाती है । रिंगना जाति के फलों को भक्ष्य नहीं मानते है । सराकों में बासी चिज खानेकी प्रथा नहीं है। खीर, रोटी, दालभात, मुडि (ममरा) शाकभाजी इनके मुख्य आहार है । उत्तपम, ढोसा, चावल के पुडले, पुडी, बुंदी, रसगुला आदि अनुष्ठानिक आहार है । वे सुबह मुडि (ममरा) चटनी एवं शाम को दाल, रोटी, भात, सब्जी भोजन में लेते है I 1 ककड़ी सिवाय दूसरी सब्जी जातीय फलों को कच्चे नहीं खाते है सराको के पास अपनी मालिकी के तालाब में किसीको भी मछली चास करने नही देते है । Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनत्व जागरण..... १८५ सराकजाति के वार्षिक अनुष्ठान सराकगण वैशाख महीनेसे वर्षकी परिगणना का प्रारंभ करते है। बंगाब्द वर्ष से परिगणना है, वैशाख और ज्येष्ठ यह दो महीनेमें सराकगण नाम संकीर्तनकी यात्रा करते है । पारि-पारि से एक एक दिन एक एक परिवार चने-गुड और पानीसे साधर्मिक की भक्ति करते है। चैतन्य महाप्रभ के बादसे नाम कीर्तनकी यह प्रथा चालू हुई है, मगर चने गुड़ और पाणि दान करनेकी प्रथा चाल है ही। संभवतः- साधर्मिकभक्ति का यह विकृत रूप है। ज्येष्ठ महीनेमें श्वसुर, साले अपने घर नूतन जमाइओं को बुलाकर कपड़े आदि देकर बहुमान करते है, और अन्य जमाइओं को मिठाई (पकवान) आदि भेजकर अपनी अदा पूर्ण करते है। आज भी यह रिवाज है, जैनों (सराको) के सिवाय यह अन्य किसी के नही है। आषाढ़ : आषाढ़ महीने में आषाढ़ी पर्व मनाते है। शुष्क फल आदिके सब्जी खाने का रिवाज है, जिस फलो में रस सामान्य है, वैसे फलों की सब्जी खाने का रिवाज है, जैसे कण्टोला, तुरीया, कारेला आदि । आद्रा नक्षत्र के दिन सामूहिक आम खाने के लिये अपने कुटुंबियोंको बुलवाते है। और आम खाने का निषेध जाहिर करते है, उस दिनको आमवती कहतें श्रावण : श्रवण करने का महीना है । गुरू आदि के योग न मिलने से वर्तमान में पुरोहित आदि से व्रत कथा सुनते है । व्याख्यान वाणी सुनने की प्रथा वर्षों से चली आ रही है। पहले सभी सुनते थे, आज व्रत करनेवाले ही व्रत-कथा सुनते है। भाद्रपद : रात्रि जागरण का महीना है। इस महीनेमें उपदेश मूलक गीत संगीत से आहिंसा की धारा को अन्यों तक पहुंचाते है । पहले जैन परंपरा की पद्धति से महिलाए रात्रि को इकठ्ठी होकर सांझी की तरह गीत गाकर रात्रि जागरण मनाती थी । आज उसका रुप विकृत हो गया है । सराकों में भादु पूजन जागरण का अनुष्ठान मनाया जाता है । प्रसंगत : पंचकोट के राजा नीलमणि सिंहकी पुत्री का नाम भद्रावती Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनत्व जागरण...... १८६ था । उसकी शादीके दिन जब वर शादी करने आ रहा था, तब उसकी रास्ते में हत्या हो गई थी। शादी नहीं हो पाने के कारण घरवालोंने अन्यत्र शादी करवाने का मन जाहिर किया । मगर भद्रावती (भादू) ने नकारात्मक जवाब देती हुई कहा मुझे कही शादी नहीं करनी है, सती होना है । पुनर्लग्न न कर उस राजकुमारी ने अपने भावी पति की चितामें आत्म विलोपन किया । यानि की सती हो गई । उस सतीकी स्मृतिमें हिन्दु जैनों में उस सती के गीत-संगीत गाये जाने लगे । सराकों का राजपरिवार सें अच्छा संबंध होने के नाते रात्रिजागरण में भादुकी स्मृति गीत गाये जाने लगे । गीत में कही भादु प्रसंग का वर्णन नहीं आता है । महापुरुषो के ही गीत है, जैसे तीर्थंकर, राम तथा कृष्णके उपदेश के गीत । जैन ग्रंथकार संघदासके "वसुदेव हिंडी" के चतुर्दश खंडमें जो रामायणका वर्णन है " पउम चरियं" में जिस तरह राम का वर्णन किया गया है वैसे वर्णन का भादु गीत में उल्लेख मिलता है । इससे सिद्ध होता है जैनों का “जागरण" पूर्व से होता आ रहा है । भादु (भद्रावती) की सती होने के बादसे उसमे नवीन रूप दिया गया है। आज भी " भादु जागरण" जैन जैनेत्तर में मनाया जाता है । 66 ..The daughter of one Raja Nilmany Singhadev Sarma of Panchakot, on the day of her marrige the groom failed to arrive as he was killed on the way by dacoits, Bhadu would not marry any other suitable groom as she had already mentally offered herself to the man who was now dead. She ascended the funeral pray of her might have been husband and perished in flames, since then people have been worshipping her with songs and dances, in which man, woman and children took part on the last day of Bhadra (Middle of September)" (West-Bengal Distric Gazettes op. cit. P. 132) आश्विनः नवरात्र, नवपदकी आराधना का अनुष्ठान मनाया जाता था । वर्तमान में बंगालमें दुर्गा ( अंबा माता) पूजा होती है, इस अनुष्ठान में Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनत्व जागरण..... १८७ सराकजाति भी भाग लेती है। एक परम्परा जैनों की इस पर्वमें परिलक्षित होती है । आश्विन महीने में यानि नवरात्र तक सराकों अपने घरकी दीवार पर जातजात के चित्र आलेख्य करते है । जिनमे, नवपद, मंगल कलश, अष्टमंगल, नागपाश (धरणेन्द्र यंत्र) तीर्थंकरों के लांछन, तथा जैन शिल्पकलाके चित्र होते है । वर्तमान कालमें आयंबिल ओलीकी आराधना कहीं कहीं होती है । सराक भाई इस महीने में महापूजा रचाते थे । (महापूजा अष्टान्हिका के एक कर्तव्य है) हिन्दु धर्म के संस्पर्श में आने के बाद दुर्गा पूजा को महापूजा मानते है। कार्तिक : इस महीने में दीपोत्सव मनाया जाता है। महावीर स्वामी के निर्वाणके उपलक्ष में सराकगण अपने घर से शण लकडी की मशाल तैयार करके आबाल वृद्ध तलाव तक जाते है, और पुनः मशाल लेकर घर लौटते है । इस आने जाने के बीच इस पंक्तिको दोहराते है । इस पंक्ति को कहते है : "ईजंइ रे पिंजइ रे" यह मागधी भाषा का छंद है । "आराइअ" का यह कोई विकृत शब्द होना चाहिए । आज तक इस शब्द का किसीने अर्थ घटन करने का प्रयत्न नही किया है। इस महिनेमें और भी कुछ अनुष्ठान किये जाते है, जो वैष्णव धर्मकी परम्परा से आये हुए है। दीपावलीके समय अनेक सराकभाई दीपोत्सव मनाने के लिये पावापुरी में आज भी जाते है। दीपोत्सव के दूसरे तीसरे दिन “वांदना पर्व" भाई वांदना, गाई वांदनाका पर्व मनाया जाता है । मृगशीर्ष (अग्रहायण): इस महीनेमें लक्ष्मीपूजा, वन देवता, क्षेत्र देवता की पूजा सराकभाई अपने हाथों से करते है। पौष : अष्टमंगल के "वर्धमान" के आकार का एक मंगल चिन्ह बनाकर उसके ऊपरी भाग में अष्टमंगल के चिन्ह आलेख्य कर महीने तक घर पर रखते है, और शामको सांझी गाते है । मकर संक्रांति के दिन उस Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८८ जैनत्व जागरण..... - प्रतीक को रथाकार एक लघु मंच में स्थापित कर सरोवर या नदी पर्यन्त संक्रान्ति यात्रा निकालते है । उस प्रतीक को बंगाली भाषामें "टुसु" कहते है। इस शब्दके बारेमें आज तक तदन्त नहीं किया गया है कि टुसु शब्दका क्या अर्थ है । संभवतः टुसु का अर्थ "स्तुप' होना चाहिए । इस राज़ का पता आजतक नहीं चला है । माह (माघ): सराकगण इस महीने की शुक्ल पंचमी के दिन सरस्वती पूजा रचाते है। वार्षिक कर्तव्य श्रुतपूजाके रूप से अनुष्ठान रचाते है। आबालवृद्ध घरके सारे सभ्य अपने घरमें रही किताबे-वहि को एक मंच में रखकर स्वयं पूजा करते है। फाल्गुन : (फागण) सराकगण इस महीने की पूनमके दिन सम्मेतशिखर की यात्रा करते है। न्यूनाधिक आज भी यह प्रथा जारी है। सराकोंमें होली खेलने की प्रथा आज भी नही है । चैत्र : चैत्र महीनेमें कुलदेवी-देवता-पितरों की पूजा करते है । आयंबिल तपादि करते है । एक समय छोटे बच्चेका "अन्न प्राशन्न" एवं मस्तक मुंडन, सम्मेतशिखरजी में करवाने की प्रथा थी । आज कहीं भी करवाते है । षष्ठी पूजा : माता षष्ठी का व्रतकर संतानके ऊपर वात्सल्य की धारा बहाती है, लौकिक प्रथानुसार अमुक खाद्य वस्तु संतानो को देकर बहुमान करती है। तत्पश्चात व्रती गण स्वजनों के लिए सौजन्य की भावना से “परवी" (मिष्ठान, गुड़धाना आदि) भेजते है । कैसे आया सराकों मे वैष्णवत्व ? १६७४ शताब्दीमें द्वितीय रघुनाथ सिंहदेव जब पंचकोट राज्य का राजा हुआ था, तब सराको के प्रति उसकी सहानुभूति स्वभावतःप्रस्फुटित हुई । वह अपने पालक पिता समान "सराक" सज्जन को अपने घर पर बुलवाये और धन देखकर कृत उनका परिचय दिया । राजा ने जीवनदान देने वाले श्रावक से कहा "बाबा तुम्हारी वजह से आज मैं राजा हो सका हूँ" आज Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनत्व जागरण..... १८९ मांगो वह देने के लिए तैयार हुँ । सराक श्रावकने कहां बेटा ! और तो कुछ नही चाहिए। यदि आज आप कुछ देना ही चाहते हो तो हमारी जाति की उचित मर्यादा चाहिए । आज तक नीच जाति कहकर हमारी उपेक्षा की गई है। राजाने तुरन्त कहाँ "मोरा पुरोहित तोरा पुरोहित" जो राज परिवार का पुरोहित वोही तेरा पुरोहित है । उस दिनसे सराको के क्रिया अनुष्ठानमें "आडता" गांवके दुवे ब्राह्मण गण आने लगे थे । उन ब्राह्मणोंके संसर्ग से सराकोमें हिन्दुत्वकी भावना दृढ़ होती गई, और कुछ वैष्णव देवीयोंकी पूजा सराकों के घर अनुष्ठित होने लगी। फिर भी आज पर्यन्त सराकगण वैष्णव धर्म को पूर्णतया ग्रहण न कर पाये । इंद, वांदना, छातापर्व, एवं बलिपर्व आदिसे आज भी सराक भाई दूर रहते है। . सराक एवं सम्मेतशिखर सम्मेतशिखर (पारसनाथ) में एक समय सराकों का आधिपत्य था। एक समयमें उनकी देखरेख से सम्मेतशिखर तीर्थ का पूर्ण विकास हुआ था । जनश्रुति हैं सम्मेतशिखर की रक्षाके लिये सराको के कइ युवान शहीद भी हुए थे । शिखर भूमिको छोडकर श्रावक-वर्ग भले दूर चले गये थे, मगर सम्मेतशिखर को अपने हृदय से दूर न रखा था । जब कभी शिखरजी पर आफत आती थी तब दौड आते थे। सराकगण वैष्णव, ब्राह्मणोकी चालमें आकर वैष्णव सम्प्रदाय में समाविष्ट हो गये थे। प्राक्कथन से इसका खुलासा हो ही गया है । अर्वाचीन काल में आज से आनुमानिक ७०-८० वर्ष पूर्व पू. मंगल विजयजी म.सा. एवं तत् शिष्य पू. प्रभाकर विजयजी म.सा. ने इन सराकों को पुनरूज्जीवित किया था । आज से लगभग ८० वर्ष पहले न्यायतीर्थ प.पू. मंगल विजयजी म.सा. एवं प.पू. प्रभाकर विजयजी म.सा. सम्मेतशिखर जीके दर्शनार्थ पधारे । पर्वत पर चढते समय पूज्य मंगल विजयजी महाराजने पू. प्रभाकर विजयजी से कहा भाई जिस भूमि पर सम्मेत शिखर पर्वत है, जहाँ बीस बीस तीर्थंकरोंने निर्वाण को प्राप्त किया है, वहाँ आज एक भी जैन नही है, ऐसे कैसे हो Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनत्व जागरण...... १९० सकता है ! अवश्य कहीं न कहीं तो जैनों का वास होना ही चाहिए । उस दिन वे दोनो गुरू शिष्य नीचे उतरे । पर एक, वाक्य बार बार कानों में “अथडाने” लगा कि यहाँ जैन होना चाहिए। दूसरे दिन सुबह दोनों ने छः विगई त्याग का पक्चक्खाण कर संकल्प किया "जब तक यहाँ के जैनों का अनुसंधान नहीं मिलता है, तब तक हमारा छ विगई त्याग रहेगा । बस उस दिन से गुरु-शिष्यकी शोध प्रारंभ हो गई । रुखा - - सूखा खाना और रास्ते में जो कोई मिल जाए, उससे इतना पूछ परछ करना कि इस इलाके में कोई आदमी या कोई समाज हो, जो निरामिष आहर करते है । 1 थोडे दिनों में वे दोनों गुरूमहाराज विहार करते-करते महुदा पहुंचे और वहां एक राजस्थानी भाई के घर पर उतरें । वह भाई जैन नहीं था, मगर जैन-धर्मको भली भांति जानता था । उस भाई से जब निरामिष भोजियों के बारे में पूछा गया तो उन्होंने बताया ! महाराजजी यहाँ से तीन कि.मी. दूर एक गांव है, वहाँ सराक जाति नामकी एक जाति है जो कभी आमिषभोजन नहीं करती । उसी दिन राजस्थानी भाई को लेकर पू. मंगल विजयजी एवं प्रभाकर विजयजी महुदा से " कुमारडी" पहुंचे । इस प्रकार सहसा गांवमें महात्माजी का आगमन हुआ देखकर, गांवके लोग महात्माके दर्शन करने आने लगे । पू. महाराजजीके द्वारा दर्शनार्थियों से जब नाम, गौत्र एवं जाति पूछी गयी तो, गोत्रों में मिले आदिदेव, धर्मनाथ, एवं अनंतनाथ भगवानके नाम। दोनो महाराजों के अन्दर अब कोई शंका का अवकाश न रहा, उन्हें मिल गया उस प्रान्त के जैनों का पता । पश्चात् मुनिद्वय कलकत्ता जाकर, इनके इतिहास की छान बीन किया कि सराकों का पूर्व इतिहास मिल गया । ये सराक मूलतः पार्श्वसंतानीया श्रावक है । एवं आज भी जैनो के आचार इनके अंग-अंग में भरे हुए है 1 6 सराकोंकी मातृभाषा " बंगला " है । बंगालमें जहाँ - ३६ कॉम के लोग मांसाहार करते है वहाँ सराकजाति ही एक मात्र निरामिष भोजी है । जैन धर्मका बीज मंत्र "अहिंसा" सराकों के खून में है । अतः ये लोग कट्टर निरामिष है । इस विषय पर महिलाए तो इतनी निष्ठावती है, सब्जी या फल संभारते समय " काटा" शब्द का उच्चारण कभी नहीं करती । यदि Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनत्व जागरण..... कभी आहार के लिये काटा (कट) शब्द का मन्तव्य करें तो खाद्य द्रव्यको फेंक देने का रिवाज है । प्रसंगतः रिसले साहेब के आलोच्य अंग को उद्धृत करते है"सराकगण" कट्टर निरामिष भोजी है वे कभी मिषभोजन नही करतें है। जीव हिंसा से वे सर्वदा विरत रहते है । 'कट' शब्द अमंगल सूचन है, मानकर महिलाएं कभी "कट" शब्द नहीं कहती है। Their name is a variant of sravaka (sankrit hearer) the designation of the Jain laity, they are strict Vegetarians, never eating flesh and on no account taking life and if I preparing the. food any mention, is made of the word, 'Cutting’ the omen is deemed so disastrous that everything must be thrown away." (Ristey. H. H. The people of India. P-79) ___ सराकजाति आज भी लाल रंग की खाद्य वस्तुओंको नहीं लेते...जैसे बीट, गाजर, इत्यादि तो कंदमूल है, मगर लाल सिमि, लाल तांदलिया एवं तरबूज भी नही खाते । - पानी छाने बिना नही पीते है। - अन्य जाति के घर आहार नहीं करते है। - महिलाए आज भी होटलों में नही खाती है । - स्नान किये बिना भोजन या रसोई का काम नही करती है । इनके इस तरहकी आचारसंहिताके देखकर पू. मंगल विजयजी एवं प्रभाकर विजयजी उसी क्षेत्रमें रहे एवं उद्धार कार्य में उमड पडे थे । उन मुनिद्धय का आभार जैन सम्प्रदाय एवं सराक समाजको मानना चाहिए । उन मुनिद्वय की प्रेरणा से झरिया में एक सराकोंके लिये शिक्षा केन्द्र बना था। वह कहाँ गई, और कैसे गई । जैन बंधुओं को ध्यान देना चाहिये। पू. प्रभाकर विजयजी की प्रेरणा से धर्ममंगल जैन विद्यापीठ की रचना सराको के लिये हुई थी जो आज सम्मेतशिखरमें विद्यमान है । Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनत्व जागरण....... प्रामाणिक इतिहास पर यह शोध लेख देने का प्रमुख कारण यही है कि हम अपने प्राचीन इतिहास से अवगत हो और हमें गर्व होना चाहिए कि हमने एक ऐसी संस्कृति में जन्म लिया जो मानव इतिहास एवं सभ्यता की जननी कही जा सकती है । कैसे थे वे लोग ? कैसा था उनका अथाह आत्मज्ञान ?, हम सोच भी नहीं पाते क्योंकि हमारी दृष्टि संकुचित होती जा रही है । मैं मेरे में ही उलझकर अपने तक ही सीमित बन गए हैं । इस मैं- मेरे को छोड़कर सर्वदर्शी, दूरदर्शी बनना होगा, तभी मानव जाति का उत्थान संभव होगा । I १९२ wwwwww Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनत्व जागरण...... ॥ ॐ ह्रीँ श्रीँ श्री जीरावला पार्श्वनाथ रक्षां कुरु कुरु स्वाहा || १२. सराक जाति का इतिहास आज से २६०० वर्ष पूर्व भगवान महावीर ने अपनी तपस्या और साधना के लिये जिस क्षेत्र का वरण किया था और जहाँ उनके जीवन की कई महत्वपूर्ण घटनाएं घटी थी उस राढ़ क्षेत्र में उस समय कौन लोग निवास करते थे, किस जाति के थे, कहाँ से आये थे, उनका क्या धर्म था, क्या जीवनशैली थी ? वर्तमान में आज उनकी क्या अवस्था है और किन परिस्थितियों और परिवेश में वे रह रहे हैं, यह गहनशोध का विषय है जो हमें अपने सारगर्भित अतीत की ओर जाने की प्रेरणा देता है और उन महत्वपूर्ण तथ्यों से हमें अवगत कराता है, जो सिर्फ जैन धर्म की पुष्टि नहीं करते, आदिस्रोत तक हमें ले जाते हैं तथा वर्तमान में अपनी प्रासंगिकता को प्रतिपादित करते हुए जीवन मूल्यों को एक आधार भी दे जाते हैं । १९३ बंगाल के ७वीं शताब्दी से पहले के इतिहास के विषय में बहुत कम जानकारी उपलब्ध होती है । यहाँ तक कि इस क्षेत्र के निवासी भी अनभिज्ञ है । लेखक व इतिहासकार भी ७वीं शताब्दी के पहले के इतिहास में रुचि नहीं रखते । इसी लिए गंभीर रूप से कोई भी अनुसंधान इस विषय पर आजतक नहीं हुआ और जो थोड़ा बहुत हुआ भी है उसको प्रकाश में लाने का यत्न नहीं किया गया । इसका एक मूलभूत कारण है ७वीं शताब्दी से ब्राह्मण संस्कृति का प्रचार एवं पुनरुत्थान । जिस तरह दक्षिण भारत का इतिहास वीर शैवों द्वारा जैन-धर्मानुयायिओं के उत्पीड़न को दर्शाता है ठीक उसी प्रकार बंगाल में भी यह दशा रही । वीर शैवों की सेना वाहिनियों ने गाँव-गाँव में जाकर प्राचीन संस्कृति के निदर्शनों को नष्ट किया और लोगों को जबरन धर्म परिवर्तन करने को विवश किया। जो धर्म परिवर्तन के लिये तैयार नहीं हुए, उन्हें मौत के घाट उतार दिया । अभी तक हम लोग यह समझते थे कि विदेशी आक्रमणकारी जिनमें मुसलमान और अंग्रेज ही हमारी प्राचीन संस्कृति को नष्ट करने में तत्पर रहे । लेकिन वास्तविकता कुछ और ही दिखाई पड़ती हैं । ब्राह्मण पंथों की कट्टर उग्रवादी प्रवृत्ति Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९४ जैनत्व जागरण..... और प्राचीन संस्कृति को नष्ट कर स्व को प्रतिष्ठित करने की लोलुपता ने उन्हें हिंसा का मार्ग अपनाने को प्रेरित किया फलस्वरूप मन्दिर टूटे, जिन बिम्ब खण्डित हुए या उनका स्वरूप बदला गया एवं प्रतिस्थापित भी किया गया, जिसके जीवन्त प्रमाण आज भी बंगाल के सराक क्षेत्रों में देखे जा सकते हैं, अनुभव किये जा सकते हैं। अपने प्राचीन सांस्कृतिक मूल्यों, मर्यादाओं और प्राचीन इतिहास को नष्ट करने में सक्षम और धार्मिक विद्वेष को अपनी स्वार्थपरता के लिये बनाये रखने के लिये जो कार्य ७वीं शताब्दी से प्रारम्भ हआ उनकी झलक वर्तमान में भी देखी जा सकती है। प्राचीन संस्कृति के निदर्शनों की आज भी अवहेलना की जा रही है। स्वतंत्र भारत के पुरातत्व विभाग और बंगाल के पुरातत्व विभाग की कोई रुचि नहीं है कि इन प्राचीनतम धरोहरों का संरक्षण करे क्योंकि इसके द्वारा सच्चाई के उस छोर तक पहुँच जायेंगे जो हमें आदि संस्कृति के द्वार पर ले जाने में सक्षम होगा । विश्व के सभी देश अपनी सांस्कृतिक सरक्षा के लिए एवं अपने प्राचीन इतिहास के संरक्षण लिये जितने तत्पर दिखायी देते हैं उतने ही लापरवाह हमारे देश की सरकार, हमारा समाज और हम हो गये हैं। यह हमारे लिये बहुत ही शर्म की बात है कि सराक समाज का जो इतिहास हमारे पास है वह अंग्रेजी लेखकों की लेखनी से ही है और आज तक इस विषय में कोई भी व्यापक रूप से अनुसंधान नहीं किया गया। अतीत का गौरवमय इतिहास, भविष्य की उन्नति का प्रेरणा स्रोत होता है। हम यह अच्छी तरह जानते हैं कि इस जाति के इतिहास की डोर छब्बीस सौ वर्ष पूर्व भगवान महावीर तथा उससे भी पहले भगवान पार्श्वनाथ से हमें मिलती है और गुप्तकाल तक तथा उसके बाद भी इस जाति का व्यापक प्रभाव देखने को मिलता है। कुछ विद्वानों का यह मानना है कि बंगाल के आदिवासी अंचल में सिन्धु घाटी से जो लोग सभ्यता की मशाल लेकर आये थे वे सराक ही थे । इनके विषय में श्री हरि प्रसाद और नरसिंह प्रसाद तिवारी ने लिखा है कि - "हम आश्चर्य से पुलकित हो उठते हैं जब देखते हैं कि हजारों वर्षों के घात-प्रतिघातों को, उत्थान-पतन को तथा सामाजिक परिवर्तनों को झेलते हुए भी ये सराक जाति अपने अस्तित्व की Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनत्व जागरण...... १९५ रक्षा में सदा संघर्षशील रही है एवं ये सराक जाति भारतवर्ष के वर्तमान जैनों के उत्तर पुरुष भी है । भारत के और भी किसी प्रान्त में इतनी प्राचीन जैन जाति निवास करती भी है या नहीं इसके विषय में कुछ कहा नहीं जा सकता ।" सिन्धु सभ्यता का प्रभाव : बंगाल के इतिहास का एक महत्वपूर्ण अध्ययन सराक जाति का है जो यहाँ सिन्धु घाटी सभ्यता के अन्तिम चरण में आयी और जिसने यहाँ के सांस्कृतिक विकास में अपना महत्वपूर्ण योगदान दिया । इतिहासकारों के अनुसार यह प्रामाणिक तौर पर स्पष्ट हो चुका है कि लगभग ४००० वर्ष पूर्व बौंग नामक जाति सिन्धु घाटी से यहाँ आकर बसी । हड़प्पा, मोहनजोदड़ो से मिली कायोत्सर्ग मूर्तियाँ और कुछ सीले श्रमण संस्कृति की ओर स्पष्ट इंगित करती है । स्वर्गीय राय बहादुर प्रो. रमाप्रसाद चंदा ने अपने शोधपूर्ण लेख में लिखा है कि- "सिंधु मुहरों में से कुछ मुहरों पर उत्कीर्ण देवमूर्तियां न केवल योग मुद्रा में अवस्थित हैं वरन् उस प्राचीन युग में सिंधु घाटी में प्रचलित योग पर प्रकाश डालती हैं । उन मुहरों में खड़े हुए देवता योग की खड़ी मुद्रा भी प्रकट करते हैं और यह भी कि कायोत्सर्ग मुद्रा आश्चर्यजनक रूप से जैन धर्म से संबंधित है । यह मुद्रा बैठकर ध्यान करने की न होकर खड़े होकर ध्यान करने की है । आदि पुराण के सर्ग अठारह में ऋषभ अथवा वृषभ की तपस्या के सिलसिले में कायोत्सर्ग मुद्रा का वर्णन किया गया है। मथुरा के कर्जन पुरातत्व संग्रहालय में एक शिला फलक पर जैन ऋषभ की कायोत्सर्ग मुद्रा में खड़ी हुई चार प्रतिमाएं मिलती हैं, जो ईसा की द्वितीय शताब्दी की निश्चित की गई हर् । मथुरा की यह मुद्रा मूर्ति संख्या १२ में प्रतिबिंबित है ।" ( मार्डन रिव्यु अगस्त १९३२ पृ. १५६-६०) प्रो. चंद्रा के इन विचारों का समर्थन प्रो. प्राणनाथ विद्यालंकार भी करते हैं । वे भी सिंधु घाटी में मिली इन कायोत्सर्ग प्रतिमाओं को ऋषभदेव की मानते हैं, उन्होंने तो सील क्रमांक ४४९ पर 'जिनेश्वर' शब्द भी पढ़ा Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९६ है । जैनत्व जागरण..... It may also be noted that incription on the Indus seal No. 449 reads according to my decipherment “Jinesh”. (Indian Historical Quarterly, Vol. VIII, No. 250) इसी बात का समर्थन करते हुए डॉ. राधाकुमुद मुखर्जी लिखते हैं कि- फलक १२ और ११८ आकृति ७ (मार्शल कृत मोहन जोदड़ो) कायोत्सर्ग नामक योगासन में खड़े हुए देवताओं को सूचित करती हैं । यह मुद्रा जैन योगियों की तपश्चर्या में विशेष रूप से मिलती है । जैसे मथुरा संग्रहालय में स्थापित तीर्थंकर ऋषभ देवता की मूर्ति में । 'ऋषभ' का अर्थ है बैल, जो 'आदिनाथ' का लक्षण है । मुहर संख्या F.G.H. फलक पर अंकित देव मूर्ति में एक बैल ही बना है । संभव है यह ऋषभ का ही पूर्व रूप हो । ( हिन्दू सभ्यता पृ. ३९ जैन धर्म और दर्शन ) I इसी बात की पुष्टि करते हुए प्रसिद्ध विद्वान राष्ट्रकवि रामधारी सिंह दिनकर लिखते हैं - मोहनजोदड़ो की खुदाई में योग के प्रमाण मिले हैं और जैन मार्ग के आदि तीर्थंकर ऋषभदेव थे । जिनके साथ योग और वैराग्य की परम्परा उसी प्रकार लिपटी हुई हैं जैसे कालांतर में वह शिव के साथ समन्वित हो गयीं । इस दृष्टि से जैन विद्वानों का यह मानना अयुक्तियुक्त नहीं दिखता कि ऋषभदेव वेदोल्लिखित होने पर भी वेद पूर्व हैं । (संस्कृति के चार अध्याय) इसी संदर्भ में प्रसिद्ध इतिहसकार डॉ. एम. एल. शर्मा ने लिखा है - मोहनजोदड़ो से प्राप्त मुहर पर जो चिन्ह अंकित है वह भगवान ऋषभदेव का है । यह चिन्ह इस बात का द्योतक है कि आज से पांच हजार वर्ष पूर्व योग साधना भारत में प्रचलित थी और उसके प्रवर्तक जैन धर्म के आदि तीर्थंकर ऋषभदेव थे । सिंधु निवासी अन्य देवताओं के साथ ऋषभदेव की पूजा करते थे । ( भारत में संस्कृति और धर्म ) मुनि श्री विद्यानन्दजी महाराज ने अपने लेख, मोहनजोदड़ो : जैन Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनत्व जागरण....... परम्परा और प्रमाण, में लिखा है भगवान् ऋषभदेव का वर्णन वेदों में नाना सन्दर्भों में मिलता है । कई मन्त्रों में उनका नाम आया है । मोहन जोदड़ो (सिन्धुघाटी) में पाँच हजार वर्ष पूर्व के जो पुरावशेष मिले है उनसे भी यही सिद्ध होता है कि उनके द्वारा प्रवर्तित धर्म हजारों साल पुराना है । मिट्टी की जो सीले वहाँ मिली है, उनमें ऋषभनाथ की नग्न योगमूर्ति है, उन्हें कायोत्सर्ग मुद्रा में उकेरा गया है । १९७ श्री हरिप्रसाद तिवारी और श्री नरसिंह प्रसाद तिवारी ने अपने शोध लेख में लिखा है कि "आज के जाम ग्राम के पास अजय नदी के उत्तरी तट पर स्थित पहाड़पुर गाँव से सिन्धु सभ्यता कालीन एक मातृमूर्ति का मस्तक प्राप्त हुआ है, जिससे सिन्धु जातियों के इस अंचल में आगमम का प्रमाण मिलता है ।" यह मातृमूर्ति का मस्तिष्क लेखकों के पास आज भी सुरक्षित रखा हुआ है । सिन्धुघाटी से प्राप्त अवशेषों में किसी प्रकार के शस्त्र नहीं मिले है जिससे पता चलता है किये लोग शान्ति प्रिय और अहिंसक थे । ये लोग कालान्तर में गंगा के किनारे आगे बढ़ते-बढ़ते पूर्वांचल की सीमा तक फैल गये । इनके उड़ीसा में जाने का प्रमाण भी मिलता है । कुछ समूह वर्धमान से उड़ीसा गये थे उदयगिरि तीर्थ के दर्शन के लिये तब वहां के राजा ने उनसे भेंट की और वहीं बसने का उनसे आग्रह किया तथा उनलोगों को रहने की जगह प्रदान की । खण्डगिरि और उदयगिरि की गुफाएं और मूर्तियाँ इन्हीं सराक शिल्पियों द्वारा निर्मित की हुई है ऐसा अनुमान किया जाता है । 1 सराक और अग्नि का सम्बन्ध : कई विद्वानों के अनुसार बंग शब्द आष्ट्रिक शब्द बंगा से निकला है जिसका अर्थ है सूर्यदेव । सभी प्राचीन संस्कृतियों में ऋषभदेव को सूर्यदेव को सूर्यदेव के रूप में भी पूजा जाता था । " उड़ीसा में जैनधर्म" किताब की भूमिका में नीलकण्ठ साहू ने इस पर विशेष प्रकाश डाला है । उन्होंने ऋषभ का अर्थ सूर्य बताते हुए उड़ीसा से बेबीलोन तक व्याप्त ॠषभ संस्कृति Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनत्व जागरण.... १९८ को व्यक्त किया है। "जगन्नाथ जैन शब्द है और ऋषभनाथ के साथ इसकी समानता है । ऋषभनाथ का अर्थ है सूर्यनाथ या जगत का जीवन रूपी पुष्प । ऋषभ यानि सूर्य होता है । यह प्राचीन बेबीलोन का आविष्कार है। प्रो. सई ने अपने Hibbert Lectures (1878) में स्पष्ट कहा है कि इसी सूर्य को वासन्त विषुवत में देखने से लोगों ने समझा कि हल जोतने का समय हो गया है | वे वृषभ अर्थात् बैलों से हल जोतते थे इसलिये कहा गया कि वृषभ का समय हो गया । इस दृष्टि से लोक भाषा में सूर्य का नाम ऋषभ या वृषभ हो गया । उससे पूर्व सूर्य जगत का जीवन है यह धारणा लोगों में बद्धमूल हो गयी थी ।" अतः ऋषभ की और सूर्य की उपासना का एक्य स्थापित हो गया । इस प्रकार नीलकण्ठ साहू ने उड़ीसा से बेबीलोन तक व्याप्त ॠषभ - संस्कृति को व्यक्त किया है । I I इसके आगे वे लिखते है कि अति प्राचीन वैदिक मंत्र में भी कहा है- "सूर्य आत्मा जगत् स्तस्थुषश्रम । (ऋग्वेद १-११५-१) सूर्य जगत् का आत्मा या जीवन है। बेबीलोन के निकट जो तत्कालीन प्राचीन मिट्टानी राज्य था वहाँ से यह बात पीछे आयी थी । उस समय मिट्टानी राष्ट्र के राजा (ई. पू. चौदहवीं शताब्दी) दशरथ थे । उनकी बहन और पुत्री दोनों का विवाह मिस्त्र सम्राट के साथ हुआ था । उन्हीं के प्रभाव से प्रभावित होकर चतुर्थ आमान हेटय् या आकनेटन् ने आटेन (आत्मान्) नाम से इस सूर्य धर्म का प्रचार किया था और यह 'सूर्य या जगत् का आत्मा ही परम पुरुष या पुरूषोत्तम है' ऐसा प्रचार कर एक प्रकार से धर्म में पागल होकर समस्त साम्राज्य को भी शर्त पर लगाने का इतिहास में प्रमाण है । बहुत सम्भव है कि कलिंग में द्रविड़ों के भीतर से ये जगन्नाथ प्रकट हुए हों । मिस्त्रीय पुरूषोत्तम तथा पुरी के पुरूषोत्तम ये दोनों इसी जैन धर्म के परिणाम है ।" ऋग्वेद में अग्नि की स्तुति के लिये जिन-जिन विशेषणों का प्रयोग किया गया है उनके अध्ययन से यह स्पष्ट होता है कि ये अग्निदेव भौतिक अग्नि न होकर इन्हें ऋषभदेव के आह्वान के लिये रचित किया गया है। इसी सन्दर्भ में यदि देखे तों सराक शब्द का सम्बन्ध अग्नि से भी सम्बन्धित है सराक, सराग, सराकी, सरापी तथा सरोगी आदि शब्द सर + आग या Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनत्व जागरण..... १९९ सर + आगी से आए हैं । सर शब्द का अर्थ होता है निःसृत होना एवं आगि अथवा आगी का अर्थ होता है अग्नि । अतएव सराग व सरागी शब्दों का अर्थ हैं अग्नि से निसृत अथवा जो अग्नि से कुछ निसृत कराते हैं। ___ नव पाषाण युग के अन्तिम समय तक मनुष्य यही जानता था कि अग्नि सब कुछ ध्वंस कर देती है। पर अचानक ही आश्चर्य के साथ उन्होंने देखा कि ऋषभ पुत्रगणों ने अग्नि से ध्वंस हुए मलवे से कुछ महामूल्यवान पदार्थ निसृत किये । इसीलिए, शायद इन्हें सराग कहा गया हो । सरागी अथवा अग्निपुत्र के रूप में यह जाति श्रेष्ठ सम्मान से विभूषित हुई । (पूर्वांचल में सराक संस्कृति और जैन धर्म - तित्थयर) गोत्र परिचय : . . अधिकतर भाषाविद् तिब्बती शब्द बान से बंग की उत्पत्ति मानते हैं। तिब्बत से नाग जाति का यहाँ आने का उल्लेख मिलता है । गंगा की एक धारा का नाम भागीरथ होना इसकी पुष्टि करता है । बंगाल में तीर्थंकर नाम भी काफी प्रचलित है। जैन साहित्य के अनुसार ऋषभदेव ने अपनी दीक्षा के पूर्व अपने सौ पुत्रों को विभिन्न क्षेत्रों का कार्य संचालन का भार अंग, बंग, कलिंग के क्षेत्र आज भी उन्हीं के पुत्रों के नाम की स्मृति को जीवन्त रखे हुए है। इस बात के प्रमाण स्वरूप बंगाल में हमें एक ऐसी प्राचीन जाति मिलती है जो आज सराक नाम से जानी जाती है। जिसके इतिहास के विषय में बहुत कम काम हुआ है। यह मान्यता है कि किसी भी जाति के कुल और गोत्र के नाम उनके पूर्वजों के नाम पर परम्परा से चले आते हैं । इन सराक जाति के लोगों के गोत्र तीर्थंकरों के नाम पर है धर्मदेव, अनन्तदेव, आदिदेव तथा ऋषभदेव आदि । जिनमें ऋषभदेव प्रमुख है । अतः यह माना जा सकता है कि सराकों के पूर्वज ऋषभदेव या उनके निकट के कोई व्यक्ति थे । जिनसे उनका रक्त संबंध था । किसी भी अनुष्ठान में ये सराक जाति अपने आदि पुरुष का नाम गोत्र पिता के रूप में स्मरण करते हैं । यह एक जीवन्त प्रमाण है जो लिखित इतिहास से भी ज्यादा महत्वपूर्ण है। Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०० जैनत्व जागरण.... जगतनाथ दास की भागवत कथा में ऋषभनाथ का वर्णन है। ऋषभदेव ने अपने सौ पुत्रों को जो उपदेश दिया था उसका भागवत में उल्लेख श्रावक संस्कृति का प्रभाव परिलक्षित करता है । यद्यपि हम देखते हैं कि भगवान ऋषभदेव के पश्चात तेईस तीर्थंकरों का अविर्भाव हुआ । सबके संघ बने और जिनमें उनका अनुशासन चलता था । किन्तु सराक जाति भगवान ऋषभदेव द्वारा प्रचलित अनुशासन को आज भी पालन कर रही है । ऋषभदेव ने मानव जाति को कृषि, शिल्प आदि अनेक विषयों का ज्ञान दिया । अग्नि का प्रयोग करना सिखाया । लिपि का सृजन किया । दूसरे शब्दों में कहा जाए तो मानव संस्कृति के विकास के अग्र पुरोधा ऋषभदेव ही थे । जिन लोगों को उन्होंने शिल्प कर्म का ज्ञान दिया था वहीं श्रावक लोग परवर्ती काल में सराक जाति के नाम से परिचित हुए ऐसा माना जाता है । श्रावक से सराक : श्रावक शब्द का अपभ्रंश रूप है सराक । भारत के पूर्वांचल की साधारण जनता में 'व' का उच्चारण नहीं होता है अतः श्रावक की जगह पर 'व' का उच्चारण नहीं करने पर श्राक हो गया जो धीरे-धीरे सराक बन गया है । श्रावक का संस्कृत अर्थ है श्रमणकारी । पाश्चात्य पण्डितों ने ही सर्वप्रथम इस अर्थ को प्रचलित किया । "The word Sarak is doultless derived from Sravaka, The Sanskrit word 'heare.' Amongest the Jain, the term is used to indicate they laymen or persons Who engaged in secular persuits, as distinguished from the Yatis, monks or ascetice.” गेटे ने अपनी Census Report में लिखा है- “यह सराक शब्द निस्सन्देह श्रावक शब्द से उद्भुत हुआ है जिसका संस्कृत अर्थ है श्रवणकारी। जैनों के मध्य उन गृहस्थों के लिए प्रयुक्त हुआ है जो कि लौकिक व्यवसाय करते हैं एवं यति और साधुओं से भिन्न हैं ।" Mr. L.S.S.O. Maly I.C.S. के अनुसार “The name Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनत्व जागरण..... २०१ Sarawak, Serak or Sarak is clearly a Corruption of Srawaka the Sanskrit word for a hearer. Which was used by the Jains for lay brether.” (From Bengal District gezetter Vol XX Singbhoom Calcutta 1910 pg. 25). ऋषभदेव के उपदेशों को मन, वचन, काया के द्वारा अनुपालन करते हैं वो ही श्रावक संघ के सदस्य या श्रावक कहलाते थे । दूसरे शब्द में कहे तो सम्यग् दर्शन, सम्यग् ज्ञान और सम्यग् चारित्र का पालन करने वाले ही श्रावक कहलाते हैं और यहीं श्रावक पूर्वांचल में सराक के रूप में अपनी पहचान बनाए हुए है । एक जैन सम्मेलन में किसी वक्ता ने इनके विषय में कहा था कि "यदि वर्तमान जैन संघ जिनेश्वर की नूतन प्रतिमा है तो सराक उसकी प्राचीन प्रतिमा का अवशेष है । यदि जैन रूप पर्वत की खुदाई करेंगे तो सराक उस खुदाई की उपलब्धि होंगे।" आदि संस्कृति के प्रणेता भगवान ऋषभदेव थे। जिनकी मान्यता वैदिक ग्रन्थों में भी है तथा वे सारे मानव समाज के आदि पुरुष माने गये हैं । उनको सराक जाति अपने गोत्र पिता के रूप में वहन करती आ रही है। अतः यदि हमें अपने प्राचीन संस्कृति के इतिहास को जानना है तो सराक जाति के इतिहास का परिचय पाना होगा जो हमें आदिनाथ ऋषभदेव तक पहुंचाता है । सराकों से परिचय : सन् १८६४-६५ में ले. कर्नल डाल्टन ने मानभूम जिला परिभ्रमण की टूर डायरी लिखते समय एक ऐसी जाति का उल्लेख किया जिसने उन्हें विशेष रूप से प्रभावित किया था । उनके सम्बन्ध में वे लिखते हैं१८६३ में जब कि मैं पुरुलिया से १२ मील दूर झापरा नामक स्थान पर गया तो वहाँ के कुछ अधिवासी मुझसे मिलने आए । मुझे उनकी मुखाकृति बुद्धिदीप्त और बड़ी ही शालीन लगी । उन्होंने स्वयं को सराक बताते हुए गर्व से कहा कि किसी घृणित कार्य के लिए उनमें से कोई भी कोर्ट में अभियुक्त बनकर नहीं गया है । वास्तव में किसी को आघात पहुँचाने या किसी भी हत्या के प्रति उनके मन में अत्यन्त घृणा थी । वे पार्श्वनाथ के उपासक थे और सूर्योदय के पूर्व कुछ नहीं खाते थे । आगे वे फिर लिखते Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०२ जैनत्व जागरण..... हैं- यद्यपि छोटा नागपुर के स्थान-स्थान पर उनकी बस्तियाँ पायी जाती हैं फिर भी उनके पूर्वज वहाँ के अधिवासी नहीं थे । उनका आदि निवास स्थान था पाँचेत । उन लोगों का देहवर्ण, गठन और केश विन्यास मुण्डा और कोल जाति के लोगों से भिन्न था । वे बड़े ही उद्योगी थे । जीविकोपार्जन के लिए उन्होंने कृषि और वाणिज्य दोनों को ही ग्रहण किया था । इनके स्थापत्य सम्बन्ध कार्यों के विषय में लिखते समय डाल्टन ने लिखा-मानभूम जिले में मैंने दो विभिन्न प्रकार के स्थापत्यों के ध्वंसावशेष देखे । उनमें जो प्राचीन हैं उनके विषय में कहा जाता है- और इस विषय में कोई सन्देह भी नहीं हैं कि वे उन प्रथम आर्य औपनिवेशियों द्वारा निर्मित थे जिन्हें कि सेराप, सेराव, सेराक या श्रावक कहा जाता है । यहाँ तक कि भूमिज जिन्होंने कि बहुत पहले से ही उन अंचलों में बस्तियाँ स्थापित की थी, वे भी कहते हैं कि उनके पूर्वजों ने (जो कि इस प्रकार के स्थापत्य निर्माण के कौशल से अनभिज्ञ थे) यहाँ बस्ती स्थापित करने के लिए जंगल साफ करते समय इस प्राचीन स्थापत्य को देखा था । साथ ही यह भी प्रवाद है कि सिंहभूम के पूर्वांचल में भी सराकों ने ही प्रथम उपनिवेश स्थापित किया था । लगता है सराकों ने अपनी बस्तिया नदियों के किनारे-किनारे स्थापित की थी । शायद इसीलिए उनके मन्दिरों के ध्वंसावशेष दामोदर, कंसाई एवं अन्य नदियों के किनारे ही पाए जाते हैं। कंसाई नदी की तटभूमि पूराकीति का एक समृद्ध क्षेत्र है । "In the district of Manbhoom, we find two distinct-types of architectural remains. Those that appear most ancient and are said by the people to be so are ascribed, traditionally and no doubt correctly to a race called variously Serap, Serab, Serak, Srawaka, who were probably the earliest Aryan colonists in this part of India; as even the Bhumij, who of the existing population claim to be the oldest settlers and whose ancestors had not the skill to construct such monuments declare that the first settlers of their race found these ruins in the forests that they cleared. We have the same tradition of early settlements for the Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०३ जैनत्व जागरण...... Srawaks in the eastern parts of Singhbhoom. Which were broken up by the warlike Hos or Lurks Coles. The Srawaks appear to have colonized along the banks of rivers and we find their temple ruins on the banks of the Damodar, the Cossai and other streams. The Cossai is rich in architectural remains. आगे उन्होंने लिखा है मैंने वहाँ की मूर्तियाँ देखी हैं एवं इस विषय में मैं निस्सन्देह भी हूँ कि ये सब पशु लञ्छन सह जैन तीर्थकरों की ही मूर्तियाँ हैं । मैंने जितने भी मन्दिरों का विवरण दिया है वे सब सम्भवत वीर या महावीर जिस पथ से गुजरे थे उसी पथ के किनारे उनके पदचिन्हों को अनुसरण कर उन लोगों द्वारा निर्मित हैं जिन्हें कि उन्होंने अपना अनुयायी बताया था । ये सभी मन्दिर समय या सम्मेत शिखर की परिधि में ही है । इस सम्मेत शिखर के विषय में कहा जाता है कि वीर निर्वाण के २३० वर्ष पूर्व जिन पार्श्व या पार्श्वनाथ ने सांसारिक बन्धनों को क्षय कर इसी स्थान पर निर्वाण प्राप्त किया था । अतः लगता है जंगलों के मध्य, नदियों के किनारे-किनारे महावीर के आविर्भाव के भी बहुत पहले जिन्होंने यहाँ बस्तियाँ स्थापित की थीं, जिनके मध्य महावीर ने धर्म का प्रचार किया था वे जैन धर्म के तत्वों से अपरिचित नहीं थे । भूमिज, हो या लुरका कोलों के मध्य प्रचलित प्रवादानुसार भी सराकों ने ही इस अंचल को सर्वप्रथम अपने अधिकार में लिया था । पाश्चात्य जगत के विद्वानों जिनमें कर्नल डाल्टन, वैलेनटाइन वॉल, मिस्टरजी, कूपलैण्ड, मिस्टर हरबर्ट रिसले आदि प्रमुख है उन्होंने सराक जाति के विषय में जो परिचय दिया है वर्तमान काल में सराकों से हमारा यही परिचय है । यह गम्भीर चिन्तन का विषय है कि जिस जाति का चरित्र इतना उन्नत है, जिनकी एक विशिष्ट संस्कृति है उनके विषय में आज तक हम अज्ञान क्यों बने हुए है ? बहुत कम लोग ही जानते हैं कि प्राचीन सभ्यता के धारक और वाहक सराक जाति थी और इतना ही नहीं ब्राह्मण धर्म के भयंकर उत्पीड़न से स्वयं को बचाने के लिये इनको अपना धर्म परिवर्तन करना पड़ा । हीन आजीविका में नियुक्त होना पड़ा । इतना होने पर भी इन लोगों ने अपना निजी वैशिष्ट्य पूर्णतया नष्ट नहीं किया । Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०४ जैनत्व जागरण....... भगवान पार्श्वनाथ और भगवान महावीर के विचरण क्षेत्र : पाश्चात्य विद्वानों और जैन ग्रन्थों से हमें पता चलता है कि छोटा नागपुर के पार्श्वनाथ पर्वतके समीप के क्षेत्र में भगवान महावीर से पूर्व ही सराक लोगों ने यहाँ अपना निवास स्थापित किया था । भगवान महावीर ने अपनी साधना के छः वर्ष इसी क्षेत्र में बिताये थे । भगवती 1 सूत्र से पता चलता है कि उस समय पार्श्वनाथ सम्प्रदाय के साधु-साध्वियों का भी यह विचरण क्षेत्र था । अतः यह माना जा सकता है कि महावीर से पूर्व भी यहाँ पार्श्व परम्परा या श्रमण परम्परा प्रचलित थी । "The 24th Tirthankara whom Professor Wilson represents as having "adopted an ascetic life and traversed the country occupied by the Bajra Bhumi and the Sudhi Bhumi who abused and beat him and shot at him with arrows and barked at him with dogs. of which small annoyances he took no notice." The Bajra or terrible Bhumi are, according to Colonel Dalten, the Bhumij. He suggests, therefore, that it is not improbable that the shrines referred to mark the course taken in his travels by the great saint "Vira;" and were erected in his honour by the people whom his teaching had converted, or, it may be and this is more consistent with local tradition on which however, no great weight can be placed-that he merely visited places at which Jains were already established. within sight of the sacred mount Samaya where 250 years earlier the Jin Paswa or Parasnath had obtained Nirvana. (Mr. G Coupland-Gazetter of Manbhum District.) " जैन सूत्र ग्रन्थों (आचारांग सूत्र, भगवती सूत्र इत्यादि) में ऐसा भी प्रमाण मिलता है कि महावीर से पहले भी कुछ जैन मुनि या सन्यासीगण धर्मप्रचार के उद्देश्य को लेकर या फिर किसी और कारण से इन अंचलों में आये थे । ऐसा लगता है कि ये सभी मुनि और सन्यासीगण महावीर के पूर्ववर्ती तीर्थंकर पार्श्वनाथ के अनुगामी रहे होंगे । अगर यह अनुमान Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनत्व जागरण..... २०५ सत्य हो, तो फिर यह स्वीकार किया जा सकता है कि पार्श्वनाथ ने वर्द्धमान महावीर से पहले ही पश्चिम बंगाल और बिहार में धर्मप्रचार किया था ।" (बंगाल सीमांत पर बसा सराक सम्प्रदाय) श्री अमरेन्द्रकुमार सराक लिखते हैं- "जैन शास्त्रों के अनुसार प्रभु पार्श्वनाथ का जन्म ईसा पूर्व ८७७ को काशी में हुआ था। उनके पिता का नाम राजा अश्वसेन, माता का नाम वामादेवी एवं पत्नी का नाम प्रभावती था । महाराज अश्वसेन नागवंशी नृपति थे। भगवान पार्श्वनाथ ने सत्तर वर्ष तक धर्म प्रचार किया और सौ वर्ष की अवस्था में उनको श्री सम्मेद शिखरजी में मोक्ष प्राप्त हुआ । प्रभु पार्श्वनाथ के निर्वाण के पश्चात् उनके साथ आये हुए सराकों के पूर्वज श्रावक लोग पार्श्वनाथ पर्वत संलग्न क्षेत्र में ही बस गये । आज से १५०-२०० साल पहले तक भी सराक जाति के लोग सवेरे बिस्तर छोड़ने के बाद पहले भगवान पार्श्वनाथ का स्मरण करते थे एवं सम्मेद शिखर की तरफ मुड़कर नत मस्तक होते थे । वर्तमान हिन्दु समाज में जैसे एक कहावत है कि - सभी तीर्थों की यात्रा बार-बार करने से जो फल मिलता है, गंगासागर पर एक बार यात्रा करने से ही वह फल मिलता है। उसी प्रकार आज से ६० वर्ष पूर्व मैंने भी एक १५५ वर्ष उम्र के मेरे ही गांव के एक वृद्ध व्यक्ति से सुना था कि हमारा सबसे बड़ा तीर्थ के यात्रा की जरूरत नहीं होती । उन्होंने यह भी सुनाया था कि वह जवानी में भी पैदल यात्रा कर घी चढ़ाकर आये थे अर्थात् दीप जलाने के लिये घर का घी लेकर जाते थे। उसी का अनुकरण कर वर्तमान में घी की बोली होती है आरती के लिये ।" बौद्ध साहित्य में अंग, बंग, कलिंग में गौतम बुद्ध धर्म प्रचार के लिये आये थे ऐसा कोई उल्लेख नहीं है । जब कि भगवान महावीर इस क्षेत्र में एक बार नहीं कई बार आये थे ऐसा वर्णन जैन साहित्य में मिलता है। भगवती सूत्र में जिन १६ जनपदों का वर्णन है उनमें अंग, बंग तथा कलिंग सर्वोपरि हैं । प्रज्ञापना नामक पंचम उपांग में भारत वर्ष के आर्य अधिवासियों को नौ भागों में बाँटा गया है जिनमें क्षत्रियों का उल्लेख करते हुए प्रथम अंग, द्वितीय बंग, तृतीय कलिंग तथा चतुर्थ राढ़ क्षेत्र का उल्लेख Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनत्व जागरण... २०६ 1 किया गया है । ब्राह्मण वैदिक साहित्य में इन क्षेत्रों को अनार्य घोषित किया गया है क्योंकि यहाँ के निवासी जैन धर्मानुयायी थे । बौद्ध साहित्य में भी इन क्षेत्रों की उपेक्षा की गयी है। जब कि जैन साहित्य में इन क्षेत्रों को आर्य क्षेत्र माना गया है । वास्तव में देखा जाए तो इन क्षेत्रों के आर्याकरण में भगवान ऋषभदेव से भगवान महावीर एवं उनके शिष्यों-प्रशिष्यों का बहुत बड़ा हाथ रहा । भगवती सूत्र के अनुसार वज्ज भूमि के क्षेत्र पणिय भूमि में भगवान महावीर ने छ: वर्षावास व्यतीत किये थे । वीरभूम, वर्द्धमान ने छः वर्षावास व्यतीत किये थे । वीरभूम, वर्द्धमान आदि क्षेत्र आज भी उनके नाम की स्मृति को अक्षुण्ण बनाये रखे हैं । आचारांग सूत्र के अनुसार महावीर ने राढ़ क्षेत्र की ऊसर भूमि में अनेक विपत्तियों का सामना किया था । आचारांग सूत्र के नवें अध्ययन के तृतीय उद्देशक में लिखा है अह दुच्चरं लाढमचारी वज्जभूमियं सुब्मभूमियं पंतं सिज्जं सेविंसु, आसणगणि चेव पंताणि ॥२॥ अर्थात्-जहाँ विचरना बहुत ही कठिन है ऐसे लाढ़ देश की वज्र भूमि और शुभ्र भूमि इन दोनों प्रदेशों में भगवान विचरे थे । वहाँ अनेक उपद्रवों से युक्त सूने घर आदि में भगवान ने विश्राम किया था । लाढेहिं तस्सुवसग्गा बहवे जाणवया लुसिंसु, अह लूह दैसिए भत्ते, कुक्कुरा तत्थहिंसिंसुणि-वसु ॥३ लाढ़ देश में विचरते समय भगवान को बहुत उपसर्ग हुए थे । वहाँ के निवासी लोग भगवान को मारते थे, कुत्ते उन्हें काटते थे और उन पर टूट पड़ते थे । णागो संगाम सीसे व पारए तत्थ से महावीरे । एवं वि तत्थ लाढेहिं अलद्धपुव्वो वि एगया गामो ॥८ जैसे हाथी संग्राम के अग्रभाग में जाकर शत्रुओं के प्रहार की परवाह न करता हुआ शत्रु सेना को जीतकर उसको पार कर जाता है इसी तरह भगवान महावीर स्वामी ने भी लाढ़ देश के परिग्रहों को जीतकर उस देशको Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनत्व जागरण..... २०७ पार किया था । कभी ठहरने के लिए ग्राम भी नहीं मिलता था तब वे जंगल में वृक्षादिके नीचे ठहर जाते थे । बंग देश के वीरभूम, वर्धमान, बाकुड़ा, पुरुलिया आदि क्षेत्र जहाँ सराकजाति के लोगों का निवास हैं भगवान महावीर के विचरण पथ के गवाह है। इन्हीं लोगों के बीच विषम परिस्थितियों में रहकर भगवान महावीर ने अपनी तपस्या और साधना द्वारा यहाँ के लोक मानस को परिवर्तित किया। ___ "राढ़ अंचल में उनके साथ जो हुआ उसने यह सिद्ध कर दिखाया कि महावीर मनुष्य थे, ईश्वर नहीं थे, और यह कि मनुष्य में से ही ईश्वर प्रकट होता है, वह अलग किसी धातु की रचना नहीं है। उन्होंने सारे खतरे झेलकर यह साबित किया कि मनुष्य तन में ही परमात्मत्व की सारी संभावनाएं सन्निहित हैं बशर्ते वह भेद-विज्ञान के प्रखर औजार से जीव-अजीव को पृथक् कर सके। राढ़ के उपसर्ग उन्हें भेद-विज्ञान की ओर ले गये । उनका जीवन-दर्शन बनां अध्यात्म में भेद-विज्ञान, समाज में अभेद-विज्ञान, आचार में अहिंसा, विचार में अनेकान्त बनां । जिस मानवतावाद के वे जीवंत प्रतीक बने उसने सम्पूर्ण पूर्वी भारत को झकझोर दिया, करुणा/सहिष्णता की यह हवा केवल मगध-बंग पर ही ठहरी नहीं रही, आगे बढ़ी और उसने सारे देश को अपनी अहिंसक/प्रीतिपूर्ण भुजाओं में समेट लिया । वस्तु-स्वातन्त्रय का अकाट्य प्रतिपादन, जो उनके अपने जीवन में से प्रकट हुआ, इतना तेजस्वी था कि लोग उससे प्रभावित हुए बिना नहीं रह सके । इधर यज्ञों में परम्परित/रूढ़ जो कुछ हो रहा था, उसने तत्कालीन मनुष्य की संवेदनशीलता को नख-शिख तक झुलसा दिया था, महावीर ने उस आहत को अपनी अहिंसा की मृदु अंगुलियों से सहलाया, समर्थ बनाया और एक बार पुनः मुमुर्ष मानवता को पुनरूज्जीवित किया, इसलिए हम कहेंगे कि पूर्वी भारत न केवल भौतिक/पार्थिव सूर्य की उदय धरा है, वरन् वैचारिक क्रान्ति की प्रसविणी धरित्री भी है ।" इतिहासकार नीहार रंजन राय कहते हैं - "जैन पुराण के ऐतिहासिकत्व को स्वीकार करने पर कहना होगा मानभूम, सिंहभूम, वीरभूम और वर्द्धमान इन चारों स्थानों के नाम जैन तीर्थंकर महावीर या वर्द्धमान के साथ जुड़े Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०८ जैनत्व जागरण.... हुए हैं और आज भी ये सराक बहुलक्षेत्र है।" "पूर्व भारत स्थित सराक गाँव व धरों में दीपावली व भगवान महावीर स्वामी के निर्वाण कल्याणक महोत्सव को अति धूमधाम के साथ मनाया। सच कहा जाए तो अनभिज्ञ सराक आज भी नहीं जानते हैं कि ये आग प्रज्ज्वलित कर इस तरह का धूमधाम क्यों मनाया करते है ।" जैनागम के उल्लेखानुसार कल्पसूत्र के अन्तर्गत भगवान श्री महावीर का निर्वाण महोत्सव का विशेष उल्लेख पाया जाता है । इस उल्लेख में दीपावली की रात्रि से पूर्व भगवान महावीर पावापुरी नगरी में दो दिन धर्म देशना देकर मोक्षपद प्राप्त करते हैं । उस समय वहाँ उपस्थित देव-देवी नर-नारी मिलकर शोक सहित भगवान का निर्वाण महोत्सव मनाते हैं। आज जहाँ जल मंदिर स्थित है, वहाँ पर प्रभु की पार्थिव शरीर को अग्निदाह देकर वहा उपस्थित भक्तजन मांगलिक रूप में प्रभु महावीर की चिता की राख अपने साथ ले जाते हैं । उसका अनुसरण करते हुए साधारण जनता भी वहाँ से अवशेष राख मिट्टी आदि लेकर अपने घर जाते हैं और मांगलिक रूप में प्रयोग करते हैं । इसी क्रिया का अक्षरशः अनुसरण आज २६०० साल बीतने के बाद भी सराक लोग करते हैं । जैसे दीपावली की रात्रि घर के सभी पुरुष सदस्य पाट लकड़ी की मशाल बनाकर घर के मुख्य स्थल में जलाये हुए दीपक में उसे जलाकर गाँव के बाहर एक निर्दिष्ट स्थान में पहुँचाते हं तथा वहाँ सजाये हुए लकड़ी की चिता जलाते हैं । प्रदक्षिणा देते हैं । अन्त में अधजले हए अवशेष को अपने साथ घर लाकर मुख्य दरवाजे, अनाज कोठी आदि-आदि स्थानों पर शुभ प्रतीक के रूप में रखते हैं । यह क्रिया भगवान महावीर का निर्वाण महोत्सव ही है क्योंकि इसका मुख्य प्रमाण मशाल जुलूस में विशेष नारे के रूप में 'इंजौइ पिंजोइ' शब्द का प्रयोग किया जाना है। * चीनी यात्री ने अपने यात्रा विवरण में बौद्धधर्म के सिवाय अबौद्धों के मन्दिरो को देवमन्दिरों के नाम से संबोधित किया है। इन देवमंदिरों में जैन मन्दिरों तथा पौराणिक संप्रदायों के मन्दिरो का समावेश होता है । (अनुवादक) Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनत्व जागरण....... धातु शिल्प : यह सराक जाति धातु विद्या में अत्यन्त ही उन्नत और पारदर्शी थी । इन्होंने ही ताम्र शिल्प को उन्नत किया । सिंह भूम अंचल की ताम्र खदानें इसकी पुष्टि करती है । यूरोपियन विद्वान Mr. Velentine Bal ने अपनी पुस्तक में लिखा है- "छोटा नागपुर के मालभूमि की तलहटी से ताम्बे की खान युक्त पहाड़ियों का पर्यवेक्षण करते-करते मैं जितना ही पूर्व की ओर अग्रसर होता गया उतना ही देखता गया कि जहाँ भी खानें थी उन सब से ही ताम्बा निष्कासन का कार्य हो चुका था । पहाड़ों के ऊपर, अधिपत्यकाओं में, अरण्य में, यहाँ तक कि जो धूल धक्कड़ एवं गर्दिश के नीचे दब चुकी थीं इनसे भी ताम्बा निकाला जा चुका था । यह देखकर मेरे मन में कौतुहल एवं प्रश्न जागृत हुआ कि वे लोग कौन थे जिन्होंने इस खानों से इतनी निपुणतापूर्वक ताम्बा निकाला था ? इस सम्बन्ध में जिनका नाम लिया गया वे थे सराक । " मेजर टिकेल भी इनके विषय में लिखते हैं कि “एक समय सिंहभूम सराकों या श्रावकों के अधिकार में था ।" जबकि आज वह उनके हाथों से निकल चुका है । उस समय में वे वहाँ बहुत बड़ी संख्या में रहते थे और समृद्धिशाली भी थे । 4 २०९ Mr. Bal के अनुसार “During the past season I have been engaged in an examination of a portion of country in which the copper-ores occur, Commencing to examine the copper bearing rocks at the foot of the Chhota Nagpar plateau and proceeding thence eastwards. I found that at nearly every point where traces of ore occured there were ancient found in every conceivable situation, at the top of hills, in valleys, in the thickest Jungles, and even in the middle of cultivation where the rocks are obscured by superficial deposits. My curiousity was aroused as to who the ancient miners could have been, who have left such imperishable evidence of their skill. (Mr. V.Ball - On the Ancient Copper mines of India) Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१० जैनत्व जागरण..... आगे उन्होंने लिखा है- “The more adventurous Sauats Jains having alone penetrated the jungles where they were rewarded with the discovery of copper upon the working of which they must have spent all their times and energy, as with the exception of the tanks above mentoned, the mines furnish the sole evidence of their occupation of that part of the countuy.” इन सराकों ने धने जंगलों से धरे अंचलों में ताम्र खदानों की खोज की । इन खदानों से ताम्र निष्कासन कर जीविका का निर्वाह करते हुआ आर्थिक वृष्टि से काफी सम्पन्न हो गये तब वहा के आदिवासी जातियों जिनमें 'हो', 'भूमिज' आदियों ने सराकों पर अत्याचार शुरू कर दिया । फलस्वरूप इस अंचल को छोड़कर मानभूम में जाकर बसना पड़ा । उन. अंचलों में आज भी बड़े बड़े जलाशय है । जिनके बारे में कहा जाता है कि इनका निर्माण सराक लोगों ने किया था । 'हो' जाति के लोग इन तालाबों को सराकी तालाब के नाम से पुकारते हैं। कर्नल डॉल्टन के अनुसार यह घटना क्रम २००० वर्ष पहले हुई थी। मानभूम अंचल में भी इन्होंने ताम्र खदानों की खोज कर वहीं अपनी बस्ती कायम की । ये ताम्र खदानें इनके अधिपत्य में भी थी तथा ये लोग उनमें काम भी करते थे। "छोटानागपुर अंचल में कई छोटे-छोटे पहाड़ हैं । इन पहाड़ों की चोटियों पर कई गहरे गड्ढे हैं, जिनके निकट अभी भी जहाँ-तहाँ उत्सर्जित धातु मल या स्लेप बिखरे हुए मिल जाते हैं । इसे देखकर लगता है यह ताम्र उत्सर्जित धातु मल हैं। इन दिनों के पुरुलिया (पूर्वी अविभाजितमानभूम) जिला के तामखुन नामक स्थान के पहाड़ों और टीलों की चोटियों तथा ढलानों पर कई ऐसे गहरे गड्ढे है जहाँ ताम्र धातु मलों के ढेर लगे हुए हैं । ऐसा लगता है इन गड्ढों के निर्माता सराक ही थे क्योंकि सराकों के बारे में कहा जाता है कि वे इन ताम्र खदानों में मजदूरी किया करते * चम्पापुरी में श्री वासुपूज्य भगवान् जैनों के बारहवें तीर्थंकर का अति प्राचीन जैन मन्दिर है । (अनुवादक) Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनत्व जागरण..... २११ थे। तब छोटानागपुर, सिंहभूम, धलभूम, राँची और मानभूम के ताम्रखदानों के पास ही मुख्यतः सराकों का उपनिवेश हुआ करता था एवं ऐसे खदानों के निकट आज भी उनका उपनिवेश देखा जाता है । यद्यपि अभी सराकों की संख्या काफी नगण्य हैं। कई शताब्दियों से ताम्र खदानों में निष्कासन नहीं होता । यही कारण है कि अभी सराकों को अपना जीवन निर्वाह कृषि, व्यापार तथा सूद-ब्याज के कारोबार द्वारा करना पड़ता है। ऐसा भी माना जाता है कि इस क्षेत्र में गन्ने की खेती की शुरुआत सर्वप्रथम इन्होंने ही की थी। लौह शिल्प : श्री हरिप्रसाद तिवारी व नृसिंह प्रसाद तिवारी लिखते हैं- "केवल ताम्रयुग के प्रवर्तक ही नहीं बल्कि पूर्वांचल में लौह युग के सृष्टा भी यह सराक जाति ही थी। राढ़ अंचल में वैज्ञानिक तरीके से इन्होंने प्रचुर परिमाण में लौह निष्कासन और विनियोग भी किया । जाम ग्राम को केन्द्र बनाकर अजय नदी के दोनों कुलवर्ती क्षेत्रों में रूपनारायणपुर से पाण्डेश्वर तक लम्बे तीस मील के अंचल में पर्वताकार उत्सर्जित लौह चूर्ण (लाख-लाख टन) तथा भग्नावस्था में पड़े हुए लौह-अयस्क गलाने की भट्ठियाँ आज भी इनके लौह शिल्प की दक्षता का प्रमाण देती हैं ।" सराक जाति इस देश के लौह शिल्प की कर्ता-धर्ता थी, इस बात का प्रमाण भगवान महावीर के परवर्ती जैन साहित्य में है जहाँ तीन लौहाचार्यों के साक्षात्कार मिलते हैं । "प्रथम लौहाचार्य भगवान महावीर के शिष्य सुधर्मा थे, जो कोल्लाक के निकट के निवासी थे, शायद वे लौह-शिल्पियों के पंडित थे, या फिर लौह-शिल्पियों के आचार्य ।" । दूसरे लौहाचार्य कल्पसूत्रकार भद्रबाहु थे । उनका गौत्र बहुत पुराना ★ जैन मुनि निग्रंथ के नाम से प्रसिद्ध थे । जिस का अर्थ "गांठ बिना" अर्थात् राग-द्वेष की गांठ के बिना का होता है (Uttradhyayna Adhyayna XII 16, XVI 2. Acaranga, PtII, Adhyayna III, 2 and Kalpa-Sutra Sut 130 etc) (अनुवादक) Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१२ जैनत्व जागरण..... था। ऋषभदेव के गोत्र से प्राचीन और कौन सा गोत्र हो सकता है। केवल ऋषभदेव गोत्र को ही घुमा फिरा कर प्राचीन गोत्र कहा गया है । अतः भद्रबाहु भी इसी अंचल के निवासी थे, इसमें कोई सन्देह नहीं है । भद्रबाहु के जन्मस्थान को लेकर कई मत हैं । कइयों ने उन्हें पुण्ड्रवर्द्धन का बताया है। फिर भी पुण्ड्रवर्द्धन को लेकर इतिहासकारों में काफी मतभेद है। कहींकहीं उन्हें कोटि वर्ष का भी कहा गया है । इतिहासकार डॉ. रमेशचन्द्र मजुमदार (History of Bengal, Vol. pp - 409-10) एवं देवी प्रसाद घोष (Traces of Jainism in Bengal, Jain Journal, Vol-XVIII No. 4, April 1984) ने भद्रबाहु को राढ़ का निवासी बताया है। ऋषभदेव या आदिदेव गोत्र यहाँ के सराकों में मिलता है । तीसरे लौहाचार्य कुमान सेन थे। वे मूल संघ से बहिष्कृत किए गए थे एवं बहिष्कृत होकर उन्होंने काष्ट संघ की स्थापना की थी। जिस गाँव के नाम पर उन्होंने काष्ट संघ की प्रतिष्ठा की थी, वह गाँव कास्ताजाम उत्तर में अजय नदी के किनारे आज भी मौजूद है । अतः हम निःसंकोच यह कह सकते हैं कि लौहाचार्य कुमान सेन इसी सराक बहुल अंचल के निवासी थे । __ भद्रबाहु अपने समय के सबसे अधिक प्रभावशाली धर्म प्रचारक थे। कहा जाता है वे मौर्य सम्राट चन्द्रगुप्त के गुरु थे । चन्द्रगुप्त ने उन्हीं की प्रेरणा एवं प्रभाव से जैन धर्म ग्रहण किया था । भद्रबाह रचित कल्पसूत्र में गोदास गण का उल्लेख पाया जाता है। वहाँ गोदासगण की कई शाखाओं में चार शाखाओं को बंगाल से सम्बन्धित बताया गया है। यथा : ताम्रलिप्तियां-तमलुक शहर के, कोटिवर्षिया-दिनाजपुर के निकटस्थ वानगढ़ के, पुण्ड्रवर्द्धनिया-वगुड़ा के निकटस्थ महास्थान गढ़ के और दासी खर्वटिया-मेदिनीपुर के समीप कर्वट के । ये सभी स्थान जैन धर्म के प्रभाव क्षेत्र थे । जैनाचार्यों का लौहाचार्य होना ये स्पष्ट करता है कि ये लोग लौह शिल्प के पंडित थे जिन्होंने सराक जाति को लौह शिल्प में दक्ष किया। भगवान ऋषभदेव तथा अन्य तीर्थंकरों के बाद प्रजा को शिल्प कला में Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनत्व जागरण..... २१३ दक्ष करने का कार्य जैनाचार्यों के विशिष्ट ज्ञान और पांडित्य को है । सराक जाति शिल्पकार थी । इनको शिल्प में प्रवीणता देने का कार्य जैन आचार्यों का था । नालन्दा विश्व विद्यालय के कार्य कलापों को देखने से इस बात की पुष्टि होती है कि वहाँ धातु प्रयोग की कला का अध्ययन जैनाचार्यों की देखरेख में होता था क्योंकि जैनाचार्य तत्वज्ञानी होते थे । वस्तु तत्व को जानते थे । प्रत्येक वस्तु के गुण और धर्म के विषय में उच्च कोटि का ज्ञानवान ही वस्तु के सही उपयोग का विधिकारक बन सकता है । जैसे लोहे के तत्व या गुण धर्म को जानने वाला ही उसके विभिन्न उपयोग की विधि को प्रयोग कर निकाल सकता है। इसी को हम तकनीक कहते हैं जिसे अंग्रेजों ने Technology कहा है । अशोक का लौह स्तम्भ जिसे देखकर आज भी लोग आश्चर्य चकित हो जाते हैं इनकी लौह तकनीक की दक्षता का प्रत्यक्ष प्रतीक है । यूनानी इतिहासकारों ने जिनमें मेगस्थनीज प्रमुख है बिहार और बंगाल के शक्तिशाली साम्राज्यों का वर्णन किया है । The Greek historians suggest that Alexander retreated fearing valiant attacks of the mighty Gangaridai and Prasioi empires which were located in the Bengal region. Alexander's Historians refer to Gangardai as a people who lived in the lower Ganges and its tributaries. He describes Gangaridai as a nation beyond the Ganges, whose king had 4 thousand war trained and equipped elephants. Later Periplus and Ptolemy also indicate that Bengal was organised into a powerful kingdom at the onset of the first millennium A.D. यहा एक महत्वपूर्ण प्रश्न उठता है कि किस संपदा के बल पर बंगाल और बिहार ने प्राचीन काल में भारतवर्ष में साम्राज्य स्थापित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभायी । ___ मगध के दक्षिण पूर्वी इलाके का मानभूम अंचल आज मल्लभूमि कहलाता है । यहा के राजा एवं सामन्तगण स्वयं को मल्लवंशी कहलाने में गर्व महसूस करते हैं । ऐसा माना जाता है कि मानभूम, बाकुड़ा, सिंहभूम, Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१४ जैनत्व जागरण..... मेदनीपुर के कुछ क्षेत्र मल्लभूमि के अन्तर्गत आते थे । मगध से ताम्रलिप्त जाने के रास्ते में इस भूग-भाग का होने का कारण इसका बहुत महत्व था। यह अंचल ताम्र और लौह खानों से समृद्ध था । बंगाल के ताम्रलिप्त बंदरगाह से मगध साम्राज्य का सारा आयात और निर्यात विदेशों को होता था । पाटलिपुत्र से ताम्रलिप्त तक के आवागमन के पथ पर ताम्र और लौह खदानों का होना इस क्षेत्र की समृद्धि का प्रमुख कारण रहा । प्रसिद्ध इतिहासकार डी.डी. कोसम्बी ने मगध के विषय में लिखा है- “Magadha had something for more important : the metals, and proximity to the river... Rajgir had the first immediate source of iron at its disposal. Secondly, it stradded (with Gaya to which the passage was through denser forest) The main route to India's heaviest deposits of iron and copper, to the south cast in the Dhalbhum and Singhbhum districts.. thus Magadha had a near monopoly over the main source of state craft. Chanakya was fully aware of the importance of mining : The treasury depends upon mining, the army upon treasure (Artha 2.12) : The mine is the womb of war materials (Artha 7...)” अर्थात् “मगध की समृद्धि एवं निरन्तर विकास का स्रोत उसकी धातु-सम्पदा थी । प्राचीन इतिहास के धातु युग की स्थापना तथा प्रगति ताबे के साथ हुई, जो परवर्ती काल में अपनी विशिष्ट भौतिक गुणवत्ता के कारण मुद्रा धातु के रूप में परिवर्तित होकर मुद्रा निर्माण के लिए अत्यन्त आवश्यक हो गया । मगध की दूसरी धातु-सम्पदा लौह थी, जिसका सन्धान परवर्ती काल में हुआ था तथा जिसका खनन और निष्कासन बहुत बाद में हुआ। फिर भी सभ्यता के विकास क्षेत्र में विशेषकर भारतवर्ष के आस-पास को कृषि के अनुकूल बनाने में आवश्यक हथियार के रूप में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई ।" तांत शिल्प : इस अंचल की सराक संस्कृति का गतिपथ सहज नहीं था। सर्वप्रथम, उन्हें आदिवासियों से युद्ध कर जंगलों को काटकर बस्तियां बसानी पड़ी। Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनत्व जागरण....... २१५ परवर्त्ती काल अर्थात् सातवीं शताब्दी में ब्राह्मणवाद के धारक एवं वाहक सम्प्रदायों से जूझना पड़ा । ब्राह्मण सम्प्रदाय व कट्टर हिन्दू लोगों ने सराक संस्कृति को इस अंचल से मिटाने के लिए उन पर उत्पीड़न करना शुरु किया । जैन मन्दिरों से सराकों द्वारा प्रतिष्ठित मूर्तियों को उठाकर हिन्दू देवदेवियों की मूर्तियाँ प्रतिष्ठित कर दीं । इस कार्य में उन्होंने हिन्दू राजाओं का समर्थन प्राप्त किया । परिणामतः सराकों के एक बड़े अंश ने उड़ीसा के उदयगिरि-खण्डगिरि अंचलों में भागकर वहाँ बौद्ध धर्म ग्रहण कर लिया । मानभूम में भी अनेकों ने धर्म बदल लिया । यहाँ तक कि ब्राह्मण धर्म के भयंकर कोप से आक्रान्त होकर स्वयं को बचाने के लिए अपने को विभिन्न प्रकार की हीन आजीविका में नियुक्त करना पड़ा । सराकों की इस अवनति का वर्णन करते हुए सर हारवर्ट रिसले ने भारत का जनगण नामक अपनी पुस्तक में लिखा हैं "They have split up into endogamous groups based partly on locality and partly on the fact that some of them have taken to the degaraded occupation of weaving and they now form a Hindu caste of the ordinary type." I सराकगण शिल्पी हैं । जीविका के लिये वे वस्त्र बुनने में बाध्य हुए थे, किन्तु बहुत कम समय में ही वे तांत वस्त्र के दक्ष शिल्पी बन गए । उस समय सराकगण मोटा कपड़ा या सूती वस्त्र नहीं बुनते थे, वे लोग ★ यद्यपि चीनी यात्री ने निर्ग्रथो का अन्य स्थानों पर विशेषतया वर्णन नहीं किया, तथापि जहां कहीं वह यह उल्लेख करता है कि बौद्धधर्म के साथ साथ अन्य धर्म भी प्रचलित थे, वहां समझना चाहिये कि जैन संप्रदाय भी उनमें से एक था । उसकी चुप्पी का यह अर्थ नहीं लगाना चाहिये कि पूर्वी भारत तथा बंगाल के दूसरे भागों में जैन न थे । जैसे, कि राजगृह के वर्णन में ह्यूसांग ने जैनों का कोई वर्णन नहीं किया परन्तु उस ने विपुल पर्वत की चोटी पर एक स्तूप के समीप कई निर्ग्रथों को देखा था । राजगृह जैनों का बहुत बड़ा तीर्थ स्थान है तथा बहुत परिमाण में जैन तीर्थंकरों की मूर्तियां इस स्थान पर आसपास बिखरी हुई मिलती है वैभार गिरि पर अनेक जैन तीर्थंकरों की मूर्तियां सुरक्षित हैं। तथा जैसे राजगृह बौद्ध साहित्य में प्रसिद्ध है वैसे ही जैन साहित्य में भी प्रसिद्ध है । (अनुवादक) Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१६ जैनत्व जागरण....... नेता या पाट के वस्त्र बुनते थे । सराकगण मध्य युग के दक्ष वस्त्र शिल्पी थे, इसे स्वीकृत करते हुए कवि कंकण मुकुन्दराम चक्रवर्ती अपने चण्डी मंगल में लिखते हैं सराक बसे गुजराटे जीव जन्तु नाहि काटे सर्वकाल करे निरामिष । पाईया इनाम बाड़ी, बूने नेत पाट साड़ी देखि बड़ वीरेर हरिष ॥ I "उस समय वस्त्र शिल्प की दक्षता दिखाकर बाड़ी (इनाम) पाने की. योग्यता एकमात्र सराकों में ही थी । कट्टर ब्राह्मण लोग सराकं वस्त्र शिल्पियों को अच्छी वृष्टि से नहीं देखते थे । वे लोग समय-समय पर सराकों को जुलाहा कहकर उपहास करते थे । इसी का निदर्शन ब्रह्म वैवर्त पुराण में पाया जाता है | सराकगण वस्त्र बुनने का कार्य करने लगे थे इसीलिए ब्रह्म वैवर्त पुराण के रचयिता ने उन्हें जुलाहा कहकर अभिहित किया । क्योंकि उस समय जुलाहे ही कपड़ा बुनते थे । लेकिन जुलाहों का कपड़ा मोटा अर्थात् खुंगार वस्त्र होता था । किन्तु सराकगण मोटा वस्त्र नहीं बुनते थे वे लोग तसर शिल्पी थे । पाट और तसर के वस्त्र देश के बड़े-बड़े लोग पहनते थे । अत: ब्रह्म वैवर्त पुराण का कथन भ्रम मूलक है ।" ( युधिष्ठिर माझी) 1 पाषाण शिल्प : सराक जाति तात शिल्प, मूर्तिशिल्प तथा ताम्र और लौह आदि के खनन में दक्ष थी । कल्प सूत्र में लिखा है कि ऋषभदेव ने पुरुषों को बहत्तर कलाएं, स्त्रियों को चौसठ कलाएं तथा सौ प्रकार के शिल्प कर्म प्रजा को सिखाये । प्रजा को कलाओं में शिक्षित कर एक शिल्पी वर्ग तैयार किया था । तो क्या यही वर्ग आज के सराक है ? मि. कूपलैण्ड ने भी सराकों को कला दक्ष शिल्पी जाति कहा है । उनके द्वारा निर्मित पाषाण शिल्प के निदर्शन इस पूरे क्षेत्र में सर्व विखरे पड़े हैं । Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनत्व जागरण..... २१७ दिनांक ३० दिसम्बर से ४ जनवरी २००९ तक बंगाल के पुरुलिया नामक जिले के सराक क्षेत्रों का भ्रमण किया गया जिसमें पंचकोट स्थान पर एक गुफा देखने को मिली। यह गुफा पहाड़ी में ३०० फीट पर असुरक्षित पड़ी है तथा बहुत प्राचीन है। हमलोग रास्ता खोजते-खोजते ऊपर चढ़े। जिन लोगों ने इस गुफा की खोज की वे लोग हमारे साथ थे । गुफा में तीर्थंकर मूर्ति अंकित है। इसी गुफा के ठीक ऊपर १५०० फीट ऊपर एक और गुफा की खोज मिली है लेकिन अभी उसका द्वार पूरा नहीं खोला गया। इस गुफा के अलावा २००० से २५०० वर्ष पुरानी मूर्तियां और मंदिरों के भग्नावेश भी देखने को मिले है जो सराक शैली के है । ये प्राचीन मूर्तियां खुले आकाश के नीचे रखी हुई है । जिनमें तेलकूपी के भैरवनाथ तथा पकवीरा के महाकाल भैरव दोनों ही वर्द्धमान महावीर की मूर्तियां है जो महाकाल भैरव के नाम में रूपान्तरित हो गई है । मि. कूपलैण्ड के अनुसार Mr. Dalton ने इन्हें ५०० से ६०० ई. पूर्व का बताया है । “Mr. Dalton placed them in the district as far back as five hundered or six hundred years before christ identifying the colossal image now worshipped at pakbirra under the name of Bhairav." अभी तक जो कुछ सुना या पढ़ा था उसने मुझे वहा जाने के लिये प्रेरित किया ।और जब वहाँ जाकर देखा तो दंग रह जाना पड़ा इस अंचल की पुराकीर्ति को देखकर । पुरुलिया, बाकुड़ा, मानभूम, सिंहभूम आदि सभी अंचलों में सराकों द्वारा निर्मित इतने प्राचीन मंदिर और मूर्तियाँ है जिसकी कल्पना भी नहीं की जा सकती । २ फरवरी १९९८ के आजकल समाचार पत्र में पुरुलिया के पकवीरा नामक स्थान के विषय में लिखा है “पकवीरा में पहले छ: फुट पर, फिर पाँच फुट पर और थोड़ा खोदने पर लगभग सात फुट पर पत्थर की प्राचीन मूर्तियाँ निकल रही है । प्रायः दस वर्षों से यही क्रम चल रहा है। प्रारम्भ में अचानक पत्थर की तीन विशाल मूर्ति निकली उसके बाद से यह सिलसिला शुरू हो गया और आज भी छोटी बड़ी सभी मूर्तियाँ निकल रही है। गाँव के वृद्धजनों की धारणा है कि पकवीरा में कम से कम ५०० मूर्तियाँ अभी Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१८ जैनत्व जागरण..... भी जमीन के नीचे पड़ी हुई है लेकिन इन महत्वपूर्ण मूल्यवान मूर्तियों के संरक्षण के प्रति सरकार का कोई आग्रह नहीं है।" ये हमारी प्राचीन धरोहरें आज भी उपेक्षित पड़ी हुई है । प्राचीन भारत की संस्कृति और सभ्यता का किस प्रकार पतन हुआ और आज भी पतन हो रहा है जिसकी कहानी सुना रहे हैं ध्वंसपथ के ये भाष्यकर्य शिल्प निदर्शन । आश्चर्य चकित हो गयी यह देखकर कि दक्षिण राढ़क्षेत्र की धरती के नीचे एक अत्यन्त प्राचीन ऐतिहासिक सराक शिल्पकला नीरव होकर एकान्त में अश्रु विसर्जन कर रही है । गाँव के लोग मानसिक व सामाजिक मान्यता पूरी करने के लिए इन मूर्तियों के सामने पशु-बलि भी देते हैं । अहिंसा धर्म के साधक पुरुष महान् तीर्थंकर की आँखों के सम्मुख ही रक्त से मिट्टी भीग जाती है। बकरियाँ और उनके शिशुओं की आर्त चीत्कार और ताजे रक्त स्त्रोत से जिस वीभत्स परिवेश की सृष्टि होती है इसके लिये केवल हमारी सरकार की नीतियाँ ही नहीं बल्कि समस्त जैन समाज भी इसका उत्तरदायी है । इसी प्रकार अजयनदी के तट पर कुछ प्राचीन स्तूप आज भी जीर्ण अवस्था में प्राप्त होने है । पुरातत्त्वविध पी.सी. दासगुप्ता इनको महावीर कालीन या उससे पूर्व व्रात्य युग की बताते हैं । ये आज भी उपेक्षित पड़ी हुई है। ___ दिनांक ३ जून Times of India में Lost city of the Jains नामक लेख में आसनसोल से २० किलोमीटर पुचड़ा गाव का वर्णन है। पुचड़ा का अर्थ है पंच चुरा अर्थात् पाँच मंदिर । वहाँ के इतिहास के विषय में लिखा है कि Twenty kilometres from Asansol, humpy road takes you to Punchra, a forgotten part of history where time has stood still for centuries. There are 50 families here-with a shared past like none else in the country. This is the only abode of the Bengali Jains. At first glance, the temples, the deities', and the numerous carved stones lying scattered in the dense undergrowth. Most of the Jain families of Punchra lead a life of abstinence. They don't even eat onions, potatoes and masu dal. Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनत्व जागरण..... २१९ These families call themselves 'Saraks' (a distortion of the word 'Shravak') or the Adi Jains. Arun Majhi, priest of the local Jain temple, believes that Lord Mahavira attained enlightnment on the banks of the nearby Ajoy river. Those who came in touch with him were called 'Shraveks.' He claims that the ruins of an entire city-dating back 1,400 years-lie buried under the village. ____ अरुण मांझी ने पत्र में जानकारी देते हुए लिखा है- "आदरणीय श्री राजेन्द्र जैन (इन्दौर से) यहाँ आये थे तथा पुचड़ा ग्राम के राजपाड़ा में स्थित प्राचीन जिन मन्दिर के अवशेष के स्थान पर यंत्र लगाकर निरीक्षण करके गये उन्होंने बताया कि राजपाड़ा के भू-गर्भ में तीर्थंकरों की कई स्वर्ण प्रतिमाएँ मौजूद है ।" ___ राजपाड़ा के संलग्न जमीन पर ४-५ फुट खुदाई पर बड़े-बड़े मकानों की बुनियाद मिलती है । आगे उन्होंने अपने पत्र में लिखा है कि "किसी को भी यहाँ आकर कोई असुविधा नहीं होती । गरीब परिस्थिति होते हुए भी हमारे घर में प्याज, लहसुन का प्रवेश निषेध है। आज से नहीं परम्परा से । मैं तो रात को भोजन भी नहीं लेता ।" इस पूरे अंचल में बिखरे पाषाण शिल्प के ये प्राचीन निदर्शन एक जीवन्त इतिहास के प्रामाणिक दस्तावेज हैं जो हमें हमारी प्राचीन संस्कृति की बहुमूल्य विरासत की छवि दिखा रहे हैं। चौबीस तीर्थंकरों में से बीस तीर्थंकरों की निर्वाण भूमि सम्मेत शिखर अति पवित्रं क्षेत्र माना जाता है । इसी के पार्श्ववर्ती अंचल में रहने वाले आदि जैन लोग धीरे-धीरे दामोदर कंसावती, द्वारिकेश्वर, शिलावती और बराकर के किनारे से होते हुए राढ़ बंग में फैल गये । इनके बनाये निदर्शन वर्द्धमान, बाकुड़ा, पुरुलिया मेदनीपुर जिलों के नदी तटवर्ती अंचलों में आज ★ थेरेहिंतो गोदासेहितो कासवगुत्तेहिंतो इत्थणं गोदासगणे नामं गणे निग्गए तस्सणं इमाओ चत्तारी साहाओ एवमानिज्जंति तं जहा तामलित्तिया कोडीवरिसिआ, पौंडवद्धणिया, दासी खव्वडिया । (कल्पसूत्र स्थविरावली) अनुवादक । Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनत्व जागरण ..... २२० भी परिलक्षित होते हैं । बाँकुड़ा जिले के ईंदपुर थाने के जोड़दा ग्राम की ब्रह्माधान में रक्षित पाषाण मूर्तियों का संग्रह, तालडांगरा थाना के देउलभिड़ा ग्राम से राखालदास बन्दोपाध्याय द्वारा संग्रहित और भारतीय संग्रहालय, कलकत्ता में रक्षित “पार्श्वनाथ" की मूर्ति, विष्णुपुर थाना के धरापाट ग्राम के पाषाण मन्दिर में स्थापित आदिनाथ और पार्श्वनाथ की दो मूर्तियाँ, ऊँदा थाना के बहुलाड़ा ग्राम के सिद्धेश्वर शिवालय के गर्भ गृह में रक्षित पार्श्वनाथ मूर्ति और अनेकों जैन स्तूपों के चिन्ह, सोनामुखी थाने के मदनपुर ग्राम की महावीर मूर्ति के अतिरिक्त एक्तेश्वर, डिहर, हाड़मासरा, अम्बिकानगर, चित्गिरि, चेयादा, केन्दुया, गोकुल, शालतोड़ा, ओका, बरकोणा इत्यादि गाँवों में जैन-संस्कृति ये प्राचीन साक्ष्यं वर्त्तमान हैं । धारापाट गाँव के नेंगटा ठाकुर मन्दिर के उपास्य देव हैं नागछत्रधारी जैन तीर्थंकर भगवान पार्श्वनाथ की मूर्ति । द्वारकेश्वर नदी को पार कर धारापात पहुँचने के मार्ग में कई शिवालय दृष्टिगोचर होते हैं जो देव मन्दिर है । धारापात में ही देव प्रतिमा विहीन एक मन्दिर है जिसके बाहरी भाग के आलों में विशाल प्रतिमाएं विराजित थी । भगवान ऋषभदेव, शान्तिनाथ भगवान आदि की ये प्रतिमाएं लगभग बारह सौ से पन्द्रह सौ वर्ष प्राचीन थी । इस मन्दिर के ठीक पीछे एक और मन्दिर में भगवान पार्श्वनाथ की सप्तफणा प्रतिमा थी । इन क्षेत्रों में जहाँ जहाँ भी जिन प्रतिमाएं है उन्हें लोग नग्टेश्वर शिव, तो कहीं भैरव आदि नामों से पुकारते हैं । जैन धर्मावलम्बी, जो जैन संस्कृति का केन्द्र है, सराक जाति का निवास ग्राम है बाँकुड़ा का शालातोड़ा, जो जैन संस्कृति का केन्द्र है | हाड़मासरा गाँव की सीमा में भी एक पत्थर का शिखर युक्त छोटा मन्दिर है । इसके पीछे जंगल में एक पार्श्वनाथ भगवान की खड़ी प्रतिमा है । जिसके परिकर में नवग्रह, अष्टमहाप्रातिहार्य धरणेन्द्र, पद्मावती आदि निर्मित हैं । कंसावती नदी के तट पर बंधे हुए बांध के पास पारसनाथ नाम का गाँव है, वहाँ एक पहाड़ी पर भगवान पार्श्वनाथ की विशाल प्रतिमा दो टुकड़ों में खंडित पड़ी है । कंसावती और कुमारी नदी के संगम पर बसे अंबिका नगर में जैन शासनदेवी अंबिका के मन्दिर के पृष्ठ भाग में एक जैन मन्दिर अवस्थित Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनत्व जागरण..... २२१ है जिसमें आदिनाथ ऋषभदेव स्वामी की सुन्दर प्रतिमा है । कंसावती नदी के ही दक्षिणी तट पर मेदिनीपुर शहर की विपरीत दिशा में खड़गपुर थानान्तर्गत बालिहटी के जैन मन्दिर के ध्वंसाशेष दक्षिण पश्चिम बंग में जैन प्रभाव का अन्यतम दृष्टान्त है। कुछ साल पहले कोलाघाट के पुल निर्माण के समय रूपनारायण नदी के गर्भ से एक प्राचीन मूर्ति निकाली गयी । बालिहाटी का पार्श्ववर्ती अंचल जिन शहर नाम से भी परिचित है। कुछ मील दूर पाथरा ग्राम में भी पाया गया है एक जैन चौमुख जिस पर जैन तीर्थंकरों की मूर्तियाँ खुदी हुई हैं । पुरुलिया जिले के बांगमुण्डी थाना का देउली उस समय जैन धर्म का अन्यतम विकास-स्थल था । इस जिले के तेलकूपी में इतनी जैन मूर्तियाँ पायी गयी हैं कि विस्मित हुए बिना नहीं रहा जाता । तेलकूप में तीन विख्यात मन्दिरों का पता लगा है। दो छोटे मन्दिर सबसे पुराने हैं । ये दोनों सराकों द्वारा निर्मित जैन मन्दिर हैं । बड़ा मन्दिर तो एकदम दामोदर के किनारे पर ही है। अवश्य ही वर्तमान में यह मन्दिर टूट गया हैं । इसके ध्वंस स्तूप के मध्य और एक मन्दिर निर्मित किया गया था। इस नवीन मन्दिर का आकार बहुत कुछ शिव मन्दिर जैसा है. सम्भवतः मूल मन्दिर के टूट जाने पर मन्दिर की विख्यात् भैरवनाथ की मूर्ति नवीन मन्दिर में रख दी गयी है। वर्तमान में यह मन्दिर दामोदर की मिट्टी में फंस गया है। भैरवनाथ तेलकूपी के विख्यात् और जागृत देवता कहे जाते हैं । भैरवनाथ की मूर्ति अवश्य ही जैन तीर्थंकर महावीर की मूर्ति है । अतीत में ये विरूप नाम से पूजे जाते थे। बाद में यह अहिंसा धर्म के साधक पुरुष हिन्दू ब्राह्मण संस्कृति के साथ युक्त होकर भैरव नाम में रूपान्तरित हो गए । ऐसा ही हुआ है पाकविड़रा में । ब्राह्मण संस्कृति के कालभैरव का यथार्थ रूप किस किस्म का है यह कोई नहीं जानता फिर भी तीर्थंकरों के दिगम्बर रूप भैरवनाथ का एक आकर्षणीय रूप कल्पित करने में इस अंचल के मनुष्यों की सहायता करता है । तेलकूपी के भैरवनाथ चौबीसवें तीर्थंकर महावीर हैं यह बात मिस्टर ई.टी. डाल्टन ने स्वीकार की थी। इस प्रसंग में उनकी उक्ति स्मरणीय हैं : Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनत्व जागरण....... "There is another of these temples at Telkoopi on the Damodar, and there is an image still worshipped by the people in the neighbourhood which they call Birup. It is probale intended for the 24th Tirthankara Vira or Mahavira, the last Jine." २२२ कहा जाता है कि तेलकूपी के भैरवनाथ का मन्दिर किसी राजा महाराजाओं द्वारा निर्मित नहीं किया गया था । यह तो बनाया गया था शिल्पपतियों के द्वारा । मन्दिर निर्माण में सराक जैन शिल्पियों के हाथों की छाप इनमें हैं । कुछ किंवदन्तियों होने पर भी तेलकूपी का अपना इतिहास है । एक समय यही गाँव इस अंचल की विख्यात् शिल्प नगरी थी । मि. डाल्टन ने इस शिल्पनगरी के तोरणद्वार को खोज निकाला था। किसी समय ताम्रलिप्त से घाटाल, विष्णुपुर, छातना, रघुनाथपुर से तेलकूपी पर्यन्त एक रास्ता बनवाया गया था । तदुपरांत यही रास्ता दामोदर पार होकर पाटलिपुत्र तक चला गया था । उस समय घाटाल, विष्णुपुर, रघुनाथपुर, आदि स्थान तांत- शिल्प में उन्नत थे । शिल्पपति ताम्रलिप्त से इसी रास्ते से पाटलिपुत्र जाते थे । में पड़ता तेलकूपी नगर । यहाँ कुछ दिन वे विश्राम करते । फिर वर्षा के दिनों में दामोदर पार होना सहज कार्य नहीं था उन दिनों शिल्पपतियों को कुछ दिन तेलकूपी में रहना ही पड़ता था । तब तेलकूपी एक विख्यात सराय-सी थी । इसी प्रसंग में मि. कूलपैण्ड लिखते हैं राह "According to tradition, the temples at Telkoopi are ascribed to merchants and not to Raja or Holymen, and the inference is that a large trading settlement spring up to this pont where the Damodar River would present at any rate in rainy seasons, a very considerable obstacle to the travellers and merchants. तेलकूपी के प्रसंग में आलोचना करते हुए एक विषय हमारे मन को बहुत आकृष्ट करता है । वह विषय है तेलकूपी के भैरवनाथ । तेलकूपी के भैरवनाथ और पाकविड़ा के महाकाल भैरव दोनों ही जैन तीर्थंकरों की Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनत्व जागरण....... २२३ मूर्तियाँ है । सम्भवतः तीर्थंकर महावीर की । अतः भैरव शब्द ब्राह्मणधर्मीय संस्कार जात है या जैनधर्मीय संस्कार जात यह विषय गवेषणा का है । अनेकों के मतानुसार भैरव शब्द वीर व वीरम् शब्द से आया है । According to W.W. Hunter in his Statistical Account of Bengal (List of Ancient Monuments of Bengal, 1896) the image from Telkupi of Bhairav from which Bhairavassthan gets its name was of Lord Mahavira, the 24th Tirthankara of the Jains. In the opinion of F.B. Bradley-Brit the statury was Jaina (Chota-Nagpore: A Little - Known Province of the Empire 1903/1910. P. 181.) In the INTACH survery of Jaina monuments of South Jharkhand (Purulia, Seraikela, 2006) the Jaina statury was invariably found in the sites with similar temple architecture as the Bhairavasthan temples of Telkupi. There is therefore every reason to assume Telkupi was a Jaina temple cluster. Further evidence is had by the fact the legendary Jain king Vikramaditya believed to have come annually to Telkupi on pilgrimage. इस जिले के पाड़ा और पाकविड़रा भी समान रूप से महत्वपूर्ण पश्चिम बंगाल का सबसे प्राचीन जैन मन्दिर पाड़ा में है । यह मन्दिर दो से ढाई हजार वर्ष प्राचीन है । मन्दिर के पाषाण और शिल्प कला के वैशिष्ट्य की विवेचना करनेसे ही पता चल सकता है कि यह मन्दिर आज से प्राय: डेंढ़ हजार वर्ष पूर्व निर्मित हुआ था । कईयों का तो अनुमान है कि यह मन्दिर अढ़ाई हजार वर्ष पुराना है । श्रीयत प्रसिद्ध प्रसित कुमार रायचौधरी ने अपने ग्रन्थ 'बंग संस्कृति कथा' में लिखा है- "ये सराक ही जिले के प्राचीनतम् निवासी हैं । प्रायः अढ़ाई हजार वर्ष पूर्व निर्मित मन्दिरों के ध्वंसावशेष आज भी पाड़ा, वड़ाम आदि स्थानों में पाये जाते हैं । इनकी बात स्वीकार कर लेने पर कहना होगा कि पाड़ा का यह वृद्ध भग्न जीर्ण मन्दिर अढाई हजार वर्ष पूर्व से सराक संस्कृति के उत्थान - Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२४ जैनत्व जागरण..... पतन के साक्षी रूप में पुरुलिया की धरती पर अब भी खड़ा है। यद्यपि महाकाल के स्त्रोत भा मिट गये हैं, देह के अलंकार, क्षय हो गये हैं देह के सर्वांग, विवर्ण हो गया है रंग फिर भी महाकाल के इस महासमुद्र में एक आलोक स्तम्भ की तरह सराक सम्प्रदाय के मनुष्यों को दिक् निर्णय करता हुआ यह कह रहा है- मैं इतिहास बनकर आज भी बचा हुआ हूँ। डर क्या अतीत ही तुम्हें पथ दिखाएगा ।" __ (युधिष्ठिर माझी) वर्द्धमान जिले का नामकरण जैन तीर्थंकर महावीर के नाम से सम्बन्धित है । इस जिले के दामोदर तीरवर्ती अंचल किस प्रकार जैन धर्म से प्रभावित हुए थे उसके सैकड़ों प्रमाण उपलब्ध हैं । वर्द्धमान जिले के बगुनिया, शिवपुर, काजोड़ा, नन्दी, जामुरिया, रक्षितपुर, बसुधा, माजूरिया, खाण्डारी, मानकर, कसवा, सुयाता, एड़ाल, सर, आदरा, परशूड़ा, नवावहाट, रायना, खण्डघोष, बोंयाई, श्यामनगर, भारूचा, मण्डलजाना इत्यादि अनेकों गांवों में जैन सम्प्रदाय के विभिन्न उत्सव आज भी अनुष्ठित होते हैं । ये सब क्षेत्र दामोदर नदी के दोनों तटों पर अवस्थित हैं । जीटी रोड़ के पास ही बराकर नदी के तट पर आसनसोल महकमा के बेगुनिया में चार प्राचीन सुदर्शन मंदिर हैं । ऐतिहासिक वेगलर के मत से इन मन्दिरों के कई-कई तो छठी शताब्दी के हो सकते हैं । अवश्य ही मन्दिर में स्थापित शिलालिपियों को लेकर बहुत तर्क वितर्क हुआ है । बहुत सी पत्थर की मूर्तियाँ भी यहाँ मिली है जो पुरुलिया के तेलकूपी के मन्दिरों की मूर्तियों से मिलती जुलती हैं । इसमें कोई सन्देह नहीं है कि बेगुनिया किसी समय जैन धर्म का अन्यतम केन्द्र था । किन्तु बाद में वहाँ की धर्मीय इमारतों और मूर्तियों को शैव और ब्राह्मण धर्म ने ग्रास कर लिया । इस विषय में युधिष्ठिर माँझी ने लिखा है "पाकविड़रा के मन्दिर धर्मान्ध मनुष्यों के काले हाथों से नहीं बच सके । किन्तु बराकर के मन्दिर शिवलिंग का कवच धारण कर अक्षत रह सके हैं । बराकर मन्दिर के गर्भ में शिवलिंग स्थापित कर देने के कारण अब इन्हें शिव मन्दिर कहकर ही प्रचार किया जाता है। पश्चिम बंग सरकार Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनत्व जागरण..... २२५ के टूरिस्ट ब्यूरो के विज्ञापन में लिखा गया है- माइथन तुम्हें पुकार रहा है। यात्रा करते समय बराकर के कोलाहलहीन शान्तिधाम, कल्याणेश्वरी और विख्यात् शिव मन्दिर आर्त-हृदयों की क्लान्ति को समाप्त कर देगा । किन्तु बराकर मन्दिरों को विख्यात शिव मन्दिर कहकर प्रचार करने से न केवल सत्य को ही झुठलाया जाता है अपितु, विदेशी भ्रमणकारियों को विभ्रान्त भी बनाया जाता है । टूरिस्ट ब्यूरो जैसी दायित्वशील संस्था के द्वारा इस प्रकार का प्रचार शोभा नहीं पाता । लोकदृष्टिके अन्तराल में पड़ी हुई ये पुरावस्तुएं शोध-खोज की आशा रखती हैं। विशेष रूप से नदी-गर्भ से प्राप्त यहाँ की यन-सामग्री के इतिहास का भी अनुसन्धान परम आवश्यक है। कितने विस्मय की बात है कि वर्द्धमान जिले के दुर्गापुर शिलांचल के आसपास के ग्रामों में जैन धर्म ने व्यापक रूप में अपना जो विस्तार किया था इतिहासकारों ने उसका कहीं उल्लेख ही नहीं किया । दामोदर के तीरवर्ती बाँकुड़ा और वर्द्धमान के विभिन्न इलाके एवं आज के दुर्गापुर इलाके के नाना स्थान उनके पुण्य पाद-स्पर्श से धन्य हुए हैं । राढ़ देश में जैन धर्म के विकास सम्बन्धी निष्ठापूर्ण शोधकार्य को इतिहासकार किस कारण से उपेक्षा करते आए हैं मात्र दुर्गापुर के पार्श्ववर्ती कुछ ग्रामों की पुरावस्तु से ही इस प्रसंग की आलोचना की जा सकती है। दामोदर बाँध के पश्चिम तटवर्ती बाँकुड़ा जिले के बड़जोड़ा थाने का मेटेली ग्राम चर्मकार, शृंडि, धीवर, बागदी, बाउरी, एवं कुम्भकार जाति का निवास स्थल एक प्राचीन गाँव है । गाँव के गडेर डांगा में काले-पत्थर और बालुपत्थर की अनेक मूर्तियाँ पायी गयी है जो आज भी वहाँ पर है । गाँव के वृक्षतले शिवरूप में पूजित मूर्ति संग्रह के मध्य चार इंच, चौबीस इंच और चार इंच परिमाप की शीर्ष देश भग्न काले पत्थर की एक तीर्थंकर मूर्ति । मूर्ति के नीचे हाथ में बँवर लेकर खड़े हैं दो पुरुष, चार योगी मूर्तियाँ और नीचे करबद्ध होकर खड़ी हैं दो नारियाँ एक ही पत्थर में खुदी हुई । अठारह इंच, आठ इंच और छह इंच आकार का एक दूसरा पत्थर है तीर्थंकर मूर्ति के पादपीठ में । नीचे धावमान अश्व और सिंह, नारी तथा Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२६ जैनत्व जागरण..... शिशु है । इसके अतिरिक्त है गोलाकार आसन सहित बालु पत्थर का एक शिवलिंग जो कि बाद में संयोजित किया गया है ऐसा प्रतीत होता है । स्थानीय मण्डल परिवार द्वारा रक्षित खुदा हुआ प्रस्तर खण्ड और बाउरी पाड़े के बाँस-झाँड़ के मध्य रखा विशालायतन प्रस्तर खण्ड किसी तीर्थंकर मूर्ति का पाद-पाठ ही हो सकता है। गाँव के वाथान पाड़ा इलाके में टीन से छाया कालाराज चाला-मन्दिर में है अनेक खुदे हुए पत्थरों के टुकड़े, इनमें दो इंच, सात इंच, और एक इंच परिमाप के एक प्रस्तर खण्ड में जैन तीर्थंकर की मूर्ति खुदी हुई दिखाई पड़ती हैं । दुर्गापुर हिन्दुस्तान फर्टिलाइज़र कॉलोनी के उत्तर में आड़रागाँव के राय परिवार में धर्मराज रूप से जो भग्न प्रस्तर खण्ड तेल-सिंदूर से लिप्त होकर नित्य पूजा जाता है उनमें हैं जैन तीर्थंकरों का खुदा हुआ पाद-पीठ, जैन मूर्ति का भग्नावशेष, नाग-छत्रधारी मूर्तियाँ आदि हैं । इस गाँव के राढेश्वर शिवालय के पार्श्ववर्त जंगल से भी अनेक भग्न जैन मूर्तियाँ पायी गयी है। इतना ही नहीं आड़रा और बालूनाड़ा गाँव के विभिन्न परिवारों में इतने खुदे हुए प्रस्तर खण्ड देखने में आए कि लगता है वे सब किसी जैन मन्दिर के ध्वंसावशेष हैं जिन्हें उठाकर मकान निर्माण में प्रयोग किया गया है । वर्तमान डी. पी. एल. टाउनशीप के पार्श्ववर्ती वीरभानपुर गाँव के शंखेश्वरी तला में अनेक जैन और अन्यान्य मूर्तियाँ हैं इसके अतिरिक्त अमरारगढ़ से प्राप्त मूर्तियाँ, पानागढ़ के निकटवर्ती भरतपुर में पायी गयी मूर्तियाँ, कुडुरिया और भिरिंगी में पायी हुई मूर्तियों के साथ जैन संस्कृति का कितना सम्बन्ध है यह देखने से पता चलता है । दुर्भाग्यवश दुर्गापुर क्षेत्र की मूर्तियाँ आज भी अवहेलित पड़ी हुई है ।। राढ़ बंगाल के विभिन्न स्थानों में शिव या धर्मराज रूप में जैन मूर्तियों को पूजा जाता देखा गया है । कई जगह जैन तीर्थकरों की भग्न मूर्ति ग्राम देवता के रूप में वृक्ष तले अधिष्ठित है । बाँकुड़ा जिले के तालडाँगरा थाने के देउलभिड़ा ग्राम की पाक-बारहवीं सदी में निर्मित देउल मन्दिर पहले जैन मन्दिर ही था । इसका मुख्य विग्रह (पार्श्वनाथ) वर्तमान में भारतीय Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनत्व जागरण..... २२७ म्यूजियम में सुरक्षित है । इस गाँव का देउल मन्दिर नेंगटा ठाकुर (अर्थात् दिगम्बर पार्श्वनाथ)का मन्दिर नाम से परिचित है। ऊँदा थाने के बहुलाड़ा ग्राम का सिद्धेश्वर शिव का मन्दिर पहले जैन धर्म वालों का ही था इसके प्रमाण हैं । तालडाँगरा थाने के हाड़मासरा गाँव के परित्यक्त शिखर देउल के चारों ओर कभी जैन धर्म प्रतिष्ठित था इसके भी प्रमाण हैं । अमियकुमार बन्दोपाध्याय के कथनानुसार "शिलावती के गतिपथ के थोड़ा उत्तर में आज का हाड़मासरा ग्राम कभी जैन धर्म का केन्द्र था । आलोच्य प्राप्त पुरातात्विक वस्तुएँ उसका प्रमाण हैं । डिहर, सोनातपल एक्तेश्वर सर्वत्र एक ही बात लागू होती है। पुरुलिया जिले के वागमुण्डी थाना के देउली गाँव के जैन मन्दिरों में मूल मन्दिर के देवता तीर्थंकर शान्तिनाथ आज भी लोक देवता इणुनाथ नाम से पूजे जाते हैं । अनेक बाँझ नारियों को इनकी कृपा से सन्तान प्राप्ति हुई है। मूर्ति के सम्मुख बकरे की बलि भी होती है । लौकिक देवों की पूजा की विचित्र रीति-नीतियों का भी यहाँ अनुसरण किया जाता है । वर्द्धमान जिले के मंगलकोट थाने के शंकरपुर गाँव के नेंगटेश्वर नाम से परिचित शिवमूर्ति का वर्णन इस प्रकार है- काले पत्थर से बनी साढ़े तीन फुट की मूर्ति के चारों और छः स्वस्तिक बने हुए है । वे दिगम्बर हैं एवं लिंग दृश्यमान है। पादपीठ के पद्म पर एक मृगमूर्ति ध्यान देने योग्य है । इनके भी भक्तों की संख्या कम नहीं है। मृग तो शान्तिनाथ का प्रतीक है जैसा कि पुरुलिया के बागमुण्डी थाने के देउली ग्राम के शान्तिनाथ मन्दिर में देखा गया । फिर भी पश्चिम बंग के पूजा-पार्वन और मेला ग्रन्थ के पंचम खण्ड के बत्तीसवें पृष्ठ में उल्लिखित शंकरपुर के नेगटेश्वर को भोलानाथ परमेश्वर के रूप में ही घोषित किया गया । पूरे बंगाल में जहाँ प्राचीन खुदे प्रस्तर खण्ड, शिव या लोक-देवता के रूप में पूजित है उन्हें गहन रूप में पर्यवेक्षण करते ही असली रहस्य प्रकाशित हो जाता है । दुर्गापुर के विभिन्न स्थानों में देव-देवी रूप में जो सब प्रस्तर खण्ड या मूर्तियाँ है उनमें अधिकांशतः या तो जैन तीर्थंकर मूर्तियों के भग्नांश हैं या वे जैन प्रभावयुक्त हैं । बाँकुड़ा के रानीबाँध थाना के अम्बिकानगर की अम्बिका देवी, राईपुर थाना के राईपुर की महामाया, खातड़ा थाना की केचन्दरा Page #230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२८ जैनत्व जागरण..... अम्बिका देवी,शिमलापाल थाने की जोड़सा और गोतड़ा की अम्बिका देवी जैन धर्म से सम्बन्धित हैं । ये सब लौकिक देवी रूप में ही पूजी जाती हैं । छान्दाड़ के निकटवर्ती पांचाल ग्राम की वृहद् परशा पुष्करिणी के साथ पार्श्वनाथ का सम्बन्ध स्पष्ट है । श्रद्धेय माणिकलाल सिंह द्वारा संग्रहीत इन तथ्यों के अतिरिक्त चुपामनसा के कपिलेश्वर शिव का गाजन और स्थानीय मनसा पूजा के समय तीर्थंकर मूर्ति खुदी एक जैन मन्दिर की प्रतिकृति की पूजा उल्लेखनीय है । यह घटना बड़जोड़ा थाना के मेटेली में भी देखी जाती है । पत्थर की इस क्षुद्राकार मन्दिर की प्रतिकृतियों में आदिनाथ, पार्श्वनाथ, शान्तिनाथ और महावीर मूर्तियाँ खुदी हुई है । (त्रिपुरा-बसु). चौबीस परगना जिले के दक्षिण प्रान्तिक अंश या सुन्दरवन सीमा के मध्य जैन धर्म संस्कृति के बहुत से निदर्शन पाए गए हैं। वर्तमान सुन्दरवन सीमा में बहुत से स्थान पहले खुष्टीय बारहवीं शताब्दी में भी अरण्ययुक्त और समृद्ध जनपद पूर्ण थे और इनके अंशविशेष राढ़ और पुण्ड्रवर्द्धन भुक्ति के अन्तर्भुक्त थे। इस जिले के डायमण्ड हार्बर महकमे के दुर्गम ग्राम में दो प्राचीन ध्वंस स्तूप (गत शताब्दी में वन बसने के पश्चात् से) पाए जाते हैं । ये दोनों स्थान लोगों में मठवाड़ी के नाम से परिचित हैं। पहला घोष लोगों के चौक में वाइसहाटा ग्राम के प्रान्त में धान क्षेत्र का विराट स्थान अधिकृत किए हुए है कुछ समय पूर्व इसकी ऊँचाई थी प्राय: बीस फुट । वर्तमान में कुछ हस हो गया है। इसी वाइसहाटा की मठवाड़ी से कई मील दूर द्वितीय मठवाड़ी नलगोड़ा नामक ग्राम के समीप है । वर्तमान में यह ऐतिहासिक व पुरातात्त्विकों के निकट परिचित जटार देउल से ४-५ मील के मध्य है । अभी इस नलगोड़ा मठवाड़ी के समस्त चिन्ह लुप्त होते जा रहे हैं स्थानीय लोगों द्वारा यहाँ की ईटें उठा ले जाने का कारण विख्यात पुरातत्त्वविद् स्वर्गीय कालिदास दत्त महाशय के अनुसार दोनों मठवाड़ियों का जैन मठ होना ही संभव है। कारण इस अंचल में बहुत से जैन निदर्शन आविष्कृत हुए हैं। प्रसंगतः इस क्षेत्र में इस स्थान के विख्यात जटार देउल का उल्लेख किया जा सकता है । कोई-कोई विद्वान् अनुमान करते हैं Page #231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनत्व जागरण....... २२९ उक्त जटा ग्राम के प्राचीन और विराट मन्दिर या जटार देउल जैनो के हैं । इसी अनुमान के समर्थन में कहा जाता है- अठारहवीं शताब्दी में ईस्ट इण्डिया कम्पनी जब सुन्दरवन को अरण्यमुक्त करने को उद्योगी हुई उसी समय यह मन्दिर प्रकट हुआ । उस समय अंग्रेज सर्वेयर मि. स्मिथ ने जो विवरण दिया उसमें लिखा है कि उन्होंने जटा नामक अंचल के मंदिर में एक ८९ वर्ष के बालक की भाँति मूर्ति देखी थी । मूर्ति दण्डायमान थी । बाद में या वर्तमान स्मिथ साहब वर्णित मूर्ति उक्त मन्दिर में दिखलाई नहीं पड़ी । इससे अनुमान किया जा सकता है कि वह मूर्ति किसी जैन तीर्थंकर की थी । जटार देउल और बाँकुड़ा जिले के बहुलाड़ा के सिद्धेश्वर मन्दिर में गठनगत समानता है । इन दोनों रेख देउल का निर्माणकाल भी प्रायः एक ही है। बहुलाड़ा के मन्दिर के विषय में बहुत-सी आलोचनाएँ और गवेषणाएँ हुई हैं । कुछ ऐतिहासिकों ने अपना अभिमत दिया है कि यह जैन मन्दिर हैं । किन्तु जटार देउल के विषय में अधिक गवेषणा नहीं हुई है । गवेषणा कार्य के लिए निर्भरयोग्य उपादान भी नहीं पाए गए हैं। वन हासिल करने के समय जो फलक प्राप्त हुआ उससे मालूम होता है उक्त मन्दिर राजा जयचन्द्र द्वारा शक्-संवत् ८९७ में तो निर्मित है ही । बहुलाड़ा का सिद्धेश्वर मन्दिर जैन मन्दिर है ऐसा बहुत से गवेषकों का मन्तव्य है । जटार देउल . के साथ कई विषयों में समानता होने से एवं जटा अंचल से जैन निदर्शनों के आविष्कृत होने के कारण यह अनुमान किया गया है कि जटार देउल जैनों का ही मन्दिर है । तीर्थंकर महावीर के समय से भद्रबाहु पर्यन्त (खु. पू. पंचम - षष्ठ शताब्दी से खू. पृ. चतुर्थ शताब्दी) जैन धर्म के प्रचार स्थानों में पुण्ड्रवर्द्धन का उल्लेख है । जटा का यह मन्दिर पुण्ड्रवर्द्धन भुक्ति में था यह ताम्रलिपि से जाना गया है । 1 "सुन्दरवन की सीमा में देलवाड़ी या देउलवाड़ी जंगल में मन्दिरों का जो ध्वंसावशेष आविष्कृत हुआ है वह जैन मन्दिर था । देउल शब्द का अर्थ मन्दिर है | यह हिन्दु, बौद्ध या जैन मन्दिर के सम्बन्ध में प्रयुक्त हो सकता है | किन्तु प्रायः क्षेत्रों में लक्ष्य किया गया है कि देउल अर्थात् मन्दिर या मन्दिरयुक्त क्षेत्र से अतीतकाल की सभ्यता के जो निदर्शन Page #232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनत्व जागरण ....... २३० आविष्कृत हुए हैं उनमें अधिकांश जैन धर्म संस्कृति के परिचायक हैं। उदाहरण स्वरूप प्रस्तुत कर सकते हैं वर्द्धमान जिले का सात देउलिया पुरुलिया का देउ या देउली । चौबीस परगना जिले में कुछ दूर-दूर स्थित कई ग्रामों में जैन धर्म संस्कृति के निदर्शन देखे जाते हैं । इससे अनुमान लगाया जा सकता है कि जैन धर्म के प्राधान्य काल में इस अंचल में एक जैन समाज या जैन धर्म का केन्द्र था । ग्रामों के नाम यथाक्रम करञ्जलि, कांटावेनिया एवं घाटेश्वर है । करञ्जलि (ऐसी विशुद्ध भाषा किसी गाँव के नाम की नहीं सुनी जाती । इसी से धारण की जा सकती है कि किसी समय यह गाँव समृद्ध था जो कि अब वर्तमान में एक साधारण गाँव मात्र है ।) गाँव में किसी-किसी भू-स्वामी के घर में कुछ पुरातत्व की वस्तुएँ रक्षित है। ये सब इसी अंचल से संग्रहित हैं । इनमें कई जैन संस्कृति के निदर्शन भी हैं। इसी ग्राम की एक पुष्करनी के तट पर दो वृहद् आकार के स्तम्भ या मन्दिर के खम्भे I । इस पर उत्कीर्ण कारूकार्य को लक्ष्य कर यह कहा जा सकता है कि ये जैन शिल्प के निदर्शन हैं । दोनों स्तम्भ जैन मन्दिर के हैं जो कि इसी ग्राम के भू-गर्भ में चला गया है । कांटावेनिया काँटावेनिया ग्राम से कुछ दूर गाँव में तीर्थंकर पार्श्वनाथ की एक अक्षत और सुन्दर मूर्ति प्रायः ४ फुट ऊँची है जो की यत्नपूर्वक मन्दिर में रखी हुई है । उसकी पूजा भी नित्य होती है एवं बलि भी दी जाती था । I धाटेश्वर कुछ दूर अवस्थित घाटेश्वर गाँव में आदिनाथ अर्थात् जैन धर्म के प्रवर्तक ऋषभदेव की मूर्ति है । घाटेश्वर ग्राम की आदिनाथ भगवान की मूर्ति यद्यपि जीर्ण हो गयी है फिर भी लक्षण और शिरस्त्राण को लक्ष्य करते हुए यह सिद्ध किया जा सकता है कि यह मूर्ति ऋषभदेव की है । पद्म पर दण्डायमान, मस्तक पर मुकुटाकार जटाजूट, पास में उड्डीयमान गन्धर्व है । वृषभ (बैल) लांछन एकदम अस्पष्ट हो गया है । • कैनिंग शहर से कुछ दूर मातला थाने के आधीन बोल बाउल ग्राम में अति जीर्ण अवस्था में प्राय: ५ फुट ऊँची जो जैन मूर्ति मिलती Page #233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनत्व जागरण...... २३१ है वह पार्श्वनाथ की है । दक्षिण बारासात में इसी प्रकार की जीर्ण अवस्था में पार्श्वनाथ की एक मूर्ति उन्मुक्त स्थान में एकदम अवहेलित रूप में पड़ी है । • सुन्दरवन से कई जैन चौखुपी मन्दिर की क्षुद्र अनुकृतियाँ पायी गयी हैं । ये आठ से दस इंच ऊँची हैं । इनमें दो पाषाण की हैं, I हैं जली हुई मिट्टी की । चौखुपी चतुष्कोण है। इसके चारों ओर जैन तीर्थंकरों की मूर्तियाँ उत्कीर्ण हैं । चौखुपी शब्द चौमुख से आया है। जैन शिल्प का एक वैशिष्ट्य होता है चतुर्मुख या चौमुखी प्रतिमा । अन्य सराक संस्कृति से जुड़े अतीत के पुराक्षेत्रों की पर्यालोचना करने पर एक विशेष तथ्य हमारे सम्मुख उभरता है- वह है छोटा नागपुर अंचल के समस्त पुराक्षेत्रों का दामोदर एवं कंसावती नदी के तटवर्ती अंचलों पर अवस्थित होना । यहाँ की दामोदर एवं कंसावती ने माला की भाँति गूँथ रखा है इस समस्त पुराक्षेत्रों को । अतः कहा जा सकता है प्राचीन सराक संस्कृति थी अधिकांशतः नदी मातृक । दामोदर एवं कंसावती की पुण्य धाराओं ने अतीत के सराक भाष्कर्य शिल्प को संजीवित किया था । दामोदर एवं कंसावती के स्नेह रस में स्निग्ध हुई थी उस समय की अहिंसा धर्म की अमर पुण्य भूमि । " ( बंगाल में जैन युग की स्मृति) इस प्रकार हम देखते हैं कि अनेक जैन मूर्तियाँ तीर्थकरों, गणधरों एवं शासन देवियों की जो इन क्षेत्रों में सर्वत्र बिखरी पड़ी हैं वे इन्हीं सराकों के पूर्व पुरूषों के द्वारा निर्मित एवं प्रतिष्ठित करायी गयी हैं । इनकी प्राचीन कारीगरी के बहुत से चिन्ह अवशेष हैं जो इस देश में सबसे प्राचीन हैं, ऐसा यहाँ के सब लोग कहते हैं । ये चिन्ह वास्तव में उन लोगों के हैं जिस जाति के लोगों को सराक- सरावग कहते हैं जो शायद भारत के इस भाग में सबसे पहले बसने वाले हैं । प्रश्न उठता है, कि ये पाषाण शिल्प के कलादक्ष कारीगर कौन थे, कहाँ से आये थे जिसके जबाव में हम कह सकते हैं कि श्रावक सम्प्रदाय के इस क्षेत्र में आने के बाद जब भाष्कर्य शिल्पियों की आवश्यकता हुई तब इन्हें जैनाचार्यों द्वारा प्रशिक्षण देकर तैयार किया गया । पुराकीर्ति के जो निदर्शन आज हमें प्राप्त होते हैं वह इन्हीं सराक शिल्पियों के हैं । इस Page #234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३२ जैनत्व जागरण..... सन्दर्भ में मि. कूपलैण्ड ने लिखा है ___"...reference has already been made in an earlier chapter as the remnant of an archaic community (the Saraks) whose connection with the district must date back to the very earliest time.” झारखण्ड के बुद्धिजीवी राधा गोविन्द माहात अपने "झारखण्डे धर्मान्तर अभियान 'ओ समाज संस्कार आन्दोलन' नामक एक प्रबन्ध में लिखते हैं- "जो कुछ हो, सराक जाति ने जैन धर्म ग्रहण किया और बहुत समय तक इस अंचल में धर्म की इस दीपशिखा को प्रज्ज्वलित रखा । इनके हाथों निर्मित जैन मन्दिर एवं भूप्रस्तर रचित जैन मूर्ति सहित विभिन्न देव-देवियों की मूर्तियाँ आज भी बहुत जगह विद्यमान हैं । तत्कालीन निर्मित इसका भाष्कर्य शिल्प वर्तमान युग के मनुष्य को भी आश्चर्य चकित कर डालता है कारीगरों की सूक्ष्म निपुणता देखकर ।" ___ यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि जो भूमि ऋषभदेव के समय से १०वीं शताब्दी तक जैन संस्कृति के प्रभाव में रही और जहाँ लाखों की संख्या में जैन धर्मानुयायी थे आज वहाँ के निवासी जैन धर्म की मूल धारा से अलगअलग पड़ गये । विदेशी आक्रमणों तथा कठिन विषय परिस्थियिों के कारण जैन धर्म का ह्यस होने लगा । कालान्तर में जैन धर्म विरोधी प्रवाह में अरण्यमय राढ़ बंग की जैन मूर्तियाँ और मन्दिरों ने क्रमशः धर्म विद्वेषी मनुष्यों की निर्मम छेनी और हथौड़ी के आघात से हिन्दू संस्कृति के रूप को प्राप्त किया। सिर्फ पुरुलिया की धरती पर इतनी जैन मूर्तियों का मिलना यह जिज्ञासा उत्पन्न करता है कि इतनी जैन मूर्तियाँ यहाँ कहाँ से आयी ? जिसके लिये हम कह सकते हैं कि यहाँ निश्चित तौर पर भाष्यकर्य शिल्प कला और मूर्ति निर्माण की एक कर्मशाला थी जिसमें दक्ष सराक शिल्पीगण मूर्ति निर्माण करते थे। प्राचीन काल में ताम्रलिप्त बन्दरगाह से तेलकूपी होकर एक स्थल पथ दामोदर को अतिक्रम कर पाटलीपुत्र पर्यन्त चला गया था। इसी पथ से मगध साम्राज्य का व्यापार चीन, जापान, इन्डोनेशिया, बर्मा, थाईलैण्ड Page #235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ stara GINRUT.... २३३ आदि देशों से होता था और इन्हीं पथों से विदेशों में भी इन सराक शिल्पियों द्वारा बनाई गयी मूर्तियाँ भेजी जाती थी । पाश्चात्य विद्वानों ने इन पथों की खोजकर इनके विषय में लिखा है The Jain element is more prominently marked at some of the neighburing place, and there are very considerable remains also in other parts of the district, in some places purely Jain, in others Brahmanical, superimposed on or alongside early Jain remains. Mr. Beglar, who made a comprehensive study of these and similar remains from Tamluk to Patna and Gaya in 1862-63, propounds an interesting and fairly probable explanation of these numerous remains of an advanced civilisation in a part of the county so little known in later years, and which from its natural features could never have lent itself readily to any general state of civilisation in the early days from which these relics date. This theory is that there must have been regular routes between Tamluk (Tararalipta) a place of very early importance in the east, and Patna (Pataliputra), Gaya, Rajgir and Benares in the north and west. Among the routes which he traces, so far as this district is concerned, is that from Tamluk to Patna via Ghatal, Bishunpur, Chatna (in Bankura), Raghu-nath pur, Tailkupi, Jharia, Rajauli (Gaya) and Rajgir. According to tradition the temples at Telkupi are ascribed to merchants and not to Rajas or holy men, and the inference is that a large trading settlement sprung up at this point where the Damodar river would present, at any rate in the travellers and marchants. Another great route passing through this District would be more direct road to Benares marking the line of this are the extensive remains. Jain and Brahmanical, at Pakbira, Buddhpur and other places on the Kasai river near Manbazar;it would pass further west strike the subarnarekha river at or near Dalmi; Safarn and Suisa Page #236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनत्व जागरण....... २३४ on the same bank of the river, another Dalmi and other adjoining places on the west Bank, all contain traces of early Jain and Brahmanical civilisation, and Dalmi would certainly appear to have been a very considerable town. Further west, the route would pass Ranchi and Palamau where also there are remains. Gross roads connecting the main Benares and Gaya routes explain the large collection of remains in the neighbourhood of Pakbira and Buddhpur; from this point to Palganj the route is marked by ruins at Balarampur and Charra near Purulia, at Para, at Chechaongarh and various neighburing villages on the Damodar, and at Katras. Another route which Mr. Beglar has omitted, i.e. from Dalmi to Palganj, would after crossing the Ajodhya range pass Boram on the Kasai river where also there are extensive remains of about the same period as those at Dalmi. An intervening place on this routhe, Arsha Karandihi, also contains ruins which have not been examined. This route would, like the other, cross te Damodar near Chechangrh and find its way via Katras to Palganj. सराकों का वैशिष्ट्य :: सराकों की विशिष्टताएँ उल्लेखनीय हैं । मध्यकाल में वीर शैवों के उपद्रवों के फलस्वरूप अधिकांश लोगों को अत्याचारों से बचने के लिये अपने धर्म को परिवर्तित करना पड़ा। इसके बावजूद इन्होंने आज भी अपनी प्राचीन परम्पराओं को बचाकर रखा है । इनकी कुछ प्रमुख विशिष्टताएं हैं जो हमें आज भी आकर्षित करती है १. २. ३. यहाँ के सराकगण पूर्णतः निरामिष भोजी हैं । सराक स्त्रियाँ भोजन बनाते समय काटा शब्द तक का भी व्यवहार नहीं करतीं । सराक समाज का कोई भी मनुष्य भिक्षा वृत्ति को नहीं अपनाता । स्वयं को नीच या मर्यादा रहित पेशे में नियुक्त नहीं करते । Page #237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनत्व जागरण..... ४. ५. २३५ सराकों का कोई भी मनुष्य किसी भी प्रकार के घृणात्मक अपराध के लिए कभी कोर्ट से दण्डित नहीं हुआ । अर्थात् इन लोगों में अपराधियों की संख्या नितान्त अल्प या नहीं है बोलने से भी अत्युक्ति नहीं होगी । स्त्रियाँ खूब रक्षणशील होती हैं। किसी भी प्रकार से अन्य किसी जाति के घर खाद्य ग्रहण नहीं करती; न ही वहाँ रात व्यतीत करती हैं । इसके अतिरिक्त वे लोग चमड़े का जूता नहीं पहनती । I धर्म परिवर्तन होने पर भी ये लोग २३वें तीर्थंकर पार्श्वनाथ के उपासक है तथा सम्मेत शिखर की यात्रा करते हैं तथा जिस दिशा में सम्मेत शिखर है उस दिशा में धान अर्पण करते हैं । १८६३ वृष्टाब्द में मिस्टर ई. टि. डाल्टन ने पुरुलिया का सराक प्रभावित ग्राम झापड़ा का परिदर्शन किया । वे सराक समाज के मनुष्यों के आचार-आचरण, रीति-नीति एवं उनके व्यवहार पर मुग्ध होकर लिखते हैं- “They called themselves Saraks and they prided them selves on the fact that under our Government not one of their community had ever been convicted of a heinous crime." बुद्धि प्रवृत्तियों की प्रशंसा करते हुए वे आगे लिखते हैं- “who (saraks) struck me as having a very respectable and intelligent appearence.” सराकों ने अपने उन दिनों के इतिहास को आज भी बना रखा है वे एक सुश्रृंखल जाति हैं । सराक कानून के अनुसार चलना पसन्द करते हैं। किसी भी कारण से किसी दिन भी उन्होंने सरकार के प्रति विद्रोह घोषित नहीं किया । मिस्टर डाल्टन का कथन है- They are essentially a quiet and law-abiding community, living in peace among themselves and with their neighbours." 1 सराक स्त्रियों की रीति-नीति बतलाते समय सर हारबर्ट रिसले सराकों की रसोई घर का वर्णन करते हैं । उन्होंने सराकों की अहिंसा धर्म के प्रति Page #238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३६ जैनत्व जागरण.... निष्ठा और सत्यता के विषय में लिखा है- “There name is a variant of Sravaka (Sanskrit hearer), the designation of the Jain laity; they are strictly vegetarians never eating flesh and on so account taking life and if in preparing their food any mention is made of the word 'cutting' the omen is deemed so disastrous that everything must be thrown away.” जो वस्तु रक्त-सील लाल होती है सराकगण वह वस्तु खाना पसन्द नहीं करते । लाल पुई, गाजर, लाल सीम आदि खाना उनमें निषेध है । इसके अतिरिक्त कुकुरमुत्ता, डुमुर आदि पदार्थों को तो रसोई घर में ले जाना ही मना है। इस प्रसंग में एक सुन्दर कहावत प्रचलित है। लोकगीत के अंशरूप इस कहावत में कहा गया उमुर डुमुर पुडंग छाति, तिन खायना सराक जाति सराकों में कोई भिक्षावृत्ति का आचरण नहीं करता । फिर इनमें कोई प्रशासनिक दायित्व पर नहीं है। इनके समाज में डॉक्टर, इंजीनियर, विचारक आदि उच्च पदाधिकारियों का बहुत अभाव है । अतः आर्थिक दृष्टि से ये पिछड़े हुए हैं । पुरुलिया के सराकों में जैसे खेत मजदूर, मिल मजदूर कम हैं, वैसे ही डाक्टरों एवं विचारकों की संख्या भी नगण्य है। किन्तु, शिक्षक हैं । यहाँ के सराकगण अध्यापन कार्य को जीवन व्रत के रूप में ग्रहण करते हैं। इसके अतिरिक्त जिला के प्रगतिशील कृषक रूप में इनका बहुत नाम है। सराक समाज के शिल्प श्रमिक वर्धमान जिले में अधिक पाये जाते हैं । यहाँ के सराकों की आर्थिक स्थिति भी अन्य सराकों की अपेक्षा अच्छी है। इस जिले के सराक परिवार के चालीस प्रतिशत से भी ज्यादा सदस्य दुर्गापुर आसनसोल के शिल्प अंचल और कोयले की खान में नौकरी करते हैं। दूसरी ओर बांकुड़ा में मात्र दस प्रतिशत और संथाल परगना में बाईस प्रतिशत लोगों ने नौकरी पेशा ग्रहण किया है । बाँकुड़ा जिला और संथाल परगना के सराक लोगों की कृषि आय पहले की अपेक्षा कम हो गयी है। Page #239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनत्व जागरण....... २३७ कृषि कार्य में बेकारी बढ़ जाने से पहले जो परिवार पीछे उत्पन्न धान्य का परिमाण ३० क्वीन्टल था वह आज कम होते हुए १८ क्वीन्टल रह गया है । जनसंख्या में वृद्धि हो जाने से प्रति व्यक्ति के हिसाब से जमीन का परिमाण भी कम हो गया है । यही कारण है कि यहाँ के सराक नौकरी में अधिक जाने लगे हैं । I I वर्धमान जिले में शिक्षितों की संख्या काफी अच्छी है उसी प्रकार व्यक्ति पीछे आय भी अन्य जिले के सराकों से अधिक है । बाँकुड़ा के सराकों की आर्थिक अवस्था एकदम अच्छी नहीं है । बाँकुड़ा, वर्धमान और संथाल परगना में सराकों की जनसंख्या के ३५ प्रतिशत मनुष्य रहते हैं । पुरुलिया में ५० प्रतिशत और वीरभूम मेदिनीपुर एवं राँची सिंहभूम अंचल में मात्र १५ प्रतिशत सराक रहते हैं । में एक सराक समाज के कुछ उत्साही युवकों ने गैर सरकारी रूप से सराक समाज की जनगणना का कार्य किया था । उनकी गणना के आधार पर कहा जा सकता है कि सराकों की कुल संख्या ३५९८१ हुई थी । यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि वीरभूम और मेदिनीपुर जिले के सराकगण विलुप्त प्राय: है । और जो वहाँ बचे है वे लोग अपना स्व वैशिष्ट्य सुरक्षित नहीं रख सके । अनेक स्थानों में वे अन्य जातियों में मिल गए । सराकों का धर्म परिवर्तन : हिन्दू धर्म की ओर से इन सराकों पर कम अत्याचार नहीं हुए । उन अत्याचारों का वर्णन में मिलता है हवेनसांग लिखित विवरण में । राजा शशांक के विषय में हवेनसांग ने लिखा है कि शशांक ने गया के बोधिवृक्ष को उखड़वा दिया, पाटलीपुत्र में बुद्ध के पद चिन्ह अंकित एक पत्थर को गंगा में फिकवा दिया, कुशी नगर के विहार से बौद्धों को मारपीट कर निकाल दिया । गया के एक मन्दिर से बुद्ध मूर्ति को हटाकर वहाँ शिवमूर्ति स्थापित करने का आदेश दिया | हवेनसांग बौद्ध थे । अतः उन्होंने बौद्धों पर किए गए अत्याचारों का वर्णन किया, जैनों के विषय में नहीं लिखा । फिर भी इससे यह अनुमान तो हो ही जाता है कि बौद्ध विहार और जैन मन्दिर Page #240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनत्व जागरण... २३८ दोनों ही शशांक के उत्पीड़न से नहीं बच सके थे। आर्य मंजुश्री मूल कल्प में कहा गया है कि राजा शशांक ने बौद्ध और जैन दोनों को ही उत्पीड़ित किया था । इस उत्पीड़न का इतिहास शायद नहीं लिखा गया हो, किन्तु वहाँ के विनष्ट मन्दिर और मूर्तियाँ जो साक्ष्य दे रही है उसे देखते हुए भी यह कहना कि काला पहाड़ लोक यह सब कार्य किया, उचित नहीं है । धारापाट के मन्दिर का ही दृष्टान्त लीजिए । इस मन्दिर का जो सबसे अधिक लक्षनीय है वे हैं शिखर निबद्ध तीन मूर्तियाँ, उसमें एक है वासुदेव की, अन्य दो है जैन तीर्थंकर आदिनाथ और पार्श्वनाथ की । इन दोनों मूर्तियों को देखकर लगता है कि सुदूर अतीत में यहाँ या इसके आसपास किसी समय एक जैन धर्म का केन्द्र था । वर्तमान मन्दिर के प्रायः २०० गज दक्षिण पश्चिम में खूब बड़े टीले के ऊपर माकड़ा पत्थर का एक प्राचीन आमलक आदि का भग्नांश बिखरा हुआ मिलता है । सम्भवतः यह उस समय जैन मन्दिर था । उस मन्दिर के उल्पीडन के पश्चात् इस देवालय को केन्द्र कर एक वासुदेव उपासना का केन्द्र खड़ा हो गया । उसका एक मात्र प्रमाण उपरोक्त मन्दिर की वासुदेव मूर्ति ही नहीं समीप के दालान में मनसा नाम से उपासित पार्श्वनाथ की करीब ४ फुट ऊँची मूर्ति भी है । वस्तुत: इस जैसी कौतूहलोद्दीपक और साथ-साथ वेदनादायक मूर्ति पश्चिम बंगाल की मूर्तियों में अधिक नहीं हैं । नागछत्रधारी (इसीलिए मनसा में रूपान्तरित) पार्श्वनाथ मूर्ति के पीछे वाले प्रस्तर पर गदाचक्रधारी दो हाथ जोड़ दिए गए और लक्ष्मी सरस्वती की प्रथागत दो मूर्तियाँ भी उत्कीर्ण कर दी गयी है । कर्नल डाल्टन और बेगलर ने विस्तृत रूप से प्रकाश डालते हुए लिखा है कि किस प्रकार शान्ति प्रिय सराक जाति के ऊपर सातवीं शताब्दी में ब्राह्मणों और उनके अनुयायियों द्वारा अत्याचार हुए और उन्हें यहाँ से स्थान पलायन करना पड़ा । पुनः १०वीं और १६वीं शताब्दी में ब्राह्मणों और भूमिजों द्वारा सराक संस्कृति और उनके निदर्शनों को जड़ से उखाड़ने का षड़यंत्र किया गया । Combining Colone! Dalton's and Mr. Beglar's theories Page #241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ tra GIURUT..... २३९ we should get a long period of peaceful occupation of various centres by the Jains or Saraks left undisturbed by the Bhumij settlers whose advent must have been some time before Vir's travels. The Saraks must have been superseded some time before the 7th century by Brahmans and their followers; such of them as survived or resisted conversion migrating to places away from the existing civilised centres where they remained unmolested by their Bhumij neighbours. The 10th century, judging by such of the buildings as it is possible to date with any accuracy, saw the Brahmans at their prime, and same time between that and the 16th century the Bhumij, possible assisted by fresh migrations from the west and north must have risen and destroyed them root and branch. The destruction of the Hindu temples is ordinarily ascribed to Muhammadans but, so far as this area is concerned, there is no trace, not even in tradition, of any invasion Mr. Beglar draws a similar inference from two inscriptions founded by him at Gondwana en route from Barabazar to Chaibasa, the earlier of which, though not interpretable, from the 6th or 7th century and the later to the 15th or 16th; the later Banjara which read with the evidence of earlier use of the route to be inferred from the other inscriptions, suggests a period of 500 years or more during which trade along this route was stopped, and considering the reputation of the Bhumij in later years. it is hardly surprising that if the existing civilization was forcibly uprooted, it would be long before the country would be even comparatively safe for the ordinary traveller. लम्बे समय तक ब्राह्मण और कट्टर हिन्दू समाज के लोगों का अत्याचार सहन करने के फलस्वरूप सराक सम्प्रदाय राजाओं का आश्रय प्राप्त करने में सफल हुआ । कवि कंकण चण्डी के युग में वर्गी आगमन काल तक Page #242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४० जैनत्व जागरण.... सराकगण विभिन्न राजाओं के आश्रय में निवास करते रहे । धलभूम में राजा मानसिंह के आश्रय में बहुत सी सराक प्रजा निवास करती थी। राजा मानसिंह के साथ सराकों के सम्बन्ध खराब नहीं थे, फिर भी एक समय राजा मानसिंह के सराक परिवार की किसी एक लड़की के साथ अभद्र व्यवहार करने के कारण सराकगण उनसे विरक्त हो गए थे एवं प्रतिवाद स्वरूप दल के दल लोग सिंहभूम का परित्याग कर पांचेत अंचल में आकर बसने लगे । सत्य और निष्ठावान सराक जाति जिस प्रकार अन्याय करती नहीं है उसी प्रकार अन्याय को सहन भी नहीं कर पाती हैं । उपर्युक्त घटना सराकों की इसी मनःस्थिति को प्रकट करती है । इसी ऐतिहासिक घटना की सत्यता स्वीकार कर मिस्टर कुपलैण्ड लिखते हैं- They (Saraks) first settled near Dhalbhum in the estate of a certain Man Raja. They subsequently moved in a body to Panchet in consequence of an outrage contemplated by Man Raja on a girl belonging to their caste.” धलभूम से स्थान परिवर्तन के पश्चात् सराकगणों की यह शाखा पंचकोट के राजा के आश्रित होकर रहने लगी । यहाँ उन लोगों ने जैन धर्म परित्याग कर वैष्णव धर्म ग्रहण कर लिया । वे भी अब हिन्दुओं की भाति पदवी, गोत्र एवं ब्राह्मण पुरोहित प्राप्त करने लगे। . सराकों का जैन धर्म से हिन्दू धर्म में परिवर्तित हो जाने के पीछे एक आश्चर्य जनक इतिहास है । यह समय बंगाल में वर्गी आक्रमण कर काल था । उस समय काशीपुर के राजाओं की राजधानी पंचकोट पहाड की तलहटी में थी । वर्गी आक्रमण से संकटग्रस्त राजपरिवार के किसी एक शिशु पुत्र को छिपाकर सराक समाज के किसी एक व्यक्ति ने उसके प्राण बचाए थे। फिर कुछ बड़ा होने पर राजपरिवार के इस बच्चे के उन्होंने पुनः लौटा दिया था । इसी के प्रतिदान में सराकों को भी हिन्दुओं की भाति मर्यादा और सम्मान प्राप्त हुआ । कृषि योग्य भूमि देकर राजपरिवार के लोगों ने सराकों को प्रगतिशील एवं दक्ष कृषकों में रूपान्तरित कर दिया | इस प्रसंग में मिस्टर कुपलैण्ड का कथन है Page #243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनत्व जागरण..... २४१ In Manbhum it is said they were not served by Brahmins of any kind until they were provided with a priest by a former Raja of Panchet as a reward for a service rendered to him by a Sarak who concealed him when his country was invaded by the Bargis i.e. the Marathas." परवर्ती काल में पंचकोट से आए सराकगण चार भागों में विभक्त होकर स्थान-स्थान पर बिखर गए। . जिन लोगों को पंचकोट के राजाओं ने जमीन आदि दी वे तो पंचकोट अंचल में ही रह गए एवं उन्हें 'पंचकोटिया' कहा जाने लगा । • जो लोग दामोदर नदी के उस पार वर्धमान जिले में चले गए, उन्हें 'नदी पारिया' और जो वीरभूम चले गए उन्हें 'वीरभूमिय' • जो राँची जिले के ताम्बे वाले परगना में चले गए वे कहलाए “तामारीय"। • इसके अतिरिक्त विष्णुपुर अंचल के जो सराकगण उस समय वस्त्र शिल्प में नियुक्त थे उन्हें कहा जाता था- सराकी तांती । परवर्ती काल में सराकगण और भी कई भागों में विभक्त हो गए । इनमें अश्विनी, तांती, पात्र, उत्तरकूपी एवं मान्दारानी उल्लेख योग्य है । संथाल परगना के सराक लोगों को इस समय फूल सराकी, शिखरिया, कान्दाला एवं सराकी तांती कहा जाता है। सराकगण जाति की दृष्टि से तांती नहीं थे और न ही तांत शिल्प में नियुक्त थे उन्हें पेशागत कारण से सराकी तांती कहा जाता था । पांचेत अंचल के सराकगण तो एक लम्बे समय से ही कृषि कर्म में नियुक्त हैं। वर्तमान काल में सराकों से हमारा यह परिचय यह जिज्ञासा जरूर उत्पन्न करता है कि जिस जाति का चरित्र इतना उन्नतशील है, जिनकी एक विशिष्ट संस्कृत है, धर्म परिवर्तन के बावजूद जिन्होंने अपनी जीवन शैली में प्राचीन जैन परम्पराओं को आज तक सहेज कर रखा है उन्हें हम इतने दिनों तक कैसे भूले रहे । इस विषय में राज्य के अधिकारियों का मानना है कि पूजी का अभाव इसका कारण है । जबकि इतिहासकार बी. एन. मुखोपाध्याय के अनुसार शोध कर्ताओं की कमी तथा रुचि ना होना भी इसका कारण है । “Even researchers are Losing interest gradually. A few years ago I urged a young scholar to study the structure and conduct a research. However he soon got a job Page #244 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४२ जैनत्व जागरण..... somewhere and left. After our generation there will be few people intersted in studing such things." राढ देश में जैन धर्म के विकास सम्बन्धी शोध कार्यों का किस कारण से इतिहासकारों ने आज तक उपेक्षा करते रहे हैं । यह बहुत महत्वपूर्ण प्रश्न है क्योंकि भारतीय इतिहास में जैन ऐतिहासिक तथ्यों की जितनी उपेक्षा हुई है उतनी शायद किसी की भी नहीं हुई। अनेक राजाओं, गणतंत्र के प्रमुखों; जैन सेनापतियों, सार्थवाहों ने या तो गायब कर दिया है या परिवर्तित कर दिया है । इस सन्दर्भ में डॉ. डी. सी. सेन की किताब वृहतबंग में लिखा है “The Brabhmin were responsible for wiping out Jainism from Bengal. Jain temples were converted into Hindu temples and even some of the deities who were widely worshipped were given Hindu names and worshipped as Hindu Gods without acknowledgement of their Jaina origin. इस क्षेत्र में भ्रमण के बाद इस कथन की सत्यता उजागर होती है कि किस प्रकार जैन धर्म विरोधी प्रवाह में एक प्राचीन संस्कृति को नष्ट कर उसे जीवन्त समाधि दे दी गयी । संस्कृति की जीवन्त समाधि : बंगाल सीमान्त प्रदेशों में विशेषकर जो बिहार और उड़ीसा से संलग्न है वहाँ पर जैन धर्म की जड़े बहुत ही प्राचीन और गहरी है जिनके साक्ष्य निदर्शन के रूप में आज भी उस क्षेत्र में सर्वत्र विखरे पड़े हैं । भारत की आजादी के बाद सबसे ज्यादा अगर कोई पुरातत्व सामग्री की अवहेलना हुई है तो वह जैन पुरातत्व ही है। विदेशों में हम देखते हैं कि एक छोटी सी छोटी प्राचीन वस्तु को भी सुरक्षित करके रखते हैं और उसकी प्राचीनता पर गर्व महसूस करते हैं। इसके विपरीत हमारी सरकार और पुरातत्व विभाग प्राचीन निदर्शनों का संरक्षण तो दूर उनको नष्ट करने के प्रयास में सहयोगी अवश्य बन रहे हैं । उनमें प्राचीन निदर्शनों का संरक्षण करने की इच्छा शक्ति का अभाव स्पष्ट दिखाई देता है । एकांगी विचारधारा के पोषक इस Page #245 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनत्व जागरण...... २४३ विभाग की अनदेखी के कारण सैकड़ों निदर्शन अभी तक नष्ट हो गये है और सैकड़ों नष्ट होने के कगार में है । इससे शर्मनाक स्थिति हमारे लिये और क्या हो सकती है कि हम अपनी अति प्राचीन अमूल्य विरासत को संभाल नहीं पा रहे हैं । स्वतंत्रता के बाद दामोदर नदी पर जो बांध बनाये गये उसमें सैकड़ों निदर्शन नष्ट हो चुके हैं । (सन् १९६९ ई. में पाँचेत डैम के निर्माण के समय २० प्राचीन मंदिर नष्ट हो गये । १९८५ ई. में सुवर्ण रेखा नदी पर चांदिल डैम का निर्माण हुआ और २६ मंदिर जल के गर्भ में समा गये । अकेले चांदिल डैम के अन्तर्गत १०० गाँव डूब गये जिनमें जैन राजा विक्रमादित्य की जन्मस्थली भी थी । स्थानीय गाँव वासियों द्वारा जमशेदपुर के Aboriginal Society for Art and Recreation के अन्तर्गत अनेक तीर्थंकर मूर्तियों को ले जाकर सुरक्षित रखा । इच्छागढ़, दुलमी तथा कुछ गांव की अन्य मूर्तियों को भी Irrigation Department के एक छोटे से संग्रहालय में रखा गया । इस विषय में एक रिपोर्ट में लिखा है कि In the Lower Damodar Valley there is the problem of destruction of ancient Jain temples in the score from flooding in dams such as the Panchet Dam on the river Damodar (1969), without recording over 26 temples and Chandil Dam on the river Suvarnarekha, (1985) 20 temples on more (Mitra 1969). The Chandil Dam alone drowned over a hundred villages in the birth-land of Vikramaditya the great Jain King, without archeological salvage operations. Local villagers under the umbrella of the Aboriginal Society for Art and Recreation, Jamshedpur, managed to save scores of statues of Tirthankaras, and other granite and sand-stone statuary from Ichagarh, Dulmi, and a few adjoining villages, which are preserved in a small museum built by the Irrigation Department near the Chandil Dam. Chandil was also found to be a major Palaecolithic site (Ghose 1970). This is an area of immense cultural and Page #246 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४४ जैनत्व जागरण..... archaeological importance that has wilfully been flooded without any proper scientific examination. Hundreds of statues have reportedly disappeared from Ichagarh. The recurrent feature of destructive development is the lack of any investigation by the archaeological authorities. पांचेत डैम के विपरीत दिशा में माइथन डैम का निर्माण किया गया जिसमें अनेक महत्वपूर्ण मंदिर विलीन हो गये । बराकर नदी पर बना यह मंदिर तिलाया डैम से होता हुआ हजारीबाग तक गया है जो एक प्राचीन तीर्थयात्रा पथ था। पूर्व में पावापुरी से संथाल परगना तथा पश्चिम में शाहबाद तक। ये पथ आसनसोल में जी. टी. रोड से मिलकर सिंहभम होता हआ दक्षिण उड़ीसा तक गया है। तिलाया डैम के अन्तर्गत अनगिनत जैन जिनदर्शन पानी में समा गये जिसका आज कोई लेखा-जोखा नहीं है ।.. इस प्रकार दामोदर वैली कॉर्पोरेशन के अन्तर्गत सात बाँध जिनमें तिलाया डैम, कोनार डैम, पत्थराटु डैम, माइथन डैम, लालपानियां डैम, पाचेत डैम, तेनूघाट डैम, और दुर्गापुर बांध के निर्माण में हजारों गाँव जलमग्न हो गये । सिर्फ इच्छा डैम के निर्माण में सत्तासी गाँव जलमग्न हुए जो जैन धर्म के प्रमुख केन्द्र स्थल थे । इन डैमों के अलावा कोयला खदानों में से कोयला निकालने के लिये अनेक वर्षों तक आग जलने के कारण दामोदर के निचले क्षेत्र में बाढ़ का प्रकोप बढ़ने के कारण उसका प्रभाव बोकारो और धनबाद के जैन निदर्शनों पर तो पड़ा ही साथ साथ गोवाई, कसाई, कंसावती और सुवर्णरेखा नदियां जो मानभूम सराईकेला खरसावन, पुरुलिया, और सिंहभूम जिलों से होकर बहती है वहाँ के निदर्शनों पर भी पड़ा । वर्तमान में दामोदर नदी घाटी के ऊँचे घाट उत्तरी करनपुर घाटी पर निर्मित बांध सुपर थरमल पावर प्रोजेक्ट के कारण सत्तर कोयले की खानों के साथ साथ २०० गाँव को जो प्रागैतिहासिक काल और मौर्यकाल की पाषाण कला के श्रमण संस्कृति प्रभावी क्षेत्र है, अभी नष्ट होने की कगार पर है । इस प्रकार हम देखते हैं कि जहाँ एक ओर आधुनिक भारत के Page #247 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनत्व जागरण...... निर्माण की बात करते हैं वहीं दूसरी ओर अपनी प्राचीन सांस्कृतिक विरासत को इन विकासशील परियोजनाओं के जरिए नष्ट करने पर को आतुर है । २४५ The Jain and Buddhist heritage of Jharkhand and neighbouring West Bengal has been wilfully destroyed by so-called development projects such as big dams and mining in modern India. This heritage constitutes the most flawless traditions of sculpture found anywhere in the country. This is an interesting area of study for ethnographers for the Bhumij culture of Manbhum in Jharkhand in contact with Santal culture in Bengal during the revival of Jainism and Buddhism during the Pala Period 9th - 12th centuries. The two great religions of India, Jainism and Buddhism were traced in the Damodar Valley which became the site of India's first great industrial model project (DVC) in 1947. असुरक्षित क्षेत्र : अरसा ( मानभूम ) : बोरम के दक्षिण पूर्व चार मील दूर पर कसाई नदी के पास स्थित है | यहाँ अनेक जैन मंदिरों के अवशेष दिखाई पड़ते हैं । I इस अना : करचा गाँव से तीन मील तथा पुरुलिया से कुछ दूर पर गाँव में अनेक जैन मंदिरों के खण्डहर आज भी पड़े हुए हैं । बलरामपुर यह पुरुलिया के दक्षिण पूर्व में चार मील दूर में अवस्थित है । १८६६ में कर्नल डाल्टन ने यहां दो विशाल तीर्थंकर मूर्तियों का विवरण दिया है जिन्हें उन्होंने देखा था । वरदा : तेलकूपी से दक्षिण पश्चिम में छ: मील दूरी पर स्थित इस क्षेत्र में पाँचेत डैम के निर्माण के पूर्व जैन मंदिर थे । बुद्धपुर : ये पकवीरा के पास स्थित है । यहाँ अनेकों जैन मूर्तियाँ मिली जिनमें अधिकांश वहाँ के लोग उठाकर ले गये । बिलौंजिया : ये चेचेगाँव गढ़ से दो मील दक्षिण में दामोदर नदी Page #248 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनत्व जागरण.. २४६ के किनारे स्थित है । वेगलर ने १८७२-७३ में यहाँ का परिदर्शन किया तथा अपनी रिपोर्ट में यहाँ के सोलह जैन मंदिरों का वर्णन किया है। जिसकी शिल्प के विषय में वैगलर ने इनकी तुलना खजुराओ और उदयपुर के मंदिरों से की है । बोरम : ये कंसावती नदी के दक्षिण किनारे पर स्थित है । यहाँ जैन मंदिरों के अनगिनत खंडहर देखने को मिलेगें । यहाँ की मूर्तियों की साम्यता मिस्त्र की मूर्तियों से की जा सकती है । भवानीपुर : पुरुलिया से कुछ दूर और कच्चा गाँव के पास इस गाँव में ऋषभनाथ और पद्मावती - धरणेन्द्र की मूर्तियाँ पायी गयी है । चांदी : सुवर्ण रेखा नदी के पुल के पास एक मंदिर के अवशेष दिखाई देते हैं । चन्दन क्यारी : पुरुलिया के कुछ मील दूर पर स्थित इस क्षेत्र में अनेकानेक जैन मूर्तियाँ पायी गयी है । इसके पास ही कुम्हारी और कुमार डागा में भी प्राचीन जैन मूर्तियाँ मिली है । छड़रा : पुरुलिया से ४ मील दूर कसाई नदी पर बराकर जाने वाले रास्ते पर अवस्थित है | १८७२-७३ में जब वेगलर यहाँ आया तो उसने बहुत सारे विस्तृत शिल्पकला युक्त जैन मंदिर, मूर्तियाँ देखे थे । जिले के गेजेटियर में सात मंदिर यहाँ थे इसका वर्णन है । आरडी वनर्जी द्वारा पाँच मन्दिर देखे गये थे । पाँच बड़ी तीर्थंकर मूर्तियाँ यहाँ से निकली है । यहाँ दो मील दूर गोलामारा में भी जैन निदर्शन पाये गये हैं । 1 I इसी प्रकार देउलभिरा, दुलमी, देवली, देवली, गुहियापाल, इच्छागढ़, पाटकू, पवनपुर, पकवीरा, पटमदा, सुइसा, रालीबेरा, तुइसामा आदि अनेक क्षेत्रों में जैन निदर्शन बिखरे पड़े हुए है । जिनमें से अनेक जल में समा गये है या फिर गायब कर दिये गये । आज भी अगर वहाँ जाए तो गाँव के बीच में, चौराहों में, पेड़ों के नीचे, खुले रास्ते पर, धने जंगलों के बीच जैन निदर्शन अवहेलित पड़े देखने को मिलेगे । एक एक स्थान पर तो भग्न और जीर्ण जैन मंदिरों की ईंटों से गाँव के मकानों को निर्मित किया Page #249 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनत्व जागरण..... २४७ गया है। पूरे गाँव के मकानों में मंदिरों की ईंटें व्यवहार में लायी गयी है। किस तरह जैन संस्कृति का हास हुआ इसका एक उदाहरण तेलकूपी का है। जहाँ दामोदर नदी पर पांचेत डैम के निर्माण के समय बीस प्राचीन मंदिर पानी के गर्त में चले गये । दुर्भाग्यवश भारत के तत्कालीन प्रधानमंत्री पं. जवाहरलाल नेहरू की यह स्वप्नपरियोजना के रूप में भारत का पहला सबसे बड़ा औद्योगिक प्रोजेक्ट था जो शुरू हुआ। पर वास्तव में ये परियोजना थी प्राचीन विरासत का समाप्त करके विकासशील योजना कार्यान्वित करने की । For the archaeological heritage of Jharkhand it was a catastrophe apart from the human and ecological aspects. Hundreds of villages were submerged in over six large dams and thousand of smaller dams. Like the TVA the DVC ignored the territorial rights of Indigenous societies who had lived on the land ancestrally. १९५७ में वहाँ के स्थानीय लोगों में दामोदर में बाढ़ की आशंका को देखकर archeological research of India Kolkata को सूचित किया और मन्दिरों को स्थानान्तरित करने को कहा लेकिन ASI की निष्क्रियता के कारण मन्दिर डूब गये । साक्ष्य के लिए रह गये हमारे पास १८७२७३ में बेगलर के लिये चित्र और १९२९ में बोस के लिये चित्र । ASI के D.G. ने जब वहा का भ्रमण किया तो उनके साथ Dr Mrs. Debala Mitra भी गयी । वहाँ उन्होंने स्थानीय लोगों से भैरव स्थान के मन्दिरों के विषय में जानकारी ली और उनके विषय में लिखा । सन् १९६० की फोटो सेयह पता चलता है कि उस समय जो मन्दिर पानी के किनारे थे वह अच्छी हालत में थे और उन्हें स्थान्तरित किया जा सकता था । लेकिन अधिकारियों की दूरदर्शिता और निकम्मेपन के कारण यह नहीं किया गया। फलस्वरूप १९६२ के चित्रों से यह पता चलता है कि ये मन्दिर भी पानी में चले गये । चालीस साल बाद चांदिल डैम के निर्माण के समय भी ऐसा ही हुआ । Page #250 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४८ tra HIRUT..... The Director General of the ASI visited the Telkupi site with Dr. Mrs. Debala Mitra and they went to Bhairavasthan and according to Mitra in the Preface to her monograph on Telkupi (1969) they learned locally that most of the temples and the greater part of the village had gone under water and find only the tops of Temples 6, 8, 9, 10, 14, 15 and 16 protruding above the waters of the Damodar, and temples 17 and 18 standing at the edge of the water. The Eastern Circle photos of 1960 show the temples mentioned above standing above the water in fairly reasonable condition on dry land, there was still a chance to remove the temples. In the photograph of Archaeology, the temples are submerged. What happened could only be the result of extreme negligence, and callousness on the part of the development authorities. This should not have occurred again. But in the Chandil Dam on the Suvarnarekha river this is precisely what happened nearly forty years later. The West Bengal Goverment was thereafter asked to order the dewatering of the area so that the Temples could at least be examind and possible translocation considered. But it was too late and the authorities concerned considered dewatering the area impractical and the most priceless Jain temple architecture of Jharkhand and West Bengal was needlessly destroyed and became “The Ghost Temples of Telkup.” opel Rey en foto Archeological Survey of India, Kolkata ने इन निदर्शनों को सुरक्षित रखने की पहल नहीं की । क्यों पश्चिम बंगाल की सरकार ने इसकी अनदेखी की। भारत की संस्कृति की एक मूल्यवान धरोहर को इस तरह खुलेआम नष्ट हो जाने क्यों दिया गया ? सिर्फ कुछ ही मूर्तियों को दामोदर के पानी से निकाला गया बाकी सब पानी में बह गयी । इससे कोई सबक क्यों नहीं लिया गया। Page #251 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनत्व जागरण....... २४९ I ये पुरातात्विक अवशेष गवाह है हमारे पूर्वजों की अनुपम शिल्प निर्माण दक्षता के, जिन्होंने अपनी निपुणता से गढ़ा था उन सर्वज्ञ महापुरुषों की वीतरागी मुद्रा को, जीवन्त कर दिया था अध्यात्मिक पराकाष्ठा के इन योगियों को । इन अमूल्य निदर्शनों को आज प्रकृति ने नहीं डंसा है, डंसा है उन्हीं मनुष्यों के उत्तराधिकारियों ने अपने निष्ठुर क्रिया कलापों से, विद्वेष की भावना से और डंसा है परस्पर अन्तःकलह ने । क्या २६०० साल पहले हमारे भीतर कोई भेद थे । तो अपने पूर्वजों की विरासत को संरक्षित रखने में भेद-भाव क्यों ? एकता का अभाव हमें कमजोर बना गया है। धन का अभाव कारण नहीं हमारी मानसिक विकृत्तियों का है । नित्य नये नये मंदिर और नई नई मूर्तियों का निर्माण हो रहा है । क्या उनका भविष्य भी इसी प्रकार नहीं होगा ? यदि हम एकजुट होकर अपनी ऐतिहासिक विरासत को संरक्षण दे तो `राज्य सरकार, भारत सरकार, यदि अनसुनी भी करे तो वर्ल्ड हेरिटेज में जा सकते हैं । १६वीं, १७वीं और १८वीं सदी की इमारते वर्ल्ड हेरिटेज के अन्तर्गत संरक्षित है तो यह तो अत्यन्त पुरानी संपदा है पर जरुरत है एक बुलन्द आवाज की । ये प्राचीन मूल्यवान धरोहरे हमें पुकार रही है और हमं मूकबधिर बने तमाशा देख रहे हैं । निष्क्रिय है हमारा समाज जो देखकर भी अनदेखी करते हैं । अभी भी समय है, हमें चेतना होगा ताकि बची हुई विरासत को सहेज सके। जिन तीर्थंकरों की पूजा, वंदना और अर्चना हम करते हैं जिनके उपदेशों को हम सुनते हैं, जिनके दिखाये हुए पथ पर चलना चाहते हैं उन अहिंसा के पुजारियों के समक्ष दी जा रही हिंसक बलि भी हमारे मन मस्तिष्क के कपाट नहीं खोल पा रही है क्या कारण है। यह बहुत ज्वलन्त प्रश्न है जिसका जबाव हमें अपने इतिहास में से ही खोजना पड़ेगा । आज जो समृद्धवान है और जो प्राचीन समय में समृद्धवान थे उनकी मानसिकता में भी गहरा अन्तर स्पष्ट दिखायी पड़ता है । यह सर्वविदित है कि बंगाल और बिहार प्राचीन समय से अत्यन्त समद्धशाली क्षेत्र थे जिसका प्रमुख कारण श्रमण संस्कृति का प्रभाव था । जैनेत्तर ग्रन्थों में इन क्षेत्रों में ब्राह्मणों का जाना वर्जित था । ऋग्वेद में भी इन क्षेत्रों की समृद्धि का Page #252 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनत्व जागरण.... २५० उल्लेख मिलता है । यहाँ पर व्रात्य क्षत्रियों का राज्य था, श्रमण संस्कृति का प्रभुत्व था, जैनाचार्यों द्वारा लोगों को विभिन्न प्रकार की कला की शिक्षा देकर दक्ष बनाया जाता था । उस समय एक भी गाँव या शहर ऐसा नहीं था जहाँ साधारण जनता के अंग में अलंकार न हो, जो श्रमण संस्कृति की समृद्धि का महत्वपूर्ण परिचायक था । बड़े-बड़े राजाओं, शासकों, श्रेष्ठियों और साधारण लोगों के जीवन चरित्र के वर्णन में इसकी झलक दिखाई पड़ती है । एक उच्चकोटि का श्रावक भी अपने कार्यकलापों से अपने यहाँ रोजगार करने वाले लोगों की सुख-सुविधा और जीवन यापन का ध्यान रखता था तथा उनका स्तर ऊँचा उठाने के लिये प्रयत्नशील रहता था । यही वास्तविक कारण था यहाँ की समृद्धि का । बाद में यही समृद्धि बाहरी जातियों के आकर्षण का केन्द्र बनी एवं यहाँ आगमन का जरिया बनी । ऋग्वेद में वर्णन है कि यहाँ की सम्पदा और समृद्धि को हड़पने के लिये किस तरह इस क्षेत्र में आक्रमण किया गया और जब सहजता से नहीं जीत सके तो जीतने के लिये दूसरे उपाय किये गये और धोखे से आक्रमण कर विध्वंस किया | इस अंचल में धातु की प्रचुरता होने के कारण स्वाभाविक रूप से यह आशा की जा सकती है कि धातु-युग के सूत्रपात के समय से ही यहाँ एक समृद्ध धातु सभ्यता की स्थापना हुई थी। जिसके कारण यहाँ के निवासी उस समय के भारतवर्ष के अन्य अंचलों के निवासियों की तुलना में आर्थिक रूप से कहीं अधिक सम्पन्न थे । इनकी सम्पदा एवं समृद्धि के लिए सप्तसिन्धु के वैदिक आर्यों की ईर्ष्या व द्वेष तथा इनकी धन-सम्पति हथियाने के लिए सप्तसिन्धु के निवासियों ने आक्रमण किया । ऋग्वेद संहिता पर दृष्टिपात करने पर एक जाति विशेष हमारा ध्यान आकर्षित करती है जो हिरण्य और मणि द्वारा शोभायमान थी । व्यवसाय में दक्ष, जो रूप और सन्तान पर गर्व करती है, जो धनी, जो खाने-पाने में रुचिसम्पन्न, जो धन की खोज में सामुद्रिक यात्रा करते, लेकिन वे इन्द्र को नहीं मानते, जो देवहीन थे, यज्ञोविहीन, जो देव निन्दक, जो ऋषियों को दान नहीं देते, जिनका दर्शन भी देवविहीन है । Page #253 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनत्व जागरण..... २५१ सप्तसिन्धु के वैदिक गणों का रुख इनके प्रति शत्रुतापूर्ण था । फिर भी वे लोग अपनी शारीरिक शक्ति के द्वारा उनकी कोई क्षति करने में भी समर्थ नहीं थे और निरूपाय होकर ईश्वर से प्रार्थना करते- जो लोग धनधान करते हैं उनका संहार करो, जो हमारे विरुद्ध आचरण कर हमारे ऊपर अस्त्रों का प्रहार करते हैं वे हमारे मालिक (प्रभु) न हों, ऋषियों के प्रति द्वेष रखने वालों को अपना कोप-भाजन बनाओ । जो व्रत रहित हैं और जो सोमाभिषेक नहीं करते उनका बध करो, यज्ञ-परायण को यज्ञ हीनो का धन प्राप्त हो, जो होम नहीं करते वे बलहीन हों, जो वेद से भिन्न व्रत पालन करें वे तुम्हारे द्वारा दण्डित हों, देवहीनों और विरोधियों का वध करों. पणियों का नाश करो इत्यादि विविध तरह की व्याकुलता पूर्वक की गयी प्रार्थना ऋग्वेद में मिलती है जिससे यह सन्देह होता है कि ऋग्वेद का यह प्राकृतिक रूप है या विकृतिपूर्ण रूप क्योंकि जो अपने श्रम से अपने उद्देश्य का सिद्धि कर सकता है उसी उद्देश्य को वैकल्पित रूप से देवताओं के द्वारा सिद्ध कराने की व्यवस्था की तरफ लोगों को प्रवृत्त करना परोक्षरूप से श्रम विमुख करना है . ऋग्वेद में इन समृद्ध मनुष्यों को साधारणतया पणि नाम से अलंकृत किया गया है। इन समृद्धशाली पणियों से ही सम्भवतः हमारी प्राचीन मुद्रा का नाम पण एवं वाणिज्य संसार का नाम पण्य हुआ । इसी से समझा जा सकता है कि भारतवर्ष के प्राचीन युग में मुद्रा धातु के निर्माण के लिए आवश्यक ताम्र धातु सम्पदा अधिकार में थी एवं भारतवर्ष की तत्कालीन अर्थ व्यवस्था में इनकी मुद्राओं का अत्यधिक महत्व था। चूंकि साधारणतः धातु सम्पन्न लोग हमेशा ही कृषि पर आश्रित लोगों की अपेक्षा कहीं अधिक समृद्ध एवं सम्पन्न होते हैं। इसीलिए पण या मुद्रा समृद्ध पणिगण सप्तसिन्धु के (कृष-निर्भर) लोगों की तुलना में समृद्ध होते थे और यही ईर्ष्या व द्वेष का कारण था । ऋग्वेद में प्रायः प्रत्येक सप्तसिद्ध ऋषि-मुनियों की मुक्तियों में पणियों का उल्लेख अवश्य है एवं इनको वश में करने के उद्देश्य से ऋग्वेद में समग्र एक सूक्ति की रचना की गई है । सप्तसिन्धु के वैदिक आर्यों के Page #254 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५२ जैनत्व जागरण..... साथ पणियों का संघर्ष दीर्घस्थायी होने पर भी वैदिक गण इन लोगों को सिर्फ एक बार पराजित करने में सफल हुए थे एवं बहु प्रतीक्षित इस विजय को चिरस्मरणीय करने के उद्देश्य से उन्होंने ऋग्वेद में प्रायः एक ही तरह के शब्दों से विजय गाथा की रचना की है । इस युद्ध के आघात से पणि लोग बहुत ही थोड़े समय में फिर से उबर गये और पुनः अपने वैभव को प्राप्त किये। इस अध्ययन से यह निष्कर्ष निकलता है कि ऋग्वेद की रचना से पहले ही इस अंचल में एक उन्नतशील संस्कृति और यज्ञ विरोधी दर्शन स्थापित था । जिसे हम श्रमण या निर्ग्रन्थ धर्म भी कह सकते हैं । उनकी समृद्धि को हासिल करने के लिये इन पर आक्रमण किया गया । और धोखे से हराकर लूटमार की गयी लेकिन फिर से ये लोग अपने पूर्व अवस्था को प्राप्त किये और प्रत्येक क्षेत्र में चाहे वह व्यापार हो, धातुशिल्प हो, पाषाण शिल्प हो या तातशिल्प सबमें अग्रणी रहे । यही उनकी समृद्धि का कारण बना । जिसके लिये परवर्ती काल में इन पर आक्रमण हुए और बार-बार इस जीवन्त संस्कृति को नष्ट करने की चेष्टा की गयी । जिसके प्रमाण आज भी दिखाई देते हैं । फलस्वरूप श्रावकों को यहाँ से पलायन करना पड़ा। जो अत्यधिक धनवान थे वे सबसे पहले चले गये उसके बाद मध्यवर्गीय लोग चले गये परन्तु जो शिल्पकार यहाँ रह गये उन लोगों ने अपने प्राण त्याग दिये या धर्म परिवर्तन कर लिया । उनके बनाये सुन्दर शिल्प कला कृतियों को नष्ट कर दिया या परिवर्तित कर दिया गया । ये कार्य मुसलमानों और अंग्रेजों ने नहीं किया बल्कि शैव मतावलम्बियों ने किया । दुर्भाग्यवश आज भी यह हो रहा है लेकिन अन्य रूप में । पांचेत डैम के निर्माण में तेलकूपी के जैन मन्दिर जल के गर्भ में समा गये लेकिन इससे कोई भी सबक नहीं लिया गया और पुनः चांदिल डैम के निर्माण के समय भी ऐसा ही हुआ । No lesson was learned from Telkupi and the same exercise was repeated a hundred kilomentres to the south less than fifty years later in the southern tracts of Page #255 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनत्व जागरण..... २५३ Vikramadity's kingdom from Dulmi and Patkom to Ichhả on the Suvarnarekha river in the building of the Chandil Dam, wherein scores of Jain Temples and villages were submerged. A few pieces were salvaged by zealous local conservationists and found place in a small museum at Patkom. जो स्वयं सक्षम होते हुए भी आगे नहीं बढ़ते उनकी सहायता कोई नहीं करता इसलिये हमें स्वयं आगे बढ़ना होगा, गंतव्य सामने है । अतीत की विरासत वर्तमान की पूंजी है और सुन्दर भविष्य का सपना भी । अतः समय रहते ही उसे संभालना होगा। लुप्त होती जा रही प्राचीन सराक संस्कृति, उनके निदर्शन और परम्पराएं जो हमारे इतिहास की अत्यन्त प्राचीन धरोहरें है और जिनका अवदान भारतीय संस्कृति के विकास में अमूल्य रहा है । उन सराकों को अतीत के अन्धकार से पुनः आलोक के पथ पर लाने का प्रयास हर उस व्यक्ति के लिये गौरव की बात होगी जिसको भारतीय संस्कृति और सभ्यता से लगाव है । अन्त में स्वर्गीय नेमिचंदजी जैन की उद्धृत हैं । महावीर ने राढ़ की कुटियों में जो लघुदीप कभी प्रज्वलित किया था, क्या उसकी. लौ का काजल आज हम हटा पायेंगे ? क्या सराकजन के रूप में हमारे जो पुरखे यहाँ हैं, उन्हें हम बगैर पंथभेद के सहेज पायेंगे? अहिंसा, अपरिग्रह, अनेकान्त की आज सैकड़ों भूमिकाएं हो सकती हैं लोकजीवन के विभिन्न क्षेत्रों में, किन्तु क्या राढ़-अंचल में हुई महावीर की तितिक्षा सांधना को पुनजीवित करने का खतरा मोल लेने की हिम्मत कोई आज कर पायेगा । सराक क्षेत्र का महातीर्थ उदयगिरी सिद्धक्षेत्र कलिंग-वर्तमान उड़ीसा प्रदेश । भगवान ऋषभदेव ने जब कर्मभूमि का प्रारंभ किया तब इस देश को ५२ प्रदेशों में विभाजित किया उनमें एक कलिंग भी था । भगवान ऋषभदेव ने अपने एक पुत्र को यहाँ का राज्य दिया था। कलिंग देश में प्रथम तीर्थंकर भगवान ऋषभदेव के पुत्र ने पहले Page #256 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनत्व जागरण...... २५४ पहले राज्य किया । जब सर्वज्ञ होकर भगवान ऋषभदेव ने आर्यखंडों में विहार किया तब वह कलिंग देश भी पहुँचे थे। उनके धर्मोपदेश से प्रभावित होकर तत्कालीन कलिंग राजा अपने पुत्र को राज्य देकर मुनि हो गए । कलिंग प्रारंभ से ही जैन धर्म का प्रमुख केंद्र था । तीर्थंकर भगवंतों का यहाँ कोई कल्याणक तो नहीं हुआ किंतु तीर्थंकरों का विहार कलिंग में बराबर होता रहा । भगवान ऋषभदेव, पार्श्वनाथ और महावीरं का विहार तो यहाँ कई बार हुआ और उन्होंने अपनी दिव्य देशना से जीवों का उद्धार किया । अत: यहाँ जैन धर्म का अत्यधिक प्रभाव रहा और जैन धर्म यहाँ का राष्ट्र धर्म बन गया । राजा श्रेणिक (बिम्बसार) की रानी धनश्री के पुत्र गजकुमार के निर्वाण प्राप्ति का स्थान कलिंग देश ही है । कलिंग देश में स्थित कोटिशिला से राजा दशरथ (जशरथ/यशोधर) के पांच सौ पुत्र मोक्ष को पधारे । यहाँ से एक करोड़ मुनियों ने निर्वाण प्राप्त किया है । सारांशत: एक अतीत काल से कलिंग जैन मुनियों के पवित्र चरण कमलों से अलंकृत हो चुका है । कलिंग का राजकीय इतिहास - इक्ष्वाकुवंश के कौशलदेशीय क्षत्रिय राजाओं के उपरांत. कलिंग में हरिवंश के राजाओं ने राज्य किया । भगवान महावीर सर्वज्ञ होकर जब कलिंग में आकर धर्मोपदेश दिया तो उस समय कलिंग के जितशत्रु नामक राजा मुनि हो गए और अनेक राजाओं ने भी दीक्षा धारण की ।“ ईसा पूर्व चौथी शताब्दी में नंदवंश के प्रतापी नरेश महापद्मनंद ने कलिंग पर आक्रमण कर दिया । इस युद्ध में कलिंग को पराजित होना पड़ा। विजय प्रतीक के रूप में महापद्मनंद कलिंग जिन की प्रतिमा को अपने साथ पाटलिपुत्र ले गया । कलिंग जिन की यह प्रतिमा भगवान ऋषभदेव की एक प्राचीन और अमूल्य प्रतिमा थी और कलिंग में राष्ट्रीय धरोहर के रूप में मान्य थी । अपने आराध्य देव के चले जाने से कलिंग वासियों की भावनाओं को बहुत ठेस पहुँची । इस कथा का समर्थन हाथी गुफा Page #257 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनत्व जागरण..... २५५ शिलालेख की पंक्ति ११-१२ से होता है । कलिंग ने स्वतंत्रता तो प्राप्त कर ली लेकिन शीघ्र ही उनके ऊपर फिर से भयानक विपत्ति आ गई । ईसा पूर्व तीसरी शताब्दी में मौर्य सम्राट अशोक ने अपने पूरे दल-बल के साथ कलिंग पर आक्रमण कर दिया । दो वर्ष तक भयंकर युद्ध चला। लाखों लोग मारे गए, बंदी बना लिए गए। लेकिन किसी कलिंग वासी ने आत्म-समर्पण नहीं किया । अशोक ने अपने शिलालेख १० में यह स्वीकारा है कि कलिंग युद्ध में १ लाख लोग मारे गए, डेढ़ लाख लोग बंदी बनाए गए और बाद में इससे कई गुना लोग मरे । किंतु यह संख्या कलिंग के सैनिकों की है । अशोक ने अपने पक्ष के हताहतों की संख्या का उल्लेख करना शायद उचित नहीं समझा । शायद यह संख्या कलिंग के सैनिकों से कई ज्यादा हो । अशोक ने अपने १३वें अनुशासन में यह भी स्वीकारा है कि कलिंग युद्ध में ब्राह्मण और श्रमण दोनों संप्रदाय के लोगों ने दुःख उठाए थे । श्रमण वस्तुतः जैन थे । कलिंग वासियों के हृदय में जितना दुःख अपने देश की स्वतंत्रता के अपहरण का था उससे कई ज्यादा दुःख अपने आराध्य देव कलिंग जिन के लिए था। कलिंग वासी इसी प्रतीक्षा में थे कि अब कोई ऐसा राजा कलिंग पर राज्य करे जो उनके आराध्य देव कलिंग जिन को ससम्मान कलिंग वापस लेकर आए । तदपरांत दक्षिण कौशलवर्ती चेदिराज के वंश के एक महापुरुष ने कलिंग पर अधिकार जमा लिया था । वह थे- सम्राट खारवेल । कलिंग वासियों की इस भावना की पुष्टि ईसा पूर्व दूसरी शताब्दी में सम्राट खारवेल ने की। महाराजा महापद्मनंद के २७५ वर्ष पश्चात् सम्राट खारवेल ने मगधों को भयभीत करते हुए अपने हाथियों को सुगांगेय (पाटलिपुत्र का महल) तक पहँचाया और मगध के सम्राट वहसतिमित्र को पैरों में गिरवाया । सम्राट खारवेल जब वहा से लौटे तो धन संपत्ति के साथ कलिंग जिन की उस प्रतिमा की भी साथ लेकर आए जिसे महापद्मनंद अपने साथ ले गया था। कलिंग वासियों ने अपने आराध्य देव के पुनः कलिंग में पधारने पर राष्ट्रीय Page #258 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५६ जैनत्व जागरण..... स्तर पर स्वागत किया और उत्सव मनाया । यह जैन धर्म के प्रति उनकी अगाढ़ श्रद्धा का प्रतीक था । सम्राट खारवेल अपने भुजाबल, पराक्रम, प्रताप और धर्मकार्य के लिए प्रसिद्ध थे । उन्होंने सारे भारत पर दिग्विजय प्राप्त की थी । हाथी गुफा के शिलालेख में मंगलाचरण के पश्चात् सम्राट खारवेल के लिए ऐसे संबोधन किया गया है 'ऐर महाराज महामेघवाहन चेत (चेदी) राजवंश वर्धन कलिंग के अधिपति श्री खारवेल । स्पष्ट है कि खारवेल चेदी वंश के थे। यह राजवंश चेदि अथवा चेति छत्रियों(क्षत्रियों) का था । चेदि वंश एर अथवा एल था । जैन शास्त्रों में एल वंश की स्थापना का वर्णन मिलता इतिहासकारों ने सम्राट खारवेल का काल ईसा पूर्व प्रथम शताब्दी का उतरार्द्ध निर्धारित किया है। उसने अपनी आयु के १५ वर्ष कुमार अवस्था में व्यतीत किए और अनेक कलाएँ सीखीं । अभिलेख के अनुसार खारवेल १६ वर्ष की अवस्था में युवराज पद पर आसीन हुआ और २४ वर्ष की अवस्था तक इसी पद पर रहा । २४ वर्ष की अवस्था में खारवेल का राज्याभिषेक हुआ । खारवेल एक महत्वाकांक्षी वीर युवक था । उसकी आकांक्षा समस्त भारत को विजित करके एकसूत्र में आबद्ध करने की थी। अपने राज्य के सातवें वर्ष अर्थात् ३१ वर्ष की आयु में खारवेल ने वजिराघर की राजकुमारी के साथ विवाह किया । इतिहासकार वजिराघर की पहचान मध्य प्रदेश में चांदा जिले के वैरागढ़ से करते हैं । उदयगिरि पर्वत की मंचपुरी गुफा के शिलालेख से ज्ञात होता है कि वह गुफा उनकी रानी ने मुनियों के उपयोग के लिए बनवाई थी । सम्राट खारवेल की एक और रानी थी जिनका नाम सिंधुला था । सिंधुला, सिंहपथ की राजकुमारी थीं। सिंधुला सम्राट खारवेल की तरह ही जैन धर्म की परम भक्त थीं और मुनियों की बहुत विनय करती थीं। उन्होंने कलिंग से विलुप्त हो रहे जैन धर्म के उद्धार के लिए अनेक कार्य किए और खंडगिरि-उदयगिरि पर्वत पर अनेक गुफाएँ बनवाई जिनमें तीर्थंकरों की सुंदर प्रतिमाएँ भी उकेरी गई । सम्राट खारवेल की जैन धर्म को देन- मगध सम्राट को हराकर Page #259 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनत्व जागरण..... २५७ W सम्राट खारवेल कलिंग जिन की प्रतिमा को वापस कलिंग लेकर आए । इस प्राचीन प्रतिमा को सम्राट खारवेल ने कोटिशिला (कोटिशिला वर्तमान में भुवनेश्वर के निकट खंडगिरि और उदयगिरि या कुमारी पर्वत के नाम से जाना जाता है) पर अर्हतप्रासाद बनवाकर विराजमान करवाया । कुमारी पर्वत पर अर्हत भगवान की निसधा के निकट उन्होंने एक उन्नत जिन प्रासाद बनवाया था तथा पचहत्तर लाख (१८,००,०००) मुद्राओं को व्यय करके उस पर वैडूर्यर्यरत्नजड़ित स्तंभ खड़े करवाए थे । उनकी रानी ने भी जैन मंदिर और मुनियों के लिए गुफाएँ बनवाई थी जिनमें तीर्थंकरों की सुंदर प्रतिमाएं भी उकेरी गई जो अब भी मौजूद है। सम्राट खारवेल और उनकी रानी ने कुमारी पर्वत पर अनेक गुफाएँ बनवाई जिनका प्रयोग जैन मुनियों के निवास स्थान के रूप में होता था और मुनिगण यहाँ रहकर तपस्या किया करते थे। सम्राट खारवेल मुनियों की बहुत भक्ति और विनय करते थे । सम्राट खारवेल के समय में अंग ज्ञान विलुप्त हो चला था । उस समय मथुरा, उज्जैन, गिरनार जैन मुनियों के केंद्र स्थान थे । खारवेल ने जैन मुनियों का एक महा सम्मेलन आयोजित किया था । मथुरा, उज्जैन, गिरनार, कांचीपुर आदि अनेक स्थानों से मुनि उस सम्मेलन में भाग लेने के लिए कुमारी पर्वत पहुंचे थे। बहुत वृहद् स्तर पर सम्मेलन किया गया। निग्रंथ श्रमण संघ ने यहाँ एकत्र होकर उपलब्ध द्वादशांग जिनवाणी के उद्धार का महान कार्य किया । जगन्नाथ या नीलमाधव या जिननाथ, पुरी (मूल कलिंग जिन मंदिर)- सम्राट खारवेल की मृत्यु के पश्चात् कलिंग में जिन धर्म की क्या स्थिति रही और कलिंग जिन प्रतिमा का क्या हुआ? इस विषय पर इतिहास प्रायः मौन ही रहता है । खंडगिरि-उदयगिरि से प्राप्त शिलालेखों से यह स्पष्ट है कि सम्राट खारवेल जैन धर्म के अनुयायी थे और कलिंग जिन की प्रतिमा भगवान ऋषभदेव की एक जैन प्रतिमा थी । खंडगिरि तीर्थ से लगभग ५४ किलोमीटर दूर है प्रसिद्ध जगन्नाथ पुरी का मंदिर । Page #260 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५८ जैनत्व जागरण..... श्री जगन्नाथ मंदिर परिचालना समिति द्वारा प्रकाशित 'श्री क्षेत्र परिचय' में मंदिर निर्माण के बारे में कुछ इस प्रकार वर्णन मिलता है- 'पंडू वंश के राजा उदयन के पुत्र थे इंद्रबल । वे इद्रधुम्न के नाम से अधिक परिचित थे । राजा इंद्रधुम्न इसी स्थान के मूल निवासियों को साथ लेकर पहले श्री जगन्नाथ जी की पूजा-अर्चना किया करते थे । उन दिनों श्री जगन्नाथ जी का नाम नीलमाधव के रूप में परिचित था । इसके कई वर्षों के बाद मगध के नंदवंशीय राजा महापद्मनंद इस देवता के प्रति इतने आकर्षित हुए कि उन्हें सबकी आखों से बचाकर मगध ले गए थे। ईसा के १०० वर्ष पूर्व कलिंग के तत्कालीन महापराक्रमशाली सम्राट खारवेल ने मगध पर चढ़ाई की थी और श्री जगन्नाथ को वहाँ से लाकर इस क्षेत्र में फिर से प्रतिष्ठित किया था । ई. ८२४ में उत्कल के केसरी वंशीय पुण्यश्लोक नरपति ययाति केसरी ने इस महान देवता के लिए एक भव्य मंदिर का निर्माण कराया था । परंतु समुद्र तटवर्ती स्थान होने के कारण नमकीन हवा से यह मंदिर थोड़े ही वर्षों में नष्ट हो गया। इसके बाद ई. १०३८ में उत्कल के गंगावंश संभूत चिरस्मरणीय नरपति महामना चोड गंगादेव या चुड गंगदेव के द्वारा आज के इस जगविख्यात मंदिर का पुनः निर्माण हुआ ।' उक्त विवरण में जिस नीलमाधव या जगन्नाथ की प्रतिमा का उल्लेख है, वस्तुतः वही कलिंग जिन की प्रतिमा थी । यही प्रतिमा नीलमणि की तीर्थंकर ऋषभदेव की थी । सम्राट खारवेल ने मगध से उसे मूर्ति को वापस लाकर पहले कुमारी पर्वत पर अरहंत जिनालय में विराजमान किया था। उसके लिए समुद्र तट पर एक भव्य और समुन्नत जिनालय का निर्माण करके उस मूर्ति की शोभायात्रा बड़े समारोह के साथ निकाली थी और उस जिनालय में उसकी प्रतिष्ठा की थी । जगन्नाथ पुरी का वर्तमान मंदिर मूलतः खारवेल द्वारा निर्मित वही जिनालय है। इस मंदिर के प्राचीन समय में जिनालय होने के साक्ष्य आज भी मंदिर में उपलब्ध हैं । ___मंदिर के दक्षिण द्वार में प्रवेश करने से पूर्व बाहर ही बायीं और दीवार में भगवान ऋषभदेव की हल्के सिलेटी वर्ण की खड्गासन दिगंबर मुद्रा में लगभग एक फुट अवगाहना की प्रतिमा विराजमान है । प्रतिमा के Page #261 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनत्व जागरण...... २५९ w ऊपर कुछ वर्षों पूर्व शीशे का फ्रेम लगवा दिया गया है । इस प्रतिमा के यहाँ होने के कारण के विषय में यदि वहाँ के पंडों और पब्लिक रिलेशन ऑफिसर से चर्चा करो तो वे उत्तर देते हैं कि यह मंदिर आज से २१२२ सौ वर्ष पहले महाराजा खारवेल ने 'कलिंग जिन' की मूर्ति को विराजमान करने के लिए बनाया था । खारवेल महाराज जैनी थे । उन्होंने सर्वसामान्य के दर्शन की सुविधा के लिए एक जैन प्रतिमा विराजमान करवाई । इसमें तो संदेह नहीं कि 'श्री क्षेत्र परिचय' के अनुसार जगन्नाथ पुरी का वर्तमान मंदिर मूलतः खारवेल द्वारा निर्मित वहीं जिनालय है । किंतु प्रश्न यह है कि कलिंग जिन की वह मूर्ति कहाँ गई और कलिंग जिन का यह जिनालय जगन्नाथ का मंदिर कैसे बन गया ? वर्तमान में जगन्नाथ मंदिर में लकड़ी से बनी हुई तीन मुख्य मूर्तियाँ हैं । लकड़ी से बने हुए ये मात्र कलेवर हैं | हर वर्ष जगन्नाथ यात्रा के पश्चात् जगन्नाथ की मूर्ति का कलेवर परिवर्तित किया जाता है । लकड़ी के कलेवर के हृदय स्थान में विराजमान एक छोटी प्रतिमा को निकालकर पंडा नए कलेवर में रखकर उसको बंद कर देता है । इस संबंध में एक कथा प्रचलित है कि जो पंडा कलेवर परिवर्तन करता है उसकी आँखों पर पट्टी बाँध दी जाती है और वह पुराने कलेवर में से टटोलकर मूर्ति को नए कलेवर में विराजमान कर देता है। कहा जाता है कि अगर इस दृश्य को कोई देख ले तो उसकी और उसके संपूर्ण परिवार की मृत्यु हो जाती है । संभवतः कलेवर के अंदर विराजमान छोटी मूर्ति ही कलिंग जिन की मूर्ति है । कलेवर परिवर्तन को जनसाधारण के समक्ष न करने का कारण प्रतिमा के रहस्य को गोपनीय रखने का विषय हो सकता है । I I जहाँ तक जिनालय के जगन्नाथ मंदिर में परिवर्तन का प्रश्न है यह आद्य शंकराचार्य के समय हुआ होगा जब उन्होंने चार दिशाओं में चार धामों की स्थापना की जोकि मूलतः सभी जिनालय ही थे । जिस कलिंग में सुदीर्घ काल तक जैन धर्म राष्ट्र धर्म रहा उसमें अब एक भी प्राचीन मंदिर का शेष न होना एक शोध का विषय है । इसका कारण कलिंग में जैन धर्म के अनुयायियों का होना और जैन विद्वेषी राजाओं द्वारा मंदिर Page #262 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६० जैनत्व जागरण..... AAAAAAAAAAAAAN परिवर्तन करवाना है । __ आचार्य जिनसेन कृत महापुराण के 'जिनसहस्रनाम' स्तोत्र में ऋषभदेव का एक नाम जगन्नाथ भी दिया है अर्थात् जगत' के नाथ । जगन्नाथ शब्द जिन-नाथ शब्द का अपभ्रंश भी हो सकता है। इससे यही निष्कर्ष निकलता है कि जगन्नाथ की प्रतिमा ही कलिंग जिन की प्रतिमा है और पुरी का मंदिर ही मूलतः सम्राट खारवेल द्वारा बनवाया गया जिनालय है । खंडगिरि-उदयगिरि गुफाएँ एवं मंदिर - हाथी गुफा शिलालेख की १४वीं पंक्ति से ज्ञात होता है कि सम्राट खारवेल ने ११७ गुफाएं बनवाई थीं। लेकिन वर्तमान इतिहासकारों और भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण की गिनती के आधार पर खंडगिरि पर्वत पर १५ और उदयगिरि पर १८ गुफाएँ हैं। खंडगिरि पर चार जिनालय हैं जो लगभग २०० वर्ष प्राचीन हैं । खंडगिरि पर्वत की सभी गुफाएँ स्थापत्य की दृष्टि से बहुत महत्वपूर्ण गुंफा संख्या ३ (अनंत गुफा) में साढ़े २ फुट ऊँची कायोत्सर्ग मुद्रा में भगवान सुपार्श्वनाथ की प्रतिमा है । यहाँ साथिया इत्यादि जैन चिह्न और एक शिलालेख भी मौजूद है। यह गुफा खंडगिरि पर्वत की महत्वपूर्ण गुफाओं में से एक है। . गुफा संख्या ८ नवमुनि गुफा है । इस गुफा में पद्मासन मुद्रा में ९ तीर्थंकर प्रतिमाएँ हैं । गुफा में पांच शिलालेख भी मौजूद हैं। गुफा संख्या ८ का नाम बारह-भुजी गुफा है । खंडगिरि पर्वत पर स्थित यह सबसे महत्वपूर्ण गुफा है । गुफा के बरामदे में दायीं ओर दीवार पर बारह भुजाओं वाली दो तीर्थंकर शासन देवियों की प्रतिमा उकेरी हुई है। इसीलिए इसगुफा का नाम बारह-भुजी पड़ा । इसमें भगवान पार्श्वनाथ की कायोत्सर्ग मुद्रा में ३ फुट ७ इंच ऊँची प्रतिमा है । यह इस गुफा की सबसे बड़ी प्रतिमा है। इसके अलावा गुफा की एक दीवार पर १८ पद्मासन प्रतिमा उकेरी हुई हैं । अन्य दीवारों पर भी तीर्थंकर भगवान की प्रतिमाएँ और शासन देवियों की प्रतिमाएं बनी हुई हैं । Page #263 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनत्व जागरण..... २६१ आगे गुफा संख्या ९ जोकि बारह-भुजी गुफा से मिली हुई है। इसमें २४ तीर्थंकरों की मूर्तियाँ बनी हुई हैं जिनमें ८ कायोत्सर्ग मुद्रा में और बाकी पद्मासन में हैं। उदयगिरि पर्वत पर स्थित सबसे महत्वपूर्ण गुफा है- हाथी गुफा । इसी गुफा में प्रथम शताब्दी ईसा पूर्व का एल सम्राट खारवेल का १७ पंक्तियों का ब्राह्मी लिपि में लिखा हुआ शिलालेख है । जैन धर्म से संबंधित यह सबसे प्राचीनतम शिलालेख है। शिलालेख का प्रारंभ अनादिनिधान णमोकार मंत्र से होता है । इसी शिलालेख के माध्यम से हमें सम्राट खारवेल की जीवन गाथा, कलिंग जिन की वापसी आदि का वर्णन मिलता है। यह सबसे प्राचीन शिलालेख है जिसमें इस देश के वास्तविक नाम 'भारतवर्ष' का भी जिक्र है। . क्षेत्र की वर्तमान स्थिति- वर्तमान में क्षेत्र की दशा दयनीय है। लंबे समय से क्षेत्र अतिक्रमण का शिकार है । खंडगिरि पर्वत की सबसे महत्वपूर्ण बारह-भुजी गुफा (गुफा संख्या ८) लगभग १७-१८ सालों से अतिक्रमण का शिकार है । क्षेत्र पर जैनों की संख्या कम है और ब्राह्मण बहुलता में हैं । स्थानीय ब्राह्मणों ने बारह-भुजी गुफा में स्थित प्रतिमाओं को वैष्णव देवी-देवताओं में परिवर्तित कर दिया है । भगवान पार्श्वनाथ की कायोत्सर्ग. मुद्रा की प्रतिमा को वस्त्र पहनाकर वैष्णव देव विष्णु में परिवर्तित कर दिया गया है और उनकी शासन देवी पद्मावती को देवी दुर्गा में । इसी प्रकार अन्य तीर्थंकरों की प्रतिमाओं को विष्णु के अवतार और तीर्थंकर शासन देवियों की प्रतिमाओं को देवी दुर्गा के स्वरूप में पूजा जा रहा है। बारह-भुजी गुफा का स्वरूप भी बदल दिया गया है। गुफा के चारों ओर अवैध निर्माण कराकर एक मंदिर जैसा रूप दिया गया है । बारहभुजी गुफा का नाम भी बदलकर बारह-भुजी माँ दुर्गा कर दिया गया है। जैन यात्रियों से यहाँ दुर्व्यवहार किया जाता है और गुफा में घुसने भी नहीं दिया जाता । यह क्षेत्र भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण के अंतर्गत आता Page #264 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६२ जैनत्व जागरण.... है । भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण के नियमानुसार किसी भी संरक्षित इमारत के आस-पास बिना भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण की इजाजत के किसी भी प्रकार का निर्माण और धार्मिक अनुष्ठान करना वर्जित है । नियम तोड़ने वाले व्यक्ति/संस्था के विरुद्ध सख्त कार्यवाही का प्रावधान है। किंतु सरकार के सभी नियमों की धज्जियाँ उड़ाते हुए ब्राह्मणों ने वहाँ पर अवैध निर्माण भी किया है और नियमित रूप से वहाँ पर पूजा इत्यादि कराते हैं । वैष्णव तीर्थ यात्रियों से दर्शन के नाम पर अवैध वसूली करते हैं। भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण से संपर्क करने पर उन्होंने इस बात को स्वीकारा कि ब्राह्मणों द्वारा वहाँ पर अतिक्रमण किया गया है । इस संदर्भ . में जैन सिद्धक्षेत्र भुवनेश्वर द्वारा सन् १९९६ में माननीय उच्च न्यायालय के समक्ष एक जनहित याचिका दायर की गई लेकिन १८ वर्ष के लंबे अंतराल के बावजूद उस पर कोई सुनवाई नहीं हुई । भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण भी इसी बात को कहकर अपना पल्ला झाड़ रहा है कि उच्च न्यायालय के फैसले के बाद वहाँ से अतिक्रमण हटवा लिया जाएगा । किंतु राजनीति की इस कशमकश के बीच अपनी पहचान खोता यह महान् तीर्थ हमारे हाथ से निकलता जा रहा है। जैन तीर्थ यात्रियों का आवागमन पहले से ही इस क्षेत्र में कम है और जो जाते हैं वे जानकारी के अभाव में यह सोचकर कि ये तो वैष्णव मंदिर है उन प्राचीन गुफा की ओर रुख ही नहीं करते और सत्य से अनभिज्ञ रह जाते हैं । जिन यात्रियों को पता भी चलता है कि वहाँ कुछ गुफाएँ अतिक्रमण की शिकार हैं तो वो स्थानीय लोगों की चेतावनी पर कि जैन बंधुओं को वहाँ घुसने नहीं दिया जाता और दुर्व्यवहार किया जाता है, इस भय से वहाँ कदम नहीं रखते । जो एक्का-दुक्का यात्री भूलवश या कौतूहल वश वहाँ प्रवेश कर भी जाता है और सत्य से परिचित हो जाता है तो वह मन में अफसोस मात्र करके या इसको काल का दोष समझकर अपने को संतुष्ट कर लेता है। यह क्षेत्र अपनी पहचान खोता जा रहा है। सम्राट खारवेल की कथा तो इतिहास के पन्नों में पहले से ही कहीं खो गई है और अब उनके द्वारा Page #265 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनत्व जागरण..... २६३ जैन समाज को दी गई यह अमूल्य धरोहर भी हमारे हाथों से रेत की तरह फिसलती जा रही है । आखिर क्यों हम हर क्षेत्र में समृद्ध होते हुए भी अपने तीर्थ क्षेत्रों की रक्षा नहीं कर पा रहे हैं ? जैन समाज का प्रत्येक वर्ग शिक्षित है, अधिकांशतः लोग धन से समृद्ध है । ऊँचे पदों पर हैं । इन सबके बावजूद ऐसी क्या कमी है कि हम अपनी धरोहर को सहेज पाने में पिछडे जा रहे हैं ? उनकी रक्षा करने में असफल हो रहे हैं ? नए मंदिर, तीर्थ इत्यादि बनाने की होड़ में कहीं हम अपने इतिहास, अपनी धरोहर से विमुख तो नहीं हो रहे हैं ? समाज के प्रत्येक छोटे-बड़े कार्यक्रमों की बड़ी बड़ी पत्रिकाएँ छपवाकर, उनमें उपस्थित हुए प्रत्येक व्यक्ति का माला, शाल, प्रतीक चिह्न इत्यादि से सम्मान करने में व्यस्त कहीं हम अपने जिन धर्म के सम्मान को तो नहीं भूल रहे हैं ? विचार करें । कमी किसी एक में नहीं, कमी हम सब में है और उसको सुधारना भी हमें खुद ही . सातवीं-आठवीं शताब्दी के बाद जैन धर्म पर भयंकर हमले हुए और उनके परिणामस्वरूप पूरे भारत में हजारों मंदिर परिवर्तित किए गए । समय व परिस्थितियाँ अनुकूल नहीं थीं । लेकिन आज समस्त परिस्थितियों के अनुकूल होते हुए भी यह सिलसिला थमने का नाम नहीं ले रहा है। आज भी आए दिन तीर्थ अतिक्रमण का समाचार मिलता रहता है । समस्या है हमारा मौन । अतिक्रमण के प्रारंभ में ही हम विरोध नहीं करते, इस ओर ध्यान नहीं देते और धीरे-धीरे अतिक्रमण बढ़ता जाता है। हमारे मौन को और हमारे सिद्धांत 'अहिंसा' को हमारी कमजोरी और कायरता समझकर हमें सदियों से ठगा जा रहा है। सभी से निवेदन है खासकर युवा वर्ग से कि इस ओर ध्यान दें । अतिक्रमण के प्रारंभ में ही उसका विरोध करें और प्रयास करें कि वह वही समाप्त हो जाए । अतिक्रमण को गंभीरता से लें, नजर अंदाज न करें अन्यथा वह दिन दूर नहीं जब सभी जैन तीर्थों का हाल गिरनार और खंडगिरि जैसा होगा । आवश्यकता है जैन समाज के सभी वर्गों के लोगों को एकसूत्र में Page #266 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६४ जैनत्व जागरण....... बंधने की, तीर्थ संरक्षण के कार्य को बढ़ावा देने की । समाज की शीर्ष संस्थाओं को आगे आना होगा, इस विषय पर गोष्ठी इत्यादि कर सर्व सम्मति से निर्णय लेना होगा । खंडगिरि तीर्थ क्षेत्र के विषय में भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण, भारत सरकार, उड़ीसा सरकार से संपर्क कर उन पर दबाव बनाना होगा। १८ वर्षों से उच्च न्यायालय में अपनी सुनवाई की प्रतीक्षा करती एक जनहित याचिका के निर्णय के लिए प्रयास करने होंगे । कार्य. न ही मुश्किल है और न ही नामुमकिन । बस आवश्यकता है जागरूक होने की । सम्राट खारवेल तो मगध के राजमहल से जाकर अपनी राष्ट्र धरोहर को वापस लेकर आए थे लेकिन हम उनके द्वारा सौंपी गई अमूल्य धरोहर को सहेज कर रखने में भी सक्षम नहीं हैं ! आइए इस अमूल्य कार्य में सहयोग करें। अपने - अपने सामर्थ्य के अनुसार प्रयास करें । तीर्थ सुरक्षा के इस महान कार्य में सहयोग कर असीम पुण्य का बंध करें । जैन धर्म की इस महान संपत्ति को सहेजने का प्रयास करें । I I पुरुलिया : पुरातत्त्व के आलोक में. 1 जैनधर्म ही बंगाल का आदिधर्म हैं । साहित्यिक साक्ष्यों एवं पुरातात्त्विक अवशेषों के समीक्षात्मक अनुशीलन के बल पर यह निस्सन्देह रुप से कहा जा सकता है कि प्राचीन जैन संस्कृती के अमूल्य निदर्शन इस भूमि पर प्राप्त हैं । बंगाल क पुरुलिया अथवा मानभूम विशिष्ट अवशेषों व गौरवपूर्ण इतिहास का धनी है । यहाँ उपेक्षित पडे ज़ैन मंदिरों की दयनीय दुर्दशा हमें आत्मचिंतन के लिए प्रेरित करती है । जैनत्व जागरण का पुनः शंखनाद अति आवश्यक है I पुरुलिया पहले मानभूम के नाम से जाना जाता था । अभी भी, नाम के साथ एवं जनगोष्ठी के साथ मान शब्द जुड़ा हुआ है। जैसे - मानबाजार, मानकियारी, माभ्रसी, मानटाँड, मानजुड़ि, मानग्राम, मानझोपड़ आदि । फिर मानबाजार और पुंचा इलाके में माना बाउरी नाम से एक प्राचीन जनगोष्ठी का पता चलता है । सवाल उठता है कि यह मानभूम शब्द आया कहां I Page #267 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनत्व जागरण....... से ? हजारीबाग जिले के दुधापानी पहाड़ पर तीन भाई-उदयमान, धौतमाल व अजित मान के नाम खुदे हुए मिलते है । क्या इन तीन भाईयों के नाम पर ही जगह का नाम मानभूम पड़ा ? किसी-किसी का कहना है कि मान किसी राजवंश का नाम है । यही वह वंश है, जिसका शासन मानभूम, सिंहभूम और उससे जुड़े उड़ीसा के कुछ अंचलों पर था । ओडू जाति की एक शाखा के रूप में मानवंश का निरूपता किया गया था । अध्यापक मिराशी के अनुसार मान उपाधि वाले राजा, राष्ट्रकूट वंश के एक शाखा के रूप में थे । इनके आदि पुरुष का नाम मानांक है । चौथी शताब्दी के अंतिम काल में इनका शासन था । करीब सौ वर्षों के बाद उनके परपोते (प्रपौत्र) अभिमन्यु ने वहाँ राजधानी स्थापित की । उसका नाम रखा गया मनपुर या मानपुर । आज मानपुर सतारा जिले में अवस्थित है । शतारा में करीब ढाई सौ साल इस वंश ने राज किया था । मानांक के बेटे का नाम देवराजा था । देवराजा के तीन बेटे थे, जिनमें सबसे बड़े का नाम मान राजा था । मानपुर नगर के केन्द्र में रखकर मानांग ने जिस राज्य की प्रतिष्ठा की थी मध्ययुग के प्रथम पर्व में वही मानदेश कहा जाता था । वीरभूम, बाँकुड़ा, मोदिनीपुर, २४ परगना और पुरुलिया जिलों में मान राजवंश के विभिन्न अवशेष बिखरे हुए है । हमारे इस पुरुलिया जिले में ही मानपुर के नाम से सात गाँव है २६५ आज यह मानभूम लोकसंस्कृति में असन्न समृद्ध अंचल है । सारा साल लोक उत्सव, लोकनृत्य के आनन्द में ही यहाँ के निवासियों का दिन कटता है । मानभूम की एक और विशेषता है यहाँ के फैले बिखरे हुए पुरातात्विक अवशेष । पुरुलिया के गाँवों में घूमते समय कही न कहीं सदियों पुराने खंडहर, ध्वंसावशेष मिलते है, वे है - पाकबिड़रा, तेलकूपी, बुधपुर, बारमास्या, लाखरा, टुश्यामा, देउली, महादेवबेड्या, रालिबेड्या, छड़रा, पाड़ा, देउलगिड्या, गजपुर, क्रोशजुड़ी, धड़ांगा, बनरांगपुर, गुइमा, हरबना आदि । न जाने कितने और पुरातात्विक अवशेष मिट्टी के नीचे दबे पड़े हैं । न सरकार को इनकी फिक्र है, और न इन सुप्राचीन खंडहरों, मूर्तियों को धूप या बारिश या प्राकृतिक आपदाओं से बचाने के लिये इलाके के Page #268 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६६ जैनत्व जागरण..... लोगों में किसी प्रकार का पहल है । ये दुर्लभ मूर्तियां चोरबाजारुओं के हाथों बिककर विदेशों में चली जा रही है। आज से बच्चों के खेलने का सामान है। सदियों पहले जिन कुशल मूर्तिकारों ने इन पत्थरों को तराशकर इन जीवन्त परमात्म प्रतिमाओं का निर्माण किया था, आज उन मंदिरों मूर्तियों को हमे कितनी बेरहमी से नष्ट कर रहे हैं । लेकिन हमें अपने शिक्षित या सभ्य होने पर न जाने कितना गर्व होता है । आज भारतीय मूर्तिकला के इतिहास में एवं पुरातात्विक ऐतिहासिक हर दृष्टिकोण से पुरुलिया के ये खंडहर कितने असीम महत्व की जानकारी, विलुप्त होती हुई कड़ियाँ, अनसुलझे सवालों का जवाब, अपने में बसाए हुए है, और हम है कि इन्हें गूंगा ही मार डालना चाहते हैं । खुद को संस्कृतिवान कहते समय, काश ! एकबार हमें पुरुलिया के ये खंडहर याद आते । पुरुलिया में जैन धर्म का विस्तार एवं निदर्शन पाकविरा (वर्तमान पंचा थानान्तर्गत) पुरूलिया शहर से ३० कि.मी. दूरी पर "पाकविडार" गांव है । वहाँ जैन धर्म के स्मृति चिन्ह है । स्नेह के प्रतीक बनकर श्री महावीर आदि प्रभु की मूर्ति विद्यमान है। अपूर्व स्थापत्य ई.सं. १८७३ की साल में Beglar साहेब ने इस क्षेत्र का परिदर्शन किया, और उन्होने अपने ग्रन्थ में बहुत से मन्दिरोंके बारेमें उल्लेख किया है। बाकी सारे ध्वंसस्तुप आच्छन्न पडे है । प्राचीन मन्दिरके प्रांगण में छोटे बडे जिन बिंब है, तथा नाना आकृति की बहुत सी देवी देवता की मूर्ति भी देखने को मिलती है । एक सात हाथ की अखंड जिनेश्वर की मूर्ति आज भी विद्यमान है। चारों तरफ से पत्थरों से बंधा हुआ एक तालाब (सरोवर) भी है। इससे अनुमान होता है कि उस तालाब के पानी से भगवान की प्रक्षाल पूजा आदि होती होगी । Beglar साहेब का कहना है कि पाकविडरा एक समय सुपरिकल्पित जैन संस्कृति का केन्द्र था । एक बहुत्तम देवल के चारों और बीस दूसरे छोटे छोटे देवल है। इससे अनुमान होता Page #269 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनत्व जागरण..... २६७ है, जिन तीर्थंकरोंका निर्वाण सम्मेतशिखरजी में हुआ था, उन तीर्थकरों की मूर्तियों की प्रतिष्ठा छोटे छोटे देवलोमें की गई थी। इतिहास एवं जनश्रुति के अनुसार कहा जाता है कि सराकोंके द्वारा ही उस तीर्थ स्वरूप मंदिर का निर्माण किया गया था । पायराचालि मानबजारसे ७ कि.मी. की दूरी पर पायराचालि गाव है। गांव के नाम से पता चलता है वहां पर बृहत् (बडा) कबूतरखाना था । पायरा यानि "कबूतर", चालि यानि “चाल" जनश्रुति है कि वहां पर सराक लोंगो के द्वारा पक्षी सेवा होती थी। और दूसरे पक्षियों की अनुकंपा की जाती थी । बडी संख्यामें सराक लोंगो का उस इलाके में प्रचुर संख्यामें वास था । मानबजार की घटना को केन्द्र करके सराक लोगों ने कुछ होगा । सम्भवतः ई.स. १५९३ में इस शहर का नाम मानबजार पडा था । अकबर के सेनापति मानसिंह एवं बिहार के सूबेदार के नाम से इस शहर का नाम पडा था । . “In 1589 or 1590 during the reign of Akbar, Raja Mansingh marched his troops from Bhagalpur through the western hills to Burdwan enroute to reconquer Orissa and again a couple of years later he send troops through Jharkand to Midnapore; On both the occasions he must have passed through portions of this district.... Mansingh again sent out his troops, in 1593 from Bihar to Midnapore by what has been described as a western route through Jharkand” (West Bengal District Gazetteers; Op. Cit. P.P. 90,236) ई.सं. १५९३ में अकबर के निर्देश से जब मानसिंह उड़ीसा जीतकर मानबजार में आकर अवस्थान किया था, उस समय वहाँ सराकों का आधिपत्य था । किसी सराककी सुन्दरी कन्या को देखकर मानसिंहने मोहित होकर उसपर बलात्कार किया था । इस अघटन से सराक लोग वहाँ से अपना Page #270 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६८ जैनत्व जागरण..... मान बचानेके लिए पंचकोट राजा के राजत्व में स्थलान्तर हुए थे । पंचकोट राजा का राजत्व यानि वर्तमान पुरूलिया जिले का उत्तर पूर्वीय अँचल, जहाँ आज भी बृहत संख्यामें श्रावकवर्ग (सराकवर्ग) निवास करते है । कुछ कुछ श्रावक तो दूरदूर भी निकल गये थे, उनका अस्तित्व भी है । वे-बाकुंडा-वर्धमान, सावतालपरगणा, राँची एवं उड़ीसा में जा बसे थे । इस घटना के बाद से सराकोमें से तीन शाखा की उत्पत्ति हुई थी (i) अठारह सिका (ii) महत् (iii) खा...। अठारह सिका यानि जो सराक लोग घटना के तुरन्त कुछ लिए बिना स्थलान्तर हुए थे, वे और “महत्" जो सराकलोग घर जमीन के मोहवश बाद में स्थलान्तर हुए थे । खा...खा धातुसे बना है, आहारादि ग्रहण करनेके पश्चात जो निकले थे, वे "महत्' की तरह पश्चात् स्थलान्तर हुए थे...। पंचकोटमें सराकोंका वास प्रारंभ (पंचकोट यानि मानभूम (पुरुलिया) जिलांतर्गत एक राजत्व का नाम है, जो पुरूलिया के उत्तर पश्चिम इलाकों को केन्द्र करके है ।) धलभूम अन्तर्गत मानबजार एवं तत्पार्श्ववर्ती इलाकों को छोडकर सराकगण पंचकोट राजा के राजत्व में आये थे। पंचकोट यानि पुरूलिया जिले के पश्चिम-उत्तरी भागमें रघुनाथपुर, पाडा एवं काशिपुर थाना अन्तर्वती क्षेत्र...। उस समय पंचकोटमें हिन्दु-धर्म का प्रभुत्व था । जैनों का उल्लेख वेद पुराण में न होने से हिन्दुगण सराकोंको घृण्यजाति मानते थे । उनकी नजर में सराकजाति अछूतजाति कहलाती थी। शोच विवाह आदि क्रियाकर्म करवाने के लिए हिन्दु धर्मावलम्बी आदि कोई भी जाति (ब्राह्मण, हजाम आदि) सराकों के घर नही आती थी, अतः खोर-कर्म, पूजापाठ आदि कार्य सराकगण स्वयं ही कर लेते थे । ई.स. १६५२ के बाद मणिलाल जब पंचकोट का राजा हुआ था तब सराकोंकी इस अवदशा का अवसान हुआ था, यानि राज परिवारकी ओर से पुरोहित-हजाम आदि मिले थे । Page #271 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनत्व जागरण..... २६९ खैर, राज का मानभूम, पुरुलिया की मंदिर नगरी है । ९वीं से १३वी सदी तक आज के पुरुलिया में, इन अनगिनत गांवों में सुविशाल मंदिर बने हुए थे। इन मंदिरों में अपूर्व शैली व अलंकारों से सुसज्जित मूर्तियां बनी हुई थी । देव, देवी व तीर्थंकरों की मूर्तियों का सौन्दर्य इतना मनमोहक था, कि इन खंडहरों के धूल-धूसरित मूर्तियों को जब हम आज देखते है, तो चकित से रह जाते हैं । मन में बारबार प्रश्न उठता है-इसके प्रतिष्ठाता कौन थे ? समस्त पुरुलिया के पुरातात्विक इलाकों का भ्रमण करते हुए यह देखा गया है कि इन पुरा क्षेत्रों का लगभग अस्सी फीसदी भाग, जैन संस्कृति से जुड़ा हुआ है । इसलिए, पूर्व सम्भावना है, कि इन मंदिरों के प्रतिष्ठाता भी जैन ही होंगे, और वे मुख्यतः सराक जाति के पूर्वज है । ईं. टी. डाल्टन के अनुसार, यही मानभूम के आदि आर्यवंशजात है । "...........and another held by the people who have left many monuments of their ingenuity and piety in the adjaining district of Manbhum and who were certainly the earliest Aryan setters in this part of India, the Saraks and fains."........ मिस्टर वैलेनटाईन वल के अनुसार सराक जाति के लोग बड़े पुराने जमाने से ही ताम्बे के काम काज के साथ जुड़े हुए थे । इन्हीं सराकों के प्रभाव से ही सिंहभूम धलभूमि (भूम) के इलाकों में ताम्रयुग का प्रादुर्भाव हुआ । बाद में ताम्बे के खानों की मिलकियत को लेकर छोटा नागपुर के 'हो' जाति के साथ सराकों में विवाद उठ खडा हआ। एशियाटिक सोसायटी ऑफ बेंगॉल के प्रकाशन से भी पता चलता है कि सराक जाति के लोगों ने ही पहली बार ताम्बे की खानों को खोज निकाला था । ताम्बे के व्यवसाय या व्यापार के आधार पर ही, वे जीवन-बिताते थे । "........the more adventurous Saraks or say Jains, having alone penetrated the jungles where they were rewarded with the discovery of copper, upon the working Page #272 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७० जैनत्व जागरण..... of which they must have spent all their time and energy, as with exceptions of tanks above mentioned, the mines furnish, the sole evidence of their occupation of that part of the country. It is scarcely conceivable, that the 'HOS,' when they drove out the Saraks, could have utterly destroyed all traces of building” proceedings of Asiatic Society of Bengal, June 1869 pp. 170-174) जैन साहित्य से यह जाना जाता है कि सराक सिर्फ ताम्बे के व्यापार से ही जुड़े नहीं थे, लोहे के काम से भी ये लोग जुड़े थे । अजय नदी के दोनों तरफ, रूपनारायणपुर से पांडवेश्वर तक जो विशाल लोहे का स्तम्भ और लोहा गलाने की चुल्ली थी-उसके साथ सराक जुड़े हुए थे । जैन साहित्य में सुधर्मा का नाम पाया जाता है। भगवान् महावीर के शिष्य थे। उन्हीं को प्रथम लौहाचार्य (लोहे जैसे द्रव्य का ज्ञाता) माना जाता है। दूसरे लौहाचार्य भद्रबाहु हुए । डॉ. रमेशचन्द्र मजुमदार के अनुसार भद्रबाहु राढ़ के निवासी थे । इन्हीं के अथक प्रयासों से भारत के पूर्वी छोर में लौह शिल्प की शुरुआत हुई । “This is the area where the ancient Sravakas who were clearly Jains, lived and practised the earliest known smelling of iron ore. Hinen Isang mentioned this area as the Safaprovince.” The origin of the name of Safe is not known but it appears to be clearly associated with Jainism. Hibert had identified Dalmi as the capital of the Safa province and the entire Dalmi hills are full of Jaina antiquities. It is this province of Safa which if identified with a part of Radhdesa which was visited by Mahavira. (P.C. Roychoudhury. Jainism in Manabhum, Jain Journal). . कहे गए सराक सम्प्रदाय का आदि निवासस्थान कहाँ था, उसे लेकर काफी मतान्तर है । बहुतों का कहना है, उनका आदि निवास भारत का उक्त पश्चिमांचल है। बाद में वे बीस तीर्थंकरों की निर्वाण भूमि पारसनाथ Page #273 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनत्व जागरण....... I पहाड़ को केन्द्र में रखकर अपना जनजीवन निर्मित किये । इसी कारण लगभग सारा छोटानागपुर इलाके में वे व्यापार फैला चुके थे । उसी का विस्तार आज के पुरुलिया और मानभूम में देखा गया। मानभूम के कंसावती नदी (काँसाई) के तटवर्ती इलाकों को उन्होंने निवास स्थान के रूप में चुन लिया था । लगता है, इसीलिये कंसावती के तटवर्ती क्षेत्रों में ही ये पुराअवशेष अधिक पाए जाते हैं । "This is borne out by the fact that from all among the banks of the kansai (kansabati) river, numerous stone mages of Jain Tirthankara have been found, which date to 10th, 11th or 12th century on stylistic consideratione. Besides these, there are remanants in the above places of Jain temples built between the 10th and 13th centuries in variation of the North Indian and Orissan and Nagar-Sikara style. These can be seen at Boram, Budhpur, Charrah, Falma, Pakirrah.........." (West Bengal Dist. Gazetteno. P. 139) २७१ ~ कंसावती और दामोदर नदियों के तटवर्ती पुरातात्विक क्षेत्र सराक जाति से सम्बन्धित है; इस पर जॉन डॉल्टन भी सहमत है 66 ..the saraks appear to have coloniged along the banks of the rivers and we find their temple in ruins on the bank of Damodar, the Kansai is rich in architectural remains........' "" 1 प्राचीन काल में काँसाई या कंसावती नदी को केन्द्र में रखकर जिस प्रकार एक व्यापारिक लेनदेन का मार्ग निर्मित हुआ था, उसके दो छोर थे पहला बुधपुर से पाकबिड़रा के ऊपर से होते हुए बनारस से ताम्रलिप्त बन्दरगाह एक फैला हुआ था। दूसरा तेलकूपी से रघुनाथपुर, मेगुनपुर, दाशपुर, घाटाल होते हुए ताम्रलिप्त तक विस्तृत था । इन दोनों व्यापारिक मार्गों पर ताम्बे का व्यापार चलता था । हो सकता है, ताम्रलिप्त का नाम इसी ताम्बे के व्यापार के कारण पड़ा हो । Page #274 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७२ जैनत्व जागरण..... “An other route from Tamluk district to Banaras probably passed throught Pakbirra and Bud' pur on the banks of the kausai near Manbanar,...........the fact that in those ancient times the merchants who are credited with having built these old temples.” (W. B. Dist, Gazetteers, P. 235) तो, यह कहा जा सकता है कि नवीं से तेरहवीं सदी के बीच जो मन्दिर बने थे वे अधिकांशतः जैन व्यापारी सराक जाति के लोगों की थी। बाद में व्यापार मंदा पड़ने पर देवालयों पर से उनका अधिकार कम होने लगा । हो सकता है, जैन व्यापारियों का एक बड़ा अंश मानभूम छोड़कर चला गया था । बस कुछ एक सम्प्रदाय टिके रह गये । यही वे लोग हैं, जो आज भी यहीं रहते है । उसी समय सराकों के देवालय हिन्दुओं द्वारा अधिगृहीत कर लिए गये और देवालयों से जैनत्व साक्ष्यों को हटा दिया गया । जैन देव-देवियों की लगभग सभी मूर्तियों को हिन्दू देवी देवताओं की मूर्तियों में बदल दिया गया । नवीं से तेरहवीं सदी के बाद जितने भी मंदिर बनाए गए, सारे पके हुए ईंटों से बने है और अधिकांश मंदिरों की प्रतिष्ठा मुस्लिम काल के बाद हुई । अधिकतर मंदिर विष्णुपुर घराने के टेराकोटा पैनेल से सम्पृक्त है। मानभूम के सामंती शासकों का इन मंदिरों के निर्माण में काफी हाथ है। आज पुरुलिया में जो कुछ एक उल्लेखनीय टेराकोटा अलंकरण से सुसज्जित देवालय देखने को मिलते हैं, वे हैं- चेलियामार स्थित राधा-माधव मंदिर (१६९७),चाकलातोड़ गाँव में स्थित श्यामचाँद का जोड़ बंगला शैली में बना मंदिर (अठारहवीं सदी), बाघमुंडी राजमहल में स्थित राधामाधव मंदिर (१७३३), बराकजार में आटचाला शैली में निर्मित ईटों का मंदिर (आनुः अठारहवीं सदी), रघुनाथपुर में रघुनाथजी का मंदिर (अनुमानत अढारहवीं से उन्नीसवीं सदी), रघुनाथपुर के पास आचकोदा गाँव का टेराकोटा मंदिर (सत्रहवी-अठारहवीं सदी), बेड़ों गाँव का टेरकोटा मंदिर (सत्रहवीं सदी) नेतुड़िया के गड़पंचकोट का पंचरत्न मंदिर (सत्ररहवीं सदी) और गांपुर के आटचाला शैली में बना मंदिर विशेषरूप से उल्लेखनीय है । Page #275 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनत्व जागरण...... २७३ इस अध्याय में विशेष रूप से उन्हीं मूर्तियों और देवालयों की चर्चा यहाँ की गई है, जो विलुप्त होने के कगार पर खड़े हैं। आशा है कि आनेवाले दिनों में कोई सच्चा अन्वेषक और संस्कृतिप्रेमी इन सब मूर्तियों और देवालयों पर विस्तृत शोधकार्य के लिए आगे आएँगे और मानभूम के खोए ऐश्वर्य को फिर से उद्धार करने में समर्थ होंगे । पुरुलिया क्षेत्र के देवालय स्वयं में विशेष कलात्मक इतिहास संजोए हुए है । उन्नत - पूर्ण देवालयों से खण्डहर तक का सफर... प्रत्येक दीवार एक नवीन कथा छिपाए बैठी है । इस प्रकरण में प्रमुख रुप से ३ स्थलों के देवालयों की च्चर्चा की जा रही है -- पुरुलिया के देवालय मानभूम तथा पुरुलिया के देवालयों के निर्माण में चार शैलियां देखने को मिलती है । (१) रेख या शिखर शैली का देवालय (२) पीड़ा या भद्र शैली का देवालय (३) शिखर शीर्ष पीड़ा या भद्र शैली में बना देवालय (५) स्तूप शीर्ष पीड़ा या भद्र शैली में बना देवालय । लेकिन यह स्वीकार करना पड़ेगा कि पुरुलिया में रेख या शिखर शैली के देवालयों की संख्या अधिक है। जैसे बादा का देवालय, पाड़ा का देवालय, पाकबिड़रा का देवालय, दूधपुर का ध्वंस हो चुका देवालय, देउल घाटा का पत्थर और इंटों से बना देवालय, तेलकूपी का देवालय, टुशाया का देवालय आदि । पुरुलिया के कलाकारों ने रेख शैली को उड़ीसा के कलाकारों की मंदिर निर्माण पद्धति से लिया था । उड़ीसा की निर्माण शिला जैसे ही (रेख देवालय) पुरुलिया के मंदिरों को आधारभूमि से शीर्षस्थल पर चार खंडों में बाँटा गया है । ये हैं- पिष्ट, बाड़, गंडी और मशुक । पिष्ट निर्माण का वह अंश है, जो दिखता नहीं । यह जमीन के नीचे ही रहता है । देखने पर ऐसा लगता है, जैसे बिना आधार भूमि के देवालय मिट्टी से बना हुआ Page #276 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनत्व जागरण...... २७४ 1 1 1 है । बाड़ या बीच के अंश के तीन प्रधान खंड़ होते हैं । ये हैं-पा, जांघ और बरओ । जांघ के बीच कभी कभी उभरी हुई रेखाएं नजर आती है। इन्हें बन्धना कहते हैं | रेख शैली के देवालय की सुन्दरता उसका घेरा हुआ अंश है । मानभूम के देवालयों में घेरवाले अंश में कलाकारों ने छोटे देवालय, चैत्य, फूल, पशु-पक्षियों के चित्रों का सृजन किया है। कलाकार की कल्पना, इन अंशों में जीवंत हो उठी है । पुरुलिया के सभी देवालयों में पाड़ा का देवालय अपने घेरयुक्त अंश की कलाकारी के लिए सबसे अधिक चर्चित है । यहाँ दूसरे दृश्यों के साथ साथ पत्थर पर खुदे हुए नृत्यरता रमणी, प्रसाधन में व्यस्त नारी, इन्तजार करती नारी आदि विभिन्न दृश्य है, जिसका. आज बहुत कम ही बचा रहा गया है । बाकी सारी कलाकारी समय की निर्मम चपेट, धूप, बरसात में, बिना देखरेख के नष्ट हो चुका है । रेख देवालय का मशुक नाम का अंश भी चार भागों में विभक्त है बेंकी, आमलक, कलम और ध्वजदंड | पुरुलिया के बहुत पुराने कुछ एक देवालय, जो आज भी हजारों बाधा के बाद भी टिके हुए हैं; उनके बेंकीवाले अंश को ध्यान से देखने पर पता चलेगा कि वह अंश कहीं सीधा उठ गया है ऊपर की तरफ या फिर कहीं कलश की तरह टेढ़ा है । ज्यादातर क्षेत्रों में आमलक अंश दिखने में कमल जैसा होता था । चार-पाँच बड़े खंड़ों को काटकर ऊपर बिठाया गया है जिससे ऐसा लगे कि ऊपर से नीचे तक एक सम्पूर्ण कमल ही बिठाया गया हो । पत्थर के भारी टुकड़ों को जोड़ पाना सहज नहीं था । मानभूम के देउलों (देवालयों) के मशुक अंश का कलश किस रूप में था, वह पाकबिड़रा, बुधहर, गजपुर, छड़रा में अनादृत कलशों को जमीन पर लुढ़कते हुए देखने के बाद जाना जा सकता है । कलश पर जो ध्वजदंड होता था, उसका प्रमाण कलश के मुँह के छेदों से पता चलता है । पुरुलिया में कही भी अक्षत रूप से कलश एवं ध्वजदंड युक्त देवालय नहीं दिखता । बान्दा का देवालय ठीकठाक होते हुए भी उसपर कलश और ध्वजदंड नहीं है । पर्सी ब्राउन ने अपनी किताब Indian Architecture Vol I. के ३१वें अध्याय में बंगाल के रेख शैली के विशिष्ट देवालयों का उड़ीसा के Page #277 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनत्व जागरण...... २७५ मंदिर निर्माण-शैली से प्रभावित होने की बात कही है । मानभूम के प्राचीन देवालयों का आधार अधिकांशतः रथ माना जाता है । जब आधार भूमि को छोड़कर निर्माण उर्ध्वमुखी बनकर यात्रा करता है, रथ की सूचना वही होती है । यह रथ मूल मंदिर का ही एक अंग है । I उड़ीसा के मंदिर निर्माण शैली युगीन परिवर्तन के साथ बदली रही है । लेकिन पुरुलिया की प्राचीन शैलियाँ निर्माण व प्रविधिगत विशेषता लगभग एक सी ही रही है । युगीन प्रभाव का कहीं प्रमाण नजर ही नहीं आता लगता है, जैसे एक ही समय उनकी प्रतिष्ठा हुई हो। असल में पुरुलिया के कलाकार उड़ीसा की निर्माण शैली के युगीन परिवर्तन का अनुसरण न करते हुए प्राथमिक निर्माण तल को प्रयोग करते हुए आगे बढ़े हैं । T जैसे घट (कलश) व पत्तों की धारण को छोटा बनाने के लिए दीवार के निचले हिस्से में दूसरी कलाकारियों के साथ युग्मरूप से कुम्भ व पट्ट का सन्निवेश किया जाता है; लेकिन इसका भीतरी अर्थ यहां के कलाकारों की मालूम नहीं । इसीलिये यहाँ कुम्भ पर पाता के बदले खुर नाम का काम देखा जा सकता है। काम की संख्या और प्रकृति में भी फर्क नजर में आता हैं । उड़ीसा के निचले स्तर पर पाँच से अधिक काम नहीं है लेकिन पुरुलिया में कामों की संख्या और सन्निवेश में रीति का अभाव सा दिखता है । विवर्तन के कारण उड़ीसा में जंघा - अंश, तीन उप अंगों में बँट जाता है । पुरुलिया के विरल क्षेत्रों के अलावा इस अंग का एक से अधिक विभाजन नहीं हुआ । जंघा के बीच राहा नामक उभरा हुआ अंश है जिसके दोनों पार्श्ववर्ती रथों पर कतार में खड़े अर्धस्तम्भ पुरुलिया के मंदिरों को एक अलग ही सुंदरता प्रदान करती है । I " उड़ीसा में बाड़ और शिखर का विभाजन करनेवाला जो कन्ट का स्थान है उसे बाद में कुछ कामों द्वारा अधिकृत कर लिया गया । पुरुलिया की प्रथा अनुसारी शैली के अन्तिम पर्यायों में भी रेख शैली के देवालयों से कन्ट हटाया नहीं गया । शिखर के मामले में उड़ीसा जैसा पुरुलिया में भी निचला तल विभाजन समकोणीय होता था, लेकिन बाद में वह वर्तुल की आकृति का बनता चला गया ।" Page #278 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनत्व जागरण...... ( पुरुलिया मंदिर स्थापत्य, दीपक रंजन दास से उद्धृत व अनूदित) लेकिन इस अंचल में उड़ीसा जैसा शिखर के प्राचीन रथ के आनुभाक अक्ष पर कभी भी बाहर की तरफ निकला हुआ तल दिखाई नहीं देता । देवालय का स्वरूप ठोस आकार धारण करता है, इसी कारण लम्बे होते हुए अक्ष में जो कोण है, वे वृत्ताकार बनकर शिखर को कमनीय नहीं कर सका है । ठीक उसी तरह राहा और उसके पार्श्वरथ के मिलन स्थल पर क्रमिक घटते हुए स्तर में निर्मित अंगशिखर की अनुपस्थिति पुरुलिया के शिखरों को उड़ीसा के शिखर से पृथक करते हैं । २७६ वाघ के देवालय में भी उड़ीसा के मंदिर - गात्र अलंकरण में जिस जालिकाका ( लता - पत्तों आदि का ) व्यवहार होता है, उसी प्रकार की जालिका मिलती है । इसके अलावे पुरुलिया के मंदिरों में चैत्य - जनकों (गवाक्षों) को भी देखा जा सकता है । पुरुलिया के देवालयों में माशुक अंश के ऊपर स्थित विशाल आमलक शिला की उपस्थिति, उसका निजी वैशिष्टय है । पुरुलिया की देवालय निर्माण शैली की एक और विशेषता है, देवालय के सामने पत्थर से बने बरामदे का होना । आज लगभग सभी देवालयों के बरामदे धँसकर टूट चुके हैं। सिर्फ बान्दा के देवालय का बरामदा किसी तरह टिका हुआ है | वह भी टूट गया था लेकिन पुरातात्विक सर्वेक्षण और संरक्षण विभाग, भारतं सरकार की सहायता से उसे पुराने ढांचे पर पुनर्निर्मित किया गया है । लेकिन कुछ स्तम्भ और बड़े-बड़े पत्थर के खंड़ों को देखने से लगता है कि बरामदा शायद और बड़ा रहा होगा । ठीक ऐसे ही बरामदे बुधपुर, पाकबिड़रा, महादेववेड़या के देवालयों में भी मौजूद था, यह पत्थर के विशाल खंभों को देखने से पता चलता है । लेकिन आज सारे टूट चुके हैं । I पुरुलिया के विभिन्न जगहों पर एक से ज्यादा, पत्थरों का बना उत्सर्गीकृत देवालय देखने को मिलता है । पाकबिड़रा, बार हमास्या, छड़रा आदि स्थानों पर ये देवालय पाये जाते है । आज सबसे बड़ा उत्सर्गीकृत देवालय ३/४-८ फीट ऊँचाई वाला है, जो पाकबिड़रा में पाया जाता है। Page #279 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनत्व जागरण....... २७७ यह स्फटिक के पत्थरों से बना है । चार दीवारों में चार तीर्थकरों की चार मूर्तियां खुदी हुई है । ईंट का देवालय : ईंट से बने हुए देवालय, पुरुलिया के निर्माण शैली का एक महत्वपूर्ण अंग है । इस समय गिरते हुए, विलुप्त होते हुए ईंट से बने जो प्राचीन मंदिर आम दर्शक देख पाता है, वे हैं - देउलघाटा, आड़घा पाड़ा, छोटलरामपुर आदि । इसके अलावे, जिन सब जगहों पर कभी ईंटी का देवालय था, चुके अब मिट्टी में मिल चुका है । ये जगह हैं- शाँका, देउलभिड़या, पाकबिड़रा, मंगलदा आदि। हो सकता है, अतीत में और भी बहुत सारे पत्थर या ईंटों के प्राचीन देउल होंगे, लेकिन आज वे सब विलुप्त हो चुके हैं । इन सभी टूटे-फूटे और विलुप्त देवालयों का समयकाल १०वीं सदी से १२वीं सदी है । बाद के मुस्लिम युग में एवं उसके बाद १५वीं से १७वी सदी में भी मानभूम में विष्णुपुर घराने के कई मंदिर बनाए गए । ये हैं- चेलियामा का राधामाधव मंदिर, आचकोदा का टेराकोटा मंदिर, बेड़ो का जोड़बाग्ला मंदिर, बाघमुंडि का राधागोविन्द मंदिर, पंचरत्न शिव मंदिर, चाकलतोड़ के श्यामचाँद का जोड़ - बाग्ला शैली में बना मंदिर, गांगपुर का रघुनाथ मंदिर, आड़रा का मंदिर, लागदा का श्यामचाँद मंदिर, पंचकोट का रघुनाथ मंदिर आदि । पुरुलिया के प्राचीन ईंटों से बने देवालयों को ध्यान से देखने पर पता चलता है कि प्रत्येक देवालय लगभग ३ से ४ इंच ऊंची वेदी पर अधिष्ठित है । प्रवेश-मार्ग त्रिकोण आकार का है, जैसे पाड़ा के देवालय मंदिर के ऊपर एक से अधिक रथ या उपरथ देखने को मिलते हैं एवं वे देवालय के शीर्ष तक फैले हुये है । वर्गीय आकृति से बने गर्भ गृह की छत लहरा पद्धति से निर्मित की गई है । भीतर कोई दीप - स्थान नजर नहीं आता । लेकिन पत्थर देवालयों जैसा बाहर चार दीवारों पर जगह बनाए गये दिख जाते हैं, जहाँ सम्भवतः दीपक नहीं, देवी देवताओं की मूर्ति रखी जाती थी । देवालय के बाहर तीन अंश साफ साफ नजर आते है। निचला हिस्सा, जंघा और बर । देवालयों पर जो रथ या उपरथ देखने को मिलता है उनकी Page #280 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनत्व जागरण... २७८ आकृति देवालय के अनुरूप या कहीं-कहीं स्तम्भ के अनुरूप है । पाड़ा में इसी कारण देवालय पर अनेक छोटे छोटे देवालयनुमा आकृति देखने को मिलती है । धनबाद जिले के पाँड़रा में पत्थर से बने कविलेश्वर मंदिर पर भी सैकड़ों देवालय जैसे आकृति दिखाई देती है । पुरुलिया में ईंटों के देवालयों की निर्माण शैली का विवरण देते हुए दीपक रंजनदास लिखते हैं- किसी किसी पत्थर से बने मंदिर में एक घेरने की रीति पाई जाती थी, जहाँ फीते जैसा बैडकर जंघा की के शीर्षस्थान को घेरने की रीति थी । एक गहरा कंठ अपने दोनों आनुभूमिका प्रान्तों के बराबर घने रूप से सम्बद्ध, दो भारी काम द्वारा सृष्ट वर, बाड़ व शिखर को स्पष्टतः विभाजित करता था । शिखर की उच्चता हर जगह पर दीवार की उच्चता से अधिक थी । नीचे अनुपस्थित शिखर का वक्रभाव उर्ध्वमुखी होने से कारण शिखर एक सरलरेखा में खड़ा सा दिखता था । वर्तुल आकृति की भूमि आमलक द्वारा शिखर को कई भूमिगत आधारों पर बाँट जाता था । आज जबकि इस प्रकार के सारे मंदिर शीर्ष ढह चुके हैं, इसीलिए यह कहना मुश्किल है कि शिखर का भूमितल किसी निर्दिष्ट संख्या में बाँटा जाता था या नहीं । शिख़र पर अंगशिखर होने पर भी वह कभी भी स्वतंत्र सत्ता में प्रकट न हो सका । इसीलिए मंदिर का लम्बा सा ढाँचा सीधा और स्पष्ट प्रकट होता था । शिखर के निचले हिस्से में एक बड़े चैत्य जनले ( गवाक्ष) का नक्शा देखने लायक है । देवालय पर दिखाए गए देवालय की अनुकृति से यह अनुमान लगाया जा सकता है कि ढह चुके शीर्ष पर स्थापित मशुक को बेकी, आमलक खपुरो और कलश द्वारा दिखाया जाता था । ईंट से बने लगभग सभी देवालयों में चूने का लेप लगाया जाता था, इससे जहाँ बारिश और धूप से देवालयों की रक्षा होती थी, वहीं चूने पर नाना प्रकार की चित्रकारी करना व नक्शे उतारना बड़ा आसान था । चूना नर्म रहते समय ही उस पर चित्रकारी की जाती थी । दीपक रंजन दास कहते हैं ‘“कंच्चा रहते समय चूने के लेप पर जिस प्रकार के नक्शे बनाए गए और चित्रकारी की गई उस दृष्टिकोण से ये देवालय भारतीय = Page #281 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनत्व जागरण..... २७९ कला का एक अपूर्व अनुपम उदाहरण है ।" देवालय के निर्माण में जिन ईंटों का इस्तेमाल होता था वे मोटे तौर पर लम्बाई और चौड़ाई में ६ ईंच और ३ ईंच के होते थे । विभिन्न जगहों पर विभिन्न प्रकार के नाप के ईंट व्यवहार में लाए जाते थे । इनमें से सबसे बड़ी ईंट लम्बाई में ९ ईंच और चौड़ाई में ९ ईंच था । लेकिन आज के ईंटों से इनका कोई मेल नहीं है। पर हो सकता है कि ईंटों को बनाने का तरीका समान रहा हो। मिट्टी को पानी के साथ मिलाकर गूंथते हुए काला बनाया जाता था और ' कुछ दिन उसी तरह रखा जाता था । इसे यहाँ जावाई रखना कहते हैं । बाद में उसी मिट्टी को फिर से पानी में नरम करने के बाद साँचे में ढालकर विभिन्न अनुपातों में तैयार कर धूप में सुखाकर काठ से जलाया जाता था। ___ईंट के देवालय कभी बहुत अनुपम होते थे, इसे पाड़ा और देउलघाटा के देवालयों को देखने से मालूम पड़ता है । इसके अलावा लता, फूल, पत्ते, विभिन्न प्रकार के प्राणी, देव देवियों की मूर्ति, नृत्यरता रमणी, नक्शे आदि अपनी सुन्दरता से सबका मन मोह लेते है । पत्थरों से बने देवालयों जैसे ईंटों के देवालयों में भी जलनिष्कासन प्रणाली बनी हुई थी । जिस वेदी पर तीर्थंकर या देव देवियों की मूर्ति बनी हुई थी, वही से नाला निकल जाता था और हाथी, मगरमच्छ या दूसरी कोई आकृति बनी रहती-जिसके मुंह से पानी निकलकर चहबच्चे में जमा होता था । देउलघाटा जाने पर इस व्यवस्था को अच्छी तरह से देखा जा सकता है । हर ईंट का देवालय ही ऊची वेदी पर प्रतिष्ठित था, ऐसा जोर देकर नहीं कहा जा सकता । जैसे पाड़ा के मूल वेदी की ऊंचाई लगभग ४ ईंच ४.५० ईंच है, लेकिन देउलघाटा का मल वेदी बहत कम ऊचा है। प्रस्तर या पत्थर से बने देवालयों का प्रवेश-पथ में जितनी कलाकारी से भरी होती थी, ईंट से बने देवालयों में उतनी कलाकारी नहीं पाई जाती। मानभूम के प्राचीन ईंटों के देवालयों का निर्माणकाल सही रूप में बताना मुश्किल है । परन्तु लगभग १० से ११वीं सदी के समय इनका निर्माण हुआ होगा । कई लोगों का मानना है कि देउलघाटा का देवालय ९वीं से १०वीं सदी में बना है । लेकिन दीपक रंजन दास का कहना है Page #282 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनत्व जागरण..... कि उच्चवेदी पर मंदिर प्रतिष्ठा, गर्भगृह में आधे से अधिक अंश से ज्यादा दीवार, पांच से अधिक रथ समन्वित आसन, निचले भाग में काम के मूल चरित्र का विस्मरण और काम की संख्या कम से कम पाँच से अधिक करना ऊँचाई के प्रति अधिक आकर्षण आदि विशिष्टताएं इन मंदिर समूहों के ११वीं सदी के बाद बने होने के ही सूचना देती है । २८० तैलकम्प या तेलकूपी: आज दामोदर के गर्भ में विलुप्त हो चुकी तैलकम्प या तेलकूपी, उस जमाने की एक बड़ी बन्दरगाह नगरी थी । नगरी का नाम तेलकूपी क्यों पड़ा, इसे लेकर पण्डितों में काफी विवाद है । कईयों के अनुसार संस्कृत तैलकम्प से तेलकूपी शब्द आया है । संस्कृत में तैल मतलब तेल | कौटिल्य के अर्थशास्त्र में तैल को एक प्रकार का कर माना जाता था । कम्प आया है कम्पन से कम्पन का अर्थ है परगना । तो, यह अनुमान किया जा सकता है कि आज का तेलकूपी किसी समय एक करप्रदान करने वाला सामंती राज्य था । I तरुणदेव भट्टाचार्य के अनुसार विलिंग या तैलंगो को यह कर (Tax) प्रदान किया जाता था । लेकिन यह मत भी विवादास्पद है । प्राचीन इतिहास में तेलकूपी को लेकर ठोस कुछ भी नहीं पाया जाता । लेकिन संध्याकर नंदी के रामचरितम् काव्य में तेलकम्प शब्द मिलता है । " शिखर इति समर परिसर सिसदरिराज राजिगंज गब्बगहन दहन दावानस्तैलकम्पीर कल्पतरू रुद्रशिखर" अर्थात् युद्ध में जिसका प्रभाव नदी पर्वत से विस्तीर्ण था, पर्वत कन्दर के राजवर्गों का दर्प हरण करनेवाले, दावानल के समान, वह तैलकम्प के कल्पतरू रूद्रशिखर है । संध्याकर नंदी रचित रामचरितम काव्य की समयसीमा प्रमुख पर १०७०-११२० ई. है । काव्य का मूल विषय पाल वंश के शासक रामपाल की कीर्तियों का वर्णन है । कवि ने अपनी काव्यप्रतिमा के रूप में एक ही संकेत में अयोध्या के राजा राम और पाल नरेश रामपाल का यशोगान किया है | रामचरित काव्य में रूद्रशिखर तैलकम्प के राजा थे, इसे हम Page #283 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनत्व जागरण....... बोड़ाम में पाये गए शिलालेख से भी जान सकते है । 1 मगध और राढ़ में पालवंश का आधिपात्य था । पालसम्राट रामपाल के साथ रूद्रशिखर की मित्रता थी - इतिहास में इसका स्पष्ट प्रमाण मिलता है। अपने पैतृक राज्य के उद्धार के समय रूद्रशिखर ने रामपाल की सहायता की थी । ऐतिहासिक सूत्रों से पता चलता है कि मानभूम, पुरुलिया, पंचकोट और तैलकम्प के चारों ओर जितने भी राज्य थे, उनके साथ रामपाल की मित्रता थी । उस जमाने का तैलकम्प राज्य दामोदर के दक्षिण से काँसाई के उत्तर तट तक फैली हुई थी । पश्चिम में झालदा से दक्षिण में बुधपुर तक इसकी सीमा था । यह इस लिपि से ही प्रभावित होती है । जिसमें कहा गया हैं २८१ राढ़ से घिरे हुए पंचद्रिश्वर की सीमा को कोई भंग न करे । राजा रुद्रशिखर जैन धर्मी थे क्योंकि उनके समय जैनधर्म ने राढ़, विशेषतः मानभूम में विस्तारलाभ कर लिया था - यह प्रमाणित होता हैतेलकूपी, बान्दा, पाड़ा, शाँका, बोड़ाय, पाकबिड़रा, बुधपुर आदि के पुरातात्विक अवशेषों स्थलों से । D. V. C. (दामोदर वैली कॉरपोरेशन) के कारण आज तेलकूपी बन्दरगाह पूरी तरह पानी के नीचे डूब चुका है । सोचने पर आश्चर्य होता है कि D.V.C. के कार्यकारिणी सदस्य पंचेत डैम बनाते समय तेलकूपी के प्रख्यात मंदिरों की तरफ एकबार भूलकर भी नहीं देखा । वे एकबार के लिए इन दुर्लभ ऐतिहासिक धरोहरों को बचाने की बात भी नहीं सोची । इसीकारण १९५७ की उस रात को तेलकूपी पानी में डूब गया। लोग बेघर हुए, बेसहारे बन गए । सारे मवेशी पानी में बह गए। अब प्रश्न है कि तेलकूपी पानी में डूबने से पहले यहाँ कितने मंदिर थे ? इसका जबाव हमें D.J. Beglar रचित 'Report of a Tour through the Bengal Province' नामक रचना में प्राप्त होता है । १८७८ में लिखे गए इस वर्णन में उन्होंने २० मंदिरों के होने की बात कहीं है। इसके अलावे, वे वहाँ पर कुछ ईंटों और पत्थरों के खंडहर देखे थे जो आज पूरी तरह ध्वंस हो चुके हैं । १९०२ में ब्लक ने १० मंदिरों को वहाँ पर देखा था । आज सिर्फ तीन ही मंदिर किसी प्रकार वहाँ टिके हुए हैं। लेकिन उनमें Page #284 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८२ जैनत्व जागरण..... से दो की हालत इतनी जीर्ण-शीर्ण है कि कभी भी उन्हें ढहते हुए हम पा सकते हैं। आज भी एक सवाल मन में झाँकता है कि यहाँ इतने सारे मंदिर कैसे बने ? ये मंदिर किस सम्प्रदाय के थे-या किस समय के है ? सवाल उठता है कि तेलकूपी ही बन्दरगाह क्यों बनी ? इतिहास इन सब सवालों का जवाब नहीं देती । सही रूप से किसी सिद्धान्त तक पहुँचना बड़ा मुश्किल है । तेलकूपी के मंदिरों का आनुमानिक समयकाल दसवी-ग्यारहवी सदी ई० है । उसी समय बंगाल में पालवंश का शासन चल रहा था । जैनधर्म का प्रचार-प्रसार उस समय समस्त बंगाल में फैला हुआ था । इस विस्तार में जैन व्यवसायी काफी उत्तरदायी थे । ये लोग ताम्बे के व्यवसायी थे। उस जमाने के दो विख्यात ताम्बे के खान थे-तामाजुड़ी और तामाखुन । इन सब खानों से जैन व्यवसायी एक सड़क मार्ग से ताम्बा लाकर तेलकूपी बन्दरगाह में नाव पर चढ़ाते थे । उस जमाने में सड़क मार्ग मान बाजार पुरुलिया, छड़रा, पाड़ा, शाँका, मंगलदा, बान्दा होकर तेलकूपी पहुँचता था। इन सब खानों से जैन व्यवसायी एक सड़क मार्ग से ताम्बा लाकर तेलकूपी बन्दरगाह में नाव पर चढ़ाते थे । उस जमाने में सड़क मार्ग मान बाजार, पुरुलिया, छड़रा, पाड़ा, शाका, मंगलदा, बान्दा होकर तेलकूपी पहुँचता था। इन अंचलों में पुरुलिया के अलावा लगभग सभी स्थानों में पुरातात्विक अवशेष बिखरे पड़े है । बान्दा या पाड़ा में एक-दो देवालय अब भी बचे हुए है। जैन व्यापारियों ने विश्राम के लिये और रात गुजारने के लिये अपने अपने अभीष्ट देव देवियों की प्रतिष्ठा की थी। इसके बाद में जैन व्यापारी दामोदर नदी पर अवस्थित तेलकूपी बन्दरगाह से होते हुए नाव से ताम्रलित बन्दरगाह तक पहुँचते थे । उसके बाद ये व्यापारी ताम्रलिप्त होते हुए सागर की तरफ यात्रा करते थे। इसके अलावे एक जातीय सड़क या राजमार्ग का भी हमें पता लगता है । उस समय के इस राजमार्ग का फैलाव काफी लम्बा था । मेदिनीपुर से तमलुक होकर उत्तर दिशा में रूपनारायण नदी के पश्चिम तट के बराबर घाटाल अंचल के क्षेपुतपुरदासपुर पाना घाटाल होकर शिलावंती नदी पार कर कभी उसे दाहिने या Page #285 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनत्व जागरण..... २८३ कभी बाए रखते हुए बाँकुड़ा जिले के विष्णुपुर छातना और शुशुनिया होकर पुरुलिया के रघुनाथपुर व तेलकूपी के ऊपर से होकर यह सड़क जाता था। उस जमाने के बड़े व प्रतिष्ठित व्यापारी इसी राह से चला करते थे। तो जल और स्थल, दोनों राहों से ही तेलकूपी एक केन्द्रीय व्यापार की भूमि थी । और और इन्हीं व्यापारियों के हाथों ही ये देवालय बने थे । ये सभी मंदिर जैन व्यापारियों द्वारा ही निर्मित थे जिनमें कुछ मन्दिर परवर्ती काल में हिन्दू मन्दिरों में परिवर्तित किये गये । अब तेलकूपी के मंदिर और मूर्तियों की बात की जाए । अनगिनत देवालयों में अब सिर्फ तीन ही देवालय टिके हुए हैं। इनमें से दो, बारिश के मौसम में सम्पूर्ण जलमग्न रहते है और एक (ज्येष्ठ) के महीने के सिवाय सारा साल जल में डूबा रहता है। कितने दिन और ये टिक पायेंगे इसमें निश्चित संदेह है । दामोदर के पास ही पाथरबाड़ी गाँव बसा है । इस गाँव से करीब एक किलोमीटर की दूरी पर एक टूटा देवालय प्राकृतिक थपेड़ों को सहता हुआ पूर्व दिशा की तरफ हिलकर टिका हुआ है। इसकी निर्माण प्रकृति बान्दा के देवालय जैसा है। यह मोटे तौर पर ५०-५५ फुट लम्बा था, लेकिन अभी इसकी उच्चता ४५ फुट के करीब होगी । इसकी चौड़ाई १३.५ - १५.५ फुट है । बान्दा के देवालय से यह आकार में काफी छोटा है । परन्तु शिल्पकारों ने इसे एक ही शैली में बनाया था, इसमें कोई संदेह नहीं है । देवालय के राढ़ अंश का काफी भाग धस चुका है । देवालय पूर्व दिशा की तरफ बना हुआ है। इसके मूल द्वार के बने अलंकार बान्दा के मंदिर से मिलते-जुलते है। दोनों तरफ त्रिशूल हाथ में लिए दो द्वाररक्षक खड़े दिखते हैं, जो पहले अद्भुत आलंकारिक सजावटों से सुसज्जित थे। देवालय के तीन कोणों में तीन स्थान बनाए गए थे खोदकर, जिनमें तीर्थंकर की तीन मूर्तियाँ विराजमान थीं। वे सब स्थान आज बने हुए हैं पर कोई तीर्थंकर मूर्ति विराजमान नहीं है। देवालय के भीतर जल निष्कासन की अच्छी व्यवस्था नजर आती है। पूजा अर्चना के समय जो पानी व्यवहार में लाया जाता था वह इसी निष्कासन नाली से होता हुआ सीधा दामोदर में चला जाता था । Page #286 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८४ जैनत्व जागरण..... तेलकूपी गाँव के बीचवाला देवालय पूरी तरह पानी में डूबा हुआ है । वैशाख या जेठ (ज्येष्ठ) के महीनों के अलावे यह सारा साल पानी में डूबा रहता है। फिलहाल यह पानी से आठ फुठ की ऊँचाई पर खड़ा है । इसकी निर्माण प्रक्रिया कुछ स्वतन्त्र प्रक्रिया के आधार पर भी हुआ है । यह देवालय स्तरों पर बना हुआ है । एक स्तर से दूसरे स्तर तक की ऊँचाई दो फुट की दूरी पर स्थित है। यह भी ५०-५५ फुट का है। लेकिन पश्चिम दिशा की तरफ बस हुआ है । पहले अंदर मूर्ति थी पर अब नहीं है । शीर्षक बिजली गिरने के कारण ध्वंस हो चुका है। पहले इस पर चूने का लेप लगा था और उस पर कलाकारी की गई थी। अब यह सबकुछ ध्वस्त हो चुका है, धुल चुका है । द्वार के दोनों तरफ दो बैल और शेर की मूर्ति बनी है। इससे पता चलता है कि भीतर तीर्थंकर आदिनाथ एवं महावीर स्वामी की मूर्ति बनी हुई थी। इस देवालय से दो किलोमीटर की दूरी पर कुछ कम पानी में एक और देवालय खड़ा है। यह उत्तरमुखी है एवं इसकी निर्माण शैली पहले मंदिर जैसी है। इसके माथे का अंश सम्पूर्ण नष्ट न होते हुए भी लगभग विनाश के कगार पर ही खड़ा है। शीर्षक के आमलक अंश के कई पत्थर के टुकड़े गिर चुके हैं । सिर्फ एक गोल पत्थर किसी तरह अटका हुआ है। यह देवालय भी ५० फुट के करीब ऊँचा था । जिस तरह से पानी के निरन्तर स्पर्श से ये देवालय नष्ट होते जा रहे हैं- कब इनका ढाँचा पूरी तरह से फंस जाएगा, कहा नहीं जा सकता । अब तेलकूपी के मंदिर के बाद मूर्ति की बात आती है । जब यहाँ बीस देवालय थे या उससे भी पहले के खंडहरों में सैकड़ों मूर्तियां बनी हुई थी लेकिन ये सारे देवालय पानी के नीचे जा चुके है। सिर्फ गुरुडी, तारापुर और लालपुर के सहृदय कुछ एक लोगों की कोशिश के कारण आज सिर्फ दो मंदिर ही बच पाए हैं । यहाँ की मूर्ति के प्रसंग में काशीनाथ देवरिया ने लिखा था- "बिहार में रहते समय चौथी कक्षा के भूगोल में १३ मंदिरों की बात पढ़ी थी । जितना याद है- दामोदर के दक्षिण में ये Page #287 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनत्व जागरण...... २८५ मंदिर बने थे । मूल मंदिर के गर्भगृह में विशालकाय भैरव विराजमान थे । अंधेरे में ढँके गर्भगृह में, एक बड़ा सा प्रदीप (दीपक) जलता रहता था। भक्तगण भक्ति के साथ पुजारी के निर्देश अनुसार भैरव के माथे पर बेलपत्ते, कच्चा दूध चढ़ाकर मंत्रोच्चारण करते थे- नमः शिवाय शान्ताय कारण त्रय हेतवे ...।" यह भैरवनाथ और कोई नहीं देवाधिदेव तीर्थंकर परमात्मा हैं । नदी के बिलकुल पास था प्रवेश पथ प्रवेश पथ के संलग्न आंगन में एक भैरवी की मूर्ति थी । उन्हें प्रणाम करके मंदिर में प्रवेश करने का रिवाज था । प्रवेश पथ के बाई तरफ एक छोटा घर बना हुआ था । उसमें पत्थर का शिशु, जो अभी जन्मा हो, प्रसूति और धाई माँ (धारी) की मूर्तियां बनी हुई थी । इन सबका अर्थ क्या है, आज तक नहीं निकाला जा सका। मंदिर से नदी की ओर जाते समय उत्तर की और एक पत्थर का घट बना हुआ था । आज यह सबकुछ दामोदर के नीचे जा चुका है 1 1 खड़रा गाँव से तीन किलोमीटर की दूरी पर स्थित है पाथरबाड़ी गाँव । इस गाँव से १/२ किलोमीटर दूर एक सूने मैदान में खुले आसमान के नीचे, बिना संरक्षण के, एक पत्थर की मूर्ति पड़ी हुई है, यह एक चतुर्भुज देवीमूर्ति है। हवा और पानी से निरंतर घिसने के कारण हाथों में बने अस्त्रों की पहचान कठिन है । यह मूर्ति एक हाथी पर बैठी है । हाथी की अपूर्व निर्माण शैली आज भी उसी तरह अद्भुत सुंदर है । खगेन्द्रनाथ माजी के अनुसार यह जैन देवी चक्रेश्वरी की मूर्ति है । स्थानीय लोग इन्हें नीलकंठवासिनी के नाम से पूजते हैं । कुछ दिन पहले अंचल के घनाढ्य व्यक्ति बिज महाला के उद्योग से मूर्ति को मिट्टी से निकालने गए । लेकिन बहुत सारे लोग मिलकर भी लाख कोशिश के बावजूद मूर्ति निकालने में असमर्थ हुए । लेकिन इस खींचातानी में दाहिने तरफ के ऊपर भाग की क्षति हुई और वह अंश टूटकर गिर गया । उसी रात को एक अमंगल सूचक घटना घटी और उनके बड़े बेटे की पत्नी की मौत हो गई । बाद में वहीं पक्का मंदिर बनाने की उन्होंने कोशिश की । आज भी वहां काफी ईंटे पड़ी हुई मिलती है । लेकिन डर से वे और उस काम को आगे नहीं बढ़ा सके। Page #288 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनत्व जागरण...... २८६ आजकल स्थानीय लोग खेती में काम करते समय, बकरी, बत्तख आदि की बलि चढ़ाते हैं । उसके बाद वे धान काटने जाते हैं । यह मूर्ति मोटे तौर पर २.८ फुट लम्बा और १.५ फुट चौड़ा है । दामोदर नदी से लगभग २ किलोमीटर की दूरी पर बसा है गुरुडी नामक एक छोटा सा गाँव । अंचल के लोगों ने अत्यन्त परिश्रम से तेलकूपी के टूटे हुए पत्थरों को लाकर एक छोटे घर का निर्माण किया था । इस समय घर की छत ढह गई है और सिर्फ चार दीवार ही खड़ी हैं । गुरुडी गाँव में हमे निम्नलिखित मूर्तियां देखने को मिलती है । I (१) बाहुबली की मूर्ति : स्थानीय लोगों की भाषा में यह भैरव की मूर्ति है । लेकिन खगेन्द्रनाथ माजी इसे बाहुबली के रूप में चिन्हित करते हैं । मूर्ति की ऊँचाई ५ फुट चौड़ाई के साथ करीब २ फुट ईंच है मूर्ति के ऊपर दोनों तरफ को गंधर्व है, जिनके हाथ में वीणा है और जैसे वे उन्हें बजा रहे हैं | नीचे की तरह दो नारीमूर्ति हाथ में चामर लिये खड़ी हैं । बाहुबली के हाथ में दंड़ सा कोई प्रतीक था जिसका निचला अंश अब नष्ट हो चुका है । मूर्ति के सिर पर मुकुट और कानों में कुंडल है। गुरुड़ी गाँव के लोग उसे तेलकूपी के पानी में से उठा लाए हैं । 1 (२) ऋषभदेव की मूर्ति के सिर का अंश नहीं है । यह उन्हीं चार दीवारों में से एक पर टिक्कर खड़ा है। मूर्ति की औसत ऊँचाई ३ फुट आठ (८) ईंच है | चौड़ाई में २ फुट । नीचे लांछन चिन्ह बैल उत्कीर्ण है । मूर्ति कायोत्सर्ग मुद्रा में खड़ी है। नीचे चामर हाथ में लिए दोनों तरफ दो नारीमूर्ति । मूर्ति के दोनों तरफ २४ तीर्थंकरों की मूर्ति खुदी हुई थी लेकिन फिलहाल २० तीर्थंकर ही बचे हैं और ऊपर को पंक्ति नष्ट हो चुकी है I I (३) विष्णुमूर्ति : गुरुडी के हाल में बताए एक मंदिर में यह मूर्ति नजर आती है । मूर्ति की औसत ऊँचाई ५ फुट है पर नीचे की तरफ ६ ईंच सीमेंट से ग्रथित किया गया । मूर्ति १.५ फुट चौड़ी है । ऊपर के दोनों हाथों में शंख और चक्र, नीचे बाएं हाथ में गदा और दाहिना हाथ Page #289 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनत्व जागरण..... २८७ १/६ अभय प्रदान करता हुआ है । वह मूर्ति वस्त्र से ढंकी हुई है । उसके गले में उपवीत (जनेऊ) और अलंकार है । नीचे बाई तरफ वीणा हाथ में लिए सरस्वती की मूर्ति है और दक्षिण में लगता है देवी लक्ष्मी की मूर्ति है । इन दोनों मूर्तियोंकी निर्माण शैली आसाधारण है । हो सकता है कि ये राजा रूद्रशिखर द्वारा निर्मित मूर्तियां हो-लेकिन जोर डालकर कहना मुश्किल है । मूर्ति के सिर पर मुकुट और कानों में कुंडल के सिवाय उस घर में ४ शिवलिंग और एक छोटी सी मूर्ति देखी जा सकती गुरुडी के करीब तीन किलोमीटर की दूरी पर लालपुर गाँव बसा है। इस गाँव के अन्तिम छोर पर बिजली की चोट खाए एक विशाल वटवृक्ष के नीचे सम्पूर्ण अनहेलित स्थिति में कुछ दुर्लभ जैन मूर्तियां पड़ी हुई है। १. अम्बिका देवी मूर्ति : यह मूर्ति भगवान नेमिनाथ की अधिष्टायिक अम्बिका की है। इस पर किये गये अलंकार देखने लायक है । मूर्ति का चेहरा नष्ट हो चुका है। ऊँचाई लगभग ७ फुट है। मिट्टी के नीचे करीब ११/२ फुट धंसी हुई इस मूर्ति को तेलकूपी के जल से लोग उठाकर लाये हो । __इसका दाहिना हाथ पूरा टूट चुका है। एवं बाएं हाथ से एक शिशु को पकड़ा हुआ है जो देवी अम्बिका के आयुष्य हैं । वात्सल्य प्रेम का यह अनुपम उदाहरण है। मूर्ति अपने मूल रूप में अति मनोहर थी। इसका प्रमाण उसके बालों की बनावट, गले का हार और कानों का कुण्डल देखने से ही मिलता है । इसके अलावे, दोनों हाथों पर बाजूबन्द बनाए गए हैं। मूर्ति के ऊपर का अंश बिलकुल नष्ट हो चुका है। ऊपर से नीचे की तरफ देखते हुए पहले हमें नृत्य करती एक नारीमूर्ति और वाद्य बजाते हुए एक पुरुष मूर्ति नजर आती है । इस एक ही भंगिमा में बने बाई तरफ भी दिखाई देती है। ठीक उसके नीचे चामर डोलते हुए दो स्त्रियों की मूर्ति और उसके नीचे दाहिनी तरफ चामर धारी एक नारी मूर्ति । मूर्ति अलंकारों और वस्त्र से सुसज्जित है। Page #290 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८८ जैनत्व जागरण..... २. भग्न दिगम्बर जैन प्रतिमा : कई एक टूटी मूर्ति मिट्टी में पड़ी हुई दिख जाती है । एक तीर्थंकर मूर्ति का निचला भाग हमें देखने को मिलता है। पहले सारी मूर्ति कमल के ऊपर कायोत्सर्ग मुद्रा में खड़ी थी। दोनों तरफ २४ तीर्थंकरों की मूर्तियाँ खुदी हुई थी । टूटे हुए अंश के ऊपर की तरफवाली मुंह की स्थिति अब भी उतनी ही सुंदर है । उस अंश में गंधर्व-गंधवी और नीचे चामर पकड़ी हुई एक स्त्री और एक पुरुष मूर्ति नजर आती है । मूर्ति के एकदम नीचे दो हाथी की आकृतियाँ खुदी हुई है । इससे अनुमान किया जा सकता है कि यह तीर्थंकर अजितनाथ की मूर्ति रही होगी । बान्दा का देवालय पुरुलिया के पत्थर से बने देवालयों में पूर्ण स्थिति में बान्दा का देवालय खड़ा है। सरकारी देखरेख में होने के कारण और कालीसाधन दास नाम के संरक्षक के कारण इस देवालय का भाग्य दूसरे देवालयों में कहीं अच्छा है। रघुनाथपुर से जो सीधा रास्ता चेलियामा की तरफ चला गया है, उस पर से जाते समय बानादा गाँव पड़ता है । मूल सड़क से १. किलोमीटर के फासले पर यह देवालय बना हुआ है। देवालय से थोड़ी दूर पर ईंटों का विशाल खंडहर है । लगता है कि यहाँ पत्थर के देवालय के साथ-साथ कई ईंटों के भी देवालय बने थे जैसे पाड़ा, पाकबिड़रा, देउलघाटा में पाया जाता है। अभी ये सारे विलुप्त हो चुके हैं । फिर भी उनके खंडहर पड़े हुए हैं । यहाँ इस खंडहर को खोदने पर भी लगता है बहुत सारे पुरातात्त्विक अवशेष निकल आएगे । अभी भी इस इलाके में कुआ खोदने पर, घर की भीत काटने पर, पुराने समय की मुद्रा, औजार आदि निकल आते हैं । इन्हीं से प्रमाणित होता है यहाँ एक मानव सभ्यता विद्यमान थी। किसी भी कारणवश वे स्थानांतरित हो चुके हैं। अभी जो परिवार यहां बस रहे है, वे यहां के आदि निवासी नहीं है। वे तेलकूपी के निवासी है, किन्तु १९५७ में दामोदर वैली कॉरपोरेशन के पानी में तेलकूपी डूब जाने पर वहाँ के लोग यहां आकर बसने लगे। Page #291 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनत्व जागरण....... २८९ I बान्दा का देवालय, रेख शैली में बना देवालय है । एक विशाल पत्थर के अहाते पर देवालय खड़ा है । अहाता लगभग १५० फुट चौड़ा और २५० फुट लम्बा है । देवालय उत्तर दिशा की तरफ बना है । सामने का बड़ा बरामदा पत्थर से बना हुआ था, इसका कुछ अंश अब भी बरकरार है, पर काफी अंश पर अभी तैयारी होना बाकी है । लेकिन सम्पूर्ण अहाते को देखने से पता चलता है कि यह बरामदा कितना विशाल था । I देवालय के प्रवेश पथ की ऊँचाई ६.५ फुट है, चौड़ाई लगभग ३ फुट की है । चार बड़े पत्थर के टुकड़ों को खोदकर प्रवेश द्वार का निर्माण किया गया है । पत्थरों के पास रेखाएँ खुदी हुई है और उन पर चित्रकारी की गई है। कोई बाँसुरी बजा रहा है, कोई नृत्य कर रहा है आदि । परन्तु इनपर सीमेन्ट का लेप लगाए जाने के कारण ज्यादातर चित्र नष्ट हो चुके है । सरकारी कामकाज में संरक्षण के नाम पर प्राचीन संग्रहों को बिगाड़ने का अच्छा उदाहरण इससे मिलता है । I 1 I बान्दा का रेख देवालय अपनी भक्ति भूमि पर वर्गक्षैत्रीय है । नीचे के अंश का परिमाप लम्बाई व चौड़ाई में १४ फुट है । देवालय की अनुमान से ऊँचाई ७२ फुट है | बन्धना अंश के परवर्ती पत्थर के खंडों की आकृति स्तर पर काटे हुए कलश की तरह है । पत्थरों को ऐसी कुशलता से बिठाया गया है कि दोनों के बीच एक पतली छुरी भी नहीं जा पाती । नीचे के हिस्से में पत्थरों के जुड़ान ने लोहें की पिन जैसी जुड़ान औजारों का व्यवहार हुआ है, जिसे देखने पर आश्चर्य होता है कि उस जमाने में किस प्रकार बिना किसी उन्नत औजार के ऐसी वैज्ञानिक तरीकों से मंदिर बनाना संभव हुआ था । बान्दा के देवालय जैसे पाड़ा, तेलकूपी, देउलघाटा, बुधपुर, पाकबिड़रा आदि के देवालय बने हुए थे । लेकिन सरकारी नजर न पड़ने के कारण ये सारे देवालय सदा के लिए मिट चुके है । इनकी बनावट की वैज्ञानिक शैली भी बान्दा के देवालय जैसा ही था, इसका प्रमाण आज भी देखने को मिलता है । देवालयों के तीनों तरफ कलाकारी नजर में आती है । पहले हो सकता है, सामने देवी-देवताओं की मूर्ति बनी हुई थी या कलाकारी किये गये Page #292 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९० जैनत्व जागरण..... खंभे बनाए गये थे, जो अब नहीं है। लेकिन टूटे अंशों को देखकर इनके होने का आभास होता है । पूर्व दिशा के दीवार के निचले अंश में लगभग दो फुट ऊंचाई में एक हाथी का मुंह बना हुआ है। भीतर के जल निष्कासन के लिये इसका व्यवहार होता था । हाथी के मुंह से निकला पानी पत्थर के चहबच्चे में जमा होता था । अभी वह नहीं है । देउलघाटा, पाकबिड़रा तेलकूपी के देवालयों में भी ऐसी जल निष्कासन प्रणाली पाई जाती है । लेकिन हर तरफ ही हाथी का मुंह बना हो, ऐसी बात भी नहीं है । तीन दीवार के बन्धवा वाले अंश में तीन जगहें बनी हुए है । ये चौड़ाई में २ फुट और लम्बाई में ३ फुट है । ऊपर की तरफ पूर्व दिशा के दीवार . पर लता, फूल, पत्ते और डाल पर बैठा पक्षी खुदा हुआ है। फिर रेखा से अंकित नक्शा जैसा चित्र बना हुआ है। सबसे अंत में जो आमलक है, उसकी आकृति प्रस्फुटित कमल जैसी है और जिससे पाँच पद्म या कमल की आकृति के खंड को ऊपर एक ही साथ जोड़कर एक पूर्णांग रूप दान करता हुआ दिखाया गया है । इस तरह की शिला पुरुलिया के लगभग सभी खंडहरों में देखने को मिलती है। इस देवालय में फिलहाल लोहे का गेट लगाया गया है । जैसे पाकबिड़रा के देवालय में लगाया गया है। पूर्व से पश्चिम की दीवार की तरफ बनायी हुई एक वेदी । इसकी लम्बाई ६.५ फुट और चौड़ाई ३ फुट की है। फिलहाल वेदी पर सीमेंट लगवाकर इसकी प्राचीनता को नष्ट किया गया है । कई साल पहले तक देवालय के भीतर वेदी के सम्मुख पूरब दिशा की तरफ एक चौकोना सा गर्भगृह था, स्थानीय चरवाहे बाँस की लट्ठी को गड्ढे के भीतर घुसाकर उसकी गहराई नापते थे। अंदर क्या था आजतक हमें नहीं पता चला और यह बात काफी रहस्यमय सी प्रतीत होती है । लेकिन आज उस गर्भगृह के मुँह को बन्द कर दिया गया है । पत्थर और सीमेन्ट से ढंककर वह आँखों से ओझल हो गया । कक्ष के भीतर कोई खोदा हुआ अंश नहीं है, जिसमें चीजें रखी जा सके। बाहर से यह देवालय बड़ा लगते हुए भी भीतर से यह उतना विशाल नहीं लगता । इस समय भीतर किसी प्रकार की मूर्ति नजर नहीं आती । अंचल Page #293 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनत्व जागरण..... २९१ के लोगों के अनुसार जो मूर्तियाँ देवालय में थी, वे अनादर एवं आशातना से उत्पीड़ित हो रही थी। उनकी पूजा अर्चना नहीं होती थी । इस पर चोरबाजारूओं का हंगामा, मूर्ति, चुरानेकी कोशिश आदि बातों से परेशान गाँव वालों ने पास की पोखरी में सारी मूर्तियों को डाल दिया है । कईयों का मानना है कि स्थानीय चेलियामा गाँव के महामाया मंदिर में मूर्तियों को लाकर रखा गया है । यह ग्राम्य देवी का मंदिर है जो प्राचीन 'हो' जाति के लोगों द्वारा प्रतिष्ठित है । 'हो' की कुलदेवी महामाया थी। इस समय चेलिया में 'हो' जाति के लोग नहीं रहते पर उनके दिये गये नाम यथावत् रह गये हैं । यहाँ की पोखरियों के नामों के साथ 'हो' प्रयत्न युक्त हो चुका है जैसे- चाँदाहो, रावाहो, गवाहो, या राहो, कुयारी धहो, गलहो आदि । इस जाति का संधान हमें रांची और हजारीबाग जिलों में मिलता है । आज भी ये लोग अपने दिवंगत लोगों के अस्थि-विसर्जन करने के लिए हर साल तेलकूपी या करगाली के दामोदर घाट में आते है । दामोदर को वे गंगा के समान पवित्र मानते है जो भी हो-इस समय चेलियामा के महामाया मंदिर में एक सीमेंट से बने बंदी में जो मूर्तियाँ देखने को मिलती है, वे हैं .ऋषभदेव : यह मति खंडित है। सिर्फ सिर का अंश ही बचा हुआ है । फि भी मस्तक का आकार और आयतन देखकर अनुमान लगाया जा सकता है कि यह लगभग ४ फुट ऊँची मूर्ति रही होगी, जो कायोत्सर्ग मुद्रा में खड़ी रही होगी। दोनों तरफ तीर्थंकर की मूर्तियाँ खुदी हुई थी। पर आज सबकुछ नष्ट हो चुका है। ऋषभदेव प्रभु के खंडित मस्तक के साथ आभामंडल बना हुआ है। यह मूर्ति जनता की आँखों में शिव मूर्ति के रूप में ही परिचित है और हर दिन उसी प्रकार जलप्रवाह के साथ इसकी पूजा भी होती है। हो सकता है कि यही मूर्ति बान्दा के देवालयों में वेदी पर प्रतिष्ठित रही हो । • गजारूढ़ा : यह आकृति में छोटी है और हाथी पर आसीन है। मूर्ति लगभग नष्ट हो चुकी है, अनुशीलन से यह अजितनाथ की शासनदेवी ज्ञान होती है । बान्दा के देवालय में अजितनाथ की मूर्ति प्रतिष्ठित रही होगी। Page #294 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनत्व जागरण....... • तीर्थकर मूर्ति : लगभग २ फुट ऊँची दो तीर्थंकर मूर्तियाँ वेदी पर प्रतिष्ठित की गई है। दोनों ही मूर्तियों कायोत्सर्ग की मुद्रा में खड़ी है। दोनों तरफ दो और दो चार ऋषभनाथ की मूर्ति खुदी हुई थी । सिन्दूर का लेप पड़ते-पड़ते लांछन चिह्न पूरी तरह घिस चुके है । समझा नहीं जा सकता कि ये तीर्थंकर की मूर्तियां है । इनकी बनावट पाकबिड़रा या बारहमास्या की मूर्तियों जैसी थी । २९२ इन मूर्तियों के अलावे और विभिन्न सब मूर्तियों के टूटे अंश एक क्षय प्राप्त बैल की मूर्ति, गंधर्व-गंधर्वी के टूटे ढाँचे सब लाकर इस वेदी पर रखे गये है ये मूर्तियाँ षष्ठी मैया के नाम से ग्रामीण लोगों में पूजी जाती है। गाँव की महिलाएँ संतान - संतति की कामना से यहाँ मन्नतें माँगती है। दुखद रुप से यहाँ भी जैन देवी देवताओं का हिन्दुत्व में रूपांतरण हो चुका है पाड़ा का देवालय पुरुलिया शहर से ३० कि.मी. की दूर पर पाड़ा ग्राम बसा है। इसी गाँव में पुरुलिया की सबसे प्राचीन जैन संस्कृति के अवशेष के रूप में पत्थर से बना देवालय खड़ा है । काल की चपेट में मंदिर क्षय प्राप्त हो चुका है, जिससे आज उसका मूल रूप ही खो चुका है। प्राचीन मानभूम के इतिहास को टटोलने पर देखा जा सकता है कि अतीत में यह गाँव पंचकोट के राजाओं की राजधानी थी । ९६२ ई. के समयकाल में यह राजपरिवार पांचेत पहाड़ के पास उठकर चला आया । पाड़ा में इज़माएर नाम की जो विशाल पोखरी है, वह किसी प्राचीन राजा द्वारा प्रतिष्ठित की गई होगी । सम्भव है, कि पंचकोट राजाओं से पहले यहाँ मान राजाओं का शासन था । मान राजाओं के साथ पंचकोट के राजाओं की विरोधिता हुई । इससे मानराजाओं को स्थानान्तरित होना पड़ा । पंचकोट राजाओं की राजधानी के रूप में पाड़ा जाना जाता था । इसका प्रभाव गाँव के चारों तरफ बनी नाली को देखने से पता चलता है । फिलहाल वह भी नष्ट हो चुकी हैं। Page #295 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनत्व जागरण..... २९३ इस समय पाड़ा में तीन देवालय बने हुए है । इन पर नीचे आलोचना समीक्षात्मक व चिन्तनात्मक की जा रही है (१) ईंट का देवालय : यही देवालय सबसे प्राचीन है । इसकी ऊँचाई लगभग ४० फुट है । ऊपर के आमलक अंश का काफी सारा भाग नष्ट हो चुका है । ऊपर का कलश और ध्वजदंड भी लुप्त हो चुका है । लगता है पहले इसकी ऊँचाई ४५ फुट की थी । यह एक रेख देवालय है । इसकी निर्माण शैली में ओडिसी प्रभाव सुस्पष्ट है । सबसे बड़ी बात है कि सम्पूर्ण मंदिर पर ही आलंकारिक सजावट की गई है। आज उसमें से कुछ ही बचा है, बाकी सब गल चुका है । बहुतों का कहना है कि यह मंदिर कोर्णाक के सूर्य मंदिर जैसा अलंकृत था । अगर संरक्षण कियाजाता तो आज यह एक सर्वोत्कृष्ट पुरातात्विक आकर्षण होता । परन्तु उससे पहले ही सब कुछ खत्म हो चुका है । अभी भी नृत्य कर रही नारी, अपेक्षारत नारी, यक्ष-यक्षिण, चलता हुआ घोड़ा, गंगा, यमुना, द्वारपाल, कमल की पंखुड़ियाँ, चार पंखुड़ियों वाला फूल, 1. अतीत की कोई कहानी आदि को मंदिर में उकेरा गया है । इस देवालय की निर्माण प्रकृति लगभग बान्दा या तेलकूपी के मंदिर जैसा है, लेकिन यह आधा नष्ट हो चुका है, क्योंकि दूसरे देवालयों से यह अधिक प्राचीन है और इसके पत्थर तेलकूपी में प्रयोग किए प्रस्तरखंड़ों से अधिक नर्म है । हो सकता है, अलंकरणों के उकेरने की सुविधा के लिए ऐसे नर्म पत्थर इस्तेमाल में लाए गए हो । देवालय दक्षिण मुखी, द्वार पर कलाकारी से भरा कोई पत्थर का फ्रेम नहीं है । हो सकता है, पहले सामने की तरफ पत्थर का बरामदा हुआ करता था, जो आज नहीं 1 | पत्थर के बने विशाल स्तम्भ सारे नजर आते है । पाड़ा का यह देवालय जैनों द्वारा ही प्रतिष्ठित है । इसी कारण दूसरे देवालय जैसे इसके तीन तरफ तीन जगहें बनी हुई है | किसी तीर्थंकर या देवी - देवताओं की मूर्ति इनमें बहुत पहले रखी जाती थी, पर आज कुछ भी शेष नहीं है । प्रकोष्ठ के दोनों तरफ दो नारी मूर्ति चँवर हाथ में लिए खड़ी है । यह जैन स्थापत्य की एक विशेषता मानी जाती है । इसके साथ ही मंदिर पर नाना प्रकार I Page #296 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९४ जैनत्व जागरण..... के मनुष्य चेहरों को उकेरा गया है । इस देवालय के ऊपर की आमलक शिला, पुरुलिया के दूसरे देवालयों की शिलाओं से काफी छोटा है । इसका बाकी अंश भी आकार में छोटा है। (२) ईंट का देवालय : पहले कहे गए देवालय से थोड़ी ही दूर पर यह देवालय बसा हुआ है। इसका भी ऊपर का अंश नष्ट हो चुका है । बचे हुए अंश की ऊँचाई करीब ४५ फुट की है । इस देवालय की आकृति हुबहू देओलघाटा के देवालय से मिलती जुलती है । प्रवेश का द्वार त्रिकोणाकृति का है। पहले किसी समय चूने पर नाना प्रकार के आकृति और अलंकरण बनाए गए होंगे, पर उसका थोड़ा सा ही अंश बचा हुआ है । फिर भी जितना बचा है, उसकी सुंदरता पर हमें मुग्ध होना पड़ता है। मंदिर के अलंकरण को शिल्पकारों ने छोटे-छोटे देवालयों के रूप को ईंटों के द्वारा प्रस्फुटित किया है। रथ देवालय की आकृति जैसे है, और देवालय की अनुकृतियों को देवता की मूर्ति स्थापना के लिए व्यवहार में लाया गया है । लेकिन एकाधिक स्थानों के बीच वाली जगह ही सबसे बड़ी है। पाड़ा के ईंट के देवालय में जैविक चूने के लेप पर फूल, पत्ते, मोतियों की माला, देव-देवियों की मूर्ति, नक्शे आदि उकेरे गए हैं । शिल्पकारी के अनुपम उदाहरण के रूप में ताश के पत्ते जैसे चैत्य गवाक्ष को देखा जा सकता है। इन सबसे यह अनुमान किया जा सकता है कि देउलघाटा और पाड़ा के देवालय एक ही गोष्ठी के थे एवं लगता है वे समकालीन भी थे । दसवीं से ग्यारहवीं सदी के बीच वे रहे होंगे। इस समय पाड़ा के पत्थर से बने देवालय के भीतर कोई विग्रह नहीं दिखता, पर ईंट पर से बने देवालय के भीतर स्थित है एक षड़भुजा देवीमूर्ति । यह मूर्ति आकार में छोटी होते हुए भी एक गोल शिलापट पर खुदी हुई है। इस तरह की शिला तेलकूपी और भोगड़ा में नजर आती है। ये जैन आम्नाय की सम्यक्त्वी देवी सिद्ध होती हैं, परन्तु इस समय में उदयचंडी के नाम से आम लोगों द्वारा पूजी जाती है । हर मंगलवार धूमधाम से देवी की पूजा होती है । Page #297 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनत्व जागरण..... २९५ दुर्गापूजा के समय हर नवमी को यहाँ मेला बैठता है। (३) रघुनाथजी का मंदिर : पाड़ा गाँव के भीतर पश्चिम छोर पर कुइरी मुहल्ले में ईंट और पत्थर से बना एक मझौले आकार का मंदिर है । बाहर से देखने पर दो मन्दिर जैसा हमें लग सकता है। मंदिर का नीचे से आधा अंश पत्थर का बना है और ऊपर का अंश ईंट से बना है । मंदिर के प्रवेशद्वार पर अर्धवृत्त आकार के पत्थर का दरवाजा नजर आता है । उसके सामने जो खुला अंश है, वह असल में बरामदा है । दोनों मंदिर के शीर्षभाग ईंटों से बने है। और बड़े से सूक्ष्म होते हुए वृत्त आकार में ऊपर की तरफ उठकर बिन्दु में पहुँचकर शीर्ष का निर्माण किया थोड़ा सा भीतर जो कमरा अंधकार में है, वही असल में मूल मंदिर है। वहाँ एक बड़ी वेदी स्थापित है। पहले इस पर कोई मूर्ति रही होगी पर आज वेदी खाली पड़ी है। इस मंदिर के दरवाजे के ऊपर एक शिलालेख है, परन्तु निरन्तर लोगों के अत्याचार के कारण इसे पढ़ पाना मुश्किल होगा। इसके उद्धार होने पर बहुत सारी बातें सामने आएगी। फिलहाल यहाँ कृष्ण जन्माष्टमी के अवसर पर श्रीकृष्ण की मूर्ति बनाकर पूजी जाती है । अब मंदिर निर्माण के समयकाल पर आते है। दूसरे स्थानों की तरह, 'यहाँ भी कोई प्रामाणिक सत्र नहीं है। हमारा अनुमान है कि पाड़ा के पत्थर का देवालय नवीं सदी का है, और देउलपाड़ा के अनुकरण में तैयार किए गए पाड़ा के ईंटवाले देवालय का समयकाल दसवीं से ग्यारहवीं शताब्दी है। राधारमण मंदिर देखने से लगता है कि ये हाल ही में बना हुआ है। ऐसा भी हो सकता है कि पहले उस स्थान पर दूसरा कोई मंदिर होगा, जो प्राकृतिक कारणों से टूट जाने पर यह मंदिर और उसके ऊपर का हिस्सा पत्थर के अभाव में ईंट से ही बनाया गया था। इस मंदिर ने एक द्विरत्न मंदिर का रूप अर्जित किया है । ऐसी कहावत है कि मानसिंह के समय पुरुषोत्तम दास ने ही मंदिर बनाया था । ___जो भी हो, पाड़ा में वर्तमान समय में नहीं आई हैं कोई मूर्ति नजर न आई । लगता है, सारी मूर्तियाँ हटा ली गई है । जे. डी. बेगलार ने Page #298 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९६ जैनत्व जागरण..... ईंट के मंदिर में दशभुजा देवी की मूर्ति देखी थी । इस समय सब कुछ चला गया है। पुरुलिया से जिस हद तक मूर्तियाँ चोरी हुई है उसका कोई हिसाब नही है । दुःख की बात यह है कि इन्हें रोकने का भी कोई उपाय किसी के पास नहीं है। हा ग्रंथ में सहयोग का - प. पू. आ. भ. पुण्यरत्नसूरिजी म. सा. - श्री लताबेन बोथरा - श्री हीरालाल टुग्गड - श्री हिमांशु जैन (दिल्ही) - श्री अपूर्व शाह (नवरंग प्रिन्टर्स) - श्री कोबा जैन तीर्थ (ज्ञान मंदिर) - श्री गीतार्थ गंगा ज्ञान मंदिर पूर्वे प्रकाशित पुस्तक का - मन्त्रं संसार सारं (भाग १-५) - जम्बू जिनालय शुद्धिकरण - सूरिमंत्र कल्प संग्रह - इतिहास गवाह हैं - जैनागम सिद्ध मूर्तिपूजा History Says (English) - Lights (English) Page #299 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विश्व में चारो और फैली जैनशासन की धरोहर द्रोणगिरि सोनगिरि तीरुवनंतपुरम् बावनगजा मंदारगिरि आसम जबलपुर ग्वालीयर त्रीपुरा-त्रीनुर गोपालाचलं पर्वत नैनगिरि लाहोर तीरुमलाई तीरुमलाई जशवंतपुर Page #300 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विश्व में चारो और फैली जैनशासन की धरोहर क सक्कीम लंडन सम्राट् खारवेल शिलालेख, उत्कल (उड़ीसा) 2014 Theyren yeter P TULEVASTI ZA F Gadal SIM CA ( सराकक्षेत्र NA लिपि ब्राह्मी, भाषा मागधी, समय ई.पू. दूसरी शताब्दी King Muhameghevahana Kharvela of Kalinga and his Jain counol hat Udayagmri in the 13th year of his reign (2nd Century BC) • णमोकार महामंत्र का सबसे प्राचीन लिखित रूप विश्वका सबसे प्राचिन लेख अजमेर के पास दार्जीलींग गंगाशहर मुख्य मंदिर देवगिरि इंडोनेशीयासमुद्रमें जैन प्रभुजी बेल्लारी केरल हमाचलप्रदेश सीमोगा दोह सराकक्षेत्र Page #301 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विश्व में चारो और फैली जैनशासन की धरोहर कर्णाटक उदयगिरि रंगुन(म्यानमार) केरल श्रीलंका श्रीलंका महाराष्ट्र विध्याचल जम्म EUNCH सरक क्षेत्र-ओरिस्सा वियतनाम बदोह बोडो जंगल थाइलेंड बदाह Page #302 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विश्व में चारो और फैली जैनशासन की धरोहर विनsnapalinantlemania Fenengeroinecasisamananews नगरपारकर देराउर आत्मारामजी म.के चरण त मारोबाल पाकिस्तान रिया शनिवापी भगवासनन्दिर गुजरांवाला था जिस्मन्दिर में रीय मागाधिपति नारोवाल लाहोर म्युझीयम आत्मारामजी म.के चरण गुजरांवाला हिंगलाज माता कराचि विरिनियावाति नरल आया मान श्रीमद् विजयावन्न सूरीश्वरजी म.सा. मा (पाविनाय) म्यूमिमा माहियालयाका गुजरांवाला हैदराबाद रावलपींडी सियालकोट धाराकी क्वेटा Page #303 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विश्व में चारो और फैली जैनशासन की धरोहर वियेटनाम बर्मा थाइलेन्ड कुंडलपुर O मुडविद्री मठ थाइलेन्ड पुरुलिया लालमन्दिर दिल्ही मुडविद्री मठ चम्बलेश्वर बर्मा बावनगजाजी मुडविद्री मठ नेपाल LOVE लेह-काश्मिर Page #304 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विश्व में चारो और फैली जैनशासन की धरोहर लेह-काश्मिर तारणगिरि ज्हाजपुर दक्षीण भारत दक्षीण भारत मुंद्रा-कच्छ नेपाल ग्वालियर ग्वालियर ग्वालियर अफधानिस्तान इराक FONINGEENTIPANTARA MAOLHAILI BLORIRAMLAON तिबेट तिबेट तिबेट Page #305 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विश्व में चारो और फैली जैनशासन की धरोहर । FES अफधानिस्तान इराक तिरुमलाइ पेशावर विदिशा उमता प.बंगाल तीरुमलाइ उत्तरइराक HEESEE अफधानिस्तान मुडबिंद्री मठ तीरुपातुर लातुर उमता हिमाचलप्रदेश Page #306 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विश्व में चारो और फैली जैनशासन की धरोहर श्रीरंगपुरम् मालदिव्स खंडगिर थाइलेन्ड रशिया- होटल 4 इस्लामाबाद-पाकिस्तान दमोह-एम.पी. सुवर्णप्रभु धर्मस्थल श्रीसंगपुरा अंदामन द्विप श्रीलंका Vinagam बडोद हिंगलाजमाता- पाकिस्तान JOB DE अजीमगंज बाली द्वीप Page #307 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विश्व में चारो और फैली जैनशासन की धरोहर जावा-सुमात्रा लाओस इन्डोनेशीया-समुद्रमें इन्डोनेशीया-समुद्रमें इन्डोनेशीया-समुद्रमें इन्डोनेशीया-समुद्रमें HA JAN SANGATHA जावा-सुमात्रा देवगिरि श्रीनगर-काश्मीर तुर्कि प.बंगाल पंजाब ONE प.बंगाल झारखड बर्धमान-प.बंगाल Page #308 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विश्व में चारो और फैली जैनशासन की धरोहर तमिलनाडु बागान - बर्मा श्रीवत्सपुर महार सुवर्णमहोर- पाकिस्तान बांगलादेश तमिलनाडु - बर्मा बागान - रीसाल पाकिस्तान हस्तक काश्मीर असम कर्णाटक इन्डोनेशीया - समुद्रमें Ancient Jain Tirthankal idols found at Devagiri · देवगिरि बांगलादेश भूटान Page #309 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विश्व में चारो और फैली जैनशासन की धरोहर अजमेर शरीफ स्वर्णप्रभु - कंदहार म्युझीयम कंन्दहार म्युझीयम मोहेन्जोदडो ՈՐԴԻ पद्मनाभमंदिर- केरला ढाइ दिन का झोपडा- अजमेर भीलवाडा मांगी-तुंगी गोडी- थार- पाकिस्तान पद्मनाभमंदिर- केरला महाराष्ट्र हरप्पा तिरुपति बालाजी नैनगिरि Page #310 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विश्व में चारो और फैली जैनशासन की धरोहर गोविंदगिरि लाहोर म्युझीयम पंजाब तिबेट सीयोंग-चाइना उदेपुर के पास AN TIRTHANAF नेमावर अरुणाचल प्रदेश त्रीपुरा कंबोडीया (अंगकोरवाट) कंबोडीया (अंगकोरवाट) कंबोडीया (अंगकोरवाट) कंबोडीया (अंगकोरवाट) जावा-सुमात्रा जावा-सुमात्रा Page #311 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विश्व में चारो और फैली जैनशासन की धरोहर बंदा (ओरिस्सा) तामिलनाडु भीलवाडा के पास जावेरी लामिलनाडु अजमेर के पास अतिशय क्षेत्र नेमिनाथनेमगिरी जिर अजमेर अजमेर नागदा सांगानेर मीनाक्षी मन्दिर के पास कर्णाटक सियालकोट नेपाल तक्षशिला पाकिस्तान Page #312 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विश्व में चारो और फैली जैनशासन की धरोहर मांगीतुंगी मोंगोलीया मोंगोलीया श्रवणबेलगोडा मठ ग्वालीयर हस्पेश मठ साउथ इदमपुर तक्षशिला-पाकिस्तान अंगवारकोट अंगवारकोट खंडगिरि कुंभलगढ कुभलगढ आ. कुंद कुंद चरण Page #313 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विश्व में चारो और फैली जैनशासन की धरोहर लाहोर श्रीनगर श्री मुनिराज मनाचार्य समाधि स्थल आ. मानतुंग जहाजपुर वियतनाम MASSAGES विदिशा पुरालीया आ. मानतुंग बर्मा बर्मा बर्मा सयकक्षेत्र रत्नमय मन्दिर बर्मा नागदय Page #314 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विश्व में चारो और फैली जैनशासन की धरोहर SCOPE लातुर मीथीला कंदहार सराकक्षेत्र सराकक्षेत्र सराकक्षेत्र ISRO सराकक्षेत्र शिवलींगम् करांची-मनिर के अवशेष करांची-रणछोड लाइन । उद्धती अमन गुजरांवाला पावागढ प.बगाल Page #315 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विश्व में चारो और फैली जैनशासन की धरोहर दीबेह MMM कुतुब मीनार मालदीव्स अंगवरकोट कैलाश गिरि तीबेट कुव्वतुल इस्लाम मस्जिद कल-बरुलाम दास की गति मस्जिद के नाम से प्रसिद्ध यह इमारत भारत में स्थित प्राचीन मस्जिद है। इसके मध्य स्थि 232.9 सहन से चारों और दालान बने हैं जिसमें प्रयुक्त स्वम् तथा दूसरी राजा हिन्दू जैन इस मस्जिद का निर्माता कृष्टी रोचक ने से 1157 के चीर स्वाय मुख्य इमारत के सामने में साग इसमे टोपों पर की कुतुब मीनार को गई थी। 33 पाँव बाली - द्विप रत्नमय रत्नमय साउथ में प्राप्त बदेह बाली - द्विप रत्नमय हरियाणा Page #316 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विश्व में चारो और फैली जैनशासन की धरोहर सुवर्णप्रभु प. बंगाल अफधान जहाजपुर मदुराइ प. बंगाल धोलावीरा ( हरप्पन संस्कृति) करांची तीरुवंतपुर चाइना 74974 3 बांगलादेश ओरिस्सा करांची मदुराई चाइना Page #317 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विश्व में चारो और फैली जैनशासन की धरोहर आयाग पट्ट भीलवाडा क्वेटा शांतिनगर वयेतनाम इझरायल बोडो तीबेट ताइवान श्रीलंका दक्षिण भारत तक्षशिला पाकिस्तान साउदी अरेवीया बागान (बर्मा) गोविंदगिरि Page #318 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाराष्ट्र हरप्पा विश्व में चारो और फैली जैनशासन की धरोहर महाराष्ट्र श्रीकोद केरल अंगकोरवाट हरप्पा सागर (म. प्र. ) मांगीतुंगी बाली - द्विप तामिलनाडु जहाजपुर तामिलनाडु नेमावर अंगकोरवाट Page #319 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विश्व में चारो और फैली जैनशासन की धरोहर कझाकिस्तान इझरायल रशिया जावा - सुमात्रा रोहताक Cine कझाकिस्तान कुंबोडीपी जापान जावा - सुमात्रा शिवलींगम् लाओस रुझंगम सराकक्षेत्र बागान BA देवगिरि Page #320 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विश्व में चारो और फैली जैनशासन की धरोहर BAR PRE RE जम्मु मुडबीदी श्रीपुर ELIATRICTURE बर्मा कर्णाटक मोहे-जो-दडो इंगलेंड इंगलेंड अफघान हरियाणा अफघान सराकक्षेत्र सराकक्षेत्र सराकक्षेत्र उत्तरप्रदेश Page #321 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विश्व में चारो और फैली जैनशासन की धरोहर दशरधपुर बर्मा कैलाशगिरि बदनावर जर्मनी अंगविद्या प्रत (जर्मनी) श्री १००८ सकटहर बानाथ दिगंबर जन अतिशय क्षेत्र, जैनगिरी जटवाडा नायक पार्श्वनाथ जी व अन्य मनोहारी प्रतिमाचे जैनगिरि जावरा माइन्स कैलाशगिरि ओसिया माता जर्मनी महालक्ष्मी मन्दिरकोल्हापुर महालक्ष्मी मन्दिरकोल्हापुर सराकक्षेत्र सां Page #322 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विश्व में चारो और फैली जैनशासन की धरोहर सराकक्षेत्र सराकक्षेत्र सराकक्षेत्र यमनाभत्वामि मन्दिर धाराकी रत्नमय मन्दिर रत्नमय मन्दिर रत्नमय मन्दिर रत्नमय मन्दिर 2444 रत्नमय मन्दिर रत्नमय मन्दिर रत्नमय मन्दिर रत्नमय मन्दिर रत्नमय मन्दिर रलमय मन्दिर Page #323 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प.पू. आ. कनक-देवेन्द्र-कलापूर्णसूरि म. के आज्ञानुवर्तिनी प.पू. प्रवर्तिनी-महत्तरा सा.चंद्रोदयाश्रीजी महाराजजी को कोटीशः वंदना... HISTORICAL JAIN QUEEN The Queen of Spices Abbakka was a Jain Queen of Ullal ( Mangalore). She was infact the first Indian to fight the war of independence even before Rani Laxmibai. Even the Mughals & Portugals where afraid of her name, But she received rich encomiums from Persians and many Europeans including her enemies. She was also known as QUEEN OF SPICES. A fighter in war, she was noble at heart. She built many Jain temples. Labove-aJain Temple by Abbacca] Page #324 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रतापीपूर्वज कच्छ-मांडवी निवासी... कच्छी विशा ओसवाल ज्ञातिय... शेठ श्रीमानसंग भोजराजजी द्वारा हुए सत्कार्य. विक्रम संवत 1901, में प.पू.आ.रत्नसागरजी म.सा. का प्रेरणा से गिरनार मध्ये शेठ मानसंग भोजराज टोंक का निर्माण व शेठ मानसंग भोजराज धर्मशाळा का निर्माण (जो अभी दीगंबर जैनों के हाथ में है) जूनागढ़ गाँव में जिनमन्दिर का निर्माण व अंजनशलाका प्रतिष्ठा (गिरनार पर शेठमानसंग भोजराज टोक उपर सभी जिनबिम्बो की अंजन-प्रतिष्ठा जुनागढ गाँव में हुई थी) (प्रे.पू.आ. रत्नसागरजी म.सा.) (वि.सं.१९०१) - गिरनार से गोडी थार (थरपारकर-सींध, हाल पाकिस्तान) का भव्य संघ (वि.सं.१९०२) - देरानवाब (सींध) में प्रतिष्ठा (प्रे.पू.आ. जिनरत्नसूरिजी म.सा.) (वि.सं.१९०४)। - धराकी (सीध) अंजन-प्रतिष्ठा (प्रे. पू.आ. जिनरत्नसूरिजी म.सा.) (वि.सं.१९०४) - गुंजरावाला (यति की बडी पोशाल) प्रतिष्ठा (प्रे. पू.आ. जिनरत्नसूरिजी म.सा.) (वि.सं.१९०६) - कराची मन्दिर का निर्माण तथा प्रतिष्ठा (प्रे.पू.आ. रत्नसागरजी म.सा.) (वि.सं.१९०७) / - क्वेटा मन्दिर में प्रतिष्ठा (प्रे. पू.आ. जिनरत्नसूरिजी म.सा.) (वि.सं.१९०९) - गिरनार में जिनालय के गुप्तखंड में विशेष रत्नमन्दिर का निर्माण (2020 में व्यवस्था के कारणवश यह मन्दिर अन्यत्र सीफ्ट कीया गया है) (वि.सं.१९१०) - अजिमगंज में अंजनशलाका-प्रतिष्ठा (प्रे. पू.आ. जिनरत्नसूरिजी म.सा.) (वि.सं.१९१९) - जगतशेठ परिवार की मैत्री से सम्मेदशिखर, राजगिर, चंपापुरी, मुर्शिदाबाद में प्रतिष्ठा का लाभ मिला (वि.सं.१९१९) - जेसलमेर में जिनबिंब की प्रतिष्ठा (प्रे. पू.आ. जिनरत्नसूरिजी म.सा.) (वि.सं.१९२३) - लाहोर-पठानकोट में प्रतिष्ठा (प्रे. पू.आ. जिनरत्नसूरिजी म.सा.) (वि.सं.१९२५)। - सिद्धाचल तीर्थ पर 11 जिनबिंबो की प्रतिष्ठा (प्रे. पू.आ. रत्नसागरजी म.सा.) (वि.सं.१९२९) - गुजरांवाला बडी पोशाल का निर्माण (वि.सं.१९२६) (जहाँ पू.आत्मारामजी म.सा. का कालधर्म हुआ) - रावलपींडी में ज्ञानभंडार का निर्माण, पादुका की प्रतिष्ठा (प्रे. पू.आ. जिनरत्नसूरिजी म.सा.) (वि.सं. 1926) - 300 लहीआओ को रोजी देकर सुंदर साहित्य का लेखन, पू.आ.जिनरत्नसूरिजी म.सा. के पास करीब - 14,000 प्रतें लीखवाई जो रावलपीडी के ज्ञानमन्दिर में रखींहुई थी / (अभी लाहोर के म्युझीयम में सभी प्रते सुरक्षीत है) / - पू.आ. जिनरत्नसूरिजी म.सा. की महत्तम कृपा रही और प.पू.आ.रत्नसागरजी म.सा. का सदा साथ रहा [ आधार :- पू.आ. जिनरत्नसूरिजी म.सा. का रास, सींधतीर्थयात्रासंग्रह, कच्छी विशा ओसवाल वंशवेला, उज्जयंतगिरि-गिरनार तीर्थ (शेठ आणंदजी कल्याणजी पेढी द्वारा प्रकाशित), वंशसूचि पारिवारिक नोंध, प्राप्त हस्तपते व टब्बे, गिरनार तीर्थ, जैन तीर्थ सर्व संग्रह (भाग-१,२,३)]