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जैनत्व जागरण.....
८. जिनप्रतिमा का प्राचीन स्वरूप : एक
समीक्षात्मक चिंतन जैन परम्परा में अति प्राचीन काल से ही जिनमूर्ति-जिनप्रतिमाओं के निर्माण एवं पूजन की परम्परा रही है । वर्तमान समय में श्वेताम्बर परम्परा में मान्य तीर्थंकरों की सवस्त्र नेत्रयुक्त प्रतिमाएँ एवं दिगंबर परम्परा में मान्य तीर्थंकरों की पूर्ण अल ध्यानमग्न प्रतिमाएँ प्रचलित है । पुरातन काल की प्रतिमाओं में दोनों प्रकार की प्रतिमाओं के अवशेष प्राप्त होते हैं। किन्तु, यह एक समीक्षात्मक सत्य है कि श्वेताम्बर परंपरा भी पूर्वकाल में दिगंबर प्रतिमाओं को मान्य रखती थी । अनेकों प्राप्त दिगंबर प्रतिमाएं पूर्वकाल में श्वेताम्बरों द्वारा प्रतिष्ठित को मान्य रखती थी । अनेकों प्राप्त दिगंबर प्रतिमाएँ पूर्वकाल में श्वेताम्बरों द्वारा प्रतिष्ठित-पूजित थी। अतः दिगम्बर प्रतिमाओं के अवशेष मात्र दिगम्बर परम्परा से संबंध रखते है, ऐसा कहना अनुचित होगा । इस लेख जिनप्रतिमा के इसी प्राचीन स्वरुप पर अनुसंधान किया गया है ।
जिनभाषित मई २००३ के अंक में दिगम्बरों की 'जिन प्रतिमा की पहचान के प्रमाण' नामक सम्पादकीय आलेख के साथ-साथ डॉ. नीरज जैन का लेख दिगम्बर जैन प्रतिमा का स्वरूपः स्पष्टीकरण तथा दिगम्बर प्रतिमा के स्वरूप के स्पष्टीकरण की समीक्षा के रूप में पण्डित मूलचंद जी लुहाड़िया के लेख देखने को मिले ।
उक्त तीनों ही आलेखों के पढ़ने से ऐसा लगता है कि ऐतिहासिक सत्यों उनके साक्ष्यों को एक ओर रखकर केवल साम्प्रदायिक आग्रहों से ही हम तथ्यों को समझने का प्रयत्न करते हैं । यह तथ्य न केवल इन आलेखों से सिद्ध होता है अपितु उनमें जिन श्वेताम्बर आचार्यों और उनके ग्रन्थों के सन्दर्भ दिये गये है, उससे भी यही सिद्ध होता है । पुनः किसी प्राचीन स्थिति की पुष्टि या खण्डन के लिए जो प्रमाण दिये जाए उनके संबंध में यह स्पष्ट होना चाहिए कि समकालीन या निकट पश्चात्कालीन प्रमाण ही ठोस होते हैं । प्राचीन प्रमाणों की उपेक्षा कर परवर्ती कालीन प्रमाणों को सत्य मान लेना सम्यक प्रवृत्ति नहीं हैं। आदरणीय नीरज जी, लुहाड़िया जी एवं डॉ. रतनचंद्र जी जैन विद्या के गम्भीर विद्वान हैं। उनमें भी नीरज जी तो जैन पुरातत्व के तलस्पर्शी विद्वान् है। उनके द्वारा प्राचीन प्रमाणों की उपेक्षा हो, ऐसा विश्वास भी नहीं होता। ये लेख निश्चय ही साम्प्रदायिक