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________________ ११२ जैनत्व जागरण..... की उपासना नहीं करते थे । वस्तुतः वे अचेल मूर्तियों को ही पूजते थे। आज जो श्वेताम्बर परम्परा में मूर्तियों को जिस प्रकार सवस्त्र रूप से अंकन करने की परम्परा है, वह एक निश्चित ही परवर्ती परम्परा है और लगभग छठी शती से अस्तित्व में आई है ताकि मूर्तियों को लेकर विवाद न हो, इसी कारण से यह अंतर किया गया हैं । तथा मूर्तियों को आभूषण आदि से सज्जित करने, कॉच अथवा रत्न आदि की आखे लगाने आदि की जो परम्परा आई है, मूलः सहवर्ती हिन्दू धर्म की भक्तिमार्गीय परम्परा का प्रभाव हैं । आदरणीय श्री नीरजजी जैन, श्री मूलचंदजी लुहाड़िया और प्रो. रतनचंदजी जैन की चिंता के दो कारण है, प्रथम तो मूर्ति और मंदिरों को लेकर जो विवाद गहराते जाते है. उनसे कैसे बचा जाये और प्राचीन मंदिर और मूर्तियों को दिगम्बर परम्परा से ही सम्बद्ध कैसे सिद्ध किया जाये । उनकी चिंता यथार्थ है, किन्तु इस आधार पर इस ऐतिहासिक सत्य को नकार देना उचित नही होगा कि ईसा की पांचवी-छठी शती के पूर्व श्वेताम्बर परम्परा भी अचेल मूर्तियों की उपासना करती थी, क्योंकि मथुरा के कंकाली टीले से प्राप्त अभिलेख और चतुर्विध संघ के अंकन से युक्त अनेकों मूर्तियाँ इसके प्रबलतम साक्ष्य उपस्थित करती है, उन्हें नकारा नहीं जा सकता है। .. AUHANA N . 4 Jatil नर....
SR No.002460
Book TitleJainatva Jagaran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhushan Shah
PublisherChandroday Parivar
Publication Year
Total Pages324
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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