________________
जैनत्व जागरण...
को संसार चक्र से मुक्त करना, आध्यात्मिक पूर्णता को प्राप्त करना और दूसरे प्राणियों को भी इस मुक्ति और आध्यात्मिक पूर्णता से लिए प्रेरित करना और उनके साधना में दिशा प्रदान करना । तीर्थंकरों को संसार समुद्र से पार होने वाला और दूसरों को पार कराने वाला कहा गया है। वे पुरुषोत्तम हैं, उन्हें सिंह के समान शूरवीर, पुण्डरीक कमल के समान वरेण्य और गन्धहस्ती के समान श्रेष्ठ माना गया है । वे लोक के उत्तम, लोक के नाथ, लोक के हितकर्ता, दीपक के समान लोक को प्रकाशित करने वाले कहे गए हैं।
७२
जैन साहित्य में चौबीस तीर्थंकरों की मान्यता है । प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव से चौबीसवें तीर्थंकर महावीर का जीवन चरित्र एवं उनके पूर्वक भवों का वर्णन एक आत्मा के परमात्मा बनने का उदाहरण है । मानव भव को दुर्लभ माना गया है, क्योंकि आत्मा की मुक्ति मनुष्य भव में ही होती है । इसीलिए ये चौबीस तीर्थंकर कोई देवता नहीं बल्कि साधारण मानव थे । वे स्वयं के पुरुषार्थ से मानव से महमानव बने, पुरुष से महापुरुष बने । Mr. Neo Rating जो स्वयं को जैन कहलाना पसन्द करते थे उन्होंने अपने लेख ‘My decision for Jainism' में लिखा है- Mahavira, of all religious teachers, I feel closest to him. He was human like my self and nothing morin the beginning.
आगे उन्होंने लिखा है कि
"Instead of God becomes man we see that
in the person of Mahavira man becomes God."
लिखित रूप में सबसे प्राचीन साहित्य जो आज माना जाता है वे वेद हैं। वेदों का जो रूप हमें मिलता है वह मौलिक नहीं होकर संकलित वेद हैं । अत: मूल वेद उससे भी प्राचीन रहे होंगे । संकलित वेदों में जो उल्लेख मिलते है वे अवश्य ही उन प्राचीन मौलिक वेदों से लिये गये होंगे जो श्रुत में चले आ रहे थे । वेदों और पुराणों आदि में ऋषभ परम्परा के उल्लेख प्रचुर रूप से मिलते हैं । ऋग्वेद के गवेषणात्मक अध्ययन के आधार पर प्रसिद्ध विद्वान् श्री सागरमल जी ने 'अर्हत् और ऋषभवाची
1