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________________ जैनत्व जागरण...... ३० छः मुख वाले कार्तिकेय की मानव आकृतियों का रूप देकर शिव और पार्वती की संतान रूप कल्पना कर डाली । इस प्रकार शैव लोगों ने तांत्रिक उपासना के लिये संसार सहारक शिव के शिवलिंग को जननेन्द्रिय रुप में कल्पित करके संसार सर्जक बना डाला । कल्हाण ने राजतरंगणिनी में गणपति या गणेश का अर्थ गणों का अध्यक्ष बताया है । ऋग्वेद (२:२३:१) में श्री गणनाँत्वा गणपति उल्लेख किया गया है । जैनागमों में गण अर्थात् मुनियों के समूह और गण के नेता को गणधर कहा जाता है । प्रत्येक तीर्थंकर के गणधर होते थे तो सूंडवाले गणेश नहीं वरन् पूर्ण मानव थे । I भारतीय जीवन का प्रवाह सृष्टि के प्रारम्भ से आज तक जिन नियमों और नियन्त्रणों के सहारे चल रहा है वही संस्कृति का आदि स्रोत कहा जा सकता है और जो विश्व के विभिन्न प्रचलित धर्मों और संस्कृतियों का भी आदि स्त्रोत हैं । प्राचीनकाल से अविच्छिन्न रूप में चली आ रही यह जीवंत परम्परा आज भी जैन धर्म के रूप में विद्यमान है । यद्यपि जैन शब्द का प्रयोग ७वीं शताब्दी से प्रारम्भ हुआ परन्तु इसकी प्राचीनता ही इसकी विशेषता है । वर्तमान समय में संख्या में अल्प होते हुए भी इसका प्रभाव समस्त धर्मों और विश्व की सभी प्राचीनतम संस्कृतियों में परिलक्षित होता है। डॉ. ज्योति प्रसाद जैन के शब्दों में 'जैन धर्म ऐसी सनातन धार्मिक एवं सांस्कृकि परम्परा का प्रतिनिधित्व करता है जो शुद्ध भारतीय होने के साथ ही प्राय: सर्व प्राचीन जीवन्त परम्परा है। उसके उद्गम और विकासारम्भ का बीज सुदूर अतीत प्रागैतिहासिक काल में निहित है । मानव जीवन में कर्म युग के प्रारम्भ के साथ ही साथ इस सरल स्वभाव आत्मधर्म का भी आविर्भाव हुआ था ।' श्री अजितकुमार शास्त्री ने अपने लेख में लिखा है 'विश्व के सभी धर्मों का निरीक्षण एवं परीक्षण किया जाये तो जैन धर्म की सत्ता सबसे प्राचीन सिद्ध होती है तदनुसार जैन संस्कृति संसार में प्राचीनतम है ।' इतिहासकारों की भूल इतिहास अपने युग का दर्पण होता है । जिस काल की जैसी परिस्थिति
SR No.002460
Book TitleJainatva Jagaran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhushan Shah
PublisherChandroday Parivar
Publication Year
Total Pages324
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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